सोमवार, 22 अप्रैल 2019

लघुकथा : परिवर्तन

लघुकथा : परिवर्तन

"अरे ... ये क्या बहू तुम चाय पी रही हो ... और तुमने ये बिंदी ,चूड़ी उतार रखी है । पता नहीं ये आजकल की लड़कियाँ अपने मायके में क्या देखती और सीखती हैं ।तुम्हारे मायके में जो भी होता हो अब एक बात ध्यान में रख लो अच्छे से तुमको यहाँ की परम्पराओं का पालन करना ही होगा ... " अनवरत बोलती सासू माँ की निगाह बहू के पैरों पर पड़ गयी और जैसे ज्वालामुखी फट पड़ा ... चाय का कप फेंकते हुए चीख पड़ीं ,"हद्द कर दी बहू तुमने तुमने बिछुये भी नहीं पहने हैं ... चाहती क्या हो  ... अपने ही पति का अपशगुन क्यों कर रही हो ..."

अन्विता के सब्र का बाँध जैसे टूट गया ... वो अपने संस्कारों से बंधी हाथ जोड़ कर बोल पड़ी ,"माँ मेरी तबियत ठीक नहीं है और मुझे दवा खाना है इसलिए मैंने चाय बिस्किट लिया है । "

सासू माँ ,"तुम्हारी तबियत हमारी परम्पराओं से बढ़ कर नहीं है ।"

अन्विता ,"माँ समय के अनुसार परम्पराओं को भी बदला जाता है । मुझे किसी श्रृंगार अथवा परम्परा का पालन करने में ऐतराज नहीं ,पर सिर्फ उनका ही विरोध करती हूँ जो व्यवहारिक हो और दिक्कत का कारण होती हैं। मेरे पैरों की उंगलियों में चोट लगी है जो बिछुये से दब कर और भी बढ़ती जा रही है । वैसे भी अगर परम्पराओं को समयानुसार न बदलते और सती प्रथा जैसी कुप्रथा को न बदलते तब पापा की मृत्यु के बाद आपको भी सती होना पड़ता ,जबकि आप तो तमाम परम्पराओं का बखूबी पालन करती थीं बस  इसीलिए ... "   
                                ... निवेदिता

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

पहाड़ भी मरते हैं ....

*पहाड़ भी मरते हैं*

आप गए तब सोचती रह गयी
एक चट्टान ही तो दरकी रिश्तों की
अब देखती हूँ
वो सिर्फ एक चट्टान नहीं थी
वो तो एक सिलसिला सा बन गया
दरकती ढहती चट्टानों का
आप का होना नहीं था
सिर्फ एक दृढ़ चट्टान का होना
आप तो थे एक मेड़ की तरह
बाँधे रखा था छोटी बड़ी चट्टानों को
नहीं ये भी नहीं ....
आप का होना था
एक बाँध सरीखा
आड़ी तिरछी शांत चंचल फुहारों को
समेट कर दिशा दे दशा निर्धारित करते
उर्जवित करते निष्प्राण विचारों को
एक चट्टान के हटते ही
बिखर गया दुष्कर पहाड़
मैं बस यही कहती रह गयी
सच मैं देखती रह गयी
पहाड़ को भी यूँ टूक टूक मरते ... निवेदिता

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

चन्द हाइकू

मन बावरा
बन बन भटका
मन भर का ...

रूखे बेरुखी
मन ही मन भावे
ये मेरा मन ...

प्रीत है सच्ची
फिर भी मन रूठे
जग न छूटे

नाराज़ नहीं
जीवन जी रही हूँ
नासमझ हूँ ... निवेदिता

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

लघुकथा : अस्तित्व की पहचान

लघुकथा : अस्तित्व की पहचान

अन्विता अर्चिका को देखते ही स्तब्ध रह गयी ,"अरे ... ये तुझे क्या हुआ ... कैसी शकल बना रखी है ..."

अन्विता जैसे अपनी सखी के मन में विराजमान शून्य तक पहुँच गयी हो ,उसको साहस देते हाथों से थाम लिया ,"जानती है अर्चिका असफलता या अस्तित्व को नकारे जाने से निराश होकर जीवन से हार मान लेने से किसी समस्या का समाधान नहीं मिल सकता । तुम्हारी ये स्थिति किस वजह से है ये मैं नहीं पूछूँगी सिर्फ इतना ही कहूँगी कि तुम्हारा होना किसी की स्वीकृति का मोहताज नहीं है । हो सकता है कि तुमको लग रहा होगा कि इतनी बड़ी दुनिया में तुम्हारा अस्तित्व ही क्या है । सच्चाई तो ये है कि हर व्यक्ति की कुछ विशिष्ट पहचान न होते है भी विशिष्ट अस्तित्व होता है । तुम पूरी दुनिया तो नहीं बन सकती पर ये भी सच है कि तुम्हारे बिना ये दुनिया भी अधूरी रहेगी । लहरों में उफान सिर्फ एक बूँद पानी से नहीं आ सकता पर उस जैसी कई नन्ही बूँदों का सम्मिलित आवेग ही तो तूफानी हो जाता है । अपनेआप को और अपनी महत्ता सबसे पहले खुद के लिये पहचानो ,फिर देखो तुममे कमी निकालनेवाले स्वर ही तुम्हारी वंदना करते हुए अनुगमन करेंगे ।"

खिड़की से झाँकते इंद्रधनुषी रंगों की चमक जैसे अर्चिका की आँखों में सज गयी !  ... निवेदिता

बुधवार, 3 अप्रैल 2019

पापा आप बहुत याद आये ....






शीर्षक : पापा आप बहुत याद आये

डगमगाते दृढ़ मना कदमों को
अनायस ही सप्रयास  बढ़ते देखा
आँखों से छलके आँसू
दिल ने भरी सिसकी
पापा आप बहुत याद आये

दरख़्त देखा जब बरगद का
आंधी में टूटी थी डाली
मौसम है फागुनी हवाओं का
चली धूल भरी आंधी
पापा आप बहुत याद आये

थामे थे कुछ जिन्दा लम्हे यादों ने
हाथों में भरी जब मिठास
नाम और रिश्तों की अजब ये दुनिया
छूटे कुछ बेजान से धागे
पापा आप बहुत याद आये

प्राणहीन शरीर नहीं डूबा करता
डूबा अक्सर ये गीला मन
जाते देखा जनाजा बुजुर्ग का
मन छनका काँच सा
पापा आप बहुत याद आये
                  .... निवेदिता

मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

लघुकथा : दूसरा अवसर

 लघुकथा : दूसरा अवसर

अन्विता ,"माँ ये सब समान फेंक दूँ क्या ... सारा खराब और टूटा फूटा है ... "

माँ ,"नहीं बेटा सब ठीक हो जायेगा ... ये इस चप्पल में दूसरा बंध डलवा देंगे ,तब घर मे पहनने के काम आ जायेगी । पैन का हैंडल ही तो टूटा है ,कपड़े से पकड़ कर  काम आएगा । अरे ये साड़ी तो मेरी माँ ने दी थी फट गई तो क्या हुआ ,उससे कुछ और बना लेंगे । अन्विता बेटा गृहस्थी सब समझ कर चलानी पड़ती है ,ऐसे ही कुछ भी फेंका नहीं जाता ।"

अन्विता ,"माँ यही तो मैं भी कहना चाहती हूँ ... भइया का शरीर शांत हुआ और भाभी को जीते जी ही मरना पड़ रहा है । जब इन निर्जीव वस्तुओं को फिर से उपयोगी बना सकती हैं आप ,तब जीती जागती भाभी को जीवन जीने का दूसरा अवसर क्यों नहीं मिल रहा ? माँ आप भाभी की शिक्षा पूरी करवाइए और उनकी पसंद का रंग उनके जीवन में फिर से भर दीजिये ।"
                                ..... निवेदिता