हाँ ! सच है ये खिड़कियाँ होती है नरम पुरवाई सी नाजुक बहुत कुछ देखती हैं और सुनती भी हैं बेजुबान सी ....
पर ये भी तो सच है खिड़कियाँ सजती हैं सपनीले से घरों में और दरवाजे .... थाम लेते हैं रास्ता उन तंद्रिल हवाओं का जो जीवन्त कर देती हैं बेबस सी खिड़कियों को .... निवेदिता
एक रीत बदल दूँ मैं भी शाहजहाँ ही क्यों बनाये ये दिलफरेब ताजमहल इस ख़्वाब की तामीर करूँ मैं पर ये क्या .... तुमने जो ये पलकें झपकाई ये क्या चमक सा गया छोड़ो जी अब दुबारा क्या बनाना मेरी जिंदगी के हो तुम ताज अब उस महल से क्या दिल लगाना .... निवेदिता