समय के विभिन्न चरणों ने मुझे कितने विकृत नाम दिए ! मुझे कलियुग के प्रारम्भ का कारण भी बताया |किसी ने इसका कारण खोजने का कष्ट कभी नहीं उठाया ,कि ऐसी घटनाएँ घटी क्यों ? इनका मूल कारण था क्या? क्या मैं ही ज़िम्मेदार थी इन सभी पातकों की ?
जिसने जो भी समझा हो आज इतने समय से सबके आक्षेप सहते-सहते ,अब मुझे भी लगता है कि मैं भी अपना पक्ष सबके बीच ले ही आऊँ .........
मुझे सबसे अधिक जो आक्षेप पीड़ा देता है वो है पांच पतियों की पत्नी कहलाया जाना !ये मेरा चुनाव तो था
नहीं और न ही मेरे परिवार का |ये तो एक माँ का षडयंत्र था अपने बेटों को बांधें रखने का और बलिवेदी पर
चढ़ाया गया मुझे ! कभी-कभी लगता है कि कहीं ये माता कुंती की चाल तो नहीं थी खुद को निष्पाप बनाए
रखने की !
पांच पतियों की पत्नी बन कर मुझे ऐसा क्या सौभाग्यशाली जीवन मिला ,जो मैं ऐसी कामना करती | अगर
उन पाँचों का आकलन करूँ तो उन की वास्तविक स्वरूप सामने आ जाएगा | सबसे पहले युधिष्ठिर की बात
करूँ .....उन से बड़ा कापुरुष तो "न भूतो न भविष्यति " ही है |किसी भी बहस का निर्धारण अपने पक्ष में करने
के लिए अपने बड़े होने का ही इस्तेमाल किया है ,तर्कों को तो एकदम हटा ही देते थे |कोई मुश्किल आ पड़ने
पर धर्म-अधर्म का मायाजाल बिछा लेते और उस के बीच छिप जाते | ऐसी परिस्थिति में अर्जुन , भीम आदि
समाधान खोज निकालते तब वो अग्रजासन पर आ विराजते | कहलाये जाते हैं धर्मराज , परन्तु अधर्म की
पहचान उनसे बढ़ कर दूसरा कोई नहीं है |अनुज-वधु ,जो पुत्री जैसी होती है ,से विवाह की सहमति दे दी और
विवाह कर भी लिया | मेरे जीवन का सबसे दग्ध क्षण -मेरा वस्त्र-हरण -के मूल में भी यही धर्मराज ही हैं जो
जुआ खेल भाइयों के साथ मुझे भी हार गया !तब अगर मेरे सखा कृष्ण ना आ जाते तो क्या होता -ये मैं सोच भी न पाती हूँ .....................
अब अर्जुन के बारे में भी मेरा आक्रोश कम नहीं है |स्वयंवर में मुझे विजित करने का अर्थ ये तो नहीं है कि मैं
एक जड़ पदार्थ बन गयी ! मेरी हिस्सा-बाँट करते समय मुझे संवेदनाहीन समझ लिया | अगर मेरी अस्मिता
की रक्षा नहीं कर सकते थे तो उनको स्वयंवर में हिस्सा ले कर मेरा जीवन उपहासास्पद नहीं बनाना था |
नकुल-सहदेव तो बड़े भाइयों की छाया में अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व बना ही न सके ,तो मेरे सहायक कैसे बनते |वो तो अबोध शिशुओं सा मुझमें सख्य-भाव ही तलाशते रहे |
हाँ !जब भीमसेन के बारे में सोचती हूँ ,तब मन थोड़ा आश्वस्त होता है |जब भी कोई विपत्ति पडी भीम ने सदैव मेरा पक्ष ले सब का सामना किया है ,यहाँ तक कि युधिष्ठिर का भी !चीर-हरण के समय भी सिर्फ भीम ने ही मुझे
दांव पर लगाए जाने के औचित्त्य को नकार दिया था |अज्ञातवास में कीचक से मेरी रक्षा भी भीम ने ही की थी |
युधिष्ठिर तो तब भी सदुपदेश ही दे कर रह गए |
अब ऐसी परिस्थितियों में मुझे महाभारत के युद्ध का कारण बताना और निराधार दोषारोपण करने का क्या औचित्त्य है |क्या उस समय के सतयुग से आज के कलियुग तक कोई भी मेरी इस व्यथा का समाधान कर पायेगा ?अगर ऐसा न कर पाए तो मुझे कलंकित कहने का अधिकारी कोई नहीं है |
आज मैं ये भी नहीं कहूंगी कि जो स्वयं निष्पाप हो वही मुझे दण्डित करे |अगर मैंने ऐसा कह भी दिया तो खुद
को उजला साबित करने को कई हाथ दण्डित करने को उठ आयेंगे ,बेशक मन में वो भी सच को महसूस करेंगे |
इन सब से तो अच्छा है मैं खुद से ही सारे उत्तर तलाशूँ और जब तक न मिले मैं अपने अंधेरों में ही रहूँ ........