वो २९ जून का ही दिन था जब अचानक ही मेरे देवर "आशू" का फोन आया था अमित जी के पास " भाभी को लोहिया में एडमिट कर दिया गया है "........ हम कुछ समझ ही नहीं पाए थे ऐसा कैसे हो गया क्योंकि वो तो एकदम स्वस्थ थीं ......... परिस्थितियाँ इतनी तीव्र गति से बदलीं कि रात के दस बजते - बजते हम सब दीदी को लेकर पी .जी .आई .में थे ......... इमरजेंसी में दीदी का हाथ थामे हुए अपने समस्त आत्मबल को संजोये हुए बस "ॐ नम:शिवाय" जप रही थी ........ हर बीतता हुआ पल जैसे ह्मारे धैर्य की सीमा का आकलन कर रहा था ......... देर रात तक हमारा पूरा परिवार एक दूसरे का सम्बल बढाता इकट्ठा हो गया था ......... रात बीतते न बीतते वो वेंटिलेटर पर आ गईं थीं ........ अजीब सी मन:स्थिति लिए हम सब एक दूसरे में विश्वास बीजते रहे ....... दोनों बच्चे अपनी छोटी चाची के साथ मन्दिर - मजार - दरगाह पर दुआ मांग रहे थे ,कितने अनुष्ठान भी किये जा रहे थे ........ दोनों बच्चे हाथों में प्रसाद लिए जब भी वापस आते ,उनकी खामोश निगाहें मानो एक ही आस लिए रहती कि शायद इस बार कोई आशाजनक पल उनके हिस्से में आ जाए ,पर हम सब जैसे निगाहें चुराते उनसे ही आशा का सम्बल मांगते थे ......... उन बेबस दिनों में ,मैं प्रतीक्षालय में बैठी बस यही दुआ करती कि किसी भी प्रकार दीदी की चेतना जागृत हो जाए ,बेशक कितना भी समय लगे पर हम अपनी सेवा से उनको वापस पा लेंगे क्योंकि सुना तो यही था कि वेंटीलेटर पर जाने के बाद भी ठीक हो जाते हैं ,पर ...........
बाहर बैठी - बैठी उन दिनों मैं आने वाले दिनों के बारे में सोचती थी कि दीदी के स्वस्थ होने को हम सब कैसे उत्स्वित करेंगे ,कैसे उनसे एक बार तो लड़ भी लूंगी कि ऐसी भी क्या नाराजगी जो हमारी नींद उड़ा कर ऐसे सो रहीं हैं ,पर दस जुलाई की शाम हम सब पर इतनी भारी पड़ गयी जब डाक्टर ने अपनी असमर्थता प्रकट कर दी ......... तब हर एक पल इतना भारी होता चला गया ......... बेबस सी सोचती रही 'हुमायूँ और बाबर का किस्सा' पर शायद ऐसा कहानियों में ही सम्भव है ,असली जीवन में कोई व्यक्ति अपने हिस्से की साँसे किसी अन्य को किसी भी तरह नहीं दे सकता ......... पूरी रात एक चमत्कार की उम्मीद लगाये सी . सी . यू . की सीढ़ियों पर अपलक निहारती रही कि शायद किसी भी पल हमको दीदी के होश में आने का सुसमाचार मिल जाए ,पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और ग्यारह जुलाई की सुबह अपना अन्धकार फैला कर , हमारे परिवार की जीवन्तता का पर्याय ,दीदी को अनजान राहों पर ले गयी और हम सब अपनी असमर्थता के एहसास का बोझ लिए लिए बिखर गये थे .........
दीदी को उनकी अंतिम यात्रा के लिए अपने ही हाथों से सजाया और अंतिम प्रणाम भी किया ,पर आज भी हर पल लगता है कि वो किसी भी कोने से हंसती हुई निकल आयेंगी ..........
ग्यारह जुलाई के पहले मन में अनेक आशाएं संजोये हुए मैं आने वाले दिनों के बारे में सोचती रहती थी ,पर उसके बाद अभी तक मैं बीते हुए दिनों के बारे में ही सोचती रहती हूँ ...... मेरी कोई बहन नहीं थीं ,विवाह के बाद दीदी को बड़ी बहन के रूप में ही माना था ......... विवाहोपरांत मेरे पहले जन्मदिन के दो तीन दिन पहले हमारे लाडले देवर आशू की 'छोले भटूरे' की फरमाइश को दीदी ने टाला तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था क्योकि वो उनकी फरमाइश सबसे पहले पूरा करतीं थीं , बाद में पता चला कि मेरे जन्मदिन के उपलक्ष्य में बनने वाले व्यंजन की सूची उन्होंने पहले ही तैयार कर ली थी जिसमें छोले भटूरे भी थे ........ अपने इस जन्मदिन पर ये याद मुझे बहुत कचोट गयी (
दीदी व्यवहारिक थीं परिस्थितियों के अनुसार वो कई बातों को टाल भी जातीं थीं ,जबकि मैं उनके विपरीत जो भी सोचती थी बेख़ौफ़ बोल जाती थी ........... कभी-कभी इसी वजह से हम में मतभेद भी जाते थे पर हममें मनभेद कभी भी नहीं हुआ ........... इतना विश्वास था मन में कि कभी भी उनसे कुछ भी बातें कर सकती थी ......... आज एक आश्वस्ति है मन में कि कभी भी जाने अथवा अनजाने में उनकी अनदेखी नहीं की ...........
अल्पायु भी समझ में आती है ,पर इतनी अल्प ........अविश्वसनीय ही नहीं त्रासद भी है ....... समझाना चाहती हूँ खुद को कि ......
"तुलसी या धरा को प्रमान यही
जो फरा सो झरा ,जो बरा सो बुताना "
रोज जब आपकी तस्वीर को सबसे निगाहें छुपाते हुए प्रणाम करती हूँ तो बस दिल कचोट उठता है कि माला तो हमेशा आपके गले में ज्यादा सजती थी फिर ऐसा क्यों …………
-निवेदिता