लगता है शीर्षक ही गलत चुन लिया .... क्यों … अरे भई वही हाल हुआ "प्रथम ग्रासे मक्षिका पात " .... बस शीर्षक लिख कर आगे बढ़ने को तत्पर विचारों की वल्गा थामने को ही जैसे गेट पर घण्टी अपनी मधुर रागिनी बिखेरने लगी थी .... इसके बाद तो आप कुछ कर ही नहीं सकते … फिर वहीँ सवाल जगा न कि "क्यों" तो भई हमारी भारतीय सभ्यता के अनुसार तो "अतिथि देवो भव" …… पर एक लाभ भी हुआ एक कारण और भी मिल गया न लिख पाने का :)
चलिये इस न लिखने के बहानो की बात कर ही ली जाए ....
अक्सर होता है ,सुबह की पहली चाय के साथ ही इतने धाँसू विचार आते है कि अगर उन पर लिख दिया जाए तो एकाध तथाकथित पुरस्कार हमको भी मिल ही जाए ,पर फिर वही बात न "तेरे मन कुछ और ,दाता के मन कुछ और" ....…। बस हम अपनेआप को समझा लेते हैं कि "शांत गदाधारी भीम शांत " पहले अपने काम तो समेट लो ,बस फिर पतिदेव का नाश्ता तैयार कर उनको ऑफिस भेजना होता है कि गृहकार्य के लिए सहायकों की फ़ौज दिख जाती है .... अब बिना नाश्ता कराये पतिदेव को तो ऑफिस भेजा जा सकता पर इन सहायकों को अनदेखा करना तो बहुत भारी पड़ जाता है ,तो बस फिर यही सोच उभरती है कि उन तमाम जलते हुए ( ज्वलंत ) विचारों पर ठन्डे पानी की फुहार कर सुला देते हैं ....
सहायको के जाने और भोजनोपरांत तो थोड़ी देर शवासन की याद आना तो एकदम सहज स्वाभाविक सी बात है ....… अब आप ही सोचिये लिखने का काम तो बाद में कभी भी हो सकता है पर ये शवासन हम शाम को तो नहीं कर सकते हैं न :)
शाम को जैसे ही चाय के प्याले के साथ पूरे साज बाज ( लैपी ) के साथ रचनात्मक कार्य की तरफ उन्मुख होने की सोचते ही हैं कि अक्षरा ,सुहानी ,दयाबेन जैसे अजब - गजब किरदार याद आने लगते हैं ,अब बताइये हम करें तो क्या करें पतिदेव ने इतनी मेहनत करके प्यार - दुलार से उमग कर टी वी भी तो खरीदा है ,अब हम न देखें उसको तो वो कितना उपेक्षित अनुभव करेगा ,बिचारा ! छोड़िये थोड़ी देर बाद लिखते हैं न ....
अरे ! ये क्या ये तो रात गहराने लगी ,बताओ भला अब कैसे कुछ लिखूँ या पढ़ूँ .... शाम का खाना और बाकी के काम और वो सहायक .... अब आप ही बताओ अब ये सब कैसे अनदेखा करूँ ,है न … छोड़ो सोने के पहले पक्का एक पोस्ट तो ढ़केल ही देंगे …
लो भई रात भी हो गयी अब ..... ये बताओ इत्ता सारा काम कर के थकती भी तो हूँ न … छोड़ो भई सुबह की चाय के साथ तो पक्का ही पक्का लिख देंगे ....
अब इत्ते सारे और इन से परे भी कुछ बहाने छुपा रखे हैं न लिख पाने के ,बिचारे हम ..... निवेदिता
चलिये इस न लिखने के बहानो की बात कर ही ली जाए ....
अक्सर होता है ,सुबह की पहली चाय के साथ ही इतने धाँसू विचार आते है कि अगर उन पर लिख दिया जाए तो एकाध तथाकथित पुरस्कार हमको भी मिल ही जाए ,पर फिर वही बात न "तेरे मन कुछ और ,दाता के मन कुछ और" ....…। बस हम अपनेआप को समझा लेते हैं कि "शांत गदाधारी भीम शांत " पहले अपने काम तो समेट लो ,बस फिर पतिदेव का नाश्ता तैयार कर उनको ऑफिस भेजना होता है कि गृहकार्य के लिए सहायकों की फ़ौज दिख जाती है .... अब बिना नाश्ता कराये पतिदेव को तो ऑफिस भेजा जा सकता पर इन सहायकों को अनदेखा करना तो बहुत भारी पड़ जाता है ,तो बस फिर यही सोच उभरती है कि उन तमाम जलते हुए ( ज्वलंत ) विचारों पर ठन्डे पानी की फुहार कर सुला देते हैं ....
सहायको के जाने और भोजनोपरांत तो थोड़ी देर शवासन की याद आना तो एकदम सहज स्वाभाविक सी बात है ....… अब आप ही सोचिये लिखने का काम तो बाद में कभी भी हो सकता है पर ये शवासन हम शाम को तो नहीं कर सकते हैं न :)
शाम को जैसे ही चाय के प्याले के साथ पूरे साज बाज ( लैपी ) के साथ रचनात्मक कार्य की तरफ उन्मुख होने की सोचते ही हैं कि अक्षरा ,सुहानी ,दयाबेन जैसे अजब - गजब किरदार याद आने लगते हैं ,अब बताइये हम करें तो क्या करें पतिदेव ने इतनी मेहनत करके प्यार - दुलार से उमग कर टी वी भी तो खरीदा है ,अब हम न देखें उसको तो वो कितना उपेक्षित अनुभव करेगा ,बिचारा ! छोड़िये थोड़ी देर बाद लिखते हैं न ....
अरे ! ये क्या ये तो रात गहराने लगी ,बताओ भला अब कैसे कुछ लिखूँ या पढ़ूँ .... शाम का खाना और बाकी के काम और वो सहायक .... अब आप ही बताओ अब ये सब कैसे अनदेखा करूँ ,है न … छोड़ो सोने के पहले पक्का एक पोस्ट तो ढ़केल ही देंगे …
लो भई रात भी हो गयी अब ..... ये बताओ इत्ता सारा काम कर के थकती भी तो हूँ न … छोड़ो भई सुबह की चाय के साथ तो पक्का ही पक्का लिख देंगे ....
अब इत्ते सारे और इन से परे भी कुछ बहाने छुपा रखे हैं न लिख पाने के ,बिचारे हम ..... निवेदिता