जैसे आ - आ कर
दुलरा कर खोल देती है
पलकों की अधमुँदी सी
आस भरी कलशिया
बस एक ही छवि की
चाह में भटकती हैं
शायद कहीं मेरे जीवन की
ऊष्मा ऊर्जवित कर दे और
सामने दिखला जाए
वो मासूम सी दुलारी हँसी !
रात की ये सिमटती हुई घड़ी
सहलाती है पलकें और
कानों में गुनगुना जाती है
तनिक झपका लो पलकें
प्रतीक्षा को विराम मिले ,और
जिनकी स्वप्निल आँखों में
सजाई थी तुमने सुरीली नींद
आज नींद के पालने में
ठुमकती आएगी ,और
सजा जाएगी वो लाडलों की
अनुपम छवि …… निवेदिता !
बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंसादर
माँ का मन तो यही सोचे... यही चाहे ...... सुन्दर पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर...
जवाब देंहटाएंअनुभूतियों और भावनाओं का सुंदर समवेश इस खूबसूरत प्रस्तुति में.
जवाब देंहटाएंमाँ के मन को बाखूबी शब्द दिए हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना...
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