शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

खामोश से शब्द .....

तुम अक्सर गुनगुनाते हो
मेरे मन में
खामोश से शब्द बोलते हैं ,
सुनना चाहोगी
मैंने भी इक नामालूम सी
खामोशी से कहा
हाँ ! मैं सुन रही हूँ
तभी तो खामोशियाँ
गुनगुनाती गाती हैं
अब बस इतना ही
सुनिश्चित कर लेना
खामोश से शब्द
तभी बोलना
जब मैं रहूँ वहीँ कहीं
ख़ामोशी को संजो लेने
अपने उर में  ....  निवेदिता


बुधवार, 4 नवंबर 2015

कुछ सृजन कर ही जाउंगी ....



मेरी यादों के पाँव तले 
तुम्हारे वादों के कंटक 
जब - तब चुभ जाते हैं 
और मैं  
सिहर सी जाती हूँ  
तड़क भी जाती हूँ 
मिटटी सा बिखर भी जाती हूँ 
बादल सा बरस भी जाती हूँ 
नन्हे बीज सा चिटक भी जाती हूँ 
तभी जैसे पलकें खिल जाती हैं 
हां ! मिटटी सा बिखर जाती हूँ 
पर इस बिखरने में ही उर्वरा हो जाती हूँ 
बादलों की बारिश से ही तो 
जीवन की नमी मिल जाती है 
बीज की चिटकन ही तो 
वृक्ष की विशालता छुपाये रखती है 
जब - जब बिखरूँगी - टूटूँगी - चटकूंगी 
कुछ सृजन कर ही जाउंगी  .... निवेदिता 

रविवार, 1 नवंबर 2015

रश्मि रविजा ---- "काँच के शामियाने"



रश्मि रविजा के उपन्यास "काँच के शामियाने" को कई बार पढ़ गयी  .......   पहली बार के पढ़ने में ही रेशमी धागों की छुवन का एहसास जाग गया था  .......... . एक ऐसे रेशमी छुवन का एहसास जो अपने रचनात्मक प्रवीणता से सहज ही गतिमान रखता है ,फिसलाता सा  … पर उस के छोर पर एक नामालूम सी गाँठ लगी है ,जो मन को भटकने नहीं देती और कथानक के प्रवाह को एक सतत गति भी देती है  ....

रश्मि ने स्त्री मन के हर पहलू को बड़ी ही नफ़ासत से रचा है  ………  "जया" में अधिकतर स्त्रियों के मन के तार बज उठते हैं  .... न्यूनाधिक रूप से सब में वो समाहित है  … किशोर मन सारे शोख रंग अपने दामन में संजोना चाहता है ,पर सच का दूसरा रूप सामने आने पर कदम लड़खड़ा तो जाते हैं पर जीवन की जिजीवषा विजयी होती है  ....

हर चरित्र अपने अनूठे मनोविज्ञान से आकर्षित भी करता है और प्रश्न भी करता है  ...…. राजीव एक खोखले अहं के साथ जीवन जीता है तो जया तराजू के पलड़ों को साधती धुरी सा  .... पढ़ते हुए जब मन एक अंधियारे खोह सा लगने लगता है तभी संजीव एक प्राण - वायु के झोंके सा मन झंकृत कर जाता है  …

भाषा की बात करूँ तो थोडे से आंचलिक शब्द भी हैं ,पर वो कथन की गति के प्रवाह में सहज ही लगते हैं  .... कई वाक्य तो एकदम से सूत्र वाक्य से लगते हैं ,जो अपनेआप में सम्पूर्ण हैं  ....
१ - क्यारी में आँसुओं से सींचे ,दृढ़ निश्चय का खाद पाकर खिले ये तीन फूल  ( बच्चों के लिए लिखा है )
२ - वो दोनों दो अलग - अलग ध्रुव की तरह हैं 
३ - बच्चे तो गीली मिटटी समान होते हैं 
४ - अधिकार तो किसी घर पर नहीं होता । बस शामियाने से तान दिए जाते हैं सर पर । वो भी काँच के शामियाने जो ज़िंदगी की धूप को संग्रहित कर और भी मन प्राण दग्ध कर जाते हैं । 

रश्मि के लेखकीय कौशल की मैं पहले ही बहुत सराहना करती थी ,पर अब इस उपन्यास को बार - बार पढ़ते हुए उसकी लेखनी का अभिनंदन करना चाहती हूँ  …

रश्मि ने कुछ समय पहले एक बार मझे ये सुझाव भी दिया था कि किताबें पढ़ने के बाद ये लिखूं कि वो मुझ को कैसी लगी  ,तो रश्मि ये काम तुम्हारे उपन्यास के साथ ही पहली बार करने का प्रयास किया है  … अब मेरा ये प्रयास तुमको कैसा लगा ये तो तुम ही बेहतर बताओगी  .... निवेदिता