याद आ गई
अल्हड़ अठखेली
शिशु की बोली !
मेरा जहान
मिठास भरी शान
प्यारा अहान !
खिला विहान
हँस पड़ा जहान
मिला अहान !
तीसरी पीढ़ी
खुशियों की हो सीढ़ी
ईश कृपालु !
भोले का हाथ
अहान तेरे माथ
रहेगा साथ ! #निवी
"आंखों" के झरोखों से बाहर की दुनिया और "मन" के झरोखे से अपने अंदर की दुनिया देखती हूँ। बस और कुछ नहीं ।
याद आ गई
अल्हड़ अठखेली
शिशु की बोली !
मेरा जहान
मिठास भरी शान
प्यारा अहान !
खिला विहान
हँस पड़ा जहान
मिला अहान !
तीसरी पीढ़ी
खुशियों की हो सीढ़ी
ईश कृपालु !
भोले का हाथ
अहान तेरे माथ
रहेगा साथ ! #निवी
विभा जैसे ज़िंदगी की जद्दोजहद से उबर कर शांत हो चुकी थी । वैभव की तरफ देखते हुए उसने पूछा ,"ले आये न ... कोई दिक्कत तो नहीं हुई न ... कोई उल्टे सीधे प्रश्न तो नहीं किये गए तुमसे ? "
वैभव ने इंकार में सिर हिलाया । दोनों शांत बैठे ,बालकनी से झूमते पेड़ - पौधों को देखते रहे । सभी चीजें यथावत थीं । पंछियों का कलरव गुंजित हो रहा था ,दोस्तों संग बच्चे भी खेल रहे थे । वो वहाँ हैं या नहीं, इस पर जैसे किसी का भी ध्यान ही नहीं जा रहा था ।
"विभा ! हम सही कर रहे हैं न ... तुम चाहो तो एक बार और सोच लो ,कहीं ऐसा न हो कि मेरा साथ देने के चक्कर में तुम हड़बड़ी कर रही हो ",वैभव ने विभा का हाथ थामते हुए कहा ।
विभा की आँखों में शून्य फैलता गया ," नहीं वैभव यह निर्णय हमारा है, हममें से किसी एक का नहीं । जीवन के प्रत्येक उतार चढ़ाव में हम साथ रहे हैं ,फिर अब यह संशय क्यों कर रहे हो ? जानते हो अब से पहले मेरे मन में हर पल एक उलझन ,एक डर भरी उत्तेजना रहती थी ,परन्तु अब इस पल में सब कुछ इतना शांत और स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि किसी भी तरह के पुनर्विचार के लिए स्थान बचा ही नहीं । सच पूछो तो अभी बस एक विचार गूँज रहा है कि ऐसी शान्ति पहले क्यों नहीं थी ! पर छोड़ो ,अब सब ठीक है । "
थोड़ी देर तक सिर्फ सन्नाटा ही अपने पर फड़फड़ाता रहा । अचानक ही वैभव घुम कर पूछ बैठा ,"सब के पैसे तो दे दिए हैं कि नहीं ... कुछ बचा क्या ?"। विभा के अधरों पर हल्की सी स्मित लहरा गयी ,"ज़िन्दगी के इतने सारे उधार चढ़ गए हैं कि बस किसी प्रकार सबका हिसाब कर दिया । अभी भी थोड़े ... बहुत थोड़े पैसे बचे रह गए हैं । बताओ मैं किसी का हिसाब भूल रही हूँ क्या ? "
उसने सारी दुनिया का प्यार आँखों में भर कर विभा को देखा ,"ज़िन्दगी से तो पहले भी बहुत कुछ बड़ा सा नहीं चाहा था और अब भी एक बहुत छोटी सी चाहत जग गयी है । आज आखिरी बार तुम्हारे साथ तुम्हारी पसन्दीदा दुकान पर तुमको गोलगप्पे खिलाना चाहता हूँ । "
एक निश्चय भरे विश्वास से विभा ने वैभव का हाथ पकड़ा और वो दोनों घर से निकल गए । आज सड़क पर कुछ ज्यादा ही भीड़ थी ,आज प्रतिमा विसर्जन का दिन जो था । सभी तरफ़ अबीर और गुलाल के बादल उड़ रहे थे । कहीं - कहीं तो सिंदूर खेला जा रहा था । आसपास के पण्डालों के सामने गाड़ियाँ खड़ी थीं प्रतिमाओं को लेकर जाने के लिए । सच ईश्वर भी जब स्थूल रुप से इस पृथ्वी पर आते हैं तब उनको जाना ही पड़ता है ,फिर इन्सानों की क्या बात करें ,यही सोचते दोनों चौराहे से मुड़ने को हुए ही थे कि सामने से आती ट्राइसिकल से टकरा गए । उन्होंने उठते हुए देखा कि उस ट्राइसिकल पर बैठा व्यक्ति स्वयं को सम्हालने के स्थान पर उनको सम्हालने के लिए हाथ बढ़ा रहा था । झुंझलाहट से भरे वैभव ने उस पर अपनी भड़ास निकालनी चाही कि पहले वह खुद को सम्हाले तब उनकी सहायता करे । वह व्यक्ति हँस पड़ा ,"अरे भाई ! यदि किसी की सहायता करने से पहले स्वयं के उठने की राह देखूँगा तब तो मैं किसी की भी सहायता कर ही नहीं पाऊँगा । मैं तो दिव्यांग हूँ और कभी भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता । "
उसको देख कर वैभव और विभा विस्मय से भर उठे ,"इतने विवश हो कर भी तुम हमको उठाने का साहस कैसे कर ले रहे हो !"
वह हँस पड़ा ,"एक समय था जब नौकरी छूटने और सब कुछ गवां कर ,परेशान हो कर स्वयं को समाप्त करने निकल पड़ा था और यही सोच रहा था कि मैं तो एक बहुत मामूली सा आम आदमी हूँ जिसके रहने अथवा न रहने से किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और कोई कभी याद भी नहीं करेगा ... पर जानते हो मैं मर नहीं पाया । स्वयं को समाप्त करने के प्रयास में हुई दुर्घटना में मेरे पैर बेकार हो गए । मैं और भी लाचार हो गया परन्तु तभी कुछ ऐसे अपने ,जिनके बारे में मैं सोचना भी भूल गया था , उन की आँखों में छलकती हुई नमी ने मेरे राह को नमी की दृढ़ता दी । मुझे समझ आया कि जानेवाला तो एक पल में ही चला जाता है परन्तु बहुत से लोगों की यादों में ज़िन्दगी भर की नमी दे जाता है । बस उसी पल मैंने शून्य से प्रारम्भ किया ... और देखो आज बिना किसी संकोच के चौराहे पर अगरबत्ती बेच रहा हूँ । हँस भी रहा हूँ और गिरने के बाद स्वयं से पहले दूसरों को उठाने का प्रयास करता हूँ । मेरी छोड़ो तुम लोग बताओ कहाँ जाना है ? मैं तुम लोगों को वहाँ तक ले चलता हूँ ।"
विभा और वैभव ने एक दूसरे को देखा और बोल पड़े ,"दोस्त ! अब हमको ज़िन्दगी की तरफ़ जाना है ।" #निवी
प्यार भरी हुई इक बात
खुशियों की हुई बरसात !वो सर्द होती गुलाबी सी रंगत
चाहत उलझी हुई उंगलियों की
उन झुकती सी नम पलकों की
सपनीली सी गुनगुनी है कशिश
रेशम सी उलझती है अलकों से
ओस सी बरसती हुई चन्द बूंदे
सुनो ! ये कौन सी है ऋतु अब आयी
उष्ण हो जाती इन सिहरती रातों की
सर्द होते जाते हैं गुलाबी से अहसास
हमसाया हैं तुम्हारे तप्त जज़्बातों के ! #निवी
माँ लक्ष्मी आईं
खुशियाँ बरसायीं#जय_माँ_शारदे 🙏
लघुकथा : तीन घर
सात वर्ष का सुमेर खेल के मैदान में खड़ा हो कर भी जैसे वहाँ नहीं था । बहुत देर से उसका अनमनापन देख रहे सौम्य सर उसके पास आ गए ,"चैम्प ! तुम्हारा आज खेलने में मन नहीं लग रहा है क्या ? कोई बात नहीं आओ हम बैडमिन्टन खेलते हैं ... खेलोगे न मेरे साथ !"
जब से सुमेर हॉस्टल में रहने आया ,तभी से उसकी खोई - खोई सी मासूमियत ने हॉस्टल - वॉर्डन सौम्य को उसकी विशेष देखभाल के लिए एक तरह से विवश कर दिया था ।
बहुत प्रयास करने पर भी ,सुमेर ने बैडमिंटन कोर्ट तक का रास्ता सन्नाटा जगाती सी चुप्पी में ही पार किया ,तब सौम्य घबरा गया और रास्ते की बेंच पर ही उसके साथ बैठ गया और फिर से एक अनथक सा प्रयास शुरू किया ।
सुमेर भी जैसे अपने अकेलेपन से टूटता जा रहा था । उसने सौम्य से नज़रें चुराते हुए पूछा ,"माता पिता अपने तलाक़ से पहले बच्चों से पूछना या उनको समझना जरूरी क्यों नहीं समझते ? "
सौम्य का दिल दहल गया और उसने सुमेर को बाँहों के सुरक्षित दायरे में समेट लिया । सुमेर की पलकें नम होती चली गईं ,"सर ! तलाक के बाद एक घर अक्सर तीन घरों में बँट जाता है ... दो मम्मी - पापा के और तीसरा ऐसा ही कोई हॉस्टल !" #निवी
मन्ज़िल
विभा जैसे ज़िंदगी की जद्दोजहद से उबर कर शांत हो चुकी थी । वैभव की तरफ देखते हुए उसने पूछा ,"ले आये न ... कोई दिक्कत तो नहीं हुई न ... कोई उल्टे सीधे प्रश्न तो नहीं किये गए तुमसे ? "
वैभव ने इंकार में सिर हिलाया । दोनों शांत बैठे ,बालकनी से झूमते पेड़ - पौधों को देखते रहे । सभी चीजें यथावत थीं । पंछियों का कलरव गुंजित हो रहा था ,दोस्तों संग बच्चे भी खेल रहे थे । वो वहाँ हैं या नहीं, इस पर किसी का जैसे ध्यान ही नहीं जा रहा था ।
"विभा ! हम सही कर रहे हैं न ... तुम चाहो तो एक बार और सोच लो ,कहीं ऐसा न हो कि मेरा साथ देने के चक्कर में तुम हड़बड़ी कर रही हो ",वैभव ने विभा का हाथ थामते हुए कहा ।
विभा की आँखों में शून्य फैलता गया ," नहीं वैभव यह निर्णय हमारा है, हममें से किसी एक का नहीं । जीवन के प्रत्येक उतार चढ़ाव में हम साथ रहे हैं ,फिर अब यह संशय क्यों कर रहे हो ? जानते हो अब से पहले मेरे मन में हर पल एक उलझन ,एक डर भरी उत्तेजना रहती थी ,परन्तु अब इस पल में सब कुछ इतना शांत और स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि किसी भी तरह के पुनर्विचार के लिए स्थान बचा ही नहीं । सच पूछो तो अभी बस एक विचार गूँज रहा है कि ऐसी शान्ति पहले क्यों नहीं थी ! पर छोड़ो ,अब सब ठीक है । "
थोड़ी देर तक सिर्फ सन्नाटा ही अपने पर फड़फड़ाता रहा । अचानक ही वैभव घुम कर पूछ बैठा ,"सब के पैसे तो दे दिए हैं कि नहीं ... कुछ बचा क्या ?"। विभा के अधरों पर हल्की सी स्मित लहरा गयी ,"ज़िन्दगी के इतने सारे उधार चढ़ गए हैं कि बस किसी प्रकार सबका हिसाब कर दिया । अभी भी थोड़े ... बहुत थोड़े पैसे बचे रह गए हैं । बताओ मैं किसी का हिसाब भूल रही हूँ क्या ? "
उसने सारी दुनिया का प्यार भरी आँखों से विभा को देखा ,"ज़िन्दगी से तो पहले भी बहुत कुछ नहीं चाहा था और अब भी एक बहुत छोटी सी चाहत जग गयी है । आज आखिरी बार तुम्हारे साथ तुम्हारी पसन्दीदा दुकान पर तुमको गोलगप्पे खिलाना चाहता हूँ । "
एक निश्चय भरे विश्वास से विभा ने वैभव का हाथ पकड़ा और वो दोनों घर से निकल गए । आज सड़क पर कुछ ज्यादा ही भीड़ थी ,आज प्रतिमा विसर्जन का दिन जो था । सभी तरफ़ अबीर और गुलाल के बादल उड़ रहे थे । कहीं - कहीं तो सिंदूर खेला जा रहा था । आसपास के पण्डालों के सामने गाड़ियाँ खड़ी थीं प्रतिमाओं को लेकर जाने के लिए । सच ईश्वर भी जब स्थूल रुप से इस पृथ्वी पर आते हैं तब उनको जाना ही पड़ता है ,फिर इन्सानों की क्या बात करें ,यही सोचते दोनों चौराहे से मुड़ने को हुए ही थे कि सामने से आती ट्राइसिकल से टकरा गए । उन्होंने उठते हुए देखा कि उस ट्राइसिकल पर बैठा व्यक्ति स्वयं को सम्हालने के स्थान पर उनको सम्हालने के लिए हाथ बढ़ा रहा था । झुंझलाहट से भरे वैभव ने उस पर अपनी भड़ास निकालनी चाही कि पहले वह खुद को सम्हाले तब उनकी सहायता करे । वह व्यक्ति हँस पड़ा ,"अरे भाई ! यदि किसी की सहायता करने से पहले स्वयं के उठने की राह देखूँगा तब तो मैं किसी की भी सहायता कर ही नहीं पाऊँगा । मैं तो दिव्यांग हूँ और कभी भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता । "
उसको देख कर वैभव और विभा विस्मय से भर उठे ,"इतने विवश हो कर भी तुम हमको उठाने का साहस कैसे कर ले रहे हो !"
वह हँस पड़ा ,"एक समय था जब नौकरी छूटने और सब कुछ गवां कर ,परेशान हो कर स्वयं को समाप्त करने निकल पड़ा था और यही सोच रहा था कि मैं तो एक बहुत मामूली सा आम आदमी हूँ जिसके रहने अथवा न रहने से किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और कोई कभी याद भी नहीं करेगा ... पर जानते हो मैं मर नहीं पाया । स्वयं को समाप्त करने के प्रयास में हुई दुर्घटना में मेरे पैर बेकार हो गए । मैं और भी लाचार हो गया परन्तु तभी कुछ ऐसे अपने ,जिनके बारे में मैं सोचना भी भूल गया था , उन की आँखों में छलकती हुई नमी ने मेरे राह को नमी की दृढ़ता दी । मुझे समझ आया कि जानेवाला तो एक पल में ही चला जाता है परन्तु बहुत से लोगों की यादों में ज़िन्दगी भर की नमी दे जाता है । बस उसी पल मैंने शून्य से प्रारम्भ किया ... और देखो आज बिना किसी संकोच के चौराहे पर अगरबत्ती बेच रहा हूँ । हँस भी रहा हूँ और गिरने के बाद स्वयं से पहले दूसरों को उठाने का प्रयास करता हूँ । मेरी छोड़ो तुम लोग बताओ कहाँ जाना है ? मैं तुम लोगों को वहाँ तक ले चलता हूँ ।"
विभा और वैभव ने एक दूसरे को देखा और बोल पड़े ,"दोस्त ! अब हमको ज़िन्दगी की तरफ़ जाना है ।" #निवी
जब भी यात्रा की बात होती है ,तब सबसे पहली याद जिस स्थान की यात्रा की आती है ,सम्भवतः उस स्थान का नाम भी बहुत कम लोगों को ही पता होगा । यह भी बहुत बड़ा सच है कि उस यात्रा के बाद अनगिनत स्थानों पर गई हूँ पर उतना आनन्द और रोमांच किसी बार भी नहीं मिला । आज यात्रा की बात ने फिर से यादों के गलियारे उन्ही लम्हों की धूल बुहार दी ।
जमींदारी समाप्त होने के दौर में पुरखों की जमींदारी का विशाल साम्राज्य सिमटते हए ,बाबा के समय तक एक गाँव मलौली ,जो कि गोरखपुर के पास ही था ,तक पहुँच गया था । वहाँ की हमारी पुरखों की डेहरी से मम्मी को बहुत लगाव था । जीर्णोद्धार कहना या सोचना भी उनको असम्भव कल्पना लगती थी ,तो उनके मन में उस को सँवारने की प्रबल इच्छा जगी और उसको पूरा भी किया ।
देहरी पूजने जाने का कार्यक्रम भी वृहत स्तर पर बना । सभी रिश्तेदारों को बलिया ,उस समय पापा वहाँ पोस्टेड थे बुलाया गया और सबके साथ यात्रा हुई । मैं बहुत ही छोटी थी और सिर्फ़ इतना ही समझ आया कि बाबा ,जो कि तब तक गोलोकवासी हो चुके थे ,के पैर छूने जाना है ।
आज से दशकों पहले की बात है कई कार की व्यवस्था हुई और उससे हम सब बलिया से गोरखपुर की कौड़ीराम तहसील पहुँचे । उसके बाद मलौली तक का रास्ता हमको बैलगाड़ी ,पालकी और रथ पर करना था । सभी स्त्रियाँ पालकी में , बाकी के सब रथ पर और सामान बैलगाड़ी पर और इस पूरे काफ़िले को अपने सुरक्षा घेरे में ले कर ,बड़ी - बड़ी लाठियाँ लिए हुए लठैत चल रहे थे । पहले तो मुझे भी पालकी में ही बैठाया गया था परन्तु मेरे बालमन को रथ का लालच जगा और भाइयों के साथ मैं भी वहीं पहुँच गयी । सारे रास्ते आनेवाले पेड़ - पौधों के बारे में पूछ - पूछ कर अपने जंगली कक्का का दिमाग उलझाये रखा मैंने और वो भी मजे लेते मेरी जिज्ञासा शांत करते रहे ।
पुरखों की डेहरी पहुँचने पर वहाँ उमड़े लोगों का प्यार और सम्मान का भाव मुझ नासमझ को भी अभिभूत कर गया । जब तक हम वहाँ रहे उनलोगों ने हमें अपनी पलकों पर रखा । पापा मम्मी ने भी उनकी बहुत सारी समस्याओं को सुलझाया ।
वापसी की यात्रा भी इतनी ही रोमांचक थी परन्तु कहीं न कहीं विछोह का भाव हमारे दिलों से उमड़ कर पलकों के रास्ते बह चला था ।
सम्भवतः मैं अपनी अन्तिम साँस तक इस यात्रा के अनुभव और वहाँ मिले दुलार को कभी भूल नहीं पाऊँगी । #निवी
कितना सफर है बाकी
कहाँ तक चलना होगा
कहाँ ठिठकनी है साँस
बांया ठिठका रह जायेगा
या दाहिना चलता जायेगा !
फिर सोचती हूँ
क्यों उलझ के रह जाऊँ
गिनूँ क्यों साँस कितनी आ रही
आनेवाली साँस को नहीं बना सकती
गुनहगार जानेवाली साँस का !
ऐ ठिठकते कदम !
गिनती भूल चला चल
पहुँचने के पहले क्यों सोचूँ
अभी बाकी कितनी है मंज़िल !
जब तक चल सकें चलते रहें
सुर - ताल का अफसोस क्यों करें
थामे हाथों में हाथ रुकना क्या
तुम रुको तो मैं चलूँगी
मैं रुकूँ तो तुम चलना
सफ़र तो सफ़र ही है !
सफ़र मंज़िल की नहीं सोचता
सफ़र तो बस देखता है राही
चलो हमराही बन चलते जायें
मंज़िल जब आनी है
आ ही जायेगी
क्षितिज पहला कदम किसका क्यों सोचें ! #निवी
आज सुबह सुबह बचपन की गलियाँ मन से चलती हुई आँखों पर पसर गयीं हैं, जैसे रातभर का सफर करती आयीं हों ...
याद आ रही है नानी माँ की बनाई गुड़िया जिसको सहेजे पूरे घर में फुदकती रहती थी ... भाई को पढ़ाने आनेवाले चाचा ( तब घर आनेवाला कोई भी व्यक्ति चाचा / मामा / भइया / दीदी / चाची / बुआ ही होते थे सर या मैम नहीं ) जो भाई को पढ़ाते पढ़ाते आवाज देते " क से ... " और मैं जहाँ भी होती चिल्लाती "कबुत्तर ,उड़ के गया उत्तर " ... थोड़ी ही पल बीतते फिर से उनकी आवाज आती "ख से ...." और मैं फिर दुगने जोश से "खड़ाऊँ ,पहन जाऊँ खाऊँ .... " और इस तरह पूरी वर्णमाला बिना स्लेट चॉक को हाथ लगाये रट गयी थी ।
याद आ रही हैं कक्को बर्तन माँजते माँजते उठ कर मम्मी के पास जाती ,"दुलहिन तनी ऊन दिहल जाए ... " फिर झाड़ू की दो मजबूत दिखती सींक निकाल मुझे थमा स्वेटर बुनना सिखातीं और मैं छोटी छोटी उंगलियों से बुनने की कोशिश करती उनकी पीठ से सटी हुई । सींक टूटते ही फिर से नई सिंक मिलती ...
अरे हाँ .... गामा काका को कहाँ भूल सकती हूँ ... हमारे गाँव के थे घर में सहायक ,दरवाजे पर कौन आया देखने वाले । जब भी वो भर परात ,जी हाँ थाली में नहीं परात में ही ,खाना खाने बैठते तब मैं भी मम्मी से जिद करती मेरा खाना भी वैसे ही भर परात परोसा जाए । मम्मी बहला कर ले जाती ,पर मेरी जिद .... और एक दिन काका ने कहा ,"चाची बहिनी के छोड़ देईं " और अपना खाना उन्होंने मेरी तरफ सरका दिया ,"पहले बहिनी खा लें तब खा लेब ..." मम्मी ने टोका कि खाना जूठा हो जाएगा ... काका का जवाब आज भी याद है ,"नाहीं चाची बहिनी क खाइल त परसाद होइ ... "
जंगली बब्बा ,हमारे यहाँ खेत में काम करते थे ,को भी मम्मी गाँव से लायीं थीं कि इतने बुजुर्ग हैं ,इनको भी आराम करना चाहिये और ये गाँव मे तो बैठेंगे नहीं पर यहाँ हम बच्चों में व्यस्त रहेंगे । कभी वो अमरूद के बीज निकाल कर छोटे छोटे टुकड़े कर खिलाते तो कभी गन्ना छील कर उसको चूसना सिखाते ,जब हम उसको तोड़ न पाते तो उसके भी छोटे टुकड़े कर देते थे । मम्मी के धमकाने की परवाह किये बिना ,उनकी पीठ पर लदी उनसे गाना सुनती थी । सीता जी का विदाई गीत अक्सर गाते और भीगी पलकों से मुझे निहारते कहते ,"बबुनी रउवां जब ससुरे जाइब त हम कइसे रहब .. "
सच बचपन की याद में मम्मी ,पापा ,भाइयों के साथ इन रिश्तों का भी बसेरा है ,जो आज भी बहुत याद आता है .... #निवी
सब पूछते रहते
सुनो न !उमगती है आँधी ,उजड़ता है उपवन
जब रिसती हैं आँखें, बरसता है मन !
डगर रीत की , याद मीत की
टेसू उजाड़ गये ,हार जीत की
बंसरी मूक हुई ,साँवरे छुप गए
सिसकती है राधा ,सोच प्रीत की !
कसकती हैं यादें ,छलकता है जतन
जब रिसती हैं आँखें, बरसता है मन !
माटी है मिलती ,माटी है गलती
काया की माया ,हर पल है छलती
चक्र चलता गया ,जीव छलता गया
नहीं कोई गलती ,तब भी है गलती !
बरसती हैं साँसें ,सहमता है तन
जब रिसती हैं आँखें, बरसता है मन !
कच्चा है तन ,साया है बाँस का
पल पल है छीजे ,छाजन आस का
बोझ है भारी ,सम्हाले है गठरी ,
राह देखे है #निवी उस खास का
बिलखती चंदनिया ,बिछुड़ता सजन
जब रिसती हैं आँखें, बरसता है मन !
#निवी
जाँच आँखों की जारी थी
टेस्ट दर टेस्ट न जानेदिलों को दुखाना महारत नहीं है
मेरी आज तक भी अदावत नहीं है ।
मुलाकात की बात हम भी क्यूँ करते
यूँ मिलने मिलाने की आदत नहीं है ।
शिकायत करें हम कहाँ तुम से झूठी
बड़ी खुद से कोई अदालत नहीं है ।
बग़ावत जमाने से हम करते कैसे
हसीनों की ये तो रवायत नहीं है ।
सियासत है करता दिलों से ज़माना
#निवी की भी किस्मत शहादत नहीं है । #निवी
अवगुंठन की ओट में ,गोरी खड़ी लजाये
दूर देश प्रीतम गए ,ना जाने कब आये !
हथेली हिना हँसने लगी ,चूड़ी खनक जाये
पाँव महावर खिल गये ,पायल गुनगुन गाये !
ऋतु बसन्त की आ गयी ,मदन चलाये तीर
अँखियों में सपने सजे , भूल गयी सब पीर !
कली मोगरे की खिली ,केशों में जा सँवरी
सम्मुख प्रिय को देखती ,सकुचाई कुँवरी !
साजन को देख सामने ,सोचती नयन झुकाय
सृंगार अब मैं क्या करूँ ,सज रही पी को पाय ! #निवी
तुझसे मिलने माँ !
उस पार मुझे अब आना है ,
उस क्षितिज के पार
जहाँ तेरा आशियाना है !
अंगुली पकड़ चलना सिखलाया
साध रखूँ कदमों को बतलाया
सफर बीच हों कितने भी काँटे
तेरा आशीष लगे हमसाया
जीवन यात्रा में
तेरी वीणा बन जाना है !
पास नहीं पाती हूँ अब तुमको
हर पल मैं खोज रही हूँ तुमको
थके - थके रहते नयना व्याकुल
टेरते सदा रहते बस तुमको
तेरी छाया बन
चलते ही मुझको जाना है ! #निवी
लघुकथा : आवाज़ की सीलन
क्या हुआ ?
कुछ नहीं ।
फिर ...
हूँ !
तुम्हारी आवाज़ क्यों इतनी भीगी सी है ?
आवाज़ की ख़ामोशी में ,वज़ह की सीलन भी जज़्ब है । #निवी
मन बावरा है न
आज चाँद बनने को मचल पड़ा
मानो माँ की उंगली थामे
उचका था बचपन चाँद पकड़ने को !
चाँद बनना है पर वो नहीं
आसमान में चमकने वाला नहीं
न ही पानी से भरे थाल में लहराता !
चाँद बनना है पर वही
चातक की आँखों में चमकता आस बन
शिशु की किलकारी में किलकता मामा बन !
मेरे चाँद से मन को पाने के लिये
मत सजाना प्रयोगशाला
नहीं खोजना गड्ढ़े मन की गहराई में !
बस जगा लेना सम्वेदनाओं को
मेरा ये चाँद विहँस बस जायेगा
चमकता ही रहेगा तुम्हारे आनन पर ! निवी
जब टूट गयी चप्पल !
पैर जो हमारा पूरा वजन उठाते हैं ,उन पर अधिकतर को बहुत कम ही ध्यान देते देखा है । जब पैर अनदेखी का शिकार होते हैं तो चप्पलों की ऊपरी चमक दमक पर ही ध्यान रहता है न कि उनके स्वास्थ्य ( मजबूती ) पर । इस लापरवाही का खामियाजा तो भरना ही पड़ता है और मैंने भी भरा । दो घटनाएं बताती हूँ 😄
घर के रिनोवेशन का काम चल रहा था ,तभी एक शादी में जाने का निमंत्रण आया । काम से थका तन ,मन को सहला गया कि आज तो बिना मेहनत के ही अच्छा भोजन मिलेगा । बिखरे सामानों में खोजने पर भी मनचाही चप्पल नहीं मिली तो एक रिजेक्टेड चप्पल पहन ली कि साड़ी के नीचे से चप्पल कौन देखेगा । वेन्यू पर हम बारात के साथ ही पहुँचे । बस दूल्हे को देखने की उत्सुकता में पैर मुड़ा और चप्पल का एक स्ट्रेप हवा में और मैं लड़खड़ा गयी । बिना कुछ जताए ,पास पड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गयी । पतिदेव ने खाने के लिए चलने को कहा ,तब बताया कि मैं तो चल नहीं पाऊँगी वो खा लें । बिचारे परेशान से बोले ,"तुम नहीं खा पाओगी तो छोड़ो घर चलते हैं ।" मैं तुरन्त बोल पड़ी ,"सुनो ! आप खाना खा लो ,अब वापस जा कर मैं तो नहीं बनानेवाली ।" पास से गुजरते वेटर से स्नैक्स ले अपना काम चलाया मैंने 😄
दूसरी घटना बच्चों के स्कूल की है । पेरेंट्स मीटिंग में गए थे हम और दोनों बच्चों की खूब सारी तारीफें सुन बड़े खुश हो कर सीढ़ियों से उतर रहे थे कि बेटे की निगाह में मेरी चाल में बदलाव नज़र आ गया । कारण पूछने पर पहले तो मैंने टालने की कोशिश की फिर टूटी चप्पल दिखा दी जिसके अँगूठे में पैर फँसा कर बार - बार दूसरे पैर के सहारे से सीधी हो जाती थी । उस दिन चप्पल भी हील वाली पहन ली थी ,तो पंजों पर चल रही थी कि बहुत विचित्र न दिखूँ । दरअसल छोटे बेटे की क्लास से उसकी खूब सारी तारीफ़ सुन कर निकलते ही चप्पल के टूटने का एहसास हो गया था ,परन्तु बड़े बेटे की भी तारीफ़ सुनने की इच्छा ने मन को बल दिया और चल पड़ी थी मैं सोचती हुई कि यदि एड़ी टूट जाये तब भी पंजों में मनोबल से इतना बल भर लेना चाहिए कि वो शरीर का वजन उठा सकें । #निवी
#शीर्षक : चिराग़ का जिन्न
"कितनी आसानी से तू मेरी हर माँग पूरी कर देती है ... सच्ची एकदम चिराग़ की जिन्न है मेरी माँ " , कहती हुई नन्ही सी अंशु माँ के कन्धों पर झूल रही थी कि उसने सहलाते हाथों और दुलराती पलकों से बच्ची को गोद में सहेज लिया ," ना बेटी चिराग का जिन्न बिना दिखे ही हर चाहत पूरी करता है न ... हम सब की जरूरतें पूरी करने के लिए ,भोर से देर रात तक काम करते बिल्कुल तेरे पापा जैसे !" #निवी
सोचती हूँ मौन रहूँ
शायद मेरे शब्दों से
कहीं अधिक बोलती है
मेरी खामोश सी खामोशी !
ये सब
शायद कुछ ऐसा ही है
जैसे गुलाब की सुगंध
फूल में न होकर
काँटों में से बरस रही हो !
जैसे
ये सतरंगी से रंग
इन्द्रधनुष में नही
आसमान के मन से ही
रच - बस के छलके हों !
जैसे
ये नयनों की नदिया
झरनों सी नही खिलखिलाती
एक गुमसुम झील सी
समेटे हैं अतल गहराइयों को ! #निवी
जीवन की पहली साँस ,या कहूँ कि जीव तत्व प्राप्त हो सकने के एहसास ( अपने प्रथम निवास ,माँ के गर्भ में ) से ले कर आज तक प्रत्येक क़दम पर ,प्रतिदिन ही नित नवीन रुप में गुरु के होने का अनुभव ज़िंदगी करवाती रही है । कभी सृष्टा के रूप में साँस लेना सिखा कर तो कभी दूध का पहली घूँट पिला कर जीने का एहसास दिलातीं माँ के रूप में । कभी सुरक्षा का एहसास दिलाते पिता के रूप में ,तो कभी जीवन को जिन्दादिली से जीने के तरीके सिखाते अग्रजों के रूप में । शिक्षा ज्ञान देते शिक्षक के रूप में भी ज़िंदगी सामने आई तो आध्यात्मिक ज्ञान देते गुरु के रूप में । सहअस्तित्व का ज्ञान सिखाया मित्र और जीवन साथी ने । ज़िंदगी के किसी क़दम पर न तो हारना है और न ही नई चीजें सीखने से डरना है यह ज्ञान मैंने अपने बच्चों से पाया । जो गलतियाँ अथवा गलत व्यवहार ,स्वयं के साथ हो चुका हो उसको रिले रेस की तरह उसी रिश्ते या व्यक्ति के साथ आगे न बढ़ाना भी ज़िंदगी से सीख रही हूँ ।
ईश्वरीय प्रतिमान ...
ईश्वरीय तत्वों के एकाधिक मुख और हाथ होने के बारे में हम पढ़ते और सुनते आए हैं ,परन्तु कभी इसका कारण अथवा औचित्य जानने का प्रयास ही नहीं किया । सदैव एक अंधश्रध्दा और संस्कारों के अनुसार मस्तक नवा कर नमन ही किया है । आज अनायास ही इसपर विभिन्न विचार मन में घुमड़ रहे थे और मैं उनकी भूलभुलैया में भटकती अनेक तर्क वितर्क स्वयम से ही कर रही थी । कभी सोचती कि आसुरी तत्वों का विनाश करने के लिये एकाधिक हाथों की आवश्यक्ता है ,अगले ही पल सोचती कि सृजन करने के लिये ऐसी लीला रची होगी ईश्वर ने ।
इन और ऐसे ही अनेक विचारों से जूझ रही थी कि लगा कि ये समस्त तर्क उचित नहीं । ईश्वर का होना किसी समस्या के समाधान से कहीं अधिक है हमारे अंदर समाहित असीमित क्षमताओं का ज्ञान होना । ईश्वर भूख लगने पर सिर्फ भोजन करा के ही तृप्त नहीं करते अपितु भोजन बनाने के साधन से भी परिचित कराते हैं ।
ईश्वरीय प्रतिमान के कई मुख और हाथ हमारे अंदर छिपी हमारी सामर्थ्य के परिचायक हैं । हम सबमें अपार सम्भावनायें छुपी हैं ,जिनको कभी किसी की प्रेरणा से हम जान पाते हैं और कभी सब कुछ अनजाना रह कर ,अपनी धार्मिक मान्यतानुसार चिता की दाहक अग्नि में समा जाता है ।
समय पर अगर अपने अंदर छुपी इस सम्भावना को पहचान लिया जाये तो अपने साथ ही साथ समष्टि के भी हित में होगा । अकेलापन ,उदासी ,अवसाद जैसी तमाम नकारात्मक भावों से मुक्ति पाने के लिये ये सबसे प्रभावशाली अस्त्र प्रमाणित होगा ।
जब भी ऐसे किसी भी ईश्वरीय प्रतिमान की अर्चना करें तो एक बार अपने अंदर की अतल गहराइयों में छुपी हुई ऐसी किसी भी सम्भावना पर पड़ी हुई धूल को भी जरूर बुहार कर स्वच्छ कर लेना चाहिए ! #निवी
बचपन में घर में काका को अक्सर गुनगुनाते सुना था ,"बड़ भाग मानुस तन पायो ,माया में गंवायो " ... कई बार पूछने पर और उनके समझाने पर भी मेरे बालमन को यह मायामोह का गोरखधंधा कुछ समझ नहीं आया था । उसके बाद ज़िन्दगी के मायाजाल ने क्रमशः मुझे भी अपनी माया में उलझा लिया और कब बचपन के खेल खिलौने कॉपी - किताब में ,और फिर ज़िन्दगी के झिलमिलाते हुए अन्य सोपान जैसे इस विचार से ही दूर करते गए । आज इतने लम्बे सफ़र के बाद यही भजन गुनगुनाने लगी हूँ ।
लघुकथा : मैं चाहता हूँ !
सुबह से ही घर का माहौल तल्ख़ था । वह उठा और अपनी चाय का कप रसोई में रख आया । बाकी के कप मेज पर ही पड़े थे ,बच्चे ने उन पर निग़ाह पड़ते ही वो सब उठाये और रसोई में रख आया । सब अपने - अपने काम का बहाना करते अपने कमरों में सिमट गए और ए. सी. ऑन कर लिया । ज़ाहिर सी बात है ए. सी. ऑन होने पर कमरों के दरवाज़े भी बन्द होने ही थे ।बेबसी भटक रही थी और जीवन की लिप्सा उसकी आँखों में करवटें ले रही थी । अनजान हाथों ने उसकी भटकन को एक घर का आसरा दिया । पर ये क्या ... हर दिन एक नया पर्दा ... एक नया ही चेहरा ... बेबसी पीड़ा में बदल गयी और जीवन जीने की जिजिविषा किन्ही बेनाम अंधी गलियों में खो गयी ।
शीर्षक : #वीडियो_कॉन्फ्रेंसिंग
एक जोड़ी लब बेहद ख़ामोशी से ,नम होती और नजरें चुराती पलकों को देख रहे थे । परेशान हो कर उन्होंने दिमाग को वीडियो कॉल कर ही दिया कि एक पंथ दो काम हो जाएंगे पलकों की समस्या का पता भी चल जाएगा और विचारों और वाणी (लबों) की जुगलबंदी भी फिर से सध जाएगी । सच्ची आजकल दिमाग से ज्यादा दिल से उसका बंधन सात जन्मों वाला लगने लगा है और ये मुआ दिल न धड़कन की रफ़्तार कम ज्यादा कर के डराता ही रहता है ।
वीडियो कॉल में स्वस्थ और संतुलित दिमाग को देख लबों ने सुकून की साँस भरी । एक दूसरे की कुशल - क्षेम पूछते ही उसने नमी से बोझिल होती पलकों का ज़िक्र किया और उसको भी कॉल में ऐड कर लिया ।
लब ,दिमाग और पलकों की मूक भाषा वाचाल हो चली थी । नमी का कारण पूछने पर पलकें बोल उठीं ,"हमारे चेहरे की ज़मीन पर दाढ़ी ,मूंछों और भौंहों के बाल इतने बढ़ते जा रहे हैं कि मेरी तरफ़ किसी की निगाहें ही नहीं पड़तीं । पहले सब अच्छा- ख़ासा वैक्सिंग और थ्रेडिंग से अपने दायरों में रहते थे ,अब लॉक डाउन में पार्लर बन्द होने से ,इंसानों के मन की तरह इन सबने भी अपने - अपने जंगल बना लिए हैं । मेरी तो कोई वक़त ही नहीं रही ।"
माहौल में छाए हुए भारीपन को दिमाग की खनकती हुई आवाज़ ने तोड़ा ,"परेशान मत होओ ,वक़त असली की होती है न कि समय - समय पर उगी खर - पतवार की । अब देखो न सभी विचारों ,भावनाओं और रिश्तों में भी पॉजिटिव होना चाहते हैं न परन्तु इस कोरोना पॉजिटिव होने से डरते हैं ... इसको भगाना चाहते हैं । जैसे ही पार्लर खुलेंगे ये बढ़ी हुई दाढ़ी - मूँछें गायब हो जाएंगे और सब गुनगुना उठेंगे ... मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले !"
लब भी खिलखिला उठे ,"सच यार तुमने तो प्रमाणित कर दिया कि दिमाग होता क्या है ! "
पलकों की नमी में भी उम्मीदों और दुआओं की पॉजिटिविटी चमकने लगी ।
#निवी
#झरता_मन ...
बिन्दु बिन्दु कर झरती जाये
यात्रा ये करती जाये !
निरी अंधेरी इस गुफ़ा मे
सूर्य किरण सी दिखती है
कंकड़ पत्थर चट्टानों से
राह नयी तू गढ़ती है
सर्पीली इस पगडण्डी से
प्रपात बनी उमगती है
बिन्दु बिन्दु ...
कन्दराओं से बहती निकल
सूनी' वीथि तुझे बुलाये
विकल विहग की आये पुकार
रोक रहे बाँहे फैलाये
लिटा गोद में सिर सहलाती
थपकी दे लोरी गाये
बिन्दु बिन्दु ...
गर्भ 'तेरे जब मैं आ पाई
प्यार सदा तुझ से पाया
अपनी सन्तति को जनम दिया
रूप तेरा मैंने पाया
तुझसे जो मैं बन निकली थी
गंगा सागर हम आये
बिन्दु बिन्दु ... #निवी'
आशा के जुगनू बने ये नयन हैं
खोजे कहाँ छुप गए उसके मयन हैं !
ज़िन्दगी ने कल यूँ ही चलते चलते रोकी थी मेरी राह
आँखों में डाल आँखें पूछ डाली थी मेरी चाह
ठिठके हुए कदमों से मैंने भी दुधारी शमशीर चलाई
क्या तुम्हें सुनाई नहीं देती किसी की बेबस मासूम कराह
ज़िंदगी कुछ ठिठक कर शर्मिंदा सी होकर मुस्कराई
सुनते सुनते सबकी कठपुतली बन गई हूँ रहती हूँ बेपरवाह
आज मैं भी कुछ अनसुलझे सवाल अपने ले कर हूँ आई
दामन जब खुद का खींचा जाता तभी क्यों निकलती आह
गुनगुनाती कलियों की चहक से भरी रहती थी अंगनाई
कैसे बदले हालात किसने कर दिया मन को इतना स्याह
हसरतों ने बरबस ही दी एक दुआ और ये आवाज लगाई
बेपरवाह ज़िंदगी इस 'निवी' को तुझसे मुहब्बत है बेपनाह।
.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
#मर्जी_है_आपकी_समझ_न_भी_पाओ_तब_भी_सोच_जरूर_लेना
बिना मास्क लगाए घूमते लोगों से वायरस कहता है ... हम बने तुम बने मैग्नेट से ...
उसके बाद 🤔
उसके बाद कुछ खास नहीं आकर्षण तो होना ही था ...
बस फिज़ां में गाने के बोल गूँजते हैं ...
चलो चलें मितवा ,इन सूनी गलियों में
रोकता हूँ तेरी मैं साँसें
कुछ न बोल ,आ पास आ ले
मिलने को हैं साथी ,रोकते हैं राहें
लपक के थाम ले ,उनकी भी बाहें ...
फिर कहता है ... "जिल्लेइलाही ! आपको हम कोई सजा होने ही नहीं देंगे ... न अपने छू पाएंगे ,न ही घर ले जाएंगे ... बस आपको पूरा ढ़क देंगे ... उसके बाद बस उस जहाँ की सैर पर चलेंगे हम ! "
मर्जी है आपकी कि आप कहाँ रहना चाहते हैं 🙏 ... #निवी
सच अजीब है ये मानव मन कुछ भी कहो समझता ही नहीं ... पता नहीं क्या हो गया है ... इतनी तेज लू चल रही है कि सब तरफ़ पानी ही पानी दिख रहा है । सच्ची इतनी भयंकर लू में ग़ज़ब की बाढ़ आयी है भई 😏
"क्या हो गया ? लेटी क्यों हो ? अरे यार !सुबह का समय है ,ऑफिस जाना है मुझे ,अब जल्दी से बता भी दो ... ये क्या सुबह - सुबह मनहूसियत फैला रखी है ... जल्दी से चाय बना लाओ ", फ़ोन ,लैपटॉप ,पेपर सब को सामने रखते हुए अवी झुंझला रहा था ।
आज उदासी ने दी थी दस्तक
छू कर मेरी उंगलियाँप्रिय - प्रियतमा बैठ रहे बतियाय
कारण - निवारण समझ न पाय
हाँ ! बताओ क्या करना है ।आज कोई मीटिंग नहीं ,ऑफिस भी नहीं ... क्या हेल्प करूँ ... लंच तो तुम बना ही चुकी हो ... चाय बनाऊँ इलायची डाल कर ... 🤔😀 ( बन्दा पूरे जोश ओ खरोश में )
हेल्प ... छोड़ो तुम रेस्ट करो ... चाय के साथ क्या लोगे ... ( घर मे दिख जाने का एहसान मानती बन्दी )
नहीं ... आज तो तुम रेस्ट करो ,मैं बनाता हूँ न ... ( बन्दा एकदम टॉप ऑफ वर्ल्ड टाइप महसूस करते )
ऐसा क्या .... अच्छा ऐसा करो चाय के साथ पनीर के पकौड़े बना लेना और डिनर में एक ही सब्जी कोफ्ते बना लो साथ मे जीरा राइस ... और हाँ रोटी नहीं पूरियाँ बनाना ... डेज़र्ट चलो बाजार से रबड़ी ले आना और हाँ कॉर्नेटो भी लेते आना ... चलो तबतक मैं थोड़ा सो लेती हूँ 😅
#निवी
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🌿🌸 #माँ_शारदे_के_चरणों_में_वन्दन 🌸🌿
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माँ ! कह तू एक कहानी
जिसमें राजा हो न रानी हो !
खेल खेलती नेह बरसाती
नानाविध खाना खिलाती
प्यार लुटाती इक मइया हो
सपनों सजी इक नइया हो
द्वार बंधी सपनों की कहानी हो
पर जिसमें राजा हो न रानी हो !
माँ ...
साथ तेरा कभी न छूटे
अपना कोई कभी न रूठे
साथ मेरा हमसाया हो
तेरे आँचल का साया हो
संग बादल के चाहे न तारे हों
अंग खिले खुशियों की रवानी हो
माँ ...
बातें करनी सूखे पेड़ों की
उलझ चुकी उन मेड़ों की
बचपन जिनमें बसता था
कितनी बातों पर हँसता था
यादों भरी इक अंगनाई हो
सिर सहला हँसती पुरवाई हो !
माँ .... #निवी
दो पलड़े लड़खड़ाते ... डगमगाते से मानो एक दूसरे के साथ रस्साकशी कर रहे हों । एक पल को लगता है बस अनवरत वर्षा सी वो बस बरसती जाए शब्दों से भी और नयनों से भी ... पर अगला ही पल एक आदत सा ,आ कर जैसे पसरता हुआ सा ,शब्दों का अकाल ला कर बंध्या बदली सा उन लम्हों को बिन बरसे ही काल की गोद में मुँह छुपाने की विवशता याद दिला जाता ... और वह रेगिस्तानी लम्हा तुला की कील सा स्वयं को साधता हुआ ,दोनों पलड़ों का संतुलन साधने की कोशिश में ,दूज के चाँद सी धूमिल मुस्कान दे जाता ,और ... और फिर कुछ ख़ास नहीं बस समाज और सामाजिकता के फेफड़ों में कहीं अटकी हुई साँस की धौंकनी खिलखिलाती झूम कर आती दिखाई दे जाती है । जीवन ... पता नहीं जीवन फिर आगे चलने लगता या फिर शुतुरमुर्ग बन जाता !
पहेली सा जीवन
#सुख_दुःख की धूप छाँव
चलता चरखा कर्मों का
बुनता बाना #लाभ_हानि का
#अंधेरा_उजाला हमसाया बन
फसल बीजते जय पराजय की
कभी कभी बरसती बेबस यादें
ज्यों धुनिया धुनता #रात_दिन
अल्हड़पन का साथी था बचपन
उलझता गया क्यों #निवी का मन !
... निवेदिता श्रीवास्तव #निवी
फ़ोन रख कर विधी सफ़ाई के छूटे हुए काम को ,फिर से पूरा करने में लग गयी थी ,परन्तु काकी के डाँटते हुए बोल अभी भी कानों में गूँज रहे थे ,"क्या बहू ! इतनी समय लगाती हो फ़ोन उठाने में ... कर क्या रही थी ... जानती तो हो कि इसी समय मैं इतनी फ़ुरसत पाती हूँ कि इत्मीनान से तुमसे बात कर सकूँ ,तब भी ... "
काम निपटा भी नहीं था कि फिर से फ़ोन की घण्टी ने बजते हुए अपने होने का अनुभव कराया । उधर से देवर जी बोल रहे थे , "भाभी कभी तो फ़ोन तुरन्त उठा लिया करो ... करती क्या रहती हो ?" आवाज़ की तुर्शी को अनदेखा करते हुए उसने बात की और फिर से शेष बचे कामों के गठ्ठर को खिसकाने का प्रयास करने में लगी ही थी कि दरवाज़े की घण्टी ,प्रशांत के आने की आहट देती बजने लगी ।
खुलते हुए दरवाज़े के सामने प्रशांत झल्लाया सा खड़ा था ,"क्या यार ! मैं रोज इसी समय तो आता हूँ ,फिर भी दरवाज़ा खोलने में इतना समय लगाती हो । अपना काम पहले खतम नहीं कर सकती हो क्या !"
थोड़ी देर में ही सब व्यवस्थित हो कर चाय नाश्ते का आनन्द ले रहे थे कि बेटा बोल पड़ा ,"वाह माँ ! आपने कतरनों से कितनी अच्छी डोर मैट बना दी है । सच आप तो बहुत बड़ी कलाकार हो ।"
सब समेट कर ,विधि पर्स ले बाहर निकलने को हुई तो सबकी प्रश्नभरी नज़रें उसकी तरफ ही टँगी हुई थीं । उसने स्मित बिखेरते हुए कहा ,"तुम लोग परेशान मत होओ ... मैं तो नया कपड़ा लेने जा रही हूँ ... अब कतरनों से मैं कुछ भी नहीं बनाऊँगी ... न तो कपड़े की और न ही समय की ।"
... निवेदिता श्रीवास्तव #निवी
एक - दूसरे को झाँक कर देखने का प्रयास करते और विफल होने पर बातें करते एक जोड़ी कान ...
सुनो !
हाँ ! बोलो न ...
सुना है कि हम दोनों एक से ही हैं ...
हाँ ! यही तो मैंने भी सुना है
ये बताओ तुमको कैसे लगा कि हम एक जैसे ही हैं ...
ये फ़ोन न जब मेरे पास आता है तब भी वो गालों को उतना ही छूता हुआ दिखाई देता है ,जितना तुम्हारे पास जाने पर 😅😅
हा हा हा ... कह तो सही रहे हो
अरे ! इतनी अच्छी बातें करते - करते उदास हो कर चुप क्यों हो गए हो 🤔
हमारे गुनाहों की सजा आँखों को मिलती है न ... सुनते हम हैं पर भीगती तो ये आँखें हैं ...
हाँ ! यह बात भी सही है ... बहरहाल ये छोड़ो एक बात बताऊँ ...
हम्म्म्म ...
खुशी में दुलार करने के लिये ही हमको एक साथ पकड़ते हैं ,गुस्सा तो एक को ही पकड़ कर उतारते हैं 😏 😅😅
अच्छा ये बताओ हम क्या कभी एक - दूसरे को देख या छू पाएंगे ?
बिल्कुल ... पर आभासी रूप से 😅😅
आभासी 🤔
अरे जब चश्मे की दोनों कमानी की वरमाला हमारे गले झूलेगी और जो आँखें हमारी वजह से नम होती हैं न उनके सामने लेंस आ जायेगा न , बस उसी में आभासी रूप से हम मिल लेंगे 😊 .... निवेदिता 'निवी'
#एक_ख़त_चाय_के_नाम 😊
ऐ मेरी चाय !☕
कैसी हो ? मुझको याद कर रही हो न ! मैं भी तुमको बहुत मिस कर रही हूँ । आज भी याद करती हूँ वो सारे लम्हे जिनमें तुम रूप बदल - बदल कर मुझ तक आती थी । कभी काँच के लुभावने छोटे कप - सॉसर में ,तो कभी स्टील के मग में ... किसी में कोई कार्टून बना होता तो किसी में फूल पत्तियाँ रहतीं । मुझे तो आज भी वो कप बहुत याद आता है जिसमें जैसे - जैसे गर्मागर्म सी तुम भरती जाती तो उस की सतह पर मेरा नाम और अक्स बनता जाता था ।
स्वाद ... उफ़्फ़ ... ज़िन्दगी के कितने अलग - अलग स्वाद से भरी मिलती तुम मुझसे ... कभी अदरख तो कभी लौंग - इलायची में रची - बसी ,तो कभी ग्रीन टी के अवगुंठन में स्ट्रॉबेरी, रसबेरी ,नींबू वगैरा ... और हाँ ! कभी गुस्से में भरी ब्लैक टी भी 😅 सच कितने रंग ,कितने रूप हैं तुम्हारे ।
आज भी जब ब्लैक कॉफी पीती हूँ न ,तो पहला घूँट तुमको याद कर के ही लेती हूँ और उसकी कड़वाहट को कण्ठ में उतार लेती हूँ ❣️
सुनो तो ... जरा अपना कान इधर लाना ... ये जो मुझ में बढ़ी हुई मिठास ( शुगर ) है न ,जरा कम हो जाये दवाओं से तब मिलती हूँ तुमसे ... रोज न भी मिल सकूंगी तो क्या हुआ ,कभी - कभार तो मिल ही जाऊँगी ... तब तक तुम बस यूँ ही मेरी यादों में बसी रहना 😊
पहचान तो गयी ही होगी मुझको ...
तुम्हारी #मैं ... #निवी
गीतिका
चांदनी खिल गयी मुस्कुराते हुए
बादलों ने कहा गीत गाते हुए।।
इस ज़माने ने देखा मुझे आज फिर
इक नई सी नज़र से बुलाते हुए।
दो कदम आसरा बन चले जा रहे
और मंज़िल मिली सर झुकाते हुए।
जब सपन रंग आंखों में भरने लगे
फिर नज़र मिल गयी दिल लुभाते हुए।
अब हृदय में मेरे तुम जो आ जाओ तो
ये #निवी जी उठे सर उठाते हुए।
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
सुनो तुम हर कदम पर मुझको परीक्षक की दृष्टि से ही क्यों देखते रहते हो ?
प्रेम कनिष्ठावाला ( वैलेंटाइन डे )
******
सुनो !
हूँ ...
बहुत सोचा पर एक बात समझ ही नहीं आ रही😞
क्या ?
अधिकतर लोगों को देखा है कि वो तीन उंगलियों में ,यहाँ तक कि अंगूठे में भी अंगूठी पहन लेते हैं ,परन्तु सबसे छोटी उंगली को खाली ही छोड़ देते हैं ।
हा ... हा ... सही कह रहे हो 😅
अरे ! हँसती जा रही हो ,कारण भी तो बताओ ।
हा ... हा ... अरे सबसे छोटी होती है न किसीका ध्यान ही नहीं जायेगा इसीलिये ...
मजाक मत करो ,सच - सच बताओ न ,तुम क्या सोच रही हो ?
अच्छा ये बताओ ,हम कहीं जाते हैं तो तुम मेरी छोटी उंगली ,मतलब कनिष्ठा क्यों पकड़ लेते हो ?
अरे ! वो तो किसी का ध्यान न जाये कि हमने एक दूजे को थाम रखा है ,बस इसीलिये ...
अब समझो कि तर्जनी पकड़ाते ही इसलिये हैं जिससे किसी को सहारे का आभास हो ...
हद्द हो यार तुम ,मैं बात करूंगा आम तुम बोलोगी इमली ...
सुनो तो ... कनिष्ठा प्रतीक है प्रेम का ...
प्रेम का ?
हाँ ! हम जिसके प्रेम में होते हैं उसकी हर छोटी से छोटी बात भी महत्व रखती है ...
वो तो ठीक है परन्तु कनिष्ठा को आभूषण विहीन क्यों रखना ?
क्योंकि जब दो प्रेमी अपने होने का एहसास करते हैं तब वो कनिष्ठा पकड़ते हैं । रस्सी का सबसे छोटा सिरा पकड़ लो तो दूरी खुद नहीं बचती । पकड़ में मजबूती नहीं होती पर विश्वास होता है । अब इस छुवन में आभूषण बैरी का क्या काम ... हा ... हा ...
तुम भी न बस तुम हो 💖💖
... निवेदिता श्रीवास्तव #निवी
मदिर मन्थर मोहक मलयानिल
नतनयन नवयौवन निरखेभीनी- भीनी सी बदली का एक छोटा सा टुकड़ा दूर कहीं आसमान में लहराता दिख रहा था ,जैसे अपने झुण्ड से एक मेमना अलग हो भटक रहा हो । कभी वह सूरज की थोड़ी ऊष्ण होती सी किरणों के सामने आ कर आँखों को सुकून दे जाती ,तो कभी तप्त किरणों के आगे से जैसे जल्दी से हट जाती थी ।
बहती हुई नदी की चंचल धारा ने उससे पूछा ,"बहन ! एक बात बताओ कि ,तुम को सूरज की किरणों से कोई शिकायत नहीं है क्या ... आखिर बदन तो तुम्हारा भी जल कर सिकुड़ जाता है !"
बदली का वह नन्हा सा टुकड़ा मानो और भी हँस पड़ा ,"नहीं ... सूरज क्या ,मुझे तो किसी से भी बिलकुल भी शिकायत नहीं है क्योंकि तीखापन उनकी प्रवृत्ति है और शीतलता मेरी । दो विपरीत प्रवृत्तियों से एक जैसा होने की उम्मीद या शिकायत करना तो उन दोनों के ही साथ अत्याचार होगा । वैसे नदी बहना ! जब अपना रास्ता बदलती हो ,तब करती तो तुम भी यही हो 😅"
नदी की भी लहरें मचल उठीं ,मानो उसने अट्टहास किया हो ,"दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए अपना अस्तित्व बनाये और बचाये रखने की सकारात्मकता सब में नहीं होती है ,परन्तु जिस ने भी इस बात को समझ लिया वही अपने हिस्से के आसमान के साथ ,सुकून से रह पाता है ।"
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
ज़िन्दगी का हर आता जाता पल और उसके अनुभव बदलते मौसम की बागवानी का एहसास कराते रहते हैं । कभी सब कुछ सही तो मन बसन्त अनुभव करता ,नहीं तो लू के थपेड़े सा झकझोर जाता है । मन खुश तो गुलाब की खुशबू ,नहीं तो काँटे की चुभन ।
यादों के गलियारे में दस्तक दे ही रही थी कि एक याद ने अनायास ही दामन थाम लिया । हिन्दी दिवस और हिन्दी भाषा से जुड़ी हुई है यह याद 😊
एक बार हिन्दी - दिवस पर अमित जी के साथ ही उनके पूर्व छात्र सम्मिलन में गयी थी । वहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम में सब की सहभागिता का आनन्द ले रही थी कि अचानक ही मंच से उद्घोषक की आवाज़ आयी ,"अब आप सब के समक्ष मिसेज अमित अपनी एक रचना सुनाएंगी ... स्वागत है आपका ।" सब के साथ मैं भी तालियाँ बजा रही थी उनके स्वागत में । तभी उद्घोषक ने मेरी तरफ़ देख कर हँसते हुए फिर कहा ,"दो अमित हैं तो कन्फ्यूज़न हो रहा है न ! अब मैं अलग तरह से बुलाता हूँ ... आइये मिसेज बमबम ।" दरअसल मेरे पति को उनके मित्र 'बमबम' कहते हैं । बहरहाल इस अचानक आये बाउंसर को झेलते हुए मोबाइल की तलाशी ली और एक रचना सुना दी । और हाँ ! तालियाँ भी बटोर लीं 😅😅
बाद में हम सब बातें कर रहे थे तो एक महिला एकदम चुप बैठी बस सुन रही थीं । एकाध बार उनको भी बातों में शामिल करने का प्रयास किया, पर वो प्यारी सी मुस्कान दे चुप ही रह गईं । थोड़ी देर बाद अकेले मिलते ही बातें करने लगीं और बोलीं ,"असल में मुझे अंग्रेजी नहीं आती है । यहाँ अधिकतर वही बोलते हैं तो मैं चुप ही रहती हूँ । " मैंने उनसे बातें की और मनोबल बढ़ाने का प्रयास किया कि मैं भी हिन्दी ही बोलती हूँ ।
बातों में ही पता चला कि उनका और मेरा मायका एक ही है ,गोरखपुर ! मैंने छूटते ही कहा ,"का बहिनी अब ले छुपवले रहलू ।" वो एकदम ही संकुचित हो गईं ,"अरे ऐसे न बोलिये ,सब इधर ही देख रहे हैं ।" मैंने उनको समझाया कि अपनी भाषा अपनी ही है ,इसमें कोई शर्मिंदगी नहीं होनी चाहिए । फिर मैं भोजपुरी ही बोलती रही और वो हिन्दी । इस तरह उनकी अंग्रेजी में न बोल पाने की हिचक थोड़ी कम हुई ।
उस शाम और मेरे इस तरह बिंदास भोजपुरी और हिन्दी बोलने से हमारे समूह को उनके रूप में एक और हिन्दी की कवयित्री मिल गयी ।
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
हौसला और विश्वास
मानव मन कह लीजिये या ज़िन्दगी के रंग ,बड़े ही विचित्र होते हैं । जब भी ज़िन्दगी ठोकर के रूप में फुरसत के दो पल देती है ,मन या तो व्यतीत हुए अतीत की जुगाली करता रह जाता है या फिर अनदेखे से भविष्य की चिंता ... वर्तमान की न तो बात करता है ,न ही विचार और ज़िन्दगी एक खाली पड़े जार सी रीती छोड़ चल देता है ,इस जहान से उस अनदेखे जहान की यात्रा पर ।
ऊपर बैठा हमारी जीवन डोर का नियंता ,अनगिनत पलों और भावनाओं की लचीली डोर में उलझा कर ,परन्तु एकदम साफ स्लेट जैसा मन दे कर भेजता है और हम अपने परिवेश के अनुसार उन लम्हों के गुण - अवगुण सोचे बिना ही ,ऊपर ला कर साँसें भरते चल पड़ते हैं एक अनजानी सी रिले रेस में । जब भी कहीं डोर में तनाव ला कर ,ज़िन्दगी हमारे क़दम रोकती है ,हम लड़खड़ा कर एकदम ही निराश हो अंधकूप में गिर कर छटपटाने लगते हैं और समय को कोसने लगते हैं । जबकि कितने भी बुरे दौर से गुज़र रही हो ज़िन्दगी ,चाहे एकदम नन्ही सी ही हो ,परन्तु एक आशा की किरण वो अपने दामन में सदैव संजोये रखती है । उस समय सिर्फ़ हम ही कुसूरवार होते हैं उस को न देख पाने के ।
कभी - कभी शारीरिक परेशानियाँ हमें घेर लेती हैं ,हम स्वयं को एकदम ही बेचारा सा अनुभव करते हैं और सोचते हैं कि हम कभी कुछ करना तो बहुत दूर की बात है, उठ भी नहीं सकेंगे परन्तु तभी अपने किसी बेहद प्रिय के आने की भनक पाते ही उसके स्वागत की तैयारियों में दिल - ओ - जाँ से जुट जाते हैं । उस समय की यदि कोई हमारी तस्वीर ले कर कुछ समय पहले की निराश दम तोड़ती तस्वीर से मिलाये तो लगेगा ही नहीं कि दोनों तसवीरें एक ही व्यक्ति की हैं । यदि इसमें कहीं कोई जादू है तो वह सिर्फ मनःस्थिति बदलने का ही है ।
इन सारी बातों का सिर्फ एक ही मतलब है कि हमारे जीवन में बहुत सारे रंग भरे हुए हैं ,आवश्यकता बस इतनी ही है कि अपनी ज़िन्दगी के सूरज और चाँद के सामने से ग्रहण भरे पलों के बीत जाने देने की जिजीविषा बनाये रखने का ।
एक बात और भी है यदि रगों में बहता है तो बी पॉजिटिव ( b +) सिर्फ एक ब्लड ग्रुप का नाम है ,परन्तु यदि वही दिल - दिमाग में बसेरा कर लें तो जीवन शैली बन कर ज़िन्दगी को इन्द्रधनुष बना देते हैं !
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
बचपन में घर में काका को अक्सर गुनगुनाते सुना था ,"बड़ भाग मानुस तन पायो ,माया में ही गंवायो " ... कई बार पूछने और उनके समझाने पर भी ,मेरे बालमन को यह मायामोह का गोरखधंधा कुछ समझ नहीं आया था । उसके बाद ज़िन्दगी के मायाजाल ने क्रमशः मुझे भी अपनी माया में उलझा लिया और कब बचपन के खेल खिलौने के स्थान पर कॉपी - किताब आ गए ,और फिर ज़िन्दगी के झिलमिलाते हुए अन्य सोपान जैसे इस विचार से ही मन को दूर करते गए । आज इतने लम्बे सफ़र के बाद अनजाने में ही ,मैं भी यही भजन गुनगुनाने लगी हूँ ।
जीवन के अब तक के सफ़र में दोस्त भी मिले ,उम्मीद भरते हुए ख़्वाब भी देखे ... सेहत के प्रति ध्यान भी तभी गया जब उसने कहीं स्पीडब्रेकर तो कभी माइलस्टोन दिखा कर चेताया । एक तरह से सिर्फ एक पहले से पूर्वनिर्धारित ढांचे में ही रंग भरते गए बिना यह सोचे कि हम चाहते क्या हैं या हममें क्या करने की काबिलियत है ! ईश्वर ने अपनी प्रत्येक कृति को कुछ विशेष करने के लिये ही बनाया होता है ,जिसके बारे में कुछ सोचने या जानने का प्रयास किए बिना ही , पहले से तैयार रास्ते पर चलने की जल्दी में जीवन ख़तम कर इस दुनिया से चल देते हैं ।
बहरहाल यह सोचने के स्थान पर कि हम क्या कर सकते थे और क्या नहीं किया ... और यह भी नहीं सोचूंगी कि जीवन कितना बचा है या उसकी उपयोगिता क्या है ... अब बस सिर्फ वही करना चाहूँगी जिसमें मेरे मन को सुकून मिल रहा हो 😊
#ऐसे_दोस्त चाहूँगी जो खीर में नमक पड़ जाने पर भी उसके स्वाद में अपनी सकारात्मकता से नया स्वाद भर सकें और यह देख कर कि मैं किसी प्रकार चल पा रही हूँ ,दौड़ नहीं सकती की लाचारी के स्थान पर ,यह कहने का जज़्बा रखते हों कि अपने दम पर चल रही हो ,किसी पर निर्भर नहीं हो । मेरे लिये पहले भी और अब भी दोस्त का मतलब ही होता है एक ऐसी शख़्सियत जिसके पास मेरे लिये #वक़्त हो ,उसके दिल - दिमाग़ में #मुहब्बत हो ... ज़िन्दगी कितने भी उबड़ खाबड़ रास्तों पर चल रही हो ,वह एक #उम्मीद की रौशन किरण हो ... दावत पर आमंत्रित कर के दूसरी सुबह सैर पर ले जाना न भूले कि #सेहत न बिगड़े । लब्बोलुआब यह है कि मेरी कमी / दुर्बलता को अपनी सकारात्मकता से सुधार सके और सँवार भी दे । ( यह पंक्ति भी एक मित्र के इस कथन को न समझ पाने पर लिखी है 😄)
मैं ऐसे दोस्त को खोजने के लिये परिवार के बाहर जाऊँ यह जरूरी भी नहीं 😅 यह फोन पर भी आवाज़ भाँप लेने वाले अपने बच्चों में भी मिलता है ,तो कभी सुबह की चाय बनाने का अनकहा सा आलस चेहरे पर भाँप लेने वाले हमसफ़र में मिल जाता है ...#शुक्रिया_ज़िन्दगी ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'