वो दूर क्षितिज पर
एक उजला साया सा दिखा
अचंभित है मन बावरा
वो दूर उड़ता उजला लम्हा
रेशा - रेशा बादल है
या कहीं उठती - गिरती
समुद्री लहरों की
नमकीन यादों का
ज्वार है छाया
सहम जाते लड़खड़ाते
कदम खोजते हैं
अनजानी राहों की
धूमिल सी पगडंडी
वहीं कहीं ममता की छाँव
झलक दिखला जाती
अरे ! वो उजला साया तो है
माँ , बस तुम्हारे ही
दुलार बरसाते आँचल का साया
बहुत दिनों से जागी मेरी आँखें
अब तो बस थक गयीं हैं
सोना चाहती हैं
कभी न खुलने वाली
नींद में ……
काश ! कहीं मिल जाए
उन सुरीली लोरी की छाँव …… निवेदिता