सोमवार, 27 अगस्त 2012

मैं डर जाती हूँ .... क्यों ?


जब भी गूँजी कहीं गोली की आवाज़ 
या बिखरी कहीं किसी दंगे की बात 
बेसबब ये बाँहें फ़ैल गयी 
चाहत उभरी इस पूरे जहान को 
अपने विश्वास के दरकते दामन में 
समेट कर सबसे ओझल कर देने की 
हर वहशत ,हर दहशत से बचा 
अपनी कोख में वापस छुपा लेने की 
जब तुम्हे दिखेगी हर तरफ सिर्फ ...
हाँ ! सिर्फ और सिर्फ माँ 
एक ऐसी व्याकुल सहमी माँ 
जो परेशान है ,तुम्हारी सलामती के लिए 
शायद तब तुम्हारे हाथ काँप जायेंगे 
कभी बंदूक तो कभी शमशीर उठाने से 
माँ नहीं सह सकती तुम्हारी तरफ उठी पलक भी 
तुम भी तो हर तरफ दिखती माँ पर 
प्रहार करने से पछताओगे 
अब भी तो रुको कभी तो सोचो 
भागते कदमों की आती आवाजें 
लुढ़कते  पत्थरों की आती धमक 
लहू की बहती अजस्र धार 
मैं डर जाती हूँ .... क्यों ?
क्योंकि मैं तो सिर्फ माँ हूँ 
तुम्हे सलामत देखना चाहती हूँ !!!
                                         -निवेदिता 

शनिवार, 25 अगस्त 2012

डगमगाते कदमों में आती दृढ़ता .....


                                                                                 बेटे अनिमेष के साथ में ...-:)

आज हमारे बड़े बेटे " अनिमेष " का जन्मदिन है ! 
हर बार यही अचरज सा लगता है कि कब हमारा इतना छोटा सा बेटा बड़ा भी हो गया | आई.आई.टी. कानपुर में बी.टेक.के चतुर्थ वर्ष में है | ये वर्ष एक बार फिर से उसको एक नई उपलब्धि दे सकता है ! एक तरह से पढाई पूरी होने वाली है | अब एक नई  रौशन दुनिया अपना सम्पूर्ण विस्तार लिए सामने है | प्लेसमेंट के लिए नई - नई कम्पनियाँ उनके कैम्पस में आ रही हैं | बहुत अच्छा लगता है जब अनिमेष और उसके साथी अपना रिज्यूमे बनाते हुए एक - दूसरे को सलाह देते हैं ,अथवा कम्पनियों के बारे में विमर्श करते हैं | लगता है अभी कल की ही तो बात है कि मैं सुबह - सुबह उठाती थी स्कूल जाने के लिए और आज वक्त ने एक नई करवट बदली जब छोटा सा बच्चा बड़ा हो आफिस जाने की दिशा में एक जिम्मेदारी भरा कदम बढ़ा रहा है | ठुमक भरे डगमगाते कदमों में दस्तक देती दृढ़ता ,उसके सपनों को एक नया विस्तार दे ....बस चश्मेबददूर !!!
                                                                    -निवेदिता 

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

" ट्री गार्ड "


अक्सर मौसम बदलते ही मेरी निगाहें उस मौसम में पनपने वाले नये पौधों की तलाश में रहती हैं | इस बार सोचा कि घर के अंदर के स्थान पर घर के बाहर भी पौधे लगाये जाएँ ,फुटपाथ पर | नाज़ुकमना पौधों को असुरक्षित सडक पर अनदेखा छोड़ने का साहस नहीं कर पा रही थी | ये सडकें तो ऐसी हो गईं हैं कि एक जीता जागता इंसान या कहूँ बेटियों के लिए असुरक्षित ही रहती हैं | पता ही नहीं चलता कि कब कौन सा हाथ दू:शासन बन जाएगा और आते - जाते राहगीर कुरुसभा के दिग्गज महारथी बन असहाय सा दीखते हुए चीर - हरण का वीडियो बनाने में व्यस्त हो जायेंगे | माली से बात की तो उसने सबसे पहले ट्रीगार्ड की मांग की | बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में ट्री गार्ड का फलसफ़ा समझाया कि भले ही बाद में पौधे मजबूत वृक्ष बन जायेंगे पर शुरू में तो उनको एक सुरक्षित परिवेश चाहिये ,जिससे आवारा पशुओं की कृपादृष्टि से वो बच सकें ! 

अल्पशिक्षित माली की बातों को सुन कर ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा सच ,अनायास ही समझ में आ गया | शिशु - जन्म के आभास के साथ ही पूरा परिवार अजन्मे शिशु के लिए एक ट्री गार्ड बन जाता है | ये सिलसिला जन्म के साथ ही पूरा नहीं हो जाता ,अपितु उसके क्रमिक विकास के साथ ही विभिन्न रूप बदल - बदल कर उसके साथ चलता है | ज़िन्दगी में हर कदम पर आनी वाली चुनौतियों के सामने कभी मनोबल बन कर ,तो कभी साथी बन कर उत्तरोत्तर बचाने को प्रयासरत रहता है | मुझे लगता है कि इसका नाम ट्री गार्ड गलत है ,इसको तो अविकसित पौधों की सुरक्षा के लिए लगाया जाता है न कि वृक्ष को सुरक्षित रखने के लिए | 

कभी-कभी ट्री गार्ड की वजह से सिर्फ पौधे ही नहीं बचते ,अपितु राहगीर भी कंटीली डालियों से बच पाते हैं | गुलाब के फूल पहली निगाह में ही आँखों को रोक कर हाथों को बढने को विवश करते हैं उन को तोड़ने के लिए  ,इस क्रिया में अक्सर हाथ काँटों की खरोंच का पारितोषिक भी पा जाता है | पर जब यही पौधा ट्री गार्ड में सुरक्षित होता है ,तो तोड़ने वाले हाथों की निगाहें उन चुभ सकने वाले काँटों को भी देख लेतीं हैं | ऐसे अपराधों के प्रति जागरूकता रखने वाले नागरिक कोमल कलियों सी बच्चियों के लिए ट्री गार्ड बन सकते हैं | पर फिर वही बात ,बन सकते हैं .पर बनते नहीं हैं .......

अगर ट्री गार्ड मानवीय जीवन के सन्दर्भों में देखी जाए ,तो हर श्वांस उनकी शुक्रगुजार है | मिस्त्री के धागे की ठोकर की तरह , ये लगभग समाज के और सम्बन्धों की हर कुरूपता का पूर्वाभास सा करा जाती हैं और सुरक्षा के प्रति चेता सा देती हैं | वैसे ये ट्री गार्ड सरीखे दायरे उस समय तो बड़े ही बोझिल और जीवन की गति को कम करते लगते हैं ,परन्तु बाद में लगता है पौधे के सुरुचिपूर्ण आकार और दृढ़ता के लिए ये बेहद अनिवार्य थे | 

आज मैं भी अपने जीवन के हर ट्री गार्ड के प्रति आभारी हूँ और प्रयास करूंगी कि मैं भी एक अच्छी ट्री गार्ड बन पाऊँ !
                                                                                                                                      -निवेदिता 
                                                                                                                                             

सोमवार, 20 अगस्त 2012

ऐ जाते हुए लम्हों ......



आज अनायास ही गुजरते जाते लम्हों ने अपने महत्व का एहसास दिला ही दिया | लगता है हम सब ही अपना जीवन एक बँधी-बंधाई लीक पर बिताते चलते हैं | किसी भी पल के औचित्य का या उसकी क्षणभंगुरता का ध्यान रहता ही नहीं | ये बात तो अपने नन्हे-मुन्नों को भी हम सिखाते हैं कि गया हुआ समय वापस नहीं आता , पर क्या हम खुद इस के निहितार्थ को समझ पाये हैं ? पता नहीं क्यों , पर मुझे ऐसा नहीं लगता | हम सामाजिक  पैमानों पर कितने भी सफल अथवा असफल हुए हों पर औरों द्वारा खींची गयी लकीर पर चलना ही जीवन समझते हैं | यहाँ मेरा ये तात्पर्य कतई नहीं है कि हम इन मूल्यों का पालन न करें | मैं तो बस ये जानना चाह रही थी कि क्या हम अपने पूरे जीवन में एक भी सार्थक काम कर पाते हैं ! 

हर पल में हमारी सोच सिर्फ मैं ,मेरा या मेरे लिए के दायरे में ही घूमती रहती है | ये दायरा कभी - कभी इतना छोटा हो जाता है कि सब कुछ सिर्फ स्वार्थ लगता है | ये हमारे स्वार्थी होने को नहीं दर्शाता , क्योंकि अपने दृष्टिकोण के अनुसार हम अपने कर्तव्यों का ही निर्वहन कर रहे होते हैं | अपने  बच्चों , अपने परिवार की खुशियों का ध्यान ही तो रख रहे हैं | 

ये संयुक्त परिवार की हिमायत में नहीं ,अपितु संयुक्त समाज की उम्मीद में सोच रही हूँ | अगर हमारे पडोस में किसी को आवश्यकता है तो हम उम्मीद करते हैं कि वो हमसे कहे और बाद में अपने सहयोग की स्वीकृति की भी चाहत रखते हैं | घर में काम करने वाले सहायकों ,जिनका पूरा-पूरा योगदान रहता है हमारे घर को नित नई चमक देने और उसको बनाये रखने में , उनकी छोटी-छोटी जरूरतों को अनसुना कर देते हैं | हम अपना सहयोग भी सिर्फ उनको ही देते हैं जिनसे ये अनकही सी उम्मीद हमको रहती है ,कि हमारी जरूरत के समय वो भी हमे सहयोग करेंगे | हमारा ऐसा व्यवहार हमको किसी के सहायक के रूप में न दिखा कर ,ऐसा लगता है हम अपने तथाकथित अच्छे कार्य को बैंक  में जमा कर रहे हैं जो जब भी हमको जरूरत पड़ेगी हम अपने हित में प्रयोग कर लेंगे | 

अपने जीवन को सिर्फ घर से कार्यक्षेत्र और कार्यस्थल से घर में समेट कर ही प्रसन्न हो लेते हैं और अगर मात्र गृहणी हैं तो घर की चारदीवारी की खरोंचों की मरम्मत में ही व्यस्त रहते हैं | ऐसा बिताया गया जीवन वास्तव में क्षणभंगुर ही होता है जिसके अंत के बाद घरवाले भी यांत्रिक रूप से उसके मोक्ष के लिए कर्मकांड कर के भूल जाते हैं | 

हम अगर कोई बहुत बड़ा काम न भी कर पायें ,तब भी कम से कम किसी के लिए कुछ मुस्कराते लम्हों को लाने का प्रयास ही कर लें | किसी के उदास लम्हों में उसके कंधों पर हाथ रख कर उसको अकेलेपन के एहसास से निकालने की पहल कर लें | किसी की बोझिल दिनचर्या को थोड़े से जीवंत पल ही दे लें | बहुत कुछ कहना चाहने वाली खामोश जुबां को कुछ कह पाने का साहस ही दिला लें | अगर ऐसे ही छोटे - छोटे पल अपने जीवन में शामिल करलें ,तो कोई भी डिप्रेशन का शिकार नहीं होगा | इस के लिए कुछ विशेष नहीं करना है बस अपने दायरे में एक छोटी सी सेंध ही लगानी है | सद्प्रयास के द्वारा उन जाते हुए लम्हों को एक हल्की सी  स्मित के साथ विदा करने के लिए इतना सा ही तो करना है ......
                                                                                              -निवेदिता 

रविवार, 19 अगस्त 2012

मुझे प्यारी है .......


मुझे प्यारे हैं मेरे हाथ 
इन्हें पकड़ माँ ने मुझे 
और मैंने तुम्हे 
चलना सिखाया होगा


मुझे प्यारी है हर इक निगाह
इन में ही कोई निगाह तेरी 
कभी कहीं भटकी तो
कभी मुझे पे अटकी भी तो होगी 



मुझे प्यारी है हर इक सांस 
इन आती जाती साँसों ने 
जीवन का मर्म समझाया होगा 
                                  -निवेदिता 

शनिवार, 18 अगस्त 2012

रुमाल ...


 रुमाल ......
एक छोटा सा 
टुकडा है कपड़े का
कभी रूखा - रुखा बन 
लकीरें खींच जाता है 
कभी कोमल कपोत सा 
सहला तन्द्रिल कर जाता है .... 

रुमाल ......
एक आस है 
रुक्षता को दुलरा 
अनपेक्षित को छुपा 
सब साफ़ कर पाने की 

रुमाल .....
सबसे खूबसूरत है 
आँखों के नीचे जुड़े 
प्रिय के हाथों के रूप में 
वेदना झरने के पहले 
समा जाए उस अंजुली में .......
                           -निवेदिता 

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

डोली और अर्थी


डोली और अर्थी 

एक सी होती हैं 
दोनों को उठाने के लिए 
कंधे चार ही चाहिए 
दोनों पर खिलते फूलों की 
अनवरत बरसात चाहिए 
दोनों के पीछे चलती हैं 
जानी अनजानी शक्लें ,
दोनों को ही भिगोती 
कईयों की अश्रुधार है !

पर हाँ ! 
एक कदम चलते ही 
अलग -अलग होती 
दोनों की किस्मत है 
डोली पर बरसे फूलों में 
छिपी - छिपी सी दिखती
नवजीवन की आस है 
डोली के आँसुओं में 
फिर मिलने की आस है !
अर्थी पर बिछे फूल जतलाते
जीवन की क्षणभंगुरता 
अनजाने अनिवार्य सफर की 
यही तो अनचाही शुरुआत है !

दोनों को ही मंजिल 
मिलनी है अनदेखी 
एक में सृष्टि की आस है 
दूजी हर तरफ से निराश है ........
                                -निवेदिता 

बुधवार, 15 अगस्त 2012

" फूलों का तारों का ,सबका कहना है "......


परसों रात में मेरा मोबाइल बज उठा ...... देखा तो भाई का नाम दिखा ....... थोड़ी चिंतित हुई कि इतनी देर रात में भाई का फोन क्यों आया ! दुविधा में पड़ी हुई जल्दी से रिसीव किया , तो एक गाने के बोल सुनायी पड़े और सब चिंता दूर हो गयी और निश्चिन्त हो यादों की सैर कर आयी | गाना पूरा होने के बाद जब भाई की आवाज़ सुनायी पड़ी तो मैंने पूछा कि आज ये गीत क्यों ? भाई ने उत्तर दिया ,"रिश्तों के लिए कोई एक दिन नहीं होता है ,इसीलिये ये गीत शुरू होते ही तुम्हारे साथ सुनाने का मन किया |" वो गीत हमें हमारे बचपन में ले गया ,जब मेरे भाई मेरे लिए गुनगुना देते थे | यहाँ तक कि जब बड़े भाई को स्कालरशिप के पैसे मिले और उन्होंने रिकार्ड प्लेयर खरीदा तो पहला रिकार्ड भी यही था | गीत के बोल थे " फूलों का तारों का ,सबका कहना है "......

कभी-कभी व्यस्तता रिश्तों में दूरियां आने का आभास दिलाती है ,पर ऐसे छोटे-छोटे पल उस भ्रम को दूर कर जातें हैं और सम्बन्धों की सत्यता जतला जाते हैं | हम इस अतिव्यस्त जीवन में हर रिश्ते के लिए एक ख़ास दिन नियत कर के अनेक अपेक्षाएं पाल बैठते हैं , पर क्या उन रिश्तों की सलामती की कामना सिर्फ उस दिन ही करते हैं | सच में तो हर आती जाती साँसे अपनों की और उनके अपनों के लिए दुआ ही करते हैं | पर ये भी सच है उस विशेष अवसर पर अपनों की अनुपस्थिति कष्ट दे जाती है .........



शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

एक युग प्रतिज्ञाओ का .........

"महाभारत" , ग्रन्थ का जब भी जिक्र होता है ,हम साधारणतया इसके विभिन्न चरित्रों के बारे में ,धर्म पर अधर्म की विजय के रूप में ,अपनों के प्रति अंधे मोह के बारे में .... कई तरह से विवेचना करते हैं | आज इसके बारे में सोचते हुए लगा कि ये इन सबसे अलग एक ऐसे युग का परिचायक है जिसको हम " प्रतिज्ञा , प्रतिशोध और कभी - कभी प्रतिबद्धतता" के युग का नाम दे सकते हैं | इसके सभी मुख्य चरित्र किसी न किसी बात से आहत हो कर प्रतिशोध लेने के लिए प्रतिज्ञा करते हैं ,फिर प्राण-प्रण ( बेशक प्रण उनका रहता था पर प्राण दूसरों का ) से उसको पूरा करने में जुट जाते थे |

इतिहास के ,एक तरह से सर्वमान्य ,प्रतिज्ञा-पुरुष "भीष्म" अपने पिता शान्तनु की सत्यवती के प्रति आसक्ति के परिणामस्वरूप उपजी स्थिति में ,उनके प्रति अपनी प्रतिबद्धतता के फलस्वरूप ब्रम्हचारी रहने की प्रतिज्ञा कर बैठे | तथाकथित विद्वानों ने महाभारत का मूल कारण द्रौपदी को और राजसत्ता के प्रति दुर्योधन की आसक्ति को माना है | अगर निष्पक्ष हो कर देखा जाए तो भीष्म की अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा बड़ी-बड़ी राजसत्ताओं के विनाश का कारण बने इस युद्ध का मूल कारण थी | भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के फलस्वरूप एक तरह से राज्य से विरक्त हो गये थे | उनकी उपस्थिति राजदरबार में रिक्तस्थान की एक निष्प्रयोज्य पूर्ती मात्र बन कर रह गयी थी | चाहे वो चौसर की सजी हुई बिसात के समय  हो , अथवा द्रौपदी  के चीर - हरण के समय हो | हस्तिनापुर के बँटवारे के समय देखें ,अथवा अभिमन्यु के वध के समय ,भीष्म पूरी तरह से निष्क्रिय ही दिखे ,तथाकथित व्यवस्था के प्रश्न उठा कर अपनी उपस्थिति ही जतायी व्यवस्थित कुछ भी न कर पाए !

दूसरी प्रतिज्ञा भीष्म द्वारा अपने अपहरण के बाद सौभ नरेश शाल्व और भीष्म के द्वारा अस्वीकारे जाने पर काशी नरेश की पुत्री अम्बा ने की थी | उसने भीष्म के विनाश की , अपनी  प्रतिज्ञा  की  पूर्ती के लिए तत्कालीन राज सत्ताओं को संगठित कर के भीष्म और हस्तिनापुर  के  विरुद्ध विषम वातावरण तैयार  किया | हस्तिनापुर की निरंकुशता से असंतुष्ट राज्य ,अकेले इतनी बड़ी राजसत्ता का विरोध करने का साहस न जुटा पाते ,परन्तु अम्बा द्वारा संगठित हो कर पांडवों के पक्ष में एकत्रित हो गये |

तीसरी प्रतिज्ञा द्रौपदी ने की थी अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए | विवाह के बाद से ही अपमानजनक सम्बोधनों से क्षुब्ध द्रौपदी की सहनशीलता भी चीर हरण के समय कौरवों के विनाश की  प्रतिज्ञा लेने  के लिए मजबूर हो गयी ...... अपने खुले केशों को दू:शासन के लहू से सिंचित करने तक अपने केशों को खुला रखने की प्रतिज्ञा द्रौपदी ने भी ली !

भीष्म की प्रतिज्ञा के बाद जो प्रतिज्ञा इस संहारक युद्ध का कारण बनी ,वो थी कर्ण की प्रतिज्ञा ! कर्ण ने समाज द्वारा धिक्कृत होने के बाद पायी , दुर्योधन  की  मैत्री  को अपनी सबसे अमूल्य धरोहर मान ,दुर्योधन का साथ उसके हर कार्य में देने की ली थी | युद्ध - कला में पांडवों से  कम होने पर  भी दुर्योधन ने कर्ण  के  वीरत्व  के अभिमान में इस युद्ध को अंजाम दिया |

एक कूटनीतिक प्रतिज्ञा इसमें कृष्ण ने भी ली थी | युद्ध में सहायता के लिए दुर्योधन के आने पर भी कृष्ण की योग निद्रा ,तब तक नहीं खुली ,जब तक अर्जुन उनकी शय्या के  पायतानें नहीं आ गये | किंकर्तव्यविमूढ़ से एक तरफ खुद को और दूसरी तरफ अपने सैन्य बल को कर दिया और स्वयं शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की |

पांडवों के मामा मद्र नरेश शल्य ने भी भ्रमवश दुर्योधन का आतिथ्य स्वीकार कर लेने पर , कौरवों का साथ देने की प्रतिज्ञा की | 

ऐसी अनेक कई छोटी - बड़ी प्रतिज्ञाएँ इस युग में की गईं थीं | इसीलिये एक तरह से देखा जाए तो महाभारत का युग महासमर के स्थान पर प्रतिज्ञाओं का युग कहा जा सकता है !
            -निवेदिता 


शनिवार, 4 अगस्त 2012

"स्पेस"

"स्पेस" ये शब्द सुनते ही सबसे पहले आँखों के सामने अन्तरिक्ष की ही याद आती है ,जबकि बातें हम अक्सर दूसरी स्पेस की करते हैं | कभी अपने लिए स्पेस चाहते हैं , तो कभी दूसरों को स्पेस देना चाहते हैं | ये स्पेस मिल पाना तभी सम्भव हो सकता है जब हम एक - दूसरे की निजता का सम्मान करें | अन्तरिक्ष में भी तो इतने सारे ग्रह - उपग्रह , कभी प्रकृति निर्मित तो कभी मानव निर्मित , इसीलिये अपनी दमक और पहचान कायम रख पाते हैं क्योंकि उनके मध्य एक सम्मानजनक स्पेस बनी रहती है | 

पर कभी - कभी ये स्पेस का होना भी आत्मघाती हो जाता है | अतिसंवेदनशीलता  के कारण दूसरों का मान रखते - रखते सम्बन्धों में दूरी कुछ अधिक ही बढ़ जाती है और सम्वेदनाएँ भी रास्ता खोजती रह जाती हैं | रिश्तों का मान रखने वाली स्पेस मानवनिर्मित होती है अत: इसका कोई निश्चित मानक नहीं हो सकता है | जो बाते एक को साधारण लगतीं हैं ,वही दूसरे को असहज बना जाती हैं | 

हमें दूसरों को स्पेस अवश्य देना चाहिए क्योंकि कभी - कभी थोड़ा समय व्यक्ति खुद अपने साथ भी रहना चाहता है ,परन्तु इस बात का ध्यान सदैव रखना चाहिए कि स्पेस इतनी बढ़ भी न जाए कि बीच में बहुत से अनाहूत लोग और बातें आ जाएँ | किसी की भी निजता का मान रखते समय अतिसंवेदनशीलता के स्थान पर अतिरिक्त समवेदनशील होना चाहिए |

                                                        "स्पेस रेखा अति सांकरी 
                                                               स्पेस   बढ़े   दुःख   होय 
                                                                     दो  कदम  अलग  चलें 
                                                                              तीजे पे बाँह गह लए "
                                                                                                -निवेदिता 

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

एक बहुत नाज़ुक और कच्चे से सूत का बंधन .......



हर बार अपने जन्म से साथ पले-बढ़े भाइयों के लिए ही दुआ करती थी ,पर इस बार अपने ब्लॉग-जगत में मिले छोटे भाई "मुकेश" के लिए निकले ये बेसाख्ता भाव हैं जिसको मैं सिर्फ लिखती गईं हूँ और एक बार भी संशोधन की निगाह से नहीं पढ़ा ,क्योंकि ये सिर्फ एक दुआ है बस और कुछ नहीं .....

एक बहुत नाज़ुक और कच्चे से सूत का 
बहुत प्यारा और दुलारा सा है ये बंधन
जब भाई के दिल में बसा हो इतना सारा प्यार 
बहना क्यों न दें तुम पे सारी खुशियाँ वार 
अब तक पाया था सिर्फ जन्म से मिले 
भाइयों का दुलार ,पर अब क्या कहूँ 
मन से मिले भाई का पा कर प्यारा सा दुलार  
आँखें ही नहीं दिल भी भर आया बार-बार 
बस एक ही दुआ निकलती है 
सारे जहां की खुशियाँ डाले रहे  डेरा तुम्हारे द्वार !!!
                                                        -  -निवेदिता 

बुधवार, 1 अगस्त 2012

आज पहली तारीख है ......

आज पहली तारीख है ...... आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या ख़ास है , ये तो हर महीने में आती है ! हाँ ! आप भी अपनी जगह सही हैं , पर मेरे लिए तो बहुत ख़ास है ....... सच कहूँ तो अगस्त महीने की पहली तारीख है इसीलिये हमारे लबों पर मुस्कान है -:)  आज एक अगस्त को अमित जी ,मेरे हमसफर का जन्मदिन है ! 

हम दोनों में बहुत सी बातें एकदम अलग हैं ,जैसे वो कम शब्दों में काम चलाने वाले और मेरे लिए तो दुनिया के सारे शब्दकोश के शब्द मिल कर भी कम पड़ेंगे | मैं तो अक्सर दूसरों की बातों को सच मान जाती हूँ और वो सबकी सुनते हुए भी अपनी बातों पर अडिग रहने वाले ,वैसे ये भी सच है कि बाद में उनकी बातों को ही सब मानते हैं | शादी के बाद देखा कि किसी बात पर परिवार के सभी सदस्य अपने-अपनी राय रख रहे होते , तो अमित जी एकदम खामोश रहते | सबसे आखिर में ही वो बोलते और सब उनकी बातों से एकमत हो जाते | मुझे थोड़ा अजीब लगता ,पर धीरे-धीरे इसकी आदत सी हो गयी ,कभी-कभी इसका लाभ मुझे भी मिलता | 

हम दोनों जिस बात पर हमेशा एकमना रहे ,वो थी हमारे बच्चों की शिक्षा | घर - परिवार में कैसा भी आयोजन होता ,हमने एक दिन भी उनका स्कूल नहीं छुड़ाया | देर होने पर ,हम उनको कार में पीछे की सीट पर सुला कर वापस अपने घर आ जाते उनके स्कूल के समय से पहले | इस बात पर हमने सबकी बहुत बातें सुनी पर हमने उनको अनसुना कर दिया | बच्चों ने भी हमको इसका बहुत अच्छा प्रतिफल दिया !

   अपने घर में आप  एकदम अँधेरे में भी बिना  चोट लगे घूम सकतें हैं | बस कुछ ऐसा ही है पति-पत्नी का सम्बन्ध ... हर शब्द की प्रतिध्वनी क्या होगी अथवा किस क्रिया की प्रतिक्रिया क्या होगी ये एक समय बाद खुद को भी पता होता है | अक्सर हमलोग बिना शब्दों के भी ऐसे ही बातें करतें हैं | आज उन के जन्मदिन पर मैं सिर्फ यही कहना चाहूंगी कि अगर मेरे जीवन में " पहली अगस्त " ये तारीख न आती , तो हो सकता है कि मेरा जीवन इससे बेहतर भी हो सकता था और बदतर भी ,पर ऐसा न होता और मेरा तो कतई न होता | मैं ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ कि उसने अगस्त महीना बनाया और उसमें भी पहली तारीख बनाई और सबसे बढ़कर अमित जी को ऐसा बनाया | उनके साथ नवरस से भरपूर ज़िन्दगी ........ बस चश्मेबद्दूर !
वैसे सोचती हूँ इस वर्ष उनको शब्दों से छलकता शब्दकोश तोहफे में दे ही दूं ..-:) 
                                                                                                - निवेदिता