बुधवार, 18 सितंबर 2024

लघुकथा : मोक्ष

 लघुकथा : मोक्ष


दोस्तों के झुण्ड में अनिकेत गुमसुम सा बैठा था ।अपने मे ही खोया सा, जैसे खुद से ही बातें कर रहा हो। उसका मानसिक द्वंद भी यही था कि बचपन से देखी हुई आदत के अनुसार पितृ पूजन करे या अपनी आत्मा की सुने और पापा की विचारधारा के अनुसार नयी परिपाटी शुरू करे। 


मन में एक संशय भी था कि परिपाटी के विरुद्ध जाना कहीं माँ को पीड़ा न दे जाये। पापा के शरीर के शान्त होने के बाद से तो उन्होंने खुद को जैसे एक गुंजल में बाँध लिया है। किसी भी बात को मन से न स्वीकार करते हुए भी चुप ही रह जाती हैं। सच कहूँ तो उनकी ये चुप्पी उसको बहुत कचोटती है। 


मन ही मन खुद को बहुत मजबूत कर के वो उठा कि ऐसे बैठने और सोचते रहने से तो वो किसी समाधान पर तो नहीं ही पहुँच पायेगा। वो माँ के पास ही बैठ गया। 


माँ ने उसकी तरफ देखा और शान्त आवाज में बोलीं ,"बेटा तुम परेशान मत होओ। पितृ पक्ष की पूजा का विधान मैंने सोच लिया है । एक बार बस हमलोग ये देख लें कि ऐसे में कितने पैसे लगेंगे।"


वो एकदम से बोल उठा ,"माँ! जितना और जैसा आप कहिएगा, सब हो जाएगा।"


माँ बोलने लगीं ,"तुम्हारे पापा ने कभी भी इन रिवाजों को दिल से नहीं स्वीकार किया था। हम उनके निमित्त जो भी करेंगे वह उनके ही विचारों के अनुसार करेंगे। मासिक श्राद्ध में लगाये जाने वाली राशि से आर्थिक रूप से कमजोर एक बच्चे की स्कूल फीस हम स्कूल में जमा करेंगे। मृतक भोज में भी जो धन हम लगाते, उससे एक  स्कूल के बच्चों को दोपहर के भोजन के लिये जमा कर देंगे।"


माँ को दृढ़मना हो कर इतना स्पष्ट निर्णय लेते देख, अनिकेत ने अपने अंदर के बिखराव को समेटते हुए कहा," माँ ! पापा की विचारधारा के अनुरूप, आपने बिल्कुल सही निर्णय लिया। एक बात मेरे मन में भी आई है कि पण्डित जी पुरखों को गया बैठाने के लिये कह रहे थे। अगर हम उसकी जगह आर्थिक रूप से निर्बल किसी लड़की की शादी करवायें तो कैसा रहेगा !"


माँ भरी आँखों से बेटे को देखते हुए बोलीं ,"हाँ बेटे पुरखों को  मोक्ष मिलने के लिये वो दुआयें ज्यादा प्रभावी होंगी जिनसे किसी की नई जिंदगी शुरू हो ।"  

निवेदिता 'निवी'

लखनऊ

शनिवार, 14 सितंबर 2024

लघुकथा : गरिमा

 लघुकथा : गरिमा

माँ शिरोरेखा अपने अक्षर बच्चों को निहारती प्रमुदित हो रही थी, अनायास ही उसका ध्यान गया कि कुछ बच्चे खुशी से थिरक रहे हैं, वहीं उनके जुड़वाँ मन म्लान किये सिमटे हैं ।

"क्या हुआ बच्चों तुम इतने उदास क्यों हो रहे हो ... अपने बाकी के भाई बहनों के साथ खेलो न ... "

किसी भी उदास अक्षर से कोई भी प्रतिक्रिया न पाकर, उसने फिर से उन अक्षरों को अपने आँचल में समेटना चाहा ,तब एक अक्षर सिसक पड़ा, "माँ ! हमारे बाकी के साथियों को उनकी गरिमा को समझने और प्यार करने वाली  वाणी का साथ मिला है इसलिये वो कभी भी अपशब्दों की कटुता को नहीं अनुभव कर पाते हैं और मासूम हैं।"

तभी 'म' अक्षर बोल पड़ा," देखों न माँ ! मुझसे ही तो कई शब्द बनते हैं, अब जैसे आप को ही पुकारते हैं, परन्तु हम जहाँ हैं वो इसके आगे के शब्दों को विकृत कर माँ के प्रति गाली बोलते हैं। हमारा मन चीत्कार कर उठता है, परन्तु कर कुछ नहीं पाते।"

'भ' भी बोल पड़ा ,"हाँ माँ ! देखो न मुझसे ही  भगवान, भगवती, भार्या, भगिनी जैसे विश्वास बाँधते शब्द बनते हैं, परन्तु जहाँ मैं हुँ उसने मुझे सिर्फ गाली बना रखा है।"

शिरोरेखा सिसक पड़ी,"हाँ ! बच्चों भाषा का अनुशासन सब भूल चले हैं।"

एक पल बाद ही सारे शब्द और शिरोरेखा आत्मविश्वास से भर उठे,"जो हमारी गरिमा का प्यार से निर्वहन नहीं करेगा, उसके विचार कभी भी कालजयी नहीं होंगे और समय की लहरों में खो जाएंगे ।"

निवेदिता 'निवी'

लखनऊ