"आंखों" के झरोखों से बाहर की दुनिया और "मन" के झरोखे से अपने अंदर की दुनिया देखती हूँ। बस और कुछ नहीं ।
शुक्रवार, 21 जुलाई 2017
गुरुवार, 6 जुलाई 2017
रंगों में लकीरों में तुम्हे उकेरुं .....
सोचती हूँ आज इस कोरे से कैनवस पर
रंगों में लकीरों में तुम्हे उकेरुं .....
पर बोलो तो क्या ये हो भी पायेगा
अपने ख़्वाबों की हकीकत से निकालूँ कैसे
तुमको खुद से दूर करूं
हाँ ! निरखूं परखूं तभी तो
रंगों से सहेज निखारूँ तुम्हे कैनवस पर
पर सुनो न .... खुद से .....
तुमसे अलग हो कर क्या देख भी पाऊँगी
विवेकशून्य दृष्टिहीन क्या कर सकूँगी
छोड़ो न ...... क्या करना .....
तुम तो बस मेरे इंद्रधनुषी स्वप्न से
मेरे अंतर्मन में ही सजे रहना ...... निवेदिता
रंगों में लकीरों में तुम्हे उकेरुं .....
पर बोलो तो क्या ये हो भी पायेगा
अपने ख़्वाबों की हकीकत से निकालूँ कैसे
तुमको खुद से दूर करूं
हाँ ! निरखूं परखूं तभी तो
रंगों से सहेज निखारूँ तुम्हे कैनवस पर
पर सुनो न .... खुद से .....
तुमसे अलग हो कर क्या देख भी पाऊँगी
विवेकशून्य दृष्टिहीन क्या कर सकूँगी
छोड़ो न ...... क्या करना .....
तुम तो बस मेरे इंद्रधनुषी स्वप्न से
मेरे अंतर्मन में ही सजे रहना ...... निवेदिता
शनिवार, 1 जुलाई 2017
मृत्यु .......
मृत्यु जीवन का सबसे बड़ा सच है पर इसके जिक्र भर से ही सब परेशान हो जाते हैं और ऐसे देखते हैं जैसे कितनी गलत बात कर दी गयी हो | जबकि देखा जाये तो जन्म की तरह ही मृत्यु एकदम सहज और अवश्यम्भावी घटना है | जिस भी चीज ,जीवित अथवा निर्जीव ,का सृजन हुआ है उसका संहार तो होना ही है |
अक्सर ये प्रश्न मन को मथता है मृत्यु जन्म है या जन्म ही मृत्यु | इस सोच के पीछे मूलतः ये सोच रहती है कि जब जन्म लिया तभी तो मृत्यु आ सकती है और जब मृत्यु आएगी तभी तो जन्म ले पाएंगे | तुलसीदास जी ने भी कहा है ....
"तुलसी या धरा को प्रमाण यही है
जो जरा सो फरा
जो फरा सो ज़रा
जो बरा सो बुताना "
पहले ही माफ़ी तुलसीदास जी के शब्द एकदम शब्दशः नहीं लिख पायी ,पर काफी हद तक पहुँच गयीं हूँ |
एक प्रश्न और सोच को थामता है कि मृत्यु शरीर का अंत है या शरीर के पूर्ण होने का पल | इस सोच के पीछे भी एक ही दर्शन है कोई भी चीज जब अपना सम्पूर्ण विस्तार पा जाती है तो उसका क्षरण प्रारम्भ हो जाता है इस लिहाज से मृत्यु जन्म ही है .....
ये भी लगता है मृत्यु है क्या ..... क्या सिर्फ सतत आने जाने वाली साँसों का थमना ही मृत्यु है या फिर याद किये जाने लायक व्यवहार या कर्मों का न होना मृत्यु है ! मृत्यु से सिर्फ शरीर ही नहीं समाप्त होता है अपितु किसी के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंश भी समाप्त हो जाता है | पर हाँ अगर हमारे कर्म और व्यवहार अच्छे होते हैं तो लोग अपनी यादों में ही हमें जिन्दा रखते हैं |
मृत्यु के विषय में जितना भी और जिस भी मनःस्थिति में सोचा है ,सबके मूल में सिर्फ एक ही तत्व पाया है और वो है जुड़ाव के भय का | हम जिनसे भी मन या समाज के स्तर पर कहीं न कहीं जुड़े होते हैं ,उनके बारे में कमियाँ पता होने के बाद भी हम उनके गलत कार्यों की भर्त्सना करते हुए भी उनकी सलामती की कामना करते हैं | इस मनःस्थिति का सबसे ज्वलंत उदाहरण मंदोदरी है | रावण जब जब बलात किसी स्त्री का अपहरण करता मंदोदरी उसके विरोध में ही खड़ी रहती पर उसी रावण के अमरत्व के लिये उसने तप भी किया | शायद ये मन का जुड़ाव और बुद्धि से मृत्यु की कामना की उलझन ही थी | इस तरह मृत्यु जुड़ाव का दूसरा नाम भी लगता है मुझको तो !
ये भी लगता है कि मृत्यु एक सतत चलनेवाली प्रक्रिया ही है ,किसी भी संशय अथवा उस संशय के परिणाम से भी परे | मृत्यु सिर्फ मृत्यु है जो किसी अपने की हो तो अपने ही शरीरांश के कटे हुए होने जैसी बहुत पीड़ा दे जाती है ,किसी परिचित की हो तो श्मशान वैराग्य हो जाता है और जब वो सिर्फ एक खबर हो तो एक जिज्ञासा और मृतक के कर्मफल का विवेचन ही होती है ............ निवेदिता
#हिंदी-ब्लॉगिंग
"तुलसी या धरा को प्रमाण यही है
जो जरा सो फरा
जो फरा सो ज़रा
जो बरा सो बुताना "
पहले ही माफ़ी तुलसीदास जी के शब्द एकदम शब्दशः नहीं लिख पायी ,पर काफी हद तक पहुँच गयीं हूँ |
एक प्रश्न और सोच को थामता है कि मृत्यु शरीर का अंत है या शरीर के पूर्ण होने का पल | इस सोच के पीछे भी एक ही दर्शन है कोई भी चीज जब अपना सम्पूर्ण विस्तार पा जाती है तो उसका क्षरण प्रारम्भ हो जाता है इस लिहाज से मृत्यु जन्म ही है .....
ये भी लगता है मृत्यु है क्या ..... क्या सिर्फ सतत आने जाने वाली साँसों का थमना ही मृत्यु है या फिर याद किये जाने लायक व्यवहार या कर्मों का न होना मृत्यु है ! मृत्यु से सिर्फ शरीर ही नहीं समाप्त होता है अपितु किसी के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंश भी समाप्त हो जाता है | पर हाँ अगर हमारे कर्म और व्यवहार अच्छे होते हैं तो लोग अपनी यादों में ही हमें जिन्दा रखते हैं |
मृत्यु के विषय में जितना भी और जिस भी मनःस्थिति में सोचा है ,सबके मूल में सिर्फ एक ही तत्व पाया है और वो है जुड़ाव के भय का | हम जिनसे भी मन या समाज के स्तर पर कहीं न कहीं जुड़े होते हैं ,उनके बारे में कमियाँ पता होने के बाद भी हम उनके गलत कार्यों की भर्त्सना करते हुए भी उनकी सलामती की कामना करते हैं | इस मनःस्थिति का सबसे ज्वलंत उदाहरण मंदोदरी है | रावण जब जब बलात किसी स्त्री का अपहरण करता मंदोदरी उसके विरोध में ही खड़ी रहती पर उसी रावण के अमरत्व के लिये उसने तप भी किया | शायद ये मन का जुड़ाव और बुद्धि से मृत्यु की कामना की उलझन ही थी | इस तरह मृत्यु जुड़ाव का दूसरा नाम भी लगता है मुझको तो !
ये भी लगता है कि मृत्यु एक सतत चलनेवाली प्रक्रिया ही है ,किसी भी संशय अथवा उस संशय के परिणाम से भी परे | मृत्यु सिर्फ मृत्यु है जो किसी अपने की हो तो अपने ही शरीरांश के कटे हुए होने जैसी बहुत पीड़ा दे जाती है ,किसी परिचित की हो तो श्मशान वैराग्य हो जाता है और जब वो सिर्फ एक खबर हो तो एक जिज्ञासा और मृतक के कर्मफल का विवेचन ही होती है ............ निवेदिता
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