जानकी ,जनकदुलारी ,सीता ,वैदेही
इन पुकारों के बोल से निकल
बस इक पल में ही बन गयी मैं
अयोध्या की राजवधू ,राम की भार्या
हाँ ! भार्या ही कहूँगी मैं तो
क्यों …
अरे ! ज़रा सोच कर देखो
यदि होती मैं "रामप्रिया"
तो क्या राम इस तरह
बार - बार …… हर बार
मुझे ही परखते कसौटी पर
पाँवों के नीचे मिलती तलवार की धार !
मैंने तो रोज़ हटाया शिव - धनुष को
पर रही अनपहचानी ,निर्विकार
बस एक बार ही तो उठा कर साधा
राम ने और तोड़ भी दिया
और बन गए ....
हाँ ! मर्यादा पुरुषोत्तम राम !
राम को तो उनकी माँ ने
कराया वन गमन
और मैं ....
मैं तो सबके रोकने पर भी
अनुगामिनी बन बढ़ चली
वन की दुष्कर वीथियों पर ....
और ....
हाँ ! बना दी गयी परछाई राम की !
शूर्पणखा के कर्ण - नासिका काट
राम का पौरुष मर्यादित हुआ
अकेली अशोक वाटिका में
किया मैंने रावण का तिरस्कार
और …
हाँ ! स्त्रीत्व मेरा लांछित हुआ !
एक बार राम के साथ
वन - गमन का परिणाम
धोबी के प्रश्न रूपी शर संधान पर
गर्भावस्था में किया मेरा परित्याग
राम स्वयं तो मर्यादा -पुरुष बनाते गए
पर ....
हाँ ! मुझे ही मर्यादा की लक्ष्मण रेखा में बांधते गए !
अग्निपरीक्षा क्यों दूँ मैं
जीवनसाथी से अलग
कहीं और रहना कारण है
शुचिता प्रभावित करने का
तो ....
हाँ ! ये पाप तो राम ने भी किया
तब भी अग्निपरीक्षा सिर्फ और सिर्फ सीता की !
बहुत बार तुमने मुझको
कसौटी पर कैसा
बहुत बार मुझको तुमने
अनायास ही त्याग दिया
आज मैं तुम्हारा परित्याग करती हूँ
जाओ फिर से मेरी स्वर्ण-प्रतिमा बना साथ बिठाओ
मैं जनकपुर की धरती से उपजी
आज फिर धरती में ही समा जाती हूँ ....
मांगते रहो मुझसे अग्निपरीक्षा
मैं ....
हाँ ! मैं तुम्हारे ह्रदय में दावानल दे जाती हूँ !
..... निवेदिता