कन्या पूजन
हम सब ही उत्सवधर्मी मानसिकता के हैं । कभी परम्पराओं के नाम पर तो कभी सामाजिकता के नाम पर कोई न कोई बहाना निकाल ही लेते हैं ,नन्हे से नन्हे लम्हे को भी उत्सवित करने के लिये । ये लम्हे विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक करने का भी काम कर जाते हैं ,तो कभी - कभी खटास मिला कर क्षीर को भी नष्ट कर जाते हैं । खटास की बात फिर कभी ,आज तो सिर्फ उत्सवित होते उत्सव की बात करती हूँ ।
आजकल नवरात्रि पर्व में माँ के विभिन्न रूपों की पूजा - अर्चना की जा रही है । अब तो पण्डाल में भी विविधरूपा माँ विराजमान हो गयीं हैं । घरों में भी कलश - स्थापना और दुर्गा - सप्तशती के पाठ की धूम है ,तो मंदिरों में भी ढोलक - मंजीरे की जुगलबंदी में माँ की भेटें गायी जा रही हैं । कपूर ,अगरु ,धूप ,दीप से उठती धूम्र - रेखा अलग सा ही सात्विक वातावरण बना देती हैं ।
कल भी ऐसे ही एक कीर्तन में गयी थी । जाते समय तो मन बहुत उत्साहित था ,परन्तु वापसी में मन उससे कहीं अधिक खिन्न हो गया । माँ की आरती के पहले प्रांगण में कन्या - पूजन की धूम शुरू हो गयी । छोटी - छोटी सजी हुई कन्याएं बहुत प्यारी लग रही थीं । उनकी अठखेलियाँ देख लग रहा था कि मासूम सी गौरैया का झुण्ड कलरव करता सर्वत्र फुदक रहा हो ।
उन बच्चियों को जब कन्या - पूजन के लिये ले जाया जा रहा था ,तभी सहायिका का काम करनेवालियों की भी कुछ बच्चियाँ प्रसाद लेने आ गयीं । अचानक से ही इतनी तीखी झिड़कियाँ उन बच्चियों पर पड़ने लगे गयी जैसे उन्होंने कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो । हम लोगों के आपत्ति करने पर संयोजिका बोलीं कि जिनको आमंत्रित किया गया है ,उन्ही बच्चियों को पूजन और प्रसाद मिलेगा । जब देखा कि वो समझने को तैयार ही नहीं है ,तब हमने अपने पास से अलग से उन बच्चियों को कुछ राशि दी और समझाया कि वो अपनी पसंद से जो भी चाहें खरीद लें । मैं भी वहाँ और न रुक पायी और उद्विग्न मन से वापस आ गयी ।
घर आ कर यही सोचती रही कि ऐसा अनुचित व्यवहार कर के कैसे मान लें कि हमारे पूजन से ईश्वर प्रसन्न होंगे । ईश्वर तो सिर्फ उस भावना को देखते हैं जो हमारे अन्तःस्थल में बसी रहती है ।
कन्या पूजन के लिये बुलाये जाने वाले बच्चों को देखती हूँ तब बड़ा अजीब लगता है । घर से भी बच्चों को कुछ न कुछ खिला कर ही भेजते हैं । फिर जिन घरों में उनका निमंत्रण रहता है ,वहाँ बच्चे सिर्फ चख ही पाते हैं । बल्कि जिन घरों में वो बाद में पहुँचते हैं ,वहाँ तो वो खाने की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते हैं । बस फिर क्या है ... सब जगह से प्रसाद के नाम पर लगाई गई थाली पैक कर के बच्चों के घर पहुँचा दी जाती है । घरों से वो पूरा का पूरा भोजन दूसरी पैकिंग में सहायिकाओं को दे दिया जाता है और उस भोजन को खाते वही बच्चे हैं ,जिनको पूजन के नाम से दुत्कार दिया जाता है ।
आज के समय मे बहुत सी परम्पराओं ने नया कलेवर अपना लिया है । अब कन्या - पूजन की इस परम्परा को भी थोड़ा सा लचीला करना चाहिए । मैं कन्या - पूजन को नहीं मना कर रही हूँ ,सिर्फ उसके प्रचलित रूप के परिष्कार की बात कर रही हूँ ।
कन्या - पूजन के लिये सामान्य जरूरतमंद घरों से बच्चों को बुलाना चाहिए । उनको सम्मान और स्नेह सहित भोजन कराने के साथ उनकी जरूरत का कोई सामान उपहार में देना चाहिए । अधिकतर लोग माँ की छोटी - छोटी सी पतलीवाली चुन्नी देते हैं । उनके घर से निकलते ही ,वो चुन्नी कहाँ चली गयी किसी को ध्यान ही नहीं रहता । चुन्नी देने के पीछे सिर ढँक कर सम्मान देने की भावना रहती है ,परन्तु यही काम रुमाल या छोटी / बड़ी तौलिया से भी हो जायेगा । सबसे बड़ी बात कि बच्चे उसको सम्हाल कर घर भी ले जायेंगे ।
प्रसाद भी नाना प्रकार के बनाये जाते हैं ,जिनको बच्चे पूरा खा भी नहीं पाते और खिलानेवाले उनके पीछे पड़े रहते हैं कि खत्म करो । इससे अच्छा होगा यदि हम कोई भी एक या दो स्वादिष्ट वस्तु बना कर खिलाएं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अनाज उनको घर ले जाने के लिये दें । ऐसा करने से अधिक नहीं ,तब भी एक दिन और वह परिवार ताजा खाना बना कर खा भी सकेगा ।
उपहार में भी जो सामान दें उसकी उपयोगिता अवश्य देखे । प्रयास कीजिये कि ऐसा समान बिल्कुल न दें जो दिखने में बड़ा लग रहा हो परन्तु उनके लिये बेकार हो । कुछ ऐसे फल भी दे सकतें हैं ,जो जल्दी खराब नहीं होते हों ।
कन्या - पूजन का सबसे सार्थक स्वरूप वही होगा जब उनका जीवन सँवर सके । निम्न आयवर्ग के बच्चों के स्कूल की फीस बहुत कम होती है ,तब भी उनकी प्राथमिकतायें फीस भरने से रोक देती हैं । ऐसे एक भी बच्चे की फीस का दायित्व ,यदि हम उठा लें तब उस बच्चे के साथ ही उनके परिवार का भविष्य भी सँवर जायेगा ।इस कार्य के लिये आपको कहीं जाना भी नहीं पड़ेगा ,आपके या आपके घर के आसपास काम करनेवाले सहायकों के बच्चों की पढ़ाई का दायित्व ले सकते हैं ।
यदि हम इन सब में से कोई भी काम नहीं कर सकते तब भी सिर्फ एक काम जरूर करना चाहिए । जब भी किसी भी उम्र अथवा परिवेश के बच्चे को किसी भी गलत परिस्थितियों में पाएं ,तब उसकी ढाल बन जाना चाहिए । जब बच्चों के साथ कुछ गलत होने की संभावना बचेगी ही नहीं ,तभी स्वस्थ और संतुलित परिवेश में बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा और एक अच्छे समाज का निर्माण स्वतः ही होने लगेगा ।
अन्त में मैं सिर्फ यही कहूँगी कि परम्पराओं का पालन अवश्य करें ,बस उस मे तात्कालिक परिवेश की प्राथमिकताओं का समावेश अवश्य कर लें ।
.... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"