मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

काश_अब_भी_तुम_साथ_मेरे_होते !

 #काश_अब_भी_तुम_साथ_मेरे_होते !


तप्त हुआ मरुथल है जलता 

रुक्ष हुआ इक सागर है बहता  

क्या बात करूँ उन बातों की 

जिनमें तेरा हर अक्स है सजता !


यादों की बूँदे ओस सी हैं सजती 

बिनमौसम बरखा सी अँखियाँ हैं बहती 

एक बार ठिठक के देखा तो होता

ये विरहन तेरा पथ है निरखती !


चाहत की क्या मुक्तामाल बनाऊँ

रंग अरु दियों से कैसे घर सजाऊँ

हर साँस अटक कर कहती है

पीड़ा अंतर्मन की कैसे भुलाऊँ !


कुछ मैं कहती कुछ तुम कहते

राह के काँटे हम - तुम चुनते

जीना इतना न दुष्कर होता

काश अब भी तुम साथ मेरे होते !

     ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

संवाद : खुशी और दुःख का

 संवाद : खुशी और दुःख का 


धुंध भरी सड़क पर टहलते हुए दो रेखाओं ने एक दूजे को देखा और बस देखती ही रह गईं । एक सी होते हुए भी कितनी अलग लग रही थीं । एक मानो उगती खिलखिलाती रश्मिरथी ,तो दूसरी निशा की डूबती सिसकी सी लग रही थी । दोनों के रास्ते अब एक ही थे और बहुत देर की ख़ामोशी से भी मन घबरा कर चीत्कार कर ,कुछ भी बोलना चाहता है । बस उन दोनों की ख़ामोशी भी आपस में बात करने को अंकुरित होने लगी । 


सखे ! तुम इतनी ख़ामोशी ,इतना सूनापन लिये क्यों चल रहे हो ? कुछ स्वर के द्वार खुलें तो कुछ किरणें तुम्हारे पास भी खिल जाएंगी । 


हम्म्म्म ....


एक बार बोल कर तो देखो 


क्या बोलूँ ! मैंने तो तुमसे नही पूछा न कि तुम इतनी चमकदार क्यों हो ? इतनी रौशनी से तुम्हारी आँखें चौंधियाती क्यों नहीं ?


तुम बेशक़ मत पूछो ,पर पता नहीं क्यों तुमको ये बताने का मन कर रहा है कि इस रौशनी से कभी - कभी मेरी आँखें भी भागना चाहती हैं ,परन्तु सिर्फ तभी जब इसमें झूठी और दिखने में चमकीली पर चुभती किरणें मिल जाती हैं । 


जब इतनी परेशानी होती है तो छोड़ क्यों नहीं देती उस चमक को ? 


नहीं छोड़ सकती क्योंकि मैं खुशी हूँ न ... और खुशी की चमक तभी ज्यादा खिलती है, जब वो औरों के बारे में भी सोचती है ।


ह्म्म्म ... 


अब तो तुम भी कुछ अपने बारे में बताओ न ... 


समझ नहीं आ रहा है कि क्या बताऊँ ... जानती हो मुझसे तो सब पीछा ही छुड़ाना चाहते हैं । 


ऐसा क्यों ? 


क्योंकि मैं दुःख हूँ न ... एक घनीभूत पीड़ा ... 


ओह !!!  पर सुनो तुम भी तो ज़िंदगी का एक अभिन्न अंग हो और जैसे साँसें आ कर जाती भी हैं ऐसे ही तुम भी तो आ कर चले जाते हो ।


हाँ ... पर इस सत्य को ,पीड़ा की गहनता में कोई याद नहीं रख पाता और छटपटाता है ,जो मुझे बहुत पीड़ा देता है । 


तुम मेरी बात सुनो ... सबसे पहले तो तुमको खुद को ही बदलना होगा और तिमिर के घटाटोप से निकल कर ढ़लता या उगता हुआ सूर्य बनना होगा ,एक आनेवाली रोशनी के संदेश की ऊर्जा से भरपूर । 


ह्म्म्म ... 


और सुनो इस ज़िंदगी की राह पर हम एक दूजे का हाथ थामे चलेंगे और ये भी समझाएंगे कि एक पैर पर तो कूद ही सकते हैं परन्तु चलने के लिये दोनों पैरों का साथ स्वीकार करना पड़ता है ,फिर चाहे वो नकली पैर हो या बैसाखी का सहारा । बस ऐसे ही खुशी और दुःख ज़िंदगी के अनिवार्य रंग हैं ।


दोनों एक दूजे के हाथों में हाथ डाले ज़िंदगी की रपटीली डगर पर आगे बढ़ चले ,क्योंकि दोनों की मंज़िल भी एक ही थी और यात्री भी ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी

रविवार, 25 अक्तूबर 2020

कन्या पूजन अनुष्ठान

 कन्या पूजन 

नवरात्रि पर्व में माँ के विभिन्न रूपों की पूजा - अर्चना की जाती है । पण्डाल और घरों में भी कलश - स्थापना और दुर्गा - सप्तशती के पाठ की धूम के साथ ही कन्या पूजन भी किया जाता है । कन्या पूजन के समय मुझे दो बातें कचोटती हैं ... पहली तो यह कि अन्न का अपव्यय और दूसरी पूजन का औचित्य ।


कन्या पूजन के लिये बुलाये जाने वाले बच्चों को उनके अपने घर से भी कुछ न कुछ खिला कर ही भेजते हैं और  जिन घरों में उनका निमंत्रण रहता है ,वहाँ बच्चे सिर्फ चख ही पाते हैं । बल्कि जिन घरों में वो बाद में पहुँचते हैं ,वहाँ तो वो खाने की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते हैं । फिर सब जगह से प्रसाद के नाम पर लगाई गई थाली पैक कर के बच्चों के घर पहुँचा दी जाती है । उन घरों से वो पूरा का पूरा भोजन दूसरी पैकिंग में सहायिकाओं को दे दिया जाता है या फिर सड़क पर पशुओं के खाने के लिये डाल दिया जाता है ।


आज के समय मे बहुत सी परम्पराओं ने नया कलेवर अपना लिया है । अब कन्या - पूजन की इस परम्परा को भी थोड़ा सा लचीला करना चाहिए । मैं कन्या - पूजन को नहीं मना कर रही हूँ ,सिर्फ उसके प्रचलित रूप के परिष्कार की बात कर रही हूँ । कन्या - पूजन के लिये सामान्य जरूरतमंद घरों से बच्चों को बुलाना चाहिए । उनको सम्मान और स्नेह सहित भोजन कराने के साथ उनकी जरूरत का कोई सामान उपहार में देना चाहिए । अधिकतर लोग माँ की छोटी - छोटी सी पतलीवाली चुन्नी देते हैं । उनके घर से निकलते ही ,वो चुन्नी कहाँ चली गयी किसी को ध्यान ही नहीं रहता । चुन्नी देने के पीछे सिर ढँक कर सम्मान देने की भावना रहती है ,परन्तु यही काम रुमाल या छोटी / बड़ी तौलिया से भी हो जायेगा । सबसे बड़ी बात कि बच्चे उसको सम्हाल कर घर भी ले जायेंगे ।

प्रसाद भी नाना प्रकार के बनाये जाते हैं ,जिनको बच्चे पूरा खा भी नहीं पाते और खिलानेवाले उनके पीछे पड़े रहते हैं कि खत्म करो । इससे अच्छा होगा यदि हम कोई भी एक या दो स्वादिष्ट वस्तु बना कर खिलाएं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अनाज उनको घर ले जाने के लिये दें । ऐसा करने से अधिक नहीं ,तब भी एक दिन और वह परिवार ताजा खाना बना कर खा भी सकेगा ।


उपहार में भी जो सामान दें उसकी उपयोगिता अवश्य देखे । प्रयास कीजिये कि ऐसा समान बिल्कुल न दें जो दिखने में बड़ा लग रहा हो परन्तु उनके लिये बेकार हो । कुछ ऐसे फल भी दे सकतें हैं ,जो जल्दी खराब नहीं होते हों । 


दूसरा प्रश्न औचित्य का है ... मात्र एक दिन का पूजन और शेष दिन तिरस्कार ... बल्कि तिरस्कार से भी एक कदम बढ़ कर अपमान या उनके अस्तित्व को ही नकारने की बात कहूँगी । अपमान शारीरिक ,मानसिक, सामाजिक प्रत्येक स्तर पर होता है । पूजन के समय माता की चुनरी ओढ़ाते हाथ ही ,बाद में आँचल खींचने को मचल उठते हैं । पहले से स्थितियाँ कुछ तो बदली दिख रही हैं ,परन्तु वास्तविकता में ऐसा है ही नहीं । बस पहले उनकी स्थिति घरों के अहाते में भी दिख जाती थी ,परन्तु अब बाहर से देखने में मन्द मलयानिल के झोंके सा अनुभव होता है । जितना भी सबके अनुभवों को सुनती हूँ मुझको तो यही लगता है कि फ़टी - पुरानी जीर्ण सी किताब पर रंगीन कवर चढ़ा कर सेलोफिन चढ़ा दिया गया है कि अन्दर की सीली वस्तुस्थिति किसी को दिखे ही नहीं ।


कन्या - पूजन का सबसे सार्थक स्वरूप वही होगा जब उनका जीवन सँवर सके । निम्न आयवर्ग के बच्चों के स्कूल की फीस बहुत कम होती है ,तब भी उनकी प्राथमिकतायें फीस भरने से रोक देती हैं । ऐसे एक भी बच्चे की फीस का दायित्व ,यदि हम उठा लें तब उस बच्चे के साथ ही उनके परिवार का भविष्य भी सँवर जायेगा ।इस कार्य के लिये आपको कहीं जाना भी नहीं पड़ेगा ,आपके या आपके घर के आसपास काम करनेवाले सहायकों के बच्चों की पढ़ाई का दायित्व ले सकते हैं ।


यदि हम इन सब में से कोई भी काम नहीं कर सकते तब भी सिर्फ एक काम अवश्य करना चाहिए कि जब भी किसी भी उम्र अथवा परिवेश के बच्चे को किसी भी गलत परिस्थितियों में पाएं ,तब उसकी ढाल बन जायें । जब बच्चों के साथ कुछ गलत होने की संभावना बचेगी ही नहीं ,तभी स्वस्थ और संतुलित परिवेश में बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा और एक अच्छे समाज का निर्माण स्वतः ही होने लगेगा । 


अन्त में मैं सिर्फ यही कहूँगी कि परम्पराओं का पालन अवश्य करें ,बस उस मे तात्कालिक परिवेश की प्राथमिकताओं का समावेश अवश्य कर लें ,क्योंकि ईश्वर तो सिर्फ उस भावना को देखते हैं जो हमारे अन्तःस्थल में बसी रहती है .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

लघुकथा : आहट नन्हे कदमों की

लघुकथा : आहट नन्हे कदमों की

कल तक जो नन्हे कदम खूब जोर लगा कर बस करवट बदल पाते थे या थोड़ा सा खिसक ही पाते थे ,आज ढोलक की थाप पर नन्ही गौरैया जैसे मनमस्त से खूब थिरक रहे थे और घर में जमा हुई रिश्तेदार महिलाएं उस की खुशी से चमकते चेहरे को देख दिल को कचोटती टीस को सप्रयास दबा कर ,उस की चंचलता पर न्यौछावर हो रही थीं । तभी कपड़ों के ढ़ेर लिये फेरी लगनेवाले काकू सा आँगन में आ विराजे । सभी बहुएं और बेटियाँ उनके खुलते हुए गट्ठर के रंग - बिरंगे खजाने को देखती बेसब्री में घेर कर खड़ी हो गईं थीं ।


छुटके कदम भाग चले थे रसोई में काम करती माँ को खींचने ,"चलो न माँ ... हर समय काम करती रहती हो और यही सफेद सी साड़ी पहनी रहती हो । पता है कपड़े वाले दद्दू बहुत सारी रंग - बिरंगी चुनर लाये हैं । ये जो सबसे सुन्दर थी न , मैं तुम्हारे लिए ले कर भाग आयी हूँ । अब तुम जल्दी से इसको पहनो ।"


नम आँखों से माँ ने उसको रोका ,"लाडो ! इसको वापस कर आ । मैं इसको नहीं पहन सकती ।" 


उसकी आँखों में प्रश्नों के जुगनू झिलमिला रहे थे ,"क्यों माँ ...  ऐसा क्या हुआ है ?"


उधर से गुजरते हुए दद्दू ने अपनी आँखें पोंछते हुए उसको गोद में भर लिया ,"माँ को ऐसे परेशान नहीं करते लाडो ... अभी तुम नहीं समझोगी पर ये समाज के नियम हमें मजबूर करते हैं ऐसा करने को । तेरी माँ की स्थिति तो मैं नहीं सुधार सकता ,पर तुझ पर कोई आँच नहीं आने दूंगा । तेरी राह के काँटे तो मैं अपनी पलकों से भी हटा दूंगा । तेरी राह में तो मेरी हथेली बिछी रहेगी कि तुझको कुछ न चुभे ।" 


चन्द पलों में ही जैसे वो नन्हे कदम बड़े हो गए और वो दद्दू की गोद से उतर गई ,"नहीं दद्दू ! मुझे आपकी हथेलियों की सुरक्षा नहीं चाहिए क्योंकि जब कोई ऐसी सामाजिक मजबूरी आ जायेगी तब आप भी विवश हो कर अपना सुरक्षा घेरा तोड़ देंगे । अब मुझको पढ़ाई कर के इतना सशक्त होना है कि अपने साथ ही अपनी माँ और उन जैसी विवश स्त्रियों के लिए मैं हथेली बन जाऊँ ।" 

                                   ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी'

रविवार, 18 अक्तूबर 2020

नवगीत : विधना बैठी राम झरोखे


विधना बैठी राम झरोखे 

हँसती यूँ ही हलके- हलके 


नव पल्लव खिलता देख - देख

थिरक उठी अल्हण अमराई

रौद्र रूप ले कर रवि बैठा

रो पड़ी मेरी अंगनाई

रोता अम्बर अँखियाँ मूंदे

अश्रु बहा रही चुपके - चुपके !


महावर अरु हिना थी संगी

थिरक - थिरक पायल खनकाई

चूनर ओढ़े थी सतरंगी

कालिमा अभी कैसी छाई

काल रंग बदल छल रहा है

ले गया खुशियाँ वो छल के !


बिलख रही साँसें अब मेरी

रो रहा मन हो कर अब विह्वल

उतर गया सिंगार जिसका

ये बुलबुल है मेरी घायल

अंतस में भर लूंगी उसको 

भोले आओ तुम तो चल के !

         ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

लघुकथा : लौ चिंगारी की



धूप दिखते ही , दिवी छत पर कपड़े सुखाने आयी ही थी कि उसकी निगाह सड़क की तरफ गयी । स्कूल यूनिफॉर्म में एक कम उम्र की बच्ची डरी - सहमी सी बार - बार पीछे देखती चली आ रही थी । उसकी कच्ची उम्र और डर से सशंकित दिवी ने छत से ही उसको आवाज़ लगाई ,"क्या बात है ? इतनी परेशान और डरी हुई क्यों हो ? "


उसकी बात पर अपनी उखड़ी साँसों को थामने का प्रयास करती बच्ची ने जवाब देना ही चाहा था कि ,पास आती ऑटो की आवाज़ से घबरा कर वह भागती हुई दिवी के घर के सामने तक आ गयी ,"आंटी ,मैं इस ऑटो पर स्कूल जाने के लिये बैठी थी परन्तु ये अजीब सी बातें करने लगा और ऑटो रोक भी नहीं रहा था । अभी ट्रैफिक की वजह से धीमा हुआ तो मैं उतर गई ,पर ये अभी भी पीछे ही लगा है ।"


तब तक ऑटोवाला भी वहाँ रुक कर उस बच्ची का हाथ पकड़ खींचने का प्रयास करने लगा । दिवी पर जैसे शक्तिरूपा माँ चण्डी आ गयी हों ,उसने छत से एक गमला उठा कर ऑटोवाले पर फेंका और चीख पड़ी ,"घबराना बिल्कुल नहीं । वो ईंटा उठा कर मार इसको ,मैं आई ।"


ऑटोवाला गमले के प्रहार से लड़खड़ा गया और उसको आते देख वहाँ से भागता बना । हाथ में हॉकी स्टिक थामे दिवी ने नीचे आ कर बच्ची को साहस बंधाया और कहा ,"किसी दूसरे से उम्मीद बाद में करो ,पहले खुद ही विरोध करना सीखो। हर जगह कोई मिले जरूरी नहीं है ,पर हाँ ! हर जगह तुम खुद को अपने साथ हमेशा पाओगी ।"


दिवी उस बच्ची को हाथ में ईंट थामे दृढ़ कदमों से आगे बढ़ता देखती रही ,मानो एक चिंगारी खिल उठी हो ।

                             ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

बदलती चाहत ....

 सुनो साथी !

फूल लाने जा रहे हो न 

हतप्रभ मत होना   

पर सुन जरूर लेना

फूल गुलाब के नहीं 

सिर्फ हरसिंगार के ही लाना 

और चुन - चुन कर लाना ! 


हाँ ! बहुत पसन्द है मुझे 

रंग बिरंगे फूल गुलाब के

उस की हर पत्ती में

दम भरती ,झाँकती

सपनीली सुगन्ध

कोमल एहसासों जैसे उसके रंग

पर तुम लाना हरसिंगार

हतप्रभ मत हो जाओ

पूछ ही लो कारण !


जानना चाहते हो कारण

इस बदलती पसन्द का

तो सुनो साथी !

ये जो काँटे हैं न गुलाब के 

चुभन दे सकते हैं 

तुम्हारी इन नम्र नाजुक

सहलाती दुलराती हथेलियों को ।


और भी एक कारण है

बदलती चाहत का 

पास आओ तो बताऊँ 

हरसिंगार लाने को 

जब चुनोगे एक - एक फूल को 

हर उठाते फूल में 

याद करोगे मुझको 

और समझ भी लोगे कि 

फूल उठाने और चुनने दोनों के लिये ही 

झुकना ही पड़ता है 

और तुम सीख लोगे झुकना !

        ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

लघुकथा : हिसाब



"ओफ्फो क्या करती हो ? बर्तन माँजते समय ध्यान कहाँ रहता है तुम्हारा ? इस तरह से रोज प्लेटें टूटती रहेंगी तो कैसे काम चलेगा ," कहती वसुधा रसोई में आई तो देखा कि रेखा सिर झुकाए सहमी सी खड़ी थी । वह उससे कुछ बोलती उसके पहले ही उसकी निगाह बालकनी के कोने में खड़े रसोइये रामू पर पड़ गयी ,जो सशंकित निगाहों से इधर - उधर देखता हुआ चुपके - चुपके रसोई में उसकी और रेखा की बातें सुनने का प्रयास कर रहा था । 


"रेखा ! ध्यान दे कर आराम से काम करो ,"बोलती हुई बालकनी का दरवाज़ा बन्द करती हुई ,सामने ही लॉबी में आ कर बैठ गयी और रामू का हिसाब जोड़ने लगी । 

                                   ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

ज़िंदगी



ज़िन्दगी तू इतनी ग़मज़दा सी क्यों है ,

आ ये चुराये लम्हात तुझ पर वार दूँ ।


तबस्सुम जो सजे तेरे मासूम लबों पर ,

चुभते वक़्त पे यादों का मरहम लगा दूँ ।


तेरे साथ की फाकाकशी करते ये लम्हे ,

दिलकश सितारों से तुझ को सजा दूँ ।


वो आफ़ताब आग बरसाता है हर सू ,

आ अपने इस हसीं महताब से मिला दूँ ।


मेरे ख़यालों की भटकती रूह सी 'निवी' ,

आ तेरे ख़्वाबों की ख्वाहिशों से मिला दूँ ।

            ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

डर ज़िंदगी के



डर एक ऐसा शब्द या भाव है जो अपनी जगह बहुत जल्दी और बहुत पक्की बना लेता है ,जिससे उबरना असंभव तो नहीं परन्तु कठिन अवश्य होता है । 


डर का मूल कारण मोह होता है ... मोह जो होता अपनेआप से और अपनों के संग बंधे मोह तंतु से । जन्म लेते ही शिशु रोता है और रौशनी से चौंक कर आँखें मिचमिचाता है क्योंकि उसको माँ के गर्भ की सुरक्षित दुनिया से एकदम अलग नई दुनिया मिलती है ,जहाँ सब कुछ सर्वथा अनजाना रहता है । फिर तो उम्र भर ज़िंदगी कदम - कदम पर कभी ठोकर देती तो कभी दुलरा कर अपने रंग से उसको परिचित कराती रहती है । 


अपनों की सुरक्षा और उन्नति की चाहत लिये हम सतत प्रयत्नशील रहते हैं और इस राह में उन के सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में सोच - सोच कर डरते रहते हैं । कभी - कभी तो मुझे लगता है कि मंगल की कामना करने के साथ ही अमंगल भी दिखने लगता है ,जिससे बचाने के प्रयास में हम अपनी आस्थानुसार विभिन्न धार्मिक कर्मकांड भी करने लगते हैं । अंधविश्वासी न भी हों ,तब भी कई काम यही सोच के कर जाते हैं कि उस से किसी का नुकसान भी तो नहीं हो रहा है । 


अक्सर सोचती हूँ कि थोड़ा सा डरना भी बहुत आवश्यक है । यही डर हमको सचेत रखता है आनेवाले खतरों से ,जिसके परिणामस्वरूप ही गलतियाँ करने बच जाते हैं । आत्मघाती निर्णय लेने से यही डर ही हमको बचाता है क्योंकि हम यह कल्पना करते हैं कि हमारे अपनों पर उस काम का प्रभाव भी पड़ेगा । 


ज़िंदगी हमको इस डर की आँखों में आँखें डाल कर उसके सम्मुख खड़े होना भी सिखाती है ,जो बहुत जरूरी भी है । समाज मे विचरण करते पाशविक मनोवृत्ति वाले लोगों से डर कर ,घरों में ही छुप कर नहीं बैठा जा सकता है । आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि डर की भावना को चेतावनी समझें बन्धन नहीं । 


प्रत्येक पल डर के साये में जीना स्वयं में भी मानसिक विकृतियों को जन्म दे देगा ,जो न स्वयं के हित में होगा और न ही समाज के । बस इसीलिये सहअस्तित्व के भाव से डर की सत्ता को स्वीकृति अवश्य दें परन्तु उसको अपने दिल - दिमाग में घर न बसाने दें ।

                                      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

नाजुक सा वो ख़्वाब ....

 ढ़लते चाँद के संग 

पुरसोज़ नज़्म की मानिंद

एक ख़्वाब ने दी है

बड़ी ही नामालूम सी दस्तक

और बस इतना ही पूछा

भर लो मुझको आँखों में

सजा दूँ तेरी यादों का दामन 

या तलाशूं कोई दूजा माहताब

आँखों की चिलमन बरबस

यूँ ही सी बेपरवाह छलक उठी

और नाजुक सा वो ख़्वाब 

पैबस्त हो गया दिल की नमी में !

      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'


शनिवार, 3 अक्तूबर 2020

लघुकथा : एक संवाद कुछ यूँ ही सा

 लघुकथा : एक संवाद कुछ यूँ ही सा 


पार्क में चबूतरे पर खड़े - खड़े थक जाने पर गांधी जी ने सोचा कि किसी के भी सुबह की सैर पर आने से पहले थोड़ा टहल लिया जाये । अब इस उम्र में एक जगह पर खड़े - खड़े हाथ पैर भी तो अकड़ जाते हैं । लाठी पकड़े टहलने को उद्द्यत हुए ही थे कि किसी को आते देख ठिठक कर अपनी मूर्तिवाली पुरावस्था में पहुँचने ही वाले थे कि किलक पड़े ,"अरे शास्त्री तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? "


शास्त्री जी ," क्या करूँ बापू मेरे लिये बहुत कम चबूतरे रखे सबने । अब जगह की कमी जब ज्यादा ही शरीर टेढ़ा करने लगती है तो मैं ऐसे ही टहल कर शरीर की अकड़न दूर करने की कोशिश करता हूँ । हूँ भी तो इतना छोटा सा कि कोई देखता ही नहीं ।"


गाँधी जी ,"हम्म्म्म ... पर सोचा क्यों नहीं कभी कि ऐसा क्यों हुआ  ... कुछ तो मुझमें होगा जो तुममें नहीं है । "


शास्त्री जी ," सोचना क्या ,जबकि मैं कारण भी जानता हूँ ।"


गाँधी जी ,"कारण जानते हो ! बताओ क्या बात है ... किसी को कुछ कहना हो तो निःसंकोच बोलो मैं साथ में  चलता हूँ ,तुम्हारा काम हो जायेगा ।" 


शास्त्री जी ,"रहम बापू ... रहम ... आप तो रहने ही दो । "


गाँधी जी ,"ऐसे क्यों कह रहे हो ... तुम खुद ही सोचो और इतिहास के पन्ने पलट कर देखो कि  मेरे कहने भर से ही कितने काम हो गये हैं । "


शास्त्री जी ,"हाँ अंतर तो है हम दोनों में ,वो कोई छोटा सा अंतर नहीं अपितु बहुत बड़ा अंतर है । "


गाँधी जी ,"मतलब क्या है तुम्हारा ? "


शास्त्री जी , "आपके हाथ की छड़ी सबको दिख जाती है ,परन्तु मेरे जुड़े हुए हाथ दुर्बलता की निशानी समझ कर अनदेखे ही रह जाते हैं । आपकी मृत्यु पर भी आज तक सियासत और बहस होती है ,जबकि मेरा अंत तो आज भी रहस्य ही है ।"


गाँधी जी नजरें नीची किये कुछ सोचने लगे ,"परन्तु मेरे किसी भी काम का उद्देश्य यह तो नहीं ही था । "


"छोड़िये भी बापू ... आप भी क्या बातें ले कर बैठ गए हैं । आप तो अब और भी ताकतवर हो गये हैं । आप तो रंग - बिरंगे कागज़ के नोटों पर छप कर जेब मे पहुँच कर एकाध चीज़ों को छोड़ कर ,कुछ भी खरीदने की क्षमता बढ़ा देते हो ",शास्त्री जी आगे बढ़ने को उद्यत हुए । 


"पर तुम्हारा जय जवान जय किसान तो आज भी बोला जाता है ",गाँधी जी जल्दी से बोल पड़े । 


हाँ ! जिन्दा है वो नारा आज भी ,परन्तु सिर्फ बातों में ... आज का सच तो ये है कि एक सीमा पर मर कर शहीद कहलाता है और दूसरा गरीबी और भुखमरी से हार कर फन्दे में खुद को लटका देता है और यही है आज के जय जवान जय किसान का सच ",विवश आक्रोश में हताश से शास्त्री जी के क़दम आगे बढ़ते चले गये । 

                               ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

लघुकथा : वेंटिलेटर


लघुकथा : वेंटिलेटर 


सघन चिकित्सा - कक्ष से बाहर आ कर डॉक्टर ने कहा ," जयेश जी को वेंटिलेटर के सहारे साँसें भरते आज सातवाँ दिन हो गया है परन्तु उनमें सुधार के कुछ भी लक्षण नहीं दिख रहे हैं ।"


जयेश की पीड़ा से विक्षिप्त सी जया जैसे कुछ समझ ही नहीं पा रही हो ,"डॉक्टर साहब आप कहना क्या चाहते हैं  ? "


"देखिये सुनने में ये बात बहुत गलत भी लग सकती है ,परन्तु परिवार को मरीज की वस्तुस्थिति बताना हमारा कर्तव्य है । जयेश जी की जैसी स्थिति है ,उसमें कुछ उम्मीद नहीं लग रही है । अब ये तो दिन टालने जैसी बात है कि आप कृत्रिम साधनों से कब तक उनके शरीर को सुरक्षित रखते हैं । इसमें आपका धन तो जायेगा ही साथ ही साथ आपके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ेगा ।"डॉक्टर ने अपनी बात स्पष्ट की ।


जया तड़प उठी ,"मतलब क्या है आपका ... मैं पैसों के लोभ के पीछे अपने जयेश की साँसें छीन लूँ !"


"नहीं जया जी ,शायद मैं अपनी बात आपको समझा नहीं पाया । देखिये यहाँ पर ऐसे मरीज आते हैं जिनको चिकित्सा की तुरन्त जरूरत होती है । ऐसी परिस्थिति में हमारा प्रयास रहता है कि उनको तुरन्त सभी सुविधाएं मिल सकें । "


डॉक्टर अभी बोल ही रहे थे कि जया ने टोका ,"आप कीजिये न आपको कौन रोक रहा है ।"


डॉक्टर ने जया की बात का उत्तर बहुत शान्ति से दिया ,"जयेश जी के प्रति आपका मोह स्वभाविक है ,परन्तु उनके मोह में आप उनको वेंटिलेटर से नहीं हटा रही हैं । बताइये दूसरे किसी मरीज को हम कैसे भर्ती करें । यदि आप जयेश जी को सदैव के लिये जीवित रखना चाहती हैं ,तो उनके अंगों को दान कर दीजिए । इससे कई लोगों को जीवन मिल जायेगा और उनकी प्रतिछवि बन कर जयेश जी को आप सदैव महसूस भी कर पायेंगी ।"


           .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'