"आंखों" के झरोखों से बाहर की दुनिया और "मन" के झरोखे से अपने अंदर की दुनिया देखती हूँ। बस और कुछ नहीं ।
रविवार, 29 अगस्त 2010
ख्वाब
अगर खवाब अपने को नही बदलते तो हम ही अपने को क्यो बदले ? ख्वाब टूटते रहे हम भी नये बुनते रहेगे । देखते है पह्ले कौन थकता है। खवाब के नाम से सह्मते हुए भी कुछ न कुछ खवाब तो बुन ही लेते है चाहे वो उधडता ही जा रहा हो साथ ही साथ मे ।
शनिवार, 28 अगस्त 2010
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