मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

26 / 04 / 2016



सच कहा तुमने
बहुत सोचती हूँ
पर ये भी कभी 

सोच कर देखना
सोचती हूँ इतना
तभी तो अभी तक
धड़कनों ने
याद रखा है धड़कना
और हाँ !
याद रखना
ये जो मेरी सोच है
यही तो हूँ मैं
पूरी की पूरी
आत्मा तक
मैं .....
बताओ न
क्या कभी कर पाओगे
स्वीकार मुझको
जैसी हूँ मैं
वैसी ही मुझको ..... निवेदिता

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

नन्हे नन्हे से बिंदु ...... ????




अक्सर नन्हे नन्हे से सुई की नोक बराबर बिंदुओं को देख सोचती हूँ ,अगर इन बेतरतीब से बिखरे हुए बिंदुओं को एक सीधी साधी सी रेखा जैसे एक सामान्य से दिखते हुए क्रम में रख दूँ ,तब शायद इस ख्यालों के ट्रैफिक जाम से मुक्तमना हो मन कुछ सहज सा सोच समझ पायेगा  ..... पर अगले ही पल लगता है क्या बिखराव को ,इन बिंदुओं की एक सरल रेखा बनाना क्या सम्भव है  .... और हाँ !  तो  कि इस सब प्रक्रिया का प्रयोजन क्या है  .... इनका  अस्तित्व ,शायद इनके बिंदु बने रहने में ही है   ...... 

अगर ये समस्त बिंदु दिखने में एक सरल सी दिखने वाली रेखा में परिवर्तित हो भी जाएँ ,तब भी जब इनके स्वत्व को ,इनकी पहचान को ठोकर लगेगी तब आने वाला बिखराव शायद इनको एक बिंदु भी न रहने देगा और वो घुटन इस सूक्ष्मतम तत्व को भी शून्य में भटकने पर विवश कर देगी  ..... 

कभी कभी ये भी सोचती हूँ कि चुनाव के समय इन नन्हे से परावलम्बित दिखने वाले बिंदुओं को चुना ही क्यों जाता है  .... शायद आत्ममुग्धता की स्थिति होती होगी वो कि हम कितने सक्षम हैं कि इन बेकार से बिंदुओं को भी एक तथाकथित सफल ढाँचे में फिट कर दिया  .... पर कभी उन बिंदुओं से भी पूछ कर देखना चाहिए कि हमारे निर्मित ढाँचे में फिट बैठने के लिए उन्होंने भी तो अपने अस्तित्व पर होने वाली तराश या कहूँ नश्तर के तीखेपन को झेला ही है  .... हाँ उन्होंने अपने घावों की टपकन नहीं दिखने दी और हमारे कैसे भी ढाँचे में फिट हो गए ,इसके लिए उनके अस्तित्व को एक स्वीकार तो देना ही चाहिए  ..... 

रेखा ,बड़ी हो अथवा छोटी उसको ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि उसकी शुरुआत उस एक बिंदु से ही हुई है ,जिसको वो अनदेखा करता रहा है और उसके अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़े करता रहा है  .... निवेदिता 

रविवार, 17 अप्रैल 2016

पूर्ण विराम .....



" पूर्ण विराम "  ... ये ऐसा चिन्ह है जो वाक्य की पूर्णता को दर्शाता है  । लगता है शायद उस स्थान पर आकर सब कुछ समाप्त हो गया है । यदयपि उन्ही बातों को शब्दों के मायाजाल से सजा कर कुछ अलग - अलग रूप देकर अपने कथ्य को थोड़ा विस्तार देने का प्रयास तब भी होता रहता है । 

एक सामान्य जीवन भी ऐसा ही होता है । जब हम छोटे होते हैं तब हमारे अभिभावक हमारी ऊँगली थाम कर हमको चलना सिखाते हैं - शिक्षा के द्वारा और अपने संस्कारों के भी द्वारा । अक्सर वो अपने अपूर्ण सपनों को हमारी पलकों में सजा हमारे जीवन का उद्देश्य बना देते हैं । हम भी सहज भाव से उनको अपना मान पूरे मनोबल से साकार करने में जुट जाते हैं । कभी अपने असफल रह जाने पर ,एक परंपरा की तरह ,उस सपने को अपनी संतति के पलकों तले रोप देते हैं ,और फिर जो हमने किया था वही हमारी अगली पीढ़ी करने लग जाती है । इस तरह से लगता है कि हम पूर्णविराम के बाद बारम्बार हम चेहरे बदल बदल कर भी वही कहते और करते रह जाते हैं  ..... 

वैसे यहाँ तक भी पूर्णविराम के बाद भी जीवन जीवित लगता है । जब अभीष्ट मिल जाता है ,तब उस पल वाकई जीवन पूर्णविराम को प्रतिबिम्बित करता लगता है । जैसे लगता है कि अब करने को कुछ बचा ही नहीं । जैसे एक नशे की मनःस्थिति में जीवन बीतता गया कि अभी बच्चों को शिक्षित करना है ,अभी संस्कार देने हैं ,अभी समाज से उनका परिचय कराना है और सबसे बढ़कर उनकी पहचान को दृढ़ता देना है । सीधे शब्दों में कहूँ तो बस ये लगता है कि उनके हर कदम पर और जब भी वो पलट कर पीछे देखें तो उनको एक आश्वस्ति का बल देना है कि वो अकेले नहीं है अपितु दिखे या न दिखे हम हमेशा उनके साथ हैं । 

इतना सब होने के बाद का पल ,लगता है जीवन के वाक्य पर पूर्णविराम लग जाता है । एक विचित्र सी मन:स्थिति होती है जैसे सब कुछ रीत गया और गागर खाली हो गई है । अब करने को कुछ बचा ही नहीं और जीवन शून्य हो गया है ,अब तो इस पर भी पूर्णविराम लग ही जाना चाहिए  ...... निवेदिता 

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

12 / 04 / 2016





ये चाहतें न  .... 
सच बड़ी ही अजीब होती हैं 
बेमुरव्वत सी कभी भी कहीं भी 
सरगोशियों में दामन थाम 
कदमों को उलझा देती है 
आज भी ,देखो न  .... 
कैसी अजीब सी चाहत 
पलकें अधमुंदी रखे 
जाने कैसे तो रंग बिखेर 
टकटकी लगाये है  .... 
उँगलियों की गुंजल बनाए 
देख रही है मुझको 
पता है क्या थामना चाहती है 
उस गुंजल में  .... 
जियादा कुछ नहीं बस एक छाता 
जो भरा हो सिर्फ और सिर्फ विश्वास से 
जानती हूँ ,ये छाता 
शायद  ...... 
बचा न पायेगा मुझको 
जिंदगी की कश्मकश भरी धूप से 
और न ही उम्मीदों की बारिश से 
पर  .....  तब भी  .... शायद  ..... 
नहीं  .... यकीनन  .... 
एक हौसला तो आ ही जायेगा 
जिंदगी की आँखों में आँखे डाल 
धड़कनों में साँस भर जी लेने का  ..... निवेदिता 

रविवार, 10 अप्रैल 2016

ये हँसी .......



कभी कभी 
ये हँसी 
उमगती है 
किलकती है 
बस एक 
झीनी सी
ओट दे जाने को
और आँसुओं को
ख़ुशी के जतलाने को
और हाँ
ये आँसू भी तो
बेसबब नही
इनसे ही तो
बढ़ जाता
नमक जिंदगी में ...... निवेदिता