ज़िन्दगी ने कल यूँ ही चलते चलते रोकी थी मेरी राह
आँखों में डाल आँखें पूछ डाली थी मेरी चाह
ठिठके हुए कदमों से मैंने भी दुधारी शमशीर चलाई
क्या तुम्हें सुनाई नहीं देती किसी की बेबस मासूम कराह
ज़िंदगी कुछ ठिठक कर शर्मिंदा सी होकर मुस्कराई
सुनते सुनते सबकी कठपुतली बन गई हूँ रहती हूँ बेपरवाह
आज मैं भी कुछ अनसुलझे सवाल अपने ले कर हूँ आई
दामन जब खुद का खींचा जाता तभी क्यों निकलती आह
गुनगुनाती कलियों की चहक से भरी रहती थी अंगनाई
कैसे बदले हालात किसने कर दिया मन को इतना स्याह
हसरतों ने बरबस ही दी एक दुआ और ये आवाज लगाई
बेपरवाह ज़िंदगी इस 'निवी' को तुझसे मुहब्बत है बेपनाह।
.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'