"आंखों" के झरोखों से बाहर की दुनिया और "मन" के झरोखे से अपने अंदर की दुनिया देखती हूँ। बस और कुछ नहीं ।
बुधवार, 18 अप्रैल 2012
रविवार, 15 अप्रैल 2012
मृदुल उपहार ......
आक्षेपों और आक्रोश
सहते-सहते व्यथित
क्लांत मन ,दृढमना
बनने की चाह में एक
अकेला कोना तलाश
कुण्डलिनी जगाता ,
बिचारी दूर्वा सा ,पुन:
शीश उठा उन्मत्त हो
तत्परता से विपरीत
धारा में बहने चला ....
किरच रहित दीखते
तानों-बानों में ,मन की
रपटीली सी चट्टान
टिकाने चला ......
निर्दोष दिखती सतह से
मुलाक़ात की सजा सा ,
चिटकी हुई चट्टान की
विडम्बना ढ़ोने को मन
विवश हुआ .............
थका मन ,पीड़ा सहलाने की
चाह लिए ,कीचड़ को
निरख उठा ....
कभी कीचड़ के दाग से
डरा मन ,कमल को भी
अनदेखा करता रहा
व्यथित मन आज भी
कमल तो न पा सका
पर बिलकुल अनपाया भी न रहा
कीचड़ ने अपनी गरिमा नहीं खोयी
चिटकी हुई चट्टान को
सेवार की कोमलता का
मृदुल उपहार दिया ..........
-निवेदिता
गुरुवार, 12 अप्रैल 2012
सम्वादहीनता अथवा सम्वादों की सम्वेदनशीलता
अक्सर गुरुजनों और मित्रों से सलाह मिलती रही है कि विवाद में पड़ने से अच्छा है कि सम्वादहीन हो जायें । आज सोचा इसी पर कुछ और मनन करूँ । अगर देखा जाए तो ये "सम्वाद" है क्या ! मुझे तो ऐसा ही लगता है कि अगर समता के स्तर पर कुछ सार्थक बातें हों तभी सम्वाद के मूल तत्व तक पहुंचा जा सकता है । प्रश्न यही है कि समता का स्तर माना किसको जाए ! सम्भवत: जब हम एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान कर पायें तब ही समानता का स्तर पाया जा सकता है । जब हम दूसरे को अपने समकक्ष पायेंगे तो निरर्थक विवाद से बच जायेंगे । विवाद तभी होता है जब हम दूसरे को खुद से कम आंकते हैं और सोचते हैं कि उस को हमारी सब बातें अनिवार्य रूप से माननी चाहिए।
निरर्थक होने वाला विवाद असंतुष्टि को प्रेरित करता है और ये असंतुष्टि का भाव ही सम्वादहीनता की तरफ अनायास ही ले चलता है । अक्सर हम सोचने लगते हैं कि हम उस व्यक्ति के साथ बातें करके अपना समय व्यर्थ नष्ट कर रहें हैं ,यही भाव आत्मतुष्टि में बदल जाता है कि हम सही हैं और उस व्यक्ति से हम सम्वादहीनता का रिश्ता बना कर संतुष्ट हो जाते हैं ।
किसी से इतनी दूरी बना लेना कि उससे बातें ही न करें ,मुझे नहीं लगता किसी भी समस्या का कोई समाधान है । ये तो असम्वेदनशील होना ही दर्शाता है । किसी भी समस्या का समाधान आपसी विचार-विमर्श से ही होता है । अक्सर बहुत छोटी-छोटी बातें भी आवाज़ खो जाने से , विमर्श न कर पाने से बहुत बड़ी हो जाती हैं ।
सम्वादहीनता तो किसी के भी साथ नहीं होनी चाहिए ,क्योंकि ऐसी परिस्थितियाँ कई सम्बन्धों में छुपी हुई दूरियों को बहुत बढ़ा देतीं हैं । अगर हम बातें करतें रहतें हैं तब उस विवाद के मूल कारण और कारक का भी पता चल सकता है । एक तरह से देखा जाए तो जब भी हम किसी से बातें करतें हैं उसके प्रति कुछ अतिरिक्त रूप से सम्वेदनशील हो जाते हैं उसकी कठिनाइयों को भी हम समझने लगते हैं ....ऐसा करते ही उस तथाकथित विवाद का समाधान भी मिल जाता है । इसीलिये सम्वादहीन होने से बहुत अच्छा होगा अगर हम सम्वादों की सम्वेदनशीलता बनाये रखें !
-निवेदिता
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