गुरुवार, 26 जनवरी 2023

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

 


सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत, जिला मेदिनीपुर में पंडित रामसहाय तिवारी जी के घर २१ फ़रवरी, सन् १८९९ में बसन्त पंचमी तिथि पर हुआ था। १९३० से इसी तिथि पर आपका जन्मदिन मनाया जाने लगा।

निराला जी की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरू हुई थी। कालान्तर में वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेज़ी और संस्कृत भाषा में निपुण हो गए थे। आप की रुचि घूमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लड़ने इत्यादि में भी थी। संगीत में आप की विशेष रुचि थी।

अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग आपने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। निराला जी हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। कविता के अतिरिक्त कथासाहित्य तथा गद्य की अन्य विधाओं में भी निराला जी ने प्रचुर मात्रा में लिखा है ।अनामिका, गीत कुंज, सांध्य काकली, अपरा इत्यादि आपकी मुख्य प्रकाशित #काव्य_कृतियाँ हैं। अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरुपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा इत्यादि आपकी मुख्य प्रकाशित #उपन्यास हैं। लिली, सखी, सुकुल की बीवी इत्यादि आपकी मुख्य प्रकाशित #कहानी_संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त निराला जी ने निबन्ध आलोचना, पुराण कथा, बालोपयोगी साहित्य भी लिखे हैं।

'निराला रचनावली' नाम से ८ खण्डों में आपकी पूर्व प्रकाशित एवं अप्रकाशित सम्पूर्ण रचनाओं का सुनियोजित प्रकाशन भी हुआ है।

ऐसी विशिष्ट लेखनी के धनी, यशस्वी रचनाकार एवं हिन्दी कविता के छायावादी युग के प्रमुख स्तंभ आ. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी शत-शत नमन 🙏

सोमवार, 23 जनवरी 2023

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

प्रत्येक भारतवासी की रगों में बहते लहू को जोश से भरने वाले बहुश्रुत नारे 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगी'  के जनक, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म, २३ जनवरी १८९७ में ओडिशा के कटक में, श्री जानकीनाथ बोस और श्रीमती प्रभावती देवी के परिवार में हुआ था। आप बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे और कालान्तर में इंग्लैंड की क्रैंब्रिज यूनिवर्सिटी से सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास की। १९२१ में अंग्रेजों द्वारा भारत में किए जाने वाले शोषण के बारे में ज्ञात होने पर, भारत को आजाद कराने का प्रण ले कर, इंग्लैंड में प्रशासनिक सेवा की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ अपने देश वापस आ कर आजादी की मुहिम में प्राणपण से जुट गए।

वर्ष १९४३ में बर्लिन में सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिंद रेडियो और फ्री इंडिया सेंट्रल की स्थापना की। भारत की आज़ादी के लिए प्रयास करने के लिए भगतसिंह के उत्कट जोश और गांधी जी के अहिंसाके सिद्धांत का सन्तुलन साधते हुए, मध्यम मार्ग को अपनाया था। आपने'आज़ाद हिंद फ़ौज' की स्थापना की और उसमें स्त्रियों को भी सम्मानित सहभागिता देते हुए 'झाँसी की रानी' रेजिमेंट भी बनाई।

सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु आज तक रहस्य बनी हुई है। आज तक उनकी मृत्यु से पर्दा नहीं उठ सका, बस कई चर्चाएँ उठती और मिटती रहीं। १९४५ में जापान जाते समय सुभाष चंद्र बोस का विमान ताईवान में क्रेश हो गया था, परन्तु उनका शव नहीं मिला था। बहुत समय तक एक चर्चा यह भी हुई कि नेता जी ने अपने जीवन का अन्तिम समय गुमनामी बाबा के रूप में गुमनाम जीवन जीया।

सुभाष चन्द्र बोस जी की जयन्ती को 'पराक्रम दिवस' के रूप में मनाया जाता है। आज नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती के अवसर पर आपकी कही हुई और जोश जगाती, हम सभी की प्रिय उक्तियों को याद कर के हम अपने श्रध्दा सुमन अर्पित करते हैं ...

१ : "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।"

२ : "यह हमारा कर्तव्य है, कि हम अपनी आजादी की कीमत अपने खून से चुकाएं।"

३ : "एक व्यक्ति एक विचार के लिए मर सकता है, लेकिन वह विचार, उसकी मृत्यु के बाद, एक हजार जन्मों में फिर से जन्म लेगा।"

४ : "आज़ादी दी नहीं जाती, छीनी जाती है।"

५ : "अगर कभी झुकने की नौबत आ जाए, तब भी वीरों की तरह झुकना।"

६: "अगर जीवन में संघर्ष न रहे, किसी भी भय का सामना न करना पड़े, तो जीवन का आधा स्वाद ही समाप्त हो जाता है।"

७ : “सफलता दूर हो सकती है, लेकिन वह मिलती जरूर है।”

८ : “सफलता हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी होती है, इसलिए किसी को भी असफलता से घबराना नहीं चाहिए।"

९ : "सबसे बड़ा अपराध, अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है।"

ऐसे जोशीले जज़्बात रखने और जगाने वाले वीर सेनानी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिवस पर शत-शत नमन 🙏💐💐
निवेदिता श्रीवास्तव निवी
लखनऊ

शनिवार, 14 जनवरी 2023

कैफ़ी आज़मी

 कैफ़ी आज़मी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले में १९ जनवरी, १९१९ को हुआ था। कैफ़ी आज़मी के परिवार में उनकी पत्नी शौकत आज़मी, इनकी दो संतान शबाना आज़मी और बाबा आज़मी हैं।


कैफ़ी आज़मी ने लखनऊ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई और उर्दू, अरबी और फ़ारसी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया।

कैफ़ी आज़मी में नैसर्गिक काव्य प्रतिभा थी। छोटी उम्र में ही वे शायरी करने लगे थे। यद्यपि उनकी आरंभिक रचनाओं में प्रेम-भावना प्रधान होती थी, किंतु शीघ्र ही उसमें प्रगतिशील विचारों का प्राधान्य हो गया। राजनीतिक दृष्टि से वे कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे और उन के पेपर 'कौमी जंग' में लिखते थे ।
कालांतर में फिल्मों में भी गीत लिखने लगे थे। फिल्मों में कैफ़ी आज़मी ने पहला गीत लिखा था 'रोते-रोते बदल गई रात'।
‘गरम हवा’ फ़िल्म की कहानी, पटकथा, संवाद कैफ़ी आजमी ने लिखे। इस फ़िल्म के लिए कैफ़ी आजमी को पटकथा, संवाद और बेस्ट फ़िल्म के तीन फ़िल्मफेयर अवार्ड के साथ ही राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। इसके अतिरिक्त भी कई अच्छी फिल्में आयीं थीं।

कैफ़ी आज़मी ने आधुनिक उर्दू शायरी में अपना एक ख़ास स्थान बनाया। कैफ़ी आज़मी की नज़्मों और ग़ज़लों के चार संग्रह प्रकाशित हुए हैं ... झंकार, आखिरे-शब,आवारा सिजदे, इब्लीस की मजिलसे शूरा।

कैफ़ी आज़मी बहुआयामी प्रतिभा से संपन्न थे। शायर, गद्यकार , नाटककार, फ़िल्मकार के साथ ही साथ कैफ़ी मज़दूर सभा, ट्रेड यूनियन में काम करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी के एक कुशल संगठनकर्ता थे। 

कैफ़ी आज़मी को अपनी विभिन्न प्रकार की रचनाओं के लिये कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं ...  साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ वार्ता फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार।

फ़िल्मजगत के मशहूर उर्दू के शायर कैफ़ी आज़मी का निधन १० मई, २००२ को दिल का दौरा पड़ने के कारण मुम्बई में हुआ।
ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सहकर कलमकार को शत-शत नमन 🙏
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

लेखन का आधार : भाव अथवा विधा



हाथों में लेखनी थामते और सीधी-टेढ़ी लकीरें खींचते हुए अनजाने में ही कभी पशु-पक्षी बन जाता है तो कभी कोई अक्षर ... उसके बाद इन अक्षरों को जोड़-जोड़ कर लिखने का क्रम शुरू हो जाता है। विचारों में परिपक्वता आते-आते विभिन्न विषयों पर लिखते-लिखते लेखनी सहज गति पा लेती है, तब दूसरों के लिखे हुए को पढ़ कर और सृजन के लालित्य से प्रभावित हो कर ही हम विविध विधाओं की तरफ़ आकर्षित हो कर सीखना शुरू करते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में विधा साधने के प्रयास में भाव कहीं दूसरी तरफ़ जाने लगते हैं और विधा का भाव से संतुलन साधना सुमेरु पर्वत लगता है, परन्तु अभ्यास करते रहने से यह संतुलन सध जाता है।

जहाँ तक लेखन का मूल तत्व विधा है अथवा भाव की बात है तो मेरे विचार से भाव को पकड़ कर ही विधा को साधना चाहिए। यदि भाव नहीं होगा तो सिर्फ़ विधा आधारित लेखन नीरस हो जायेगा।

यह सत्य स्वीकार करते हुए भी एक इससे भी बड़े सत्य को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हम जो कुछ भी लिखते हैं, जाने-अनजाने में किसी न किसी विधा के निकट ही होता है, आंशिक परिवर्तन के साथ ही वह उस विधा के ढाँचे में पूरी तरह समा जाता है। इसको मैंने स्वयं अनुभव किया है ... एक गीत लिखा था जिसपर मेरी मित्र की निगाह पड़ी और उन्होंने तुरन्त फ़ोन किया कि वह तो सरसी छन्द के बहुत निकट है। फिर हमने एकाध शब्दों के स्थान में आंशिक परिवर्तन किया और मेरे पास एक छन्द तैयार हो गया ... बाद में मैंने फिर आंशिक परिवर्तन किया और उसको दोहा गीतिका में परिवर्तित किया।

मैं अभी भी अपनी लेखनी को, छन्दों में बहुत कच्ची मानती हूँ, इसलिए लिखने का एक अलग तरीका अपना रखा है। कोई भाव उमगने पर, मैं उसको उमड़ती नदिया सी, मनचाही दिशा में बहने देते हुए, लिख लेती हूँ, फिर सोचती हूँ कि लिखा क्या है और किस विधा / छन्द के निकट पहुँच गयी हूँ। जैसा समझ आता है, उसके अनुसार पुनः उस सृजन को तराशती हूँ।

अन्त में यही कहना चाहूँगी कि भाव का ध्यान रखते हुए विधा को भी अवश्य साधना चाहिए ... बहुत नहीं तो किसी एक विधा को तो उर में बैठा ही लेना चाहिए।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

गुरुवार, 12 जनवरी 2023

स्वामी विवेकानंद जी

 स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म १२ जनवरी को कोलकाता में हुआ था। उनका पूरा नरेन्द्र नाथ विश्वनाथ दत्त था । उनके पिता का नाम श्री विश्वनाथ दत्त एवं माता का नाम श्रीमती भुवनेश्वरी देवी था। ये 9 भाई बहन थे। स्वामी विवेकानन्द जी को घर में सभी नरेंद्र पुकारते थे।अपने माता पिता की अच्छी परवरिश और संस्कारों के फलस्वरूप ही अपने जीवन में उच्च कोटी की सोच मिली।


१८८४ में उन्होंने कला विषय से ग्रेजुएशन की डिग्री ली और फिर उन्होंने वकालत की पढ़ाई की।स्वामी विवेकानंद जी की दर्शन, धर्म, इतिहास और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों में काफी रुचि थी इसी कारण वे इन विषयो को बहुत उत्साह के साथ पढ़ते थे यही वजह थी कि वे ग्रंथ और शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता भी थे।

स्वामी विवेकानंद जी ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया था और उन्हीं के बताए मार्ग पर चलते थे। राम कृष्ण परमहंस जी की मृत्यु के बाद विवेकानन्द जी ने वरहानगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की, बाद में जिसको 'राम कृष्ण मठ' का नाम दिया गया।

२५ साल की उम्र में ही उन्होंने सन्यासी धर्म स्वीकार कर के गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था और भारत की पैदल यात्रा पर निकल पड़े थे, जिसमें आगरा,अयोध्या, वाराणसी, वृंदावन, अलवर समेत कई जगहों पर गए। यात्रा के दौरान उन्हें जातिगत भेदभाव जैसी कुरीतियों का पता चला उन्होंने उन्हे मिटाने की कोशिश भी की।

४ जुलाई, १९०२ को ३९ वर्ष की उम्र में ही स्वामी विवेकानंद जी ने महा-समाधि ली थी।
ऐसी महान विभूति को श्रध्दा सुमन अर्पित करती हूँ 🙏
निवेदिता श्रीवास्तव निवी
लखनऊ

शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

यात्रा ...

 जीवन, मानव का हो अथवा प्रकृति का या फिर वनस्पति का, एक अनन्त यात्रा ही होती है। एक बिन्दु से प्रारम्भ हो कर मिट्टी में अथवा जल में समाहित हो कर बारम्बार प्रस्फुटित होता ही रहता है जीवन। पंचतत्वों से बना यह शरीर अपने एक जीवन की पूर्णता के बाद पुनः उन्हीं पंचतत्वों को उनका अंश दे देता है और फिर उन्हीं से वापस ले कर, अपना दूसरा, तीसरा जीवन चक्र पूरा करता है। यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह यात्रा स्थूल शरीर की अनवरत चलने वाली यात्रा है।


जन्म एवं पुनर्जन्म की यात्रा को भी कुछ लोग नहीं मानते हैं, तो कुछ मुक्ति अथवा मोक्ष की बात करते हैं। यहाँ एक बिन्दु विचारणीय है कि यदि जन्म एवं पुनर्जन्म को नहीं मानें, तब जन्म अथवा जीवन की अवधारणा कैसे होगी ... किसी एकदम ही अनजान को देख कर मन अनायास ही उसके प्रति नेह से भर बंध जाता है तो किसी को देख कर वितृष्णा जग जाती है। इस व्यवहार का कारण मुझको तो उससे पूर्वजन्म के अनुभव / सम्बंध ही लगते हैं। तथाकथित मोक्ष भी उस व्यक्ति को बन्धनमुक्त नहीं कर सकता क्योंकि वो बहुत से लोगों की अच्छी और बुरी दोनों ही आदतों के रूप में यादों में जीवित रह कर यात्रा करता ही रहता है।

व्यक्ति की एक यात्रा आध्यात्मिक भी होती है। पूर्वजन्मों के संचित कर्म के अनुसार ही, जन्म के समय परिवेश मिलता है। वर्तमान जीवन के परिवेश एवं पूर्वजन्मों के संस्कार ही हमारे कर्मों को संचियमान कर्मो में परिवर्तित करते हुए, प्रारब्ध निश्चित करते हैं। इस यात्रा में भटकाव भी बहुत है, उलझाते हुए प्रश्न भी हैं, परन्तु परमसत्ता के प्रति समर्पण ही गंतव्य तक पहुँचा देता है। सम्भवतः मेरी भी आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ हो गयी है ... भोलेनाथ के प्रति समर्पण भाव मुझको प्रत्येक व्यक्ति एवं परिस्थिति में शिव का ही आभास देता है।

एक और भी यात्रा है जिसके ज़िक्र के बिना इस विषय पर बात पूर्ण नहीं हो पायेगी। यह यात्रा ऐसी यात्रा है जिसमें कोई भी न तो अपनी तैयारी कर पाता है और न ही देख पाता है ... यह यात्रा है अन्तिम यात्रा ! साँसों के ताने बाने की माला के टूटते ही पंचतत्वों की गुनिया बिखर जाती है, परन्तु उसको उन मूल तत्वों तक वापस पहुँचाने के लिए यह यात्रा अनिवार्य हो जाती है। जाने वाला व्यक्ति किस विचारधारा का था यह सोचे बिना अपनी सुविधानुसार विविध कर्मकाण्डों का पालन करते हुए उसकी इस अन्तिम यात्रा को भी सम्पन्न करवाते हैं।

अन्त में यही कहना चाहूँगी कि यात्रा कोई सी भी हो, कैसी भी हो सदैव समभाव रखना और रहना चाहिए ... सबसे आवश्यक बात यह है कि यात्रा के लिए अपने कर्मों की गठरी का आकलन करते हुए, उसको संतुलन की धूप और हवा दिखाते रहना चाहिए। मोक्ष मिले अथवा न मिले पर किसी की यादों के गलियारे में कसैलेपन के आभास रूप बसेरा नहीं करना चाहिए ... इसके लिए आवश्यक है कि अंतरमन की यात्रा करते रहना चाहिए।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

गुरुवार, 5 जनवरी 2023

बाल गीत : साल नया नया है आया



साल नया नया है आया

खुशियाँ भी अनगिन लाया।


चुन्नू मुन्नू ने खोली बाँहे

सज्ज हुई सबकी राहें।


नई रागिनी नया तूर्य

कोहरे से झाँके है सूर्य।


तीन सौ पैंसठ साल के दिन

सज्ज आशाएँ अनगिन।


असफलता कभी जो आयें

सद्प्रयास से उन्हें भगायें।


कोहरे के जब छाये बादल

ठण्ड से सब हुए हैं पागल।


चुन्नू मुन्नू जी ने छोड़ा बिस्तर

दादू ठण्ड पर चलाओ नश्तर।

#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी 

#लखनऊ

बुधवार, 4 जनवरी 2023

आदरणीय गोपालदास नीरज जी जन्मदिन मुबारक !!!

 हिंदी साहित्य के जाने माने कवि गोपाल दास नीरज जी का जन्म ४ जनवरी १९२५ को हुआ था।

आपने हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया और मेरठ कॉलेज, मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया। कुछ समय पश्चात नीरज जी ने उस स्थान को छोड़ दिया और अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक बन गये।

कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता मिलने के बाद फिल्म जगत में गीत लिखने का निमन्त्रण मिला और पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे 'कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे' और 'देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा' बेहद लोकप्रिय हुए और वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला कई वर्षों तक जारी रहा।

आपकी लेखन शैली भी अद्भुत थी । कहीं एकदम सीधे-सादे ढंग से अपनी बात कह दी परन्तु माधुर्य भाव कभी कम नहीं लगा, तो कहीं शब्दों द्वारा चित्र ही उकेर दिया।
आप के सृजन में जीवन के निटकतम प्रतीक बहुत ही सहजता से मुखर हो उठे।

नीरज जी की कई कृतियाँ प्रकाशित कृतियाँ हुई हैं।संघर्ष आपकी पहली प्रकाशित कृति है। कारवाँ गुजर गया , फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिये, नीरज की गीतिकाएँ मेरी पसन्दीदा कृतियाँ हैं।

नीरज जी को पद्म श्री सम्मान, यश भारती, पद्म भूषण इत्यादि कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए हैं। फ़िल्म जगत में भी सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया।

ऐसी सशक्त एवं कोमलमना लेखनी से समृद्ध, आदरणीय गोपालदास नीरज जी को, उनके जन्मदिवस पर बहुत आदर से नमन करती हूँ 🙏
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

सोमवार, 2 जनवरी 2023

लघुकथा : बंजर

 लघुकथा : बंजर

लहराती इठलाती हुई सरिता अपने उद्गम से मदमाती गति में प्रवहमान स्मित बरसाती चली जा रही थी। अब उसको अपना प्रवाह मंद से, मंथर गति में परिवर्तित होता लगने लगा था। बीच-बीच में वह कनखियों से भाँपने का भी प्रयास करती थी कि किसी को उसके उद्गम स्रोत का पता तो नहीं चल गया है!

अपने प्रबल आवेग में बहती हुई, किनारे बसे तटों को देखती और उनकी हरीतिमा को अपनी ही उपलब्धि मान उच्च स्वर में अट्टहास करती। वह मार्ग के अवरोधों को युक्तियों से हटाती हुई, अपने ही एक किनारे को व्यर्थ मानती हुई, दूसरे किनारे की तरफ़ बढ़ती गयी। वो नादान भूले बैठी थी कि निःसन्देह किनारा बदल दिया हो उसने, परन्तु रूप बदल कर दूसरा किनारा, उसकी सीमा दिखाता सा साथ ही चल रहा था।

बदलती परिस्थितियों के फलस्वरूप वह किनारा, जिसको श्रेष्ठ मान वह मुड़ती जा रही थी, भी उसकी शोर मचाती लहरों में दम घुटता सा अनुभव करता, ऊब कर उसकी तरफ़ बाँध बनाने लगा था। बाँध की मजबूती और ऊँचाई का अनुमान नहीं लगा पाने के फलस्वरूप कुछ समय तो वह अकारण ही उस पर अपनी लहरों  से दस्तक देती रही। अनसुना रह जाने पर उसने छूटे हुए किनारे को वापस पकड़ना चाहा, परन्तु अब उस किनारे और सरिता की लहरों के बीच रुक्ष पड़े वीरान तट की दूरी आ गयी थी ... वह तट अपने दामन में पनप आये दलदल पर अपना अस्तित्व बनाने के लिए प्रयासरत था और सरिता कुछ अपने में ही सिमटती हुई नये किनारे की तलाश में आगे बहने का प्रयास कर रही थी।
सच! ये अवहेलना की बढ़ती दूरियाँ भी उर्वरा को बंजर कर देती हैं और उफ़नती लहरों को शुष्क!
#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी
#लखनऊ