गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

मैंने कहा न बस यूँ ही ....


धुंध 
आजकल कुछ ज्यादा ही ,
राह रोक रही है निगाहों की 

अकसर 
बहुत सी चीजें होती हैं पर 
अनजानी अनदेखी ही रह जाती हैं 

मैं हूँ वहीं 
पर तुम देख नहीं पा रहे हो 
शायद चाहत ही नहीं देख पाने की 

धूप
जब प्रखर होती कसूरवार बन जाती 
आँखे पलको की अंकवार से बाहर आती नहीं 

न रहूँगी मैं 
तुम्हारी आँखों की चमक बढ़ जायेगी 
अँधेरे की रौशनी कुछ अधिक ही तीखी होती है ....... निवेदिता 

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

मेरे जीवन की अनबोली सी वजह ..........



आज 
बहुत सोचा 
और 
निर्णय लिया 
तुम मुझको 
भूल गये 
चलो मैं भी 
भूल जाती हूँ 
तुमको ..... 
तभी कहीं 
इक जुगनू सा 
चमक गया ....
गर हम
एक - दूसरे को 
यूँ ही 
भूलते रहे  
क्या कभी 
कुछ भी 
मिलेगा 
कभी कहीं 
याद भी करने को 
या कहूँ 
क्यों भूलूँ 
क्योंकि .......
अरे ! तुम 
हाँ , तुम
तुम ही तो हो 
मेरे जीवन की 
अनबोली 
सी वजह ........... निवेदिता 

रविवार, 15 दिसंबर 2013

बरसी एक सपने की .......



कल ,सोलह दिसंबर की , तारीख फिर से कुछ खरोंचे छोड़ जायेगी उस सपने के अंत होने के एक वर्ष पूर्ण होने की .... पिछले वर्ष कल के दिन ही एक मामूली सी लड़की जीवन की विकृत त्रासदी का सामना करते - करते हम सब की खुली आँखों को झंझोड़ कर खोल गयी ... मजबूर कर दिया उसने आत्ममंथन के लिए .... पता नहीं क्यों ,पर कहीं न कहीं मुझे ऐसा लगता है कि उस समय के तमाम आंदोलन ,विरोध प्रदर्शन ,और मातम सब व्यर्थ ही गये .... हाँ ! अंतर बस इतना आया है कि तन - मन से कुचला गया स्त्री  वर्ग कुछ हद तक विरोध में आवाज़ उठाने लगा और उन उठती हुई आवाज़ों को अब कुछ और आवाज़ों का साथ भी मिल जाने लगा है ... पर उस मूल समस्या का क्या हुआ ... कुछ भी नहीं ,वो तो रक्तबीज की तरह से जस की तस बनी हुई है ....

आज हम जिससे भी बात करें वही कहता हुआ मिल जाएगा कि उस आंदोलन का असर ही है कि आसाराम ,उसका बेटा नारायण स्वामी ,जस्टिस गांगुली जैसे लोग क़ानून के शिकंजे में आये ,पर अगर हम खुद की आत्मा के प्रति अगर ईमानदार हो कर जवाब दें तो क्या ये कुछ नया हुआ है ... पहले भी ऐसे तथाकथित संतों के झांसे में लोग आये भी हैं और उनका खुलासा भी हुआ और विभिन्न स्तर के अधिकारियों पर भी शिकंजा कसा गया है ..... तब उन तमाम आंदोलनों का क्या असर हुआ .... या फिर बातें हैं बातों का क्या .... करते रहो हर तरह की बातें अनर्गल प्रलाप की तरह .....

इतनी ,तथाकथित , जागरूकता और आत्ममंथन के बाद भी ऐसा समाज - ऐसे हालात क्यों नहीं बन पाये जब  नि:शंक हो कर महिलाएं सांस भी ले पाएं ... स्वयं को स्वतंत्र महसूस कर पाएं ... अब भी उनके वस्त्रों पर , उनके आचरण पर , उनकी बात करने की शैली को उनके ऊपर होने वाले आक्षेप या शोषण का कारण कहा जाता है .... इतनी समझ तो महिलाओं में भी है कि वो स्थान और परिस्थियों के अनुसार ही वस्त्रों का चुनाव करती हैं ..... अधिकतर स्थानों पर वो मध्धयम मार्ग का ही अनुसरण करती हैं ... न तो वो हर जगह घूँघट में घूमती हैं और न हीं अंगप्रदर्शक  वस्त्रों में  .... पूजा के स्थान अथवा ग्रामीण परिवेश में जाने पर पल्ला माथे पर रखना भी जानती हैं और सैर - सपाटे के समय पल्ले को कमर पर रखना भी जानती हैं ..... वो जींस पहने या सूट वो जानती हैं कि कहाँ क्या पहनना और कैसे व्यवहार करना उनको सहज रखेगा ... अरे भई अगर पुरुषों के वस्त्र पहनना उनकी सुविधा के अनुसार होता है तो ये दोतरफा व्यवहार क्योंकि हर बात के लिए स्त्री ही ज़िम्मेदार ठहरायीं जाए .....

नारीमुक्ति आंदोलनों के पुरोधा ,आज से ही "निर्भया" या "अभया" के नाम से जलाने के लिए ,मोमबत्तियाँ सहेज रहे होंगे पर उनसे एक ही निवेदन है कि उन मोमबत्तियों को प्रज्ज्वलित करने से पहले एक बार अवश्य सोचें कि क्या मोमबत्ती जलाने से ही उनकी प्रतिबद्धता सम्पन्न हो जायेगी ..... ये प्रकाश देना तभी सार्थक होगा जब हम भी अर्थात स्त्रीवर्ग खुली सोच में जीवन के पल जी पाएं ...... दूसरे शब्दों में कहूँ तो ऐसे हालात ही न आयें कि स्त्रियाँ दूसरे लोक की जीव बनी रहें जिनको सम्हालने और सहेजने की जरूरत हो ..... और न ही उनको चिड़ियाघर जैसे घर के किसी पिंजड़े में बंद कर के रखा जाए जिनसे मिलने के लिए टिकट लेने की नौबत आये ....

"निर्भया" का नाम तभी लें और उसकी बरसी भी तभी मनाएं जब कहीं भी कोई दूसरी निर्भया अपने सपने को पूरा करने के पहले ही ,आँखें मूँदने को मजबूर न कर दी जाए और मोमबत्तियां कुछ रोशनी फैला सकें तभी जलाई जाएँ अन्यथा वो भी गल कर व्यर्थ  होंगी ............ निवेदिता .

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

एक पोटली खुशियों की ......

 



न जाने किस पल 

विधाता ने देखा 

मुझको 

और संजो लिए 

कुछ रेशे 

रंगों और उमंगों के 

थमा दी मेरी 

साँसों के हाथों में  

एक पोटली सी 

खुशियों की 

पता नहीं 

उसमें थे

छेद ही छेद  

या ताना - बाना ही

ऊपर वाले ने  

बना कर भेजा 

तंद्रिल .......

मुस्कानों के जुगनू 

रास्ता पा एक 

नयी ही मंज़िल 

की तलाश में 

चमकते इठलाते 

चल दिये .....

और मैं ....

बस उन चमक बिखेरती 

धुँधले चमकते सुरीले 

पुच्छल तारों के पीछे 

बेसुध और बेबस सी 

यूँ ही भटक रही हूँ 

उजियारे से अंधेरों के बीच ....... निवेदिता  

( दोस्तों ये कोई व्यथा नहीं है ,ये तो जीवन की रीत है ........ )

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

बस ऐसी ही हूँ मैं .....


हाँ ! 
इस सच को 
मानती हूँ 
और
जानती भी हूँ 
कि 
सब को
सब कुछ 
न कभी मिला है 
और
न ही 
कभी मिलेगा 
तब भी 
जो भी 
जितना भी 
मेरा है 
उसको तो
कभी कहीं 
जाने भी तो 
नहीं दे सकती 
बस ऐसी ही हूँ मैं ..... निवेदिता