शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

सात सुरों की सरगम बन .....



इन्द्रधनुषी से रंगों संग 
हिंडोले की मैं पेंग बन जाऊँ ! 
नाज़ुक से ख़्वाब सजा 
मीठी सपनीली नींद बुलांऊ !
कांच की खनक ला यादों में 
काँटों की तीखी चुभन भुलाऊँ !
सात सुरों की सरगम बन  
मन वीणा में बरस-दरस जाऊँ !
चंद लम्हों को सही 
जीवन में रच-बस जाऊँ !
नित घटती जाती साँसों से 
हसीन पल चुरा जीना सीख जाऊँ !
                                    -निवेदिता 

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

गलतियाँ नयी हों अथवा..........




जब से सुनना और सुने हुए को समझना आया , एक बात अक्सर सुनी कि " इंसान गलतियों का पुतला है " ...... अब तो सुनते-सुनते अभ्यासवश इस उक्ति को स्वीकार भी कर लिया है ! अब बस एक बहुत छोटी सी चाहत अक्सर सरकश होती है ...... जानते हैं वो क्या है ? बस सिर्फ इतनी सी चाहत है कि बेशक गलतियाँ करे इंसान पर एक काम अवश्य करे ...... या तो गलतियाँ नयी हों अथवा उनको मानने का तरीका ! अगर ऐसा हो तब गलतियों वाले लम्हे भी स्वीकार्य होंगे |

अब अगर इस्तेमाल के बाद तौलिया गीला ही गोल-मोल करके बिस्तर पर छोड़ना नित का नियम बन गया हो तो ,हर बार ये न कहें ," मैं भूल गया " ..... कभी कहें ," मैंने सोचा कि तौलिया फैलाने से सूखता नहीं बल्कि इसके रोयें कड़े हो जाते हैं " ......... या फिर ये भी कह सकतें हैं ,"मैं तो तौलिये को गोल-गोल कर के ऐसे ही छोड़ कर बताना चाहता हूँ कि दुनिया गोल है ".... या फिर कहें ," गीला तौलिया रिश्तों की नमी का एहसास दिलाता है "........ जब इतने से भी बात बनती न दिखे तो अतिआत्मविश्वास से कह दीजिये ," मैं ऐसा इसलिए करता हूँ कि मुझे पता है कि मेरी गल्तियों को समझने और समेटने वाला भी कोई है "..... 

इस्तेमाल करने के बाद अगर साबुन साफ़ कर के रखना आदत में नहीं है तब हरदिन ये न कहें , "मैं भूल गया " ....... कभी कह दें ,"मैंने तो साफ़ किया था ,पर दूसरी तरफ साफ़ कर के रखने के चक्कर में इस तरफ झाग लग गया "......... कभी ये भी कह सकतें हैं ,"इस साबुन की नीयत ही नहीं थी साफ़ रहने की "......... कभी साफ़-साफ़ मुकर जाइए ,"मैंने तो साबुन को हाथ ही नहीं लगाया ,आज तो सिर्फ शैम्पू से ही काम चलाया "........

अगर पत्नी की डायरी को बेकार समझ कर रद्दी में डाल दिया तब कह सकतें हैं ,"अरे वो तुम्हारी थी मैंने तो समझा कि वो मेरी थी "......पर हाँ भूले से भी ये न कहियेगा  ," मैंने तो समझा बेकार है भरी हुई थी "....... जो आपके लिए बेकार और भरी हुई थी वो आपकी पत्नी के कई बरसों की मेहनत थी !

इतनी बातों का  तात्पर्य  फ़कत  इतना  सा है कि या तो हर बार गलतियाँ नयी हों या फिर उन पुरानी गल्तियों का कारण हर बार नया हो | ऐसा करने से हम भी ऊब नहीं जायेंगे ,और हाँ ! आपकी सृजनात्मक शक्ति का भी आभास हो जाएगा ....

रविवार, 8 जुलाई 2012

" गरजत बरसत साहब आयो रे "



सावन का महीना मुझे तो बहुत अच्छा लगता है | कभी तेज़ तो कभी धीमी पडती बौछारें लगता है किसी सखी ने राहें रोक कुछ प्यारा सा गुनगुना दिया हो | इधर दो - तीन दिनों से अनवरत पड़ने वाली फुहारें ही एक  नया उत्साह सा जगा रही  हैं | जाने  कितने  भूले - बिसरे गीत यादों में दस्तक दे  रहें हैं  | सावन  की  सबसे बड़ी खासियत इसका संगीतमय रूप है ... इसमें फ़िल्मी गीत तो है ही कजली भी खूब याद आती है | 

झूले पर अथवा  बिना झूले के  भी सब सावनी गीतों का आनन्द लेते हैं | अपनेराम भी सुबह से ही कई गीत बिना कमर्शियल ब्रेक के गुनगुना रहें हैं | इसमें "टिप टिप बरसा पानी " ,"सावन के झूले पड़े ", "बरसों रे मेघा ", "बरसात में हम से मिले तुम " जैसे कई गीतों के बाद  , जैसे ही अगला गीत "गरजत  बरसत सावन आयो रे " शुरू किया भूकम्प के झटके से महसूस हुए | जब मैंने डरते - डरते इस भूकम्प के स्रोत का पता लगाना चाहा तो जल्दी ही इत्मिनान की साँसें लीं | दरअसल मेरे गीत के बोलों में थोड़ा परिवर्तन हो गया था | "गर्जत बरसत सावन आयो रे"  की  जगह " गर्जत बरसत साहब आयो रे " हो गया था | परन्तु हमने भी पत्नी - धर्म का पूरा पालन  करते हुए इस गर्जन को  अनदेखा  कर  दिया और दुगने जोश  से  गुनगुनाने लगे | पर अब तो हमारी ढोलक , हारमोनियम  यहाँ तक कि सितार ने  भी  भयवश हमारा साथ देने से इनकार कर किसी कोने में छुप जाना श्रेयस्कर समझा | अब तक हमारे अंदर की भारतीय नारी जाग चुकी थी और पति की मदद को तत्पर हो गयी थी |

मैं बहुत संवेदना जताते हुए पूछा- "क्या हो गया ? कुछ कार्यालय की परेशानी है क्या ?" प्रतिउत्तर में पतिदेव ने आईना देखते हुए ही कहा -"ये देखो मेरी मूंछ का एक बाल सफेद हो गया |" मैं वाकई धर्मसंकट में पड़ गयी कि कैसे अपनी हंसी छुपाऊँ और उनकी समस्या का समाधान करूँ ! सभी  सती - नारियों का स्मरण करते हुए दुखी और गम्भीर शक्ल बनाते हुए इस इकलौते सफेद बाल का कारण जानना चाहा | उन्होंने कहा कि उस बाल के हिस्से  का  रंग  दुसरे बालों ने चुरा लिया है और दलित - दमित की तरह उस को धूप भी नहीं सेंकने दिया ,वरना धूप  में  ही  "सनबर्न"  के कारण काला हो जाता !  हम  दोनों ने एक आपातकालीन बैठक की और इस समस्या से निपटने के तरीके खोजना शुरू किया | शादी के समय सुख - दुःख  में  साथ निभाने की  ली  गयी कसमों की याद आते ही हमने उनको सुझाव देना शुरू किया | सबसे पहले मैंने कहा कि उस बाल को मैं काजल से रंग देती हूँ , पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया कि पानी पड़ने पर या पसीना होने पर वो  बाल  तो  सफेद हो जाएगा पर होंठ लाल की जगह काले लगेंगे और फिर इस के लिए मेरे ऊपर निर्भरता भी तो हो जायेगी | तब भी मैंने हिम्मत दिखाते हुए प्लकर ( बोले तो भौं - नोचनी ) खिदमत  में  पेश किया कि  उस  इकलौते  बाल  को उखाड़ फेंको | तभी उनको कहीं पढ़ी हुई बात याद आ गयी कि सफेद बाल उखाड़ने पर उससे निकलने वाले तरल द्रव से आसपास के बाल भी सफेद हो  जाते हों  और  मेरा ये दूसरा प्रयास भी रद्दी के टोकरे के हवाले हो गया | अभी भी विचार - विमर्श जारी है क्योंकि मेरी उपजाऊ बुद्धि ने उनकी  सहायता  करने  के  लिए  एक  और उपाय खोज निकाला है | मैंने कहा है कि वो क्लीनशेव हो जाएँ और इस वर्णभेद की दिक्कतों से ऊपर उठ जाएँ ! देखते हैं अंतिम निर्णय क्या होता है .... अगर ऐसा हो गया तो उनके प्रोफाइल में एक नयी फोटो देखिएगा ....... 
                                                                       -निवेदिता 

शनिवार, 7 जुलाई 2012

"गरजत बरसत सावन आयो रे"




अभी आँखों से नींद की खुमारी भी नहीं उतरी थी कि बहुत इंतज़ार कराने के बाद रिमझिम पड़ती फुहारों की बढ़ती तीव्रता ने एहसास दिला ही दिया कि "गरजत बरसत सावन आयो रे" .......... मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू अभी साँसों में बस भी न पायी थी कि इस वर्ष की पहली बरसात की पकौड़ियों के लिए लहराए जाने वाले इंकलाबी परचम की आहट भी मिल गयी ! एक सुगृहणी की तरह फरमाइश के पहले ही रसोई में पहुंच गयी पर ये क्या पकौड़े बनाने का उत्साह ठंडा पड़ता सा लगा बर्तनों का ढेर और फ़ैली हुई रसोई देख कर, काम वाली बाई अभी तक नहीं आयी थी ...... किसी प्रकार मनोबल बनाये रखते हुए खुद को एक दिलासा दिया कि थोड़ी देर में आ जायेगी तब तक पकौड़े तो बना ही लिए जायें | रसोई से फैलती तले जाते पकौड़ों की खुशबू बारिश का आनन्द लेते बाकी सदस्यों को आनन्दित कर रही थी साथ में आती फ़ूड -प्रोसेसर की आवाज़ चटनी के लिए भी आश्वस्त कर रही थी | 

बारिश की बूंदों और तेल में छनती पकौड़ियों की ताल से ताल मिला कुछ गुनगुनाने का प्रयास मोबाइल की पुकार से कंठ में ही अटक गया और भोलेबाबा को मनाने लगी कि ये पुकार महरी की न हो .......... पर लगता है भोलेबाबा किसी दूसरी दिशा के दौरे पर निकल गये थे ..( .....महरी की खनकती आवाज़ कह रही थी कि वो आज पहली बरसात की पहली छुट्टी लेगी ....अब क्या कर सकते थे , दूसरे दिन तो आ जाए इसलिए हमने भी दुगनी खनकती आवाज़ में कहा कोई बात नहीं कल आ जाना |

अब दुबारा भोले बाबा को पुकार कर पूछती हूँ कि सावन और महरी, इन दोनों को साथ-साथ भेज दें ...... चलिए तब तक आप भी पकौड़ों के साथ तीखी चटपटी चटनी का लुत्फ़ उठायें .......


रविवार, 1 जुलाई 2012

ओस फूलों पर नहीं हवा में है ........



अनदेखे अनजाने अनिश्चित 
अनोखे घटित अघटित की 
राह तकते , कुबेर सा 
अकूत खजाना संजोया ....
पल पल घटती छीजती जाती 
ज़िन्दगी के छोटे-बड़े लम्हों का 
कब मान किया अभिमान किया 
गुमान किया बस कच्ची पक्की 
घुमड़ती बातों का .....
प्यास थी एक बूँद की 
उस भटकी बूँद की चाह में 
उफनती गरजती सागर की 
नमकीन लहरों ने ,उस
नन्ही बूँद को खारा किया 
ओस फूलों पर नहीं हवा में है 
इसका भी हवाओं ने गुमान किया ........
                                          -निवेदिता