सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

" युधिष्ठिर - न्याय "

         सबके उचित-अनुचित का आकलन कर के न्याय करते-करते आज अनायास ही मेरी अंत:चेतना मुझसे प्रश्न करने लगी -क्या मेरे द्वारा किया जाने वाला न्याय उचित होता है ?क्या मैं न्याय करने का अधिकारी हूं भी?
क्या उस तरह के गुनाह मैंने भी नहीं कियें हैं ?सब के साथ न्याय करने की घोषणा करने वाला मैं ,सब के साथ न्याय कर पाया हूँ ? सच पूछो तो नहीं |
मैंने तो अन्याय की नीवं अपने घर में ही रखी | चलिए शुरू से  ही शुरुआत
की जाए |
          सृष्टि के सबसे संहारक युद्ध ,महाभारत के लिए सब ने  दोषी  माना
मेरे अनुज दुर्योधन को |आज शांत मन से इस का दोषी मैं खुद को मानता 
हूं | अगर मैं अपनी चरित्रगत कमजोरियों से बच पाता तो कोई  मेरे अपने परिवार के साथ कुछ  भी गलत न कर  पाता | अगर मैंने दृढ़तापूर्वक मना किया होता तो जुआ खेल कर मैं राज्य के साथ-साथ अपना , भाइयों और  
सबसे बढ़ कर द्रौपदी का मान भंग करवाने से बच जाता |
         मैं द्रौपदी का भी अपराधी हूं |सब इस को ही सच मानते हैं कि अर्जुन
द्वारा विजित द्रौपदी को माता कुंती ने आपस  में  बांटने को  कहा  था | एक पल को इस को सच मान भी लें ,तब भी प्रश्न यही है कि मां ने उससे विवाह करने को तो नहीं कहा था ! द्रौपदी के सौन्दर्य पर हम  सब भाई मोहित थे ,
परन्तु वैसा शर - संधान हमारे लिए संभव नहीं था | हमने हमेशा की  तरह
अर्जुन के पराक्रम का ही सहारा लिया | अर्जुन द्वारा विजित द्रौपदी से हमने 
विवाह कर के उस को असमंजस की स्थिति  में डाल दिया | माता कुंती द्वारा बांटने को कहने का ये तात्पर्य ,नैतिक रूप से ,कभी भी नहीं  हो सकता था |
हम द्रौपदी को मां के रूप में ,अनुज - वधु होने पर पुत्री रूप में  अथवा  कृष्ण की तरह सखी रूप में भी बांट सकते थे | परन्तु हमारे मन का चोर किसी और रूप में द्रौपदी को देख ही नहीं पाया |
             अपराधी तो मैं अपने प्यारे भाई अर्जुन का भी हूं | जब भी कोई बड़ा 
ख़तरा आता , मैं  निरुपाय सा अर्जुन को तलाशता और  वह  उस  ख़तरे का सामना करने  को  तैयार नज़र आता | जब हमें किसी दैवीय  शक्ति के लिए तप करना होता तब भी अर्जुन ही जाता |
             द्रौपदी के बारे  में  सोच कर ही  मुझे  खुद पर  ग्लानि होती है | एक  
सरलमना स्त्री को शब्दों में बाँध कर के ऐसा विवश कर दिया कि पंचपतियों को स्वीकार  करने को उसको बाध्य होना पड़ा |  द्रौपदी के  उपहास बन  गए
जीवन का  मूल कारण मेरे द्वारा मां के शब्दों को दिया गया घुमाव था |
            सब के प्रति जाने-अनजाने में किये गए अपराधों (इस तरह के किये 
गए अन्याय अपराध की ही श्रेणी में आते हैं )के बोध से मैं इतना पीड़ितऔर
त्रस्त अनुभव कर रहा हूं  , कि  धर्मराज  का  संबोधन  तीखे  बाणों  सा  मेरी आत्मा  को  भी  कचोटता  है |  परन्तु  अब  कुछ भी नहीं कर सकता ये मेरी विवशता है !!!    

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

"अनियमित - नियम "

     अरे बंधुवर !चौंकिये मत | आज वाकई एक कीड़ा  काट गया है ,कि एक नियम बनातें हैं कि कोई भी नियम न बनाने का | मेरा मतलब  है कि ज़रा 
अनियमित  हो कर उसी नियम का पालन करें ,एक खेल की  तरह या कहूं 
शौक के रूप में | 
      नियम बना कर अगर हम कोई काम करतें हैं ,तो थोड़े समय बाद हम 
उससे ऊब कर भार  समझ  कर  निभाते  हैं  फिर  बचाव  के रास्ते खोजने
लगते हैं | पहले तो खुद से ज़बरदस्ती  करने  की कोशिश करतें  हैं कि इसे 
पूरा करना ही है | थोड़े  समय  बाद सोचते  हैं कि इसको पूरा करना चाहिए |
अब सबसे खतरनाक दौर आ जाता है और खुद से ही सवाल-जवाब का एक 
नया दौर शुरू हो जाता है कि आखिर इसको हम करें ही क्यों !बस इन  सब 
परिस्थितियों से बचने के लिए ही ये रास्ता समझ में आया है |
      अनियमित नियम का सब से बड़ा फ़ायदा है कि मन हरदम एक छोटा 
सा बच्चा बना रहता है जिसका उद्देश्यरहित उद्देश्य ही होता है मस्ती करना
| यहाँ "मस्ती"शब्द इसलिए अधिक उपयुक्त है | मज़ा , आनंद या इस तरह के अन्य भाव थोड़े से यांत्रिक प्रतीत होते हैं | "मस्ती" शारीरिक , मानसिक 
हर स्तर पर हर लम्हे -हर भंगिमा को जीना लगता है |
    इस विचार को कुछ यूँ भी समझ सकते हैं कि आप नियम से रोज़ क्रिकेट 
खेलने जाते हैं - घड़ी में पांच बजे खेलने गए हैं और छ:बजे लौटना है लेकिन तभी आप शतक भी बनाने वाले हैं | आप क्या करेंगे नियम के अनुसार लौट 
आयेंगे अथवा शतक पूरा करेंगे ? नियम के अनुसार अगर वापस आ जाते हैं 
तो मन में दूसरा स्वर लगातार चलता रहेगा |अनियमित नियम के अनुसार 
शतक पूरा कर के लौटने पर एक अलग तरह की  ऊर्जा  अनुभव करेंगे | इस 
प्रकार नियम तोड़ने से नुकसान भी कुछ नहीं होगा |
   देखा आपने अनियमित नियम का पालन करने से आप कुछ अधिक और 
अलग तरह का आनंद प्राप्त करेंगे | बस एक चीज़ का ध्यान रखना पडेगा कि 
इस से किसी को परेशानी न हो | अपने राम तो अबसे यही करेंगे ,बाकी मर्जी आपकी !!!

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

आओ सहेज लें.....

आओ सहेज लें उन लम्हों को 
सरकते जाते हैं रेत की तरह 
रंग छलकाते रंगीनी बढाते 
वसंत की खुशबू की तरह 
फगुनहट की आस दिलाते
सावन की रसधार 
दीपों की कतार 
सारे पर्व - त्यौहार 
जीवन जीना सिखलाते 
नन्हे तोतले बोल 
बतलाते सब सार 
जतलाते बार-बार 
न कुछ बदला 
न ही कुछ छूटा 
नहीं कहीं पर रेत 
है हर जगह बस 
प्यार - प्यार और प्यार  बेशुमार .........

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

सोच ?

     आज अभी थोड़ी पहले देर एक बच्ची,मेरी नन्ही सी मित्र ,की उत्सुकता उजागर हुई जो कि उसमें मेरी ही एक पोस्ट (डर .....क्यों ......)को पढ़  कर जगी है | हम अकसर अपनों की शुभकामना करते हुए उनको  कुछ  गलत 
भी बोल जाते हैं ,जैसे  बच्चे को गिराने से बचाने के लिए बोल जाते हैं  कि अभी गिरोगे  जबकि हमारी कामना  उसको बचाने  की  ही  रहती है |  इस
सोच को नकारात्मक अथवा ऋणात्मक नहीं कह सकते हैं | ये एक  अपनी 
शुभेच्छु सोच है | हमारे  भाव या सोच हमारे शब्द नहीं होते , वो  तो  हमारे 
अंतरमन के विचार होते हैं | 
         हम माने अथवा न माने,हम सब ही सामाजिकता,अवसर या रिश्तों 
के मकड़जाल में फंस कर ,मन के भावों से इतर भी कभी-कभी बोलने को 
मजबूर हो जाते हैं | पर तब भी हमारा मन अपने विचारों की तरंगे प्रवाहित 
करता रहता है जो कि वस्तुत : सच होती हैं , हमारे  अपने मन की आवाज़ होती हैं |
           इस प्रकार की  नकारात्मक बातों में  हमारी नकारात्मक सोच नहीं ,
शुभेच्छा ही रची-बसी रहती है ,जो हमारे अपने प्रिय-जन की मंगल-कामना 
ही रहती है और इसको कोई भी कभी भी गलत नहीं मानेगा |

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

"मन की चिकित्सा "

            बीमारी किसी भी व्यक्ति को दो तरह की हो सकती  है - शारीरिक  और मानसिक | साधारणतया  हम सिर्फ  शारीरिक - व्याधियों  के विषय  में  ही  
सचेत रहते हैं | मानसिक बीमार के बारे में सामान्यतया  "पागल" कह  कर 
ही इतिश्री कर लेते हैं | अगर देखा जाए तो मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति 
के बीमारी की शुरुआत उसके आत्मबल के क्षीण होने से होती है |उसकाखुद 
पर से विश्वास कम होते-होते एकदम समाप्त हो जाता है | वो आस - पास की 
परिस्थितियों से खुद को जोड़ नहीं पाता और सामान्य प्रतिक्रिया भी नहीं दे 
पाता | उसके इस प्रतिक्रियाहीन रह जाने को पागल कह दिया जाता है ,जो की सर्वथा अनुचित है |  
          जब आधुनिक चिकित्सा - प्रणाली विकसित  नहीं हुई थी ,तब ऐसे रोगियों को किसी पुजारी या ओझा के पास ले जाते थे,जो अनिष्ट  निवारण 
के लिए तथाकथित जादू अथवा पूजा का आश्रय लेते थे | कालान्तर में जैसे जैसे आधुनिक चिकित्सा -प्रणाली ने क्रमिक विकास किया इन मानसिक रोगियों को स्वीकारा जाने लगा और लक्षण  के  आधार  पर  हर  व्याधि के उपचार का तरीका खोजा जाने लगा | 
              मानसिक बीमारियां भी कई प्रकार की  होती हैं | मिरगी  भी  एक प्रकार की ऐसी ही बीमारी है ,जिसे कि लाइलाज़ समझा जाता था | अवसाद 
का दौर भी लगभग  हर एक   के जीवन  में  आता  है ,कभी  कम  तो  कभी अधिक | यह अवसाद भी एक मानसिक व्याधि ही है | इसमें सबसे डरावना 
रोग "स्कीजोफ्रेनिया" माना  जाता है | इसका मुख्य  लक्षण वैचारिक और भावनात्मक  प्रतिक्रियाओं  का  असंतुलन  है | इसमें  मरीज  अनुपस्थित
की आवाज़ें सुनते हैं | काल्पनिक  भय  के  फलस्वरूप  असामान्य  हरक़ते करते हैं | 
               पहले मानसिक रोगियों की चिकित्सा में बिजली के झटके दिए जाते थे | धीरे-धीरे मानासिक रोगियों की चिकित्सा मनोवैज्ञानिक आधार 
पर होने लगी | ऐसे रोगियों की चिकित्सा में  सबसे ज्यादा  सहायक  शांत
और आरामदायक जगह ,ताजी हवा और पोषक भोजन होते हैं | शांत और 
सुकून पहुंचाने वाले स्थान से इन की मानसिक उत्तेजना और उद्वेलन शांत 
हो जाती है | इस  तरह की  बीमारी में  दी जाने  वाली  दवाओं  के असर  से मरीज़  की उग्रता तो कम हो जाती है ,परन्तु वह मरीज़ सुस्त और  उनींदा 
सा रहता है और सामान्य जीवन नहीं जी पाता है | इस परिस्थिति को हम ऐसे समझें की पहले हम पागल कह कर ज़ंजीरो से जकड़ देते थे , अब उन 
को मानसिक रोगी बोल  कर दवा  की ज़ंजीरो  से जकड़ देते  हैं | मानसिक 
रोगियों को आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि चिकित्सकीय परामर्श के साथ 
ही एक शांत और संवेदनशील वातावरण भी दें|

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

डर........क्यों.....

        डर ,खौफ़ ,भय .....कभी सोचा ये है क्या ? सिर्फ एक भाव के लिए अलग -अलग शब्द या कुछ और ,ये भाव है क्या ? डर हमें  सिर्फ तभी
लगता है जब हमारे पास खोने के लिए कुछ होता है | हम सबसे ज्यादा कमज़ोर तब  होते  हैं जब  हमारे  पास हमारे अपने होते हैं | हम  उनका 
 भला  चाहते  हुए  अपनों  के  बारे  में  ही सब गलत सोच जाते हैं | ज़रा 
सा भी  नज़रों से  ओझल हो  जायें  दुश्चिन्ताओं  से  घिर  कर  मन सारे अपशकुनी विचारों से घिर  जाता है  | घंटी  बजने पर घरवालों  के जल्दी  वापस न आने पर वहम होता है कि किसी ने  उन का  अपहरण तो  नहीं
कर लिया | सड़क पर चलने वाला हर  वाहन  खतरनाक लगता है | 
          घर बैठी महिलाएं अपने परिवार की सुरक्षा की कामना  करते  हुए 
उस परम सत्ता ,जिसने  इस सम्पूर्ण  सृष्टि  की  रचना  की  है , से  गुहार 
लगाती हैं | बस यहीं सब संतुलन असंतुलित हो जाता है ,क्योंकि बीच में 
 इश्वर के मध्यस्थ बन के ढोंगी बाबा प्रकट हो जाते हैं |इन बाबा नामधारी 
महापुरुषों का इकलौता काम होता है पहले से ही डरी महिलाओं को  (वैसे डरते तो पुरुष भी हैं)  और डरा कर लाभ कमाना | इस तरह  का अंधविश्वास 
न करने वाली महिलाएं भी ये सोच कर के  ढकोसलों को पूरा कर देती  हैं ,
कि इससे कुछ नुकसान नहीं होगा | एक तरह से देखिये तो ये उनका किसी 
भी प्रकार का अंधविश्वास नहीं ,अपितु अपनों के लिए मंगलकामना ही है |
             अगर इस सबमें सच देखा जाए तो ,इस डर के लिए महिलाओं की 
प्रकृतिगत कोमलता ही दोषी है | वो कोमल  इसलिए भी  हैं  कि वो परिवार और  समाज नाम के कवच से सुरक्षित रखी जाती  हैं | 
             कहा जाता है कि दर्द की इंतिहा ही  उसकी दवा हो जाती  है | इसी प्रकार अगर डराने की इंतिहा हो जाए तो वो शक्ति  रूप में  अपने  बच्चे को अपरहणकर्ता का सामना कर उसे सुरक्षित बचा भी लाती है | महिलाओं की
कमज़ोरी ही उनकी ताक़त भी होती है | परिवार पर कोई संकट आ जाए तो 
उसका सामना करने में वो एक पल भी नहीं लगातीं | 
             ये कहना कि महिलाएं ज्यादा डरती हैं और अधिक अन्धविश्वासी 
हैं ,सच्चाई से  थोड़ा दूर लगता है | वस्तुत: वो  अपनी  हर व्यस्तता में  भी अपने घर- परिवार से अधिक जुड़ी रहती  हैं , इसीलिये  वो  ऐसे अधिकतर कामों को कर लेती जिनसे उम्मीद होती कि कुछ तो भला हो  ही जाएगा |         
           

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

"मैक्डी से मैक्डी तक "

    सबके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण अक्षर " म " है | बच्चा जब बोलना शुरू 
करता है तब सबसे  पहला अक्षर  उसके  मुख से " म " ही  निकलता  है | ये इतना बहुअर्थी होता है की हर व्यक्ति अपने अनुसार उसका अर्थ निकाल कर 
खुश हो जाता है | उस बच्चे की जननी खुशी से झूम उठती है और सोचती है कि उसको " माँ " की  पहचान मिल गयी | माँ  का  भाई सोचता है  बच्चे  ने  मामा कह कर अपने मातृपक्ष को वरीयता दी है |घर  के  अन्य  बच्चे  अन्य सबकी धारणाओं को एकदम से  वीटो लगा  कर  नकार  देते हैं |  नन्ही  सी 
बाल - संसद के मतानुसार तो बच्चे ने तो "माऊं" अर्थात बिल्ली को पुकारा
 है | हो गयी न सबके मन की और इस सारे विवाद का  मूल स्रोत वो बच्चा 
मस्ती से अपने पालने में मीठे सपनों में खो जाता है |
        जब बच्चा थोड़ा और बोलने लगता है तो नित नयी फ़रमाइशे शुरू हो जाती हैं | माँ ,मामा ,चन्दा मामा ,मम्मम से भी दो - चार क़दम आगे  बढ़
चलता है | इन सब में एक नया शब्द शामिल हो जाता है "मैक्डी" का और 
बाकी के सारे "म " भूल जाता है | इस मैक्डी से नए - नए बने माता - पिता
बेहद खुश हो जाते हैं | बच्चे की हर कामयाबी और  खुशियों  पर  सीधे  इस
मैक्डी नामधारी तीर्थ में पहुँच जाते हैं | अभी भी नहीं समझ पाए ! अरे भई
यह मैक्डी और कुछ  नहीं आपका जाना - पहचाना "मैक्डोनाल्ड "रेस्त्रां है | 
सच पूछिए तो इस मैक्डी से अपनी कोई नाराज़गी है नहीं | धीरे- धीरे बच्चे
इस तीर्थ  पर अपनी  मित्र - मंडली के साथ जाना कुछ अधिक पसंद करने लगते हैं | हम भी आधुनिक अभिभावक  होने की  सनद पाने की  चाह  में 
उन के मैक्डी जाने को स्वीकार कर लेते हैं |
                  अब  बच्चे जब भी जाते हैं वे  यही कहते हैं कि मैक्डी जा रहे हैं | परन्तु अब  वो "मैक्डोनाल्ड" नहीं बल्कि "मैक्डोवेल "जा रहे होते हैं | इन दोनों मैक्डी में ज़मीन और आसमान  का अंतर होता है | चलिए इस अंतर को भी हम ही बता देते हैं और आपके ज्ञान-चक्षु भी खोलने का पुण्य भी बटोरे लेते हैं | मैक्डोनाल्ड से बच्चे उछलते-कूदते होश में ही निकलते हैं जबकि  मैक्डोवेल  से लड़खड़ाते क़दमों से लुढ़कते हुए आते हैं और होश 
तो सिलेबस में होता ही नहीं |
          अब जब भी बच्चा बोले "मैक्डी " जाने को तो पूछ जरूर लीजिये कि
कौन से मैक्डी में जाना है !       

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

"राम का अन्तर्द्वन्द "

       मैं ,तथाकथित मर्यादा पुरुषोत्तम राम ,आज जब सब से हट कर खुद 
की नजरों से अपना आकलन करता हूँ , तो मन सच  में  ही भटकने लगता 
है |  इन मर्यादाओं  के पालन में  मुझ से क्या कुछ  छूटता गया  और एक 
बंधन में मै बंधता गया खुद को प्रमाणित करने की, एक आदर्श बनाने की |
       जब अपना बचपन याद करता हूँ  तो सामने माँ  की तस्वीर आ जाती 
है | मेरी माँ - महारानी कौशल्या - का अभिशप्त जीवन जो वो अपनी अन्य 
सपत्नियो कैकेयी और सुमित्रा के साथ बांटने को मजबूर थी झूठे  स्वीकार 
के अभिनय के साथ |मेरी दूसरी माता कैकेयी महारानी का वैभव जीती थी 
और भरत  युवराज  का ! शायद उस पल से  ही माँ की वंचनाओ का  बोझ 
ढ़ोता मै आदर्श बनने  की धुन में लग गया और एक  सामान्य जीवन न 
जी पाया | जब वनवास जाने का समय आया तब भी अपनी माँ को एक आदर्श बेटे की माँ होने का  गर्व देने के लिए स्वेच्छा से वन चला गया |
         अनेक ऐसी छोटी - छोटी घटनाये होती रही और मै मर्यादा पुरुष का 
आकार लेता गया | इस प्रक्रिया में सीता निरंतर  उपेक्षित  होती  रही  और
इसकी हद तो तब पार हो गयी जब  मैंने  उनका त्याग किया , वो  भी एक 
 धोबी के मामूली से  उपहास पर ! मैंने अपने इस मर्यादित जीवन में ये एक 
इतना बड़ा पाप किया , अपनी सहधर्मिणी जो गर्भवती थी और सम्पूर्ण रूप 
से मुझ पर  ही आश्रित थी , को राज्य  से  निकाल दिया एक कठिन जीवन
जीने के लिए ! यज्ञ में तो सीता की स्वर्ण  - प्रतिमा  प्रतिष्ठित कर  दी  पर 
जीवंत  अर्धांगिनी को उपेक्षित ही किया !
       अगर मै इतना आदर्श बनाने का प्रयास न करता तब भी शायद अपने
राज्य ,समाज और अपने आश्रितों का  पालन अच्छी तरह से ही करता,बिना 
किसी  भी  प्रकार की  ग्लानि के | अगर  किसी  भी स्त्री  को  उसके  घर से निकाल दिया जाता हो तो उस राज्य को और कुछ भी कह ले किन्तु किसी 
भी हालत में " रामराज्य "  कभी भी नहीं कहा जा सकता है ! 
    
   

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

" सुख - दुख की धूप - छांव "

      हम सब ये जानते हैं और मानते भी हैं कि  सुख और दुःख धूप-छांव की 
तरह आते जाते रहते हैं | इनमें से कोई भी पल स्थायी नहीं है | परन्तु हमें 
दुख भरे पल बेहद लम्बे प्रतीत होते हैं , जब कि  वो उतने बड़े  होते नहीं है |
दरअसल हमारी मनोवृत्ति  कुछ ऐसी है कि अपना दुःख ब्रम्हांड  में  सबसे
कष्टकारी और असहनीय लगता है | संभवत: यहाँ पर ही हमसे गलती होती 
है | हम अपने दुखों के बारे में इतना अधिक सोचने लगते हैं कि सुख भरे लम्हों को ,जो हमने भरपूर जिया है  ,एकदम ही नकार देते हैं | सच्चाई तो 
ये है कि खुशियों भरे पल ९० से ९५ प्रतिशत होते हैं ,जो ५ से १० प्रतिशत 
दुःख भरे पलों के नीचे दब जाते हैं |
       इन भारी लगते  लम्हों को प्रमुखता दे कर हम खुद से ही शत्रुता करते 
हैं | कभी सोच कर देखिये जब भी  हमारा मन उदास होता  है , हमारा मन किसी  काम में  नहीं लगता है , चाहे वो काम हमारा कितना भी मनपसंद
क्यों न हो | उदास लम्हे  मस्तिष्क की तन्त्रिकाओं को संकुचित कर  देते 
हैं जिससे शरीर की सामान्य क्रियाए प्रभावित होती हैं |जब  हम  तनाव में 
रहते हैं तो वो चहरे पर भी दिखने लगता है  और फिर आतंरिक अंगों  पर      
भी असर आ जाता है | 
       इन लम्हों को अधिक महत्ता देने के  सबसे घातक परिणामस्वरूप खुद को असहाय मानता हुआ व्यक्ति अकेला पड़ता जाता है | ऐसे में जहाँ उस को 
सहानुभूति मिलती है , आकर्षित होने  लगता  है और  कभी - कभी  गलत 
परिस्थितियों में भी पड़ जाता है | 
        इन सब से बचने के लिए ,हमें सुखद पलों को याद कर के  दुखद पलों 
का सामना करना चाहिए , अन्यथा दुखद  यादें  हमारे मस्तिष्क को बर्बाद 
कर देगीं और हम तरह - तरह की बीमारियों का शिकार हो जायेगें |

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

"माखनचोर "

         कान्हा की कई लीलाओं के बारे में हम अकसर सोचते हैं | कभी उन की
बाल -लीला , तो कभी रास लीला | कभी  उनका  निर्वाण , तो  कभी  उनका 
दिया गीता का ज्ञान |
     आज हम उनकी बाल -लीला को ही समझने का प्रयास करते हैं | कान्हा 
का बनाया हुआ गोप -गोपियों का वृंद हमारे आज के समवाद या समाजवाद 
की आधारशिला ही था | हर वर्ग के बच्चे उनकी मंडली में शामिल थे बिना किसी भी प्रकार के भेद - भाव के | यह वर्गीकरण आर्थिक भी नहीं था और 
न ही सामाजिक | सबसे महत्वपूर्ण बात है की बालक अथवा बालिका का भी 
नहीं था |इस प्रकार अगर सही अर्थों में देखा जाए तो हमारे प्यारे से कान्हा 
सबसे पहले समाजवादी हैं , जिन्होंने एक समभावी समाज का स्वप्न देखा 
और कुछ अर्थों में कार्यान्वित भी किया |
      कान्हा को हम माखनचोर भी कहते हैं | उनके माखन चुराने की क्रिया 
का तो बहुत ही मनभावन और वात्सल्य से परिपूर्ण वर्णन कई कवियों ने 
किया है | हम  कान्हा की इस माखनचोरी को एक दूसरे नज़रिये से देखने की कोशिश करते हैं | उस समय कंस और उस जैसे दूसरे अत्याचारी राजा 
प्रजा को प्रताड़ित करने के नित नए  तरीके  अपनाते  थे | कभी फसल  तो कभी उनके पशुओं पर दखल जमाते थे |इन परिस्थितियों से परेशान लोग 
बच्चों के  खान  - पान  का  ध्यान नहीं रख पाते थे | कान्हा ने इसका बहुत अच्छा हल खोज निकाला | खेल - खेल में  ही  कान्हा दूध -  दही - माखन 
चुराते थे और उनकी गोप  और  गोपियों की सेना उसका सेवन करती थी |
अपनी माँ और अन्य सब बड़ों की डांट को अपनी कृष्ण -लीला से अनसुना कर  जाते  थे  और  कोई  चंचल  सा , नटखट  सा बहाना कर जाते थे और अपने साथियों  को पुष्ट  बनाने का एक सूझ - बूझ  भरा कृष्ण - प्रयत्न कर जाते थे | 
          देखा आपने कान्हा की हर लीला का एक अर्थ  तो उनके जैसा ही है
एकदम नटखट और दूसरा अर्थ उनके गीता के ज्ञान जैसा है जो थोड़ा सा 
विचार करने पर समझ आ जाता है | इसलिए अगली बार हम सबके प्यारे  
माखनचोर को और भी दुलार के साथ याद कीजिएगा | 


रविवार, 13 फ़रवरी 2011

"प्रेम दिवस" की पूर्व संध्या पर .....

क्या बांटा जा सकता है ,
प्रेम कुछ दिवसों में ,
क्या कह सकते हैं ,
आज प्रेम करेंगे ,
क्यों कि आज है 
दिन प्रेम का !
ये तो होगा ......
प्यारे से प्रेम का 
शव -विच्छेदन !
चलो  थोड़ा तुम सोचो 
कुछ मैं भी सोचूं ,
प्रेम तो है 
इक अविरल धारा सा, 
सतत रहता ......
इस जीवन में भी , 
इस जीवन के पार भी कहीं ...
जीवन के मध्यकाल में ,
मध्यम मार्ग अपनाते हैं 
आज के दिन 
अपने लिए थोड़ा ज्यादा
वक़्त चुरा लें ..
खुद को  ही नहीं ,
नफ़रतगरो को भी 
थोड़ा दुलरा लें 
शायद प्रेम दिवस पर 
नफ़रत औ हिंसा हार जाए 
स्नेह की फुहारों से .....
ऐसे भी प्रेम दिवस मना लें ......

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

........."अस्वीकार करने का अधिकार "............

             दिन में किसी भी वक़्त ,समाचार के किसी भी माध्यम से सामना हो जाए - अधिकतर हर ख़बर का असर या कहा जाए कि केंद्र सिर्फ और सिर्फ स्त्री ही होती है | अभी तक तो स्त्री को सांसे  भी  सहम - सहम  कर  ही लेनी 
पड़ती थी | अब तो नई अवधारणा  के अनुसार स्त्री  को  किसी  भी चीज़ को
अस्वीकार करने का हक़ भी नहीं  रहा !  इस  इन्कार  अथवा अस्वीकार के 
दुस्साहस का परिणाम भुगतने के लिए भी स्त्री ही मोहरा बनती है - कभी 
अंग -भंग करा के तो कभी मान - भंग करा के , खुद  का  भी  और  अपने 
परिवार का भी | दो - तीन दिनों से जब  भी  सुबह  समाचार की दुनिया से 
सामना होता है , मुंह का  ही नहीं आत्मा का भी स्वाद कसैला हो जाता है |
मान -भंग ना करने देने की सज़ा के  तौर  पर बच्चियां जीवन - मृत्यु की 
लड़ाई लड़ रही हैं |
          ऐसी परिस्थितियां इस तथाकथित आधुनिक ,शिक्षित , वैज्ञानिक 
वैधानिक ( इस जैसे कितने भी विशेषण जोड़ लें ) समाज  के  दामन  पर बदनुमा दाग ही है , किन्तु इस परिस्थिति पर हम सिर्फ चर्चा ही कर के रह जाते हैं ऐसा क्यों होता है  ?  अस्वीकार  करने  की  चेतना  जब  हमने  इन बच्चियों को दी है तो उस  चेतना  को  स्वीकार  करने  की  समझ  भी रखें |
          अगर हम ऐसा कुछ करने में सफल नहीं होते हैं , तब यह हमारे द्वारा उठाया गया एक आत्मघाती क़दम ही प्रमाणित होगा ....एक प्रयास यह भी कर के देख लें और इन अपनी निरपराध बच्चियों को विलुप्तप्राय होने से  बचाने के लिए कुछ सार्थक करें ........ 



रविवार, 6 फ़रवरी 2011

मां -बच्चों की दुनिया .......

       बच्चा जब बोलना शुरू करता है तो सबसे पहले माँ ही बोलता है | प्रकृति ऐसा इसलिए कराती है क्योंकि उसके स्पंदन का आभास सबसे पहले माँ को ही होता है | माँ और उसके बच्चे की दुनिया एकदम सिर्फ उनकी अपनी ही होती है |उस दुनिया में दूसरा कोई भी अवांछित होता है ,कभी -कभी उस बच्चे का पिता भी | माँ -बच्चे की उस दुनिया के अपने ही नियम -कायदे होते हैं |उनका एक अलिखित संविधान होता है ,जिसमें संशोधन के अधिकारी भी वही होते हैं |बच्चे की सुविधानुसार -उसकी दिनचर्या के आधार पर ही इसमें नयी धाराएं जुड़ जाती  हैं |
           इस सबमें दिक्कत तब आती है, जब पिता सोचता है कि वो क्रमश :
उनसे दूर होता जा रहा है | वस्तुत : पिता जब अपने कार्यस्थल में व्यस्त 
रहता है  तब माँ पिता का दायित्व भी निभाती है और बच्चे के समीपतर  
होती जाती है |इस रिश्ते का सबसे खूबसूरत  रूप तब देखने को मिलता है जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और माँ की ढाल बन जाते हैं |जो भी उनकी माँ को कुछ बोल दे ,वो उनकी निगाह में चुभने लगता है और कभी -कभी तो वो पूछ भी लेते हैं कि वो शख्स उनके घर आता ही क्यों है !
              बच्चे की उगंली थामी हुई माँ को पता ही नहीं चलता है ,कब बच्चे ने उस की उगंली थाम ली और उसके अभिभावक के रूप में आ गया है | ये पल एक माँ को कितना आश्वस्त करते हैं ये एक माँ ही समझ सकती है या 
जो मन से अभी भी बच्चा हो |
          बच्चों के बड़े होने पर माँ एक शून्य सा महसूस करती है | बच्चों के पीछे सुबह से शाम तक भागती हुई माँ उनके बड़े होते ही एकदम थम गयी 
सी  महसूस करती है जैसे तेज भागती गाडी में अचानक ब्रेक लग गयी हो |
शिथिल पड़ी माँ तब एकदम चैतन्य हो जाती है जैसे ही बच्चे का फोन आता है और माँ के पहले ही बच्चा पूछ लेता है -तुमने खाना खाया ? क्या कर रही हो ? किसी आंटी के पास चली जाओ या उन को बुला लो |आवाज़ ऐसी क्यों हो रही है ?.........सच उस पल धरती पर स्वर्ग उतर आता है और बच्चे की 
सूरत में भगवान के दर्शन हो जाते हैं ....
            इसलिए इस दुनिया के सभी पितृ - वर्ग से मेरी दरख्वास्त है --कृपया ये शिकायत कभी भी ना करें कि बच्चों के बड़े होने पर उनकी माँ को कोई भी कुछ नहीं कह सकता ,क्योकि ये रिश्ता ही कुछ ऐसा है ........

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

.........."जीवन की धूप-छांव"......

     अकसर सुनती थी ,कि धूप -छांव ,सुख - दुःख  दोनों ही साथ-साथ चलते है | मैंने इस सत्य को अपने ही जीवन में अनुभव किया है | कल अर्थात 
तीन फरवरी की तारीख हर साल मुझे एक साथ ही रुलाती और हंसाती है | 
         आज से ग्यारह  वर्षो पूर्व तक ३ फरवरी मेरे लिए सिर्फ और सिर्फ उमंगो और खुशियों भरी  ही होती थी |हर बार की तरह वर्ष २००० की देर रात  हम लोग पार्टी के बाद घर लौटे थे ,जहां एक मनहूस ख़बर हमारा इंतज़ार कर रही थी -हमारी माँ के देहांत की | हम स्तब्ध रह गए थे |किसी 
प्रकार खुद को संभाल कर हम लोग माँ के अंतिम दर्शन को हरिद्वार गए ,
जहां उनका अंतिम संस्कार होना था |मेरी बदकिस्मती ही थी कि मैंने पहली मृत्यु अपनी माँ की ही देखी |उस दिन के पहले माँ इस तरह के हादसों में मुझे न जाने देती थी |पढ़ने के अतिरिक्त किसी भी काम को माँ 
ने मुझे नहीं  करने दिया |सबकी सलाह रूपी तानो के जवाब में माँ ने हमेशा
यही कहा कि वक़्त खुद सब सिखा देगा | आज की आधुनिक माताओ को 
देखती हूं  तो उस वक़्त की घर में पढ़ी हुई अपनी माँ ज्यादा आधुनिक प्रतीत होती है  |कभी भी उन्होंने मुझे मेरे भाइयो से कम नहीं समझा |मुझे भाइयो से ज्यादा ही मान मिला |
           माँ की मृत्यु के बाद मुझे ये नहीं समझ आता है कि मै इस दिन को किस रूप में मनाउं ,क्योंकि इस दिन ही इतने अच्छे और समझदार हमसफ़र का साथ मिला और इस दिन ने  ही मेरी सबसे अमूल्य निधी मेरी माँ को छीन लिया |किसी के बधाई देने पर लगता है कि बधाई किस बात की  ,लेकिन अगर कोई संवेदना प्रगट करता है तो गुस्सा आता है |इतने वर्ष 
बिताने के बाद भी स्थिति अभी भी वही है |शायद किसी दिन इस उलझन से मुक्ति पा सकूं ......

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

..........."ईश्वरीय वरदान सा अपना साथ "........

 ये इत्तेफाक ही तो है ,जो अपना साथ है 
ना मैं तुम्हे जानती ,न तुम मुझे पहचानते 
मैं तो थी अपनी पढ़ाई में मस्त 
तुम थे अपना कैरियर बनाने में व्यस्त 
शायद था , तुम से मिलना, शाश्वत सत्य 
सीप में मोती सा सहेज रखा 
इसे ही कहते हैं जन्म -जन्मातर का साथ 
आज जीवन की इस मधुरिम बेला में 
लगता है सब तो पा लिया 
प्यारे से दो चाँद -सितारे 
आस्मां से मांग लाये 
सच सज गया अपना मन -आंगन
शायद इस जीवन का ही दिया सबने आशीर्वाद 
तभी तो मांगती हूँ  जन्म -जन्म का साथ 
इन तेईस वर्षों का साथ ,एक प्यारे सपने सा 
सजा है स्वपनीली आखों में 
तुम्हे भी मुबारक -मुझे भी मुबारक 
ये ईश्वरीय वरदान सा अपना साथ .........
  

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

........... "रक्त -रंजित युवा "........

रक्त-रंजित  युवा 
ये किसका लहू ,
बह रहा चंहु और है 
किसी का सिर ,
तो किसी के पांव हैं 
ये किसने थाम रखी,
एक दूजे की बांह है 
ये किसके घर  के चिराग  
ये किसके सिर की छांव हैं 
पास जा के देख तो लो ,
ये हमारे ही नौनिहाल हैं 
कितने बहानों से निकाला ,
माँ के आंचल की छांव से 
कभी साक्षात्कार तो कभी व्यापार 
हर कदम पर ठोकर  ,
हर निगाह में धोखा 
फिर भी पाता , सबसे धिक्कार है 
लहू में थरथराता ,ये राष्ट्र का अभिमान है 
अवसरवादियों ,इन्हें अवसर दे के तो देखो 
ये हमारी ही संतान हैं ,ये हमारी ही संतान हैं .......... 

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

.........शब्द है छोटा .....

अरे ........क्या ..........
ये है, तुम्हारी .......
...........भावना .......
शब्द ?......हां......
सच ....
शब्द ही तो है  .....
....बहुत छोटा ...
पर..... कामना बड़ी ....
शायद .....तुम्हे .....
छोटापन ....ही....
 है भाता ...
शब्द को तो करते ही रहे
याद ....पर .......
भूल गए  ......
क्या ...
इसके अहसासात !
हां ,मानती हू ....
गल्ती ...
मेरी ही थी 
तुम्हारे लिए तो.........फूल...
हां बनना तो चाहा 
फूल ही 
पर ......
तुम्हे तो भाता........
काटों का ही ........
साथ ..........................