शनिवार, 29 जून 2019

गीत : उम्र झूठ की तुमने बताई न होती

गीत

उम्र झूठ की तुमने बताई न होती ।
वफ़ा की यूँ कभी रुसवाई न होती ।।

सूरज भी झुलसा होगा तन्हाई में
अंधेरा सोया रहा मन की गहराई में ।
चाँद ने चाँदनी बरसाई न होती
वफ़ा की भी यूँ कभी रुसवाई न होती ।।

नयन बोलते रह गए मन की अंगनाई में
तारे भी हँस पड़े अम्बर की अमराई में ।
शब्दों ने यूँ वल्गा लहराई न होती
वफ़ा की यूँ कभी रुसवाई न होती ।।

तन ऐसे चल रहा लम्हों की भरपाई में
मन क्यों डूब रहा उम्र की गहराई में ।
रस्मों में उलझन समायी न होती
वफ़ा की यूँ कभी रुसवाई न होती ।।
                                       ... निवेदिता

मंगलवार, 25 जून 2019

लघुकथा : प्यार या लगाव

लघुकथा : प्यार या लगाव

टहलते हुए थोड़ी सी थकान लगने लगी तब वहीं पार्क में पड़ी बेंच पर बैठ गयी । अचानक ही पास वाली बेंच पर बातें करती दो युवतियों पर ध्यान चला गया ।

"आजकल तुम बहुत परेशान और चुप चुप सी दिखती हो ,क्या हुआ है कुछ तो बताओ ।"

"नहीं यार ... ऐसा कुछ खास नहीं ।"

"अच्छी बात है पर अगर कभी मन उलझे तो ये जरूर याद रखना कि मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ ।"

थोड़ी देर की खामोशी के बाद आवाज आई ,"दरअसल मैं ये सोच रही हूँ कि प्यार और इंफैचुएशन में अंतर कैसे पता चलता है । हमें कैसे पता चलेगा कि ये एक पल का लगाव है उम्र भर साथ रहने वाला प्यार ।"

बड़ी शांत सी आवाज आई ,"इसकी कोई स्पष्ट व्याख्या तो नहीं की जा सकती ,पर इसके मूल में जो भाव है वो सिर्फ यही है कि लगाव किसी भी विरोधी परिस्थिति के सामने घुटने टेक आसान सा रास्ता खोजता है ,जबकि प्यार उसका सामना करने का साहस देता है ।"

"इसको और भी आसान शब्दों में कहूँ तो लगाव परिवार को छोड़ कर भागने की सोचेगा और कहीं न कहीं साथ छोड़ धोखा दे जाएगा जबकि प्यार अपने प्रिय के सम्मान बनाये रखने के लिए ढाल बन सदैव साथ देगा ।"
                                                                                                               - निवेदिता

शनिवार, 22 जून 2019

गीत : उम्र गुजरती है सपनों की तुरपाई में

गीत

उम्र गुजरती है सपनो की तुरपाई में ।
हर रेशा जोड़ा रिश्तों की सरमाई में ।।


तन्हा तन्हा मन बेबस सा छलकता रहा
जीवन नवरस से अनमना सा बरसता रहा ।
बिसरी बातों से जीवन कलश भी दरक रहा
साँसे भरता रहा रिश्तों की भरपाई में ।।
उम्र गुजरती है सपनों की तुरपाई में ...


बचपन किलक किलक कर कदम बहकाता रहा
बुढापा यौवन की भी याद दिलाता रहा ।
पगला मन यादों की धार बरसाता रहा
दिल बेबस सा डरता रहा जग हँसाई में ।।
उम्र गुजरती है सपनों की तुरपाई में ...


नव कलिका भी थिरक थिरक कर सुरभित हुई
डोली मैके की गलियाँ रोता छोड़ चली ।
लोभी दुल्हन को तड़पा कर जलाता रहा
मन यूँ भी कलप रहा खुदा की खुदाई में ।।
उम्र गुजरती है सपनों की तुरपाई में ... निवेदिता


सोमवार, 17 जून 2019

#लघुकथा : डेज़र्ट

#लघुकथा : डेज़र्ट

सामने अविका को देख खुशी से झूम ही गई मैं ,"कैसी है अवि ... आज उतने दिनों बाद दिखी ,न तो फोन रिसीव कर रही थी और न ही कॉलबैक ... कहाँ गुम हो गई थी ... और ... और ये क्या डेजर्ट लेकर बैठी है ... तुझे तो ये कॉम्बिनेशन एकदम नापसंद था ,फिर ... "
अविका शांत भाव से मुस्कुरा उठी ,"अंकु सब्र कर न ... इतने सारे सवाल एक ही बार में ... चल तेरे सारे सवालों का जवाब मेरा ये डेजर्ट कॉम्बिनेशन ही है "
मैं कुछ भी न समझ उसको देखती ही रह गयी ,"डेज़र्ट ... "
अविका और भी शांत हो रहस्यमयी सा मुस्कुरा दी ," जानती है अंकु ये हमारी जिंदगी इस डेज़र्ट की तरह है ... ठण्डी आइसक्रीम ,गर्म गाजर का हलवा और सबसे गर्म चाशनी से भरा गुलाबजामुन । ये खौलती चाशनी में डूबा गुलाबजामुन हमारी जिंदगी के मुश्किल पल हैं ... पिघलती आइसक्रीम उन मुश्किल पलों में साथ छोड़ते दिखावटी सम्बंध हैं ... और ये नीम गर्म गुनगुनाते एहसास जैसा गाजर का हलवा हमारी सन्तुलित मनःस्थिति है जो इन मेवों ,खोये और मिठास को एक ऐसी एकरूपता देता है जिसमें सबका स्वाद (पहचान) अलग अलग भी पता चल रहा है और एक दूसरे को सम्मान देता सा बाँध कर नई पहचान भी दे रहा है । पिघलती आइसक्रीम और गुलाबजामुन की चाशनी जैसे लम्हों को जिंदगी से निकाल कर ही सहजता से जी सकते हैं ,नहीं तो पछतावे में ही घुटते रह जाना होगा .... "
..... निवेदिता

मुक्तक

1
कलियाँ भी खिल पड़ी चमेली में
यूँ बचपना हँस पड़ा अठखेली में
नींव नेह की बड़ी गहरी रखी थी
मीठी यादें बरस रही हवेली में

2
लम्हों के काँच चुभ रहे हथेली में
जीवन बीता जा रहा पहेली में
साँसों के दरम्याँ बड़ा है फ़ासला
यादें भी बरस रही चंगेली में  .... निवेदिता

शनिवार, 15 जून 2019

रिश्तों का सर्किट : लघुकथा

रिश्तों का सर्किट

अनझपी पलकों से वो उसको देखे जा रही थी ... और वो भी तो दीन दुनिया से एकदम बेखबर अपने सामने पड़े उस पुराने से ट्रांजिस्टर के सर्किट में उलझा हुआ था ।
उसे देख कर आश्चर्य होता था कि इतना कार्य पटु है कि कैसे भी उलझे ,बिगड़े हुए तन्तु  हों वो सहेज ही लेता था और खरखराहट मधुर स्वर लहरियों में बदल जाती थी ।

एक कचोट सी भी उठी दिल में कि बेजान तारों की भूलभुलैया को सुलझा लेने वाला ये रिश्तों के तार में कैसे उलझ गया और हर रिश्ता उसका फायदा उठाने उससे जुड़ता रहा और काम निकलते ही छोड़ता भी रहा ...

सच अजीब है रिश्तों की संरचना ,इसमें अधिकतर एक ही समझता है जबकि दूसरा उसको एक नामालूम से पल का एहसास ही मानता है ।

रोज सोचती हूँ कि उसको समझाऊँ पर उसके इस बात का जवाब मेरे पास आज तक नहीं आया ," मैं ऐसा ही हूँ अपनी तमाम कमियों के साथ । अगर जरा भी बदल गया तो वो बदला हुआ व्यक्ति कोई भी हो सकता है पर मैं नहीं । तुम भी तो मेरी परवाह करती हो न जैसा मैं हूँ ,अगर मैं इससे तनिक भी कम या अधिक होता तब शायद तुम्हारा ध्यान भी नहीं होता मुझ पर ।"

शायद हम साथ भी इसीलिए हैं कि हम एक दूसरे की कमियों के पूरक हैं ।
       .... निवेदिता

मंगलवार, 11 जून 2019

लघुकथा : लक्ष्मण रेखा

लघुकथा : लक्ष्मण रेखा

"क्या होता जा रहा है तुमको ! कुछ बताओ तो ... हम सब परेशान हैं तुम्हारे लिये । कुछ समझ में आ ही नहीं रहा कि तुमको दिक्कत क्या है या तुम चाहती क्या हो ... अरे कुछ बता भी दो । डॉक्टर भी कहते हैं कि बीमारी तन की नहीं मन की है । अब हमारे पास वो सब कुछ है जिसके लिये अच्छे अच्छे लोग तरसते हैं । अपने अपने जीवन मे सुव्यवस्थित प्यार बरसानेवाले बच्चे ,हमारा मान करनेवाली बहुएं ,घर , सम्पत्ति सब तो है हमारे पास । मन का रोग तो  कुछ कमी महसूस करने पर होता है न , पर जब कुछ कमी है ही नहीं तो ये कैसी लक्ष्मण रेखा खींच कर उसके अंदर घुस गई हो । " हताश सा अनिकेत झुंझला रहा था ।

कुछ पलों तक उसको देखते देखते , हठात ही अन्विता हँस पड़ी ," नहीं मुझे कोई दिक्कत नहीं है । मैंने अपनी सब जिम्मेदारियों को पूरा कर दिया है । बच्चे और तुम सब अपने क्षेत्र में अपनी पहचान बना चुके हो । बहुएं भी इस घर को अपना चुकी हैं । अब किसी बात की अनदेखी के लिये मुझे गलत नहीं ठहरा सकते हो । बस अब मैं अपने लिये जी रही हूँ जो तुम सबको असामान्य लग रहा है ।"

एक सुकून भरी साँस ली उसने ,"जानते हो अब मैं लक्ष्मण रेखा के अंदर नहीं रहती , बस उन सबके लिये जरूर ये रेखा खींच दी है जिनकी आदत मुझको अस्वीकार करने और मुझमे कमी निकालने की पड़ गयी है ।"
                                                  ... निवेदिता

गुरुवार, 6 जून 2019

लघुकथा : निष्कासन


लघुकथा : निष्कासन

अनवरत बहती अश्रुधारा को पोछते हुए ,आत्मविश्वास के प्रतीक सी उसकी आँखों मे आँखे डाल खड़ी हो गयी ,"तुम जो ये इतनी देर से लिख लिख कर पन्ने काले कर रहे हो ,ये सब व्यर्थ है । तुम्हारी दिखावटी दुनिया के स्याह पन्ने हैं ... खोखली मानसिकता ! तुम ये तस्वीर दिखा रहे हो सूखी चिटकी धरती की और बड़े बड़े व्याख्यान दे रहे हो ,पर तुमको ये रोती सिसकती माँ नहीं दिख रही । इसकी अजन्मी बेटियों की हत्या कभी मजबूरी बता कर तो कभी मजबूर कर के की है तुमने । धरती माँ सूखती है तो उसका आँचल सूखता और चिटकता है ,पर जब हाड़ मांस की माँ सूखती है न तो उसका मन भीगता है और हौसला टूटता है । पर अब नहीं ... अब जाओ तुम कम से कम धरती माँ का ही कर्ज उतार लो ,मैं अपनी कोख का जिम्मा खुद उठाउंगी ।"

लम्बी गहरी साँस जैसे उसकी आत्मा से निकली ,"जा कापुरुष मैं तुझे पिता के पद से निष्कासित करती हूँ!'
                                        .... निवेदिता

मंगलवार, 4 जून 2019

लघुकथा : घर का पता

लघुकथा : घर का पता

अन्विता को उदास देख माँ दुलराते हुए समझाने लगी ,"क्यों परेशान होती हो बेटे ।शादी होने से तुम्हारा ये घर छूट नहीं रहा बल्कि एक और घर मिल रहा है । जब जहाँ मन हो वहॉं रहना ।फिर  कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा ।"

अन्विता जैसे अपनी उलझन से उबर चुकी थी ,बोल पड़ी ,"माँ घर तो नहीं ही छूटेगा शादी से पर अंतर ये हो जाएगा कि मेरे इस घर का पता बिक जाएगा । जिस शादी में घर बिक जाए वो सुख नहीं ला सकती । हम शादी के खर्चे अपने बजट में ही करेंगे । किसी की झूठी शान बढ़ानेवाली शादी मुझे स्वीकार्य नहीं ।"

अन्विता जैसे इतना कहते कहते आत्ममंथन से निकल बोलती गयी ,"आप जहाँ भी  चाहे मेरी शादी कर दीजिये बस मेरे इस घर के पते को मत बिकने दीजिये ।" ..... निवेदिता

सोमवार, 3 जून 2019

ऐ मेंरे मन !

ऐ मेंरे मन !
तू थक नहीं सकता
तू रुक नहीं सकता
हाथ में छन्नी है तो क्या
धार यूँ बहती है तो क्या
एक दिन पावस जगेगी
यूँ बर्फ की चट्टान जमेगी ... निवेदिता

रविवार, 2 जून 2019

तुम मन की वीणा बजाते हो

मैं प्रेम की भाषा गुनगुनाती हूँ
तुम मन की वीणा बजाते हो
मैं क्षितिज धरा का मिलन दिखाती हूँ
तुम दृश्य विहंगम छलावा बतलाते हो
मैं सागर की लहरों में सीपी चुनती हूँ
तुम लहरों में सरकती रेत दिखलाते हो
मैं मूक विहग को गुनगुनाती हूँ
तुम नीड़ बनाता जोड़ा दिखलाते हो
मैं सूखे पत्तों का उड़ना जीती हूँ
तुम सूनी पड़ी डाल दिखलाते हो
मैं स्वप्न सा जीवन यूँ ही सजाती हूँ
तुम पथ के काँटे चुन चुन हटाते हो
निवेदिता