मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

लघुकथा : सौगात

लघुकथा : सौगात

सुवर्णा शान्त भाव से घर को गुंजायमान करती अपने परिवार और मित्रों की आवाजें सुन रही है । सभी जैसे प्राण प्रण से एक दूसरे को सहयोग करते हुए उसके षष्ठिपूर्ति उत्सव को सफल बनाने के लिये प्रयासरत हैं । सच उसको बहुत अच्छा लग रहा था कि इतने समय बाद पूरा परिवार इकट्ठा हुआ है ।

दिन की पूजा के बाद ,शाम की पार्टी की तैयारी के लिये कर्मचारियों को निर्देश दे कर सब उस के पास आ गये और अपने - अपने उपहार उसको दिखाने लग गये । आखिर कल सुबह ही तो सब वापस जानेवाले थे । वह भी बच्चों में बच्चा बनी उनकी लायी हुई चीजों को देख कर तारीफ भी करती जा रही थी । पर मन कुछ खोया - खोया सा लग रहा था ।

उसकी छुटकू सी पोती इरा ने उसके गले में हाथ लपेटते पूछ पड़ी ,"दादी माँ ! आपको ये सब उपहार नहीं पसन्द आये न ... छोड़िये इन लोगों को आप मुझे बताइये कि आपको क्या चाहिए मैं लाऊँगी न ... "

सब उसकी बात सुन कर हँस पड़े ,परन्तु उन्होंने इरा को गोद में दुलराते हुए डबडबा गयी आँखों से कहा ,"आज तक सबने मुझको बहुत सारे उपहार दिये ,परन्तु सब अपनी ही पसन्द के ले आते रहे । मुझसे किसी ने भी मेरी पसन्द पूछा ही नहीं ... जानती है इरु मुझको कभी भी ये सब चीजें नहीं चाहिए थीं । मुझको तो सबका सिर्फ थोड़ा सा समय चाहिए था । जानती हूँ ,सब बहुत व्यस्त रहते हैं अपने काम और जीवन में ,पर एक फोन ... वो भी चन्द लम्हों का ,जिसमें उनकी आवाज सुनाई दे जाये ... औरर कोई खास बात नहीं बस यह एहसास चाहिए था कि उनके जीवन में मेरी भी जरूरत है । "

       ..... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 29 दिसंबर 2019

एक चुप्पी ....



जब मैं मर जाऊँ
रुक जायेंगी मेरी साँसे
पलकें भी पलक भरना
भूल ,मुंद ही जाएंगी
और दिल ....
वो तो बेचारा
अनकहे जज़्बात छुपाने में
धड़कना भूल ही जायेगा
और घर .....
घर को तो आदत सी है
मुझे चुप एकदम चुप
निस्पंद निर्जीव देखने की
बस एक ही बात मानना
मुझे शोर बिल्कुल नहीं भाता
मेरी अंतिम निद्रा न टूटे
किसी की झूठी सिसकी
या यादों की बातों से
सबसे बस यही कहना
एक चुप्पी चुपचाप चली गयी
    ...  निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

लघुकथा : निशान अँगूठी का

लघुकथा : निशान अँगूठी का

क्यों उदास बैठी हो ...
कुछ नहीं माँ ...
अब तो वह रिश्ता टूट गया जिसने तुमको तोड़ दिया था ,फिर क्यों परेशान हो ?
माँ अंगूठी तो उतार दी ,पर अंगूठी के  इस निशान का क्या करूँ ...

.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 15 दिसंबर 2019

लघुकथा : सन्तुलन धड़कनों का


लघुकथा :  सन्तुलन धड़कनों का

दिल अपनी ही तरंग में झूमता अपनी मनमर्जी कर रहा था ... कभी बिना बात ही गुनगुना कर थिरकने लगता ,तो कभी रहस्यमयी चुप्पी ओढ़ लेता । अपने किसी भी काम के बारे में न तो उसको करने के पहले सोचता था ,और न ही बाद में ।

दिमाग दिल की इन हरकतों से बहुत परेशान हो जाता । अक्सर वह दिल को दिमाग की ( अपनी ) समझाइश की परिधि में लाने का प्रयास करता ... परन्तु परिणाम तो वही ढ़ाक के तीन पात सा होता ।

दिल और दिमाग की इस रस्साकशी में धड़कनें बेकाबू होने लगती । अपनी हाँफती साँसों को सम्हालने का प्रयास करते उन दोनों को समझाने का प्रयास करती थी ,परन्तु  ...

दिल दिमाग की बात न मानते हुए अपने दर्द की अनदेखी करते हुए ,प्रत्येक प्रकार की मनमर्जियाँ करता हुआ दर्द के चरम पर पहुँच गया था । दिमाग ने एक बार फिर दिल को समझाते हुए अनुशासन की लगाम बड़ी ही मजबूती से अपने हाथों  में थाम ली थी ,परन्तु इस कठोरता से दिल बेचैन होने लगा और उसकी धड़कन डूबती सी लगी ।

दिल और दिमाग के इस द्वन्द में धड़कनों की हलचल डूबने सी लगीं ,मानो वह कह रही हों ,"काश .... काश तुम दोनों ने एक - दूसरे की बातों और क्षमताओं को समझ कर तालमेल बैठा लिया होता ,तब मुझको इस तरह से दम घुटने की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती ... ।"
                .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

सोमवार, 9 दिसंबर 2019

लघुकथा : प्रयोपवेशन

लघुकथा : प्रयोपवेशन

सामने अग्नि का विशाल सागर निर्बन्ध हो सब कुछ निगल जाने को जैसे उमड़ा चला आ रहा हो । अग्नि की दहक इतनी दूर से भी अपनी तीक्ष्णता का पूरा अनुभव करा रही है ।

पसीने की बहती अनवरत धार को पोंछते हुए विदुर जैसा स्थितिप्रज्ञ व्यक्ति भी चंचल हो उठा ,"भैया - भाभी अब भी समय है ,चलिये यहाँ से निकल चलते हैं ।कुछ ही देर में अग्नि इतना विकराल रूप ले लेगी कि फिर हम चाह कर भी नहीं निकल पाएंगे ।"

हताश से धृतराष्ट्र बोल पड़े ,"नहीं अनुज अब मैं थक गया हूँ। मेरे अंदर का दावानल इतना विकराल हो गया है कि इस दावानल की दाहकता कुछ अनुभव ही नहीं हो रही है । अगर तुम जाना चाहो तो निःसंकोच चले जाओ ,साथ में कुंती को भी ले जाओ ।"

विदुर अपनी स्थितिप्रज्ञता से उबर चुके थे ,"सही कहा भैया आपने । आपके अंतर्मन की दाहकता ने आपको विवेकशून्य सा कर दिया है । आप ने तो अपनी संतति की गलतियों को अनदेखा कर के हस्तिनापुर में ही प्रयोपवेशन करता सा जीवन जीया है । आप निराशा के अंधकार में ही जीते रहे और अंत भी वैसा ही चाहते हैं ।पर मैं ... हाँ भैया मैंने पूरा जीवन सकारात्मक सृजन में ही लगाया है । मैं अब भी हार नहीं मान सकता । मैं जा रहा हूँ नव सृष्टि के सृजन के लिये ।"
       ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

हाइकु

हाइकु

मुरलीधर
रचाओ महारास
वृन्दा पुकारे

प्रिय हों संग
मनभाये संसार
आयी बहार

राधा मगन
बंसी बाजे मधुर
चाहे नर्तन

गाये पायल
सुध - बुध बिसरी
खिली मंजरी

मुदित मन
सजती मधुशाला
रीता है प्याला

साथ तुम्हारा
खिलाये इंद्रधनुष
इतराऊँ मैं
       .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

लघुकथा : इंक्वायरी

लघुकथा : इंक्वायरी

प्रभास उलझन में इधर से उधर चहलकदमी कर रहा था, जैसे किसी उलझन में फंसा हो और निर्णय नहीं ले पा रहा हो । विभु उसकी पीड़ा से व्यथित होती उसको देख  रही थी । दोनों ही अनिर्णय के भँवर में फँसे छटपटा रहे थे ।

"विभु ! तुम क्या कहती हो ... मुझे क्या करना चाहिए ,क्योंकि मेरे किसी भी निर्णय का असर सिर्फ मुझ पर ही नहीं बल्कि पूरे परिवार पर और खासतौर से तुम पर भी होगा । "

"प्रभास ! बहुत समय सोचने में गंवा चुके हैं हम सब । अब तो निर्णय लेने का समय है । कहीं ऐसा न हो कि हम सोचते ही रह जायें और देर हो जाये । काम सही हो तब भी ,कभी राजनीतिक विवशता तो कभी सामाजिक तनाव बता कर ,सस्पेंशन और इंक्वायरी तो चलती ही रहती है । अंतरात्मा की आवाज पर किये गये सही काम के लिये सब मंजूर है । उस बेबस बच्ची की तड़प भी जो नहीं देख पाये ,उसका अन्त होना ही चाहिए ।"

"सही कह रही हो विभु ! अभी तक दरिन्दे यही समझते थे कि जला कर खत्म कर दो तो वो साक्ष्य के अभाव में बच जायेंगे ... पर शायद अब किसी के दामन को पकड़ने से पहले इस एनकाउंटर को याद कर रुक जायेंगे ।"

संविधान के दोनों रक्षक समझ रहे थे इलाज से जरूरी बचाव है जो अपराधियों में दहशत पैदा कर के ही सम्भव है ।
       .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

लघुकथा : अभाव


लघुकथा : अभाव

वो सहमी सी ,अपने घुटनों में अपना चेहरा छुपाये बैठी ,बरसती आँखों से जमीन को देख रही थी ... मानो उसके देखने से ही जमीन दो टुकड़ों में विभक्त हो कर वैदेही की तरह अपनी गोद में छुपा लेगी । पर नाम वैदेही होने पर भी तो प्रकृति उस पर सदय नहीं हो रही थी ।सब तरफ से आती आवाजों से वह बिंध रही थी ...

जरूर इसी ने पहल की होगी ...

अरे नहीं ,इसने कुछ नाजायज मांग की होगी और पूरी न होने पर उसको बदनाम कर रही है ...

देखो इसको शरम भी नहीं आ रही है ,कैसे सबके सामने सब बोले जा रही है ...

वैदेही की पीड़ा चीत्कार कर उठी ," मुझे नोंचने के बाद उन कुत्तों ने मुझे जला दिया होता या फन्दे में लटका कर मार दिया होता ... या फिर किसी गाड़ी से फेंक कर अधमरा कर दिया होता ,तब ... हाँ ! तब आप सबकी सम्वेदना जागती ... मोमबत्तियाँ और पोस्टर भी तभी निकलते ... जिन्दा हूँ मैं परन्तु मेरी आत्मा तो मर ही चुकी है । पीड़ा मुझे भी उतनी ही हो रही है ... बल्कि उससे कहीं ज्यादा ... क्योंकि मैं जिन्दा हूँ ,साँस भरते तुम सब मुर्दों के सामने ... जानते हो क्यों ... क्योंकि तुम सब में चेतना का अभाव है ।"
      .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शनिवार, 30 नवंबर 2019

लघुकथा : कली

लघुकथा : कली

उपवन में बहुत सारे रंग - बिरंगे फूल खिले थे । वहाँ घूमते हुए बच्चे- बड़े सभी उनको देख कर माली की सराहना कर रहे थे कि उसने कितने जतन किये होंगे तब कहीं उपवन इतने रंगों से भर उठा था ।

गुलाबी रंगत लिये हुए एक अधखिली सी कली पर निगाह पड़ते ही कई हाथ उसको शाख से अलग करने को बढ़े ,परन्तु माली की सजग निगाहों ने उन बढ़े हुए हाथों को रोक दिया । कली फिर अपनी धुन में साँसें भर झूमने लगी ,तभी माली दूसरे पौधों की देखभाल के लिये चला गया ।

थोड़ी देर में वापस आने पर कली अपनी शाख से गायब थी । क्रोध - आक्रोश से भर कर उसने सब तरफ देखा पर वह कहीं नजर नहीं आयी ... न ही किसी की जुल्फों में और न ही किसी के दामन में । बेबस सा वह वहीं नीचे बैठ गया । अनायास ही उसकी निगाह पड़ी किसीने कली को तोड़ कर ,उसकी पंखुड़ियों को नोच कर झुरमुट में फेंक दिया था ।

वह विवश उसको देखता रह गया ...

अब वहाँ कुछ आवाजें गूँज रहीं थीं ...

इसका रंग कितना प्यारा था ...

खुशबू कितनी अच्छी आ रही थी ...

इतने सारे फूलों में एकदम अलग लग रही थी ...

कली रूप में ही अभी इतनी प्यारी लग रही थी ,पूरा खिल कर तो ....

माली तिलमिला उठा ,"जब इस कली को कोई तोड़ रहा था ,तब भी तो यहीं थे न आप सब ... "

          ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 26 नवंबर 2019

लघुकथा : पुनर्विवाह

लघुकथा : पुनर्विवाह

"सुनो ... "
"हूँ ... "
मनुहार करती आवाज ,"इधर देखो न ... "
हँसी दबाती सी आवाज ,"तुमने तो सुनने को कहा था ... "
"जब इतना समझती हो तो हाँ क्यों नहीं बोलती ... "
"मैं क्यों हाँ बोलूँ ,तुमको पूछना तो पड़ेगा ही ... "
नजरें मिल कर खिलखिला पड़ीं ,"चलो न ... अब पुनर्विवाह कर ही लेते हैं !"
"पुनर्विवाह ... "
"हाँ ! हमारे मन और आत्मा का विवाह तो कब का हो चुका है ... अब ये समाज के साक्ष्य और मन्त्रों वाली भी कर ही लेते हैं ... "
वहीं कहीं दूर आसमान में खिला इंद्रधनुष नजरों में सज  गया ...
       .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

बुधवार, 13 नवंबर 2019

बचपन

बचपन

मासूम बचपन तलाश में चल पड़ा
सूर्य किरणों के जगने से भी पहले

भूख को दबा मन को किया कड़ा
सुन नहीं मिलेगा दान बिक्री के पहले

खुरचती आँते कहती नहीं ये कूड़ा
कूड़े की गन्दगी कहती भूख सह ले

रोटी की तलाश में वो फिर चल पड़ा
लिए बोरी कांधे पर दिखे और भर ले

ढेर में दिखती जूठन मन ठिठका अटका
समेट ले  कूड़ा समझ कर या पेट भर ले

विवश बचपन हाथ फैलाये मजबूर खड़ा
उपदेश से ही शायद पेट खुद को भर ले

   ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

लघुकथा : एहसास संस्कारों का

लघुकथा : एहसास संस्कारों का

पूजा का सामान संजोते हुए ,तृषा ने एक लिफ़ाफा भी रख लिया था ,बड़े भाई के टीका का सामान मिलने पर देने के लिये । सच कितने वर्ष बीत गए चौक के पाटे पर भाई का टीका किये । भीगी पलकें सुखाने के लिये उठे हुए उसके हाथ ,घण्टी की आवाज पर ठिठक से गये ।आहा ... सामने बड़े भाई को लिये हुए उनका बेटा अवि  खड़ा था ,मुस्कराता हुआ भइया को सम्हाले !

 तृषा अपने अंतरमन तक तृप्ति का अनुभव करती भतीजे अवि को लाड़ करती दुआओं से भर दिया था । भावातिरेक में बोल उठी ,"बेटा तुमने बहुत बड़ा एहसान किया ,भइया को यहाँ ला कर । मेरी वर्षों की चाहत पूरी हो गयी । बहुत बड़ा उपकार किया बेटा तुमने । "

अवि ने हँसते हुए अपने पिता और बुआ के हाथों को थाम लिया ,"बुआ - पापा मैं अपने बचपन से ही आप दोनों को इस त्योहार पर जिम्मेदारियों की वजह से मन मसोसते हुए देखता आया हूँ । अब मैंने ये निश्चय किया है कि हर वर्ष इस दिन आप दोनों साथ होंगे । जब जिसको सुविधा होगी ,मैं एक दूसरे के पास ले आऊंगा । और बुआ मैंने यह कोई उपकार नहीं किया है । यह तो सिर्फ आप लोगों के दिये हुए संस्कार हैं । "
       .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शनिवार, 9 नवंबर 2019

गीत : खुला ईश का द्वार है

हरि हमेशा खुला ईश का द्वार है
मुक्ति के बिना सकल विश्व निस्सार है

चाहती हूँ मिले मेंहदी की महक
हर कदम पर बिछा तप्त अंगार है

वासना से भरी है मचलती लालसा
मुश्किलों से मिला अब यहाँ प्यार है

जाल में फँसा तड़पाता ये मानव
चाँदनी को निगलता निशा का प्यार है

सिसकती वो रही सिमटती बिखरती
मुक्ति की कल्पना भी निराधार है
     ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

लघुकथा :उलझे तार

लघुकथा :उलझे तार

मैसेज की आवाज़ पर फोन उठा लिया उसने । देखा तो खुद को तारणहार बतानेवाली का मैसेज चमक रहा था ,"देखिये ये चित्र खास आप के लिये है ,अभी बनवाया है आपको ही दर्शाता हुआ ।"

वो इस तरह के मिथ्यारोपण से त्रस्त हो गयी थी ,तब भी हँस पड़ी ,"आपने बनवाया ... यह तो कई दिनों से बहुत सारे ग्रुप्स में घूम रहा है । कोई न शायद आप पहले दिखाना भूल गयी होंगी । "

"जानती हैं सबके दिल - दिमाग में आपको तथाकथित रूप से जाले लगे ही दिखते हैं परन्तु आप उस को साफ कर कैसे पायेंगी । अपने जिस दिमाग को आप वैक्यूम क्लीनर समझ रही हैं ,उसके तारों को अहंकार ने उलझा रखा है । अहंकार के उलझे तारों को सुलझाने के लिये इसका रुख आपको खुद अपनी तरफ भी मोड़ना होगा न । विचित्र लग रहा है समस्या और समाधान दोनों को इस तरह उलझा लिया है कि अब ऊपरवाला ही कुछ करे तो करे ... ॐ शांति शांति ...  "मैसेज भेज कर उसने फोन स्विच - ऑफ कर दिया ।

उलझे तारों को सुलझाना कह लो या दिल - दिमाग के तथाकथित जालों की सफाई ऊपरवाले से बड़ा कलाकार कोई नहीं है ।
           ..... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

गुले गुलशन सजाती हूँ ....



तमन्नाओं के गुंचे से गुले गुलशन सजाती हूँ
समझ सको समझ लेना ,प्रियतम प्यार करती हूँ

पाँव जो थक कहीं जाये ,मंज़िल छोड़ न देना
तुम मुड़ के देखना ,पलकन राह निरखती हूँ

बोली जो लगे रूखी ,मन मद्धम नहीं करना
पीछे मुड़ के देखना ,सदा देकर तुमको बुलाती हूँ

काँटे जो कहीं रोके डगर ,चोटिल नहीं होना
पीछे मुड़ के देखना , राह में पुष्प सजाती हूँ

कोई जो बात चुभती हो , भरे न ख़ार से आंगन
पीछे मुड़ के देखना , धड़कन सी धड़कती हूँ

अमावस से हों भरी राहे ,सजल ये मेरे नयन
पीछे मुड़ के देखना ,जुगनू बन के चलती हूँ

छलकती जा रही हो ,गगरी भरी जीवन की
पीछे मुड़ के देखना , "निवी" तुमको सुनती हूँ

            .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

नाम राम है .....

मुझे रहा नहीं प्रिय कभी नाम जो ये राम हैं
जानकी को हर कदम छला वो यही राम हैं

तब भी सोचता ये मन हो कर मगन
जन्म से मरण तक साथ में राम हैं

जब निगाह मिल गयी हाथ यूँ जुड़ गये
लब हिले तो नाम खिला वो यही राम हैं

काम जो बिगड़ गया मन उलझ भी गया
मन को ये कह दिया हारे के राम हैं

वन की वीथियाँ थीं दुष्कर रीतियाँ थीं
चल पड़ी सिया बेझिझक कि साथ में राम हैं

भरत भी टूट गये राजसी ठाठ छूट गये
ज्येष्ठ की पादुका लिये हृदय में नाम राम हैं

लखन सदा साथ थे भृकुटी में रोष भी भरे
दुर्वासा के सम्मुख नत नयन किये खड़े यही राम हैं

पिता थे महारथी वचन के थे धनी
प्राण छूटते समय लिया नाम वो यही राम हैं

अहल्या शापित हुई समाज से प्रताड़ित हुई
वर्जनायें तोड़ कर समाज मे लाने वाले यही राम हैं

यमुना एक नदी है बहती रही कई सदी है
सबको तारने वाले जले इसमें यही राम हैं

भाव से भरी थी जूठे बेर लिये खड़ी थी
खट्टे पलों में रस भरे भाव वो यही राम हैं

तारा को तार / मान दिया मन्दोदरी का सम्मान किया
जानकी की अग्नि परीक्षा ली वो यही राम हैं

दानव कुछ कर न सके अग्नि भी छू न सकी
कण कण गले जल में समाधि ली वो यही राम हैं

चली कांधों पर "निवी" लम्हों का साथ छूट गया
तन भी मिट्टी हुआ साथ नाम सत्य के राम हैं

.... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

लघुकथा : अभिमान

लघुकथा : अभिमान

अनघा पार्क में पेड़ों के झुरमुट में शिथिल सी बैठी थी । बहुत से बच्चे खेल में मग्न उसके आसपास से पंछियों सा कलरव करते एक झूले से दूसरे झूले पर , तो कभी स्लाइड से सी सॉ पर फुदक रहे थे । कभीकभार कुछ युवा भी दौड़ती सी गति से जॉगिंग करते दिख जाते थे ।पर वो दुनिया से वीतरागी सी पतझर जैसी ,अपने ही स्थान पर शिथिल बैठी थी ।
अन्विता बहुत देर से उनको निहार रही थी ,परन्तु उसको अनघा के इस रूप का कारण समझ ही नहीं आया । अंततः वो उठ कर अनघा के पास ही जा बैठी ,"आप शायद मुझे नहीं जानती होंगी और मैं भी आपको आपके नाम से नहीं जानती हूँ ,परन्तु आपको पहचानती जरूर हूँ । मैं इस पार्क में अक्सर टहलने आती हूँ और जब नहीं आ पाती हूँ , तब भी अपने घर की बालकनी से आपको यूँ ही गुमसुम बैठी देखती रहती हूँ । आपको कोई समस्या हो तो मुझे बताइये ,शायद मैं कुछ सहायता कर सकूँ ।"
अनघा थोड़ी देर उसको निहारती रही ,फिर वो बोल पड़ीं ,"दरअसल मैं अनिर्णय में थी कि एक अपरिचित से समस्या बताना चाहिए भी कि नहीं । फिर लगा मेरी वीरानी मेरी गलती का परिणाम है । खुद गलती कर के सीखने में गलती को सुधारने का समय बीत जाता है । इसलिए दूसरों के अनुभव से भी सीखना चाहिए ।"
"विवाह के कुछ वर्षों बाद जब बच्चे नहीं हुए और सबकी तीखी बातों का निशाना मुझे बनाया जाने लगा , तब हमने डॉक्टर को दिखाया । विभिन्न टेस्ट करवाने के बाद पता चला कि मेरे पति में कुछ दिक्कत थी ,जबकि मैं सन्तानोत्पत्ति में सक्षम थी । डॉक्टर ने टेस्ट ट्यूब बेबी की सलाह दी परन्तु उसके लिये परिवार के लोग विरुद्ध हो गये कि पता नहीं किस का अंश उनके रजवाड़ों के खानदान में आ जायेगा । उनके परिवार का अभिमान खण्डित हो जाता । हम भी चुप रह गये । अब जीवन के इस सांध्यकाल में ,पति की मृत्यु के बाद मैं एकदम अकेली हूँ । "
"सच कहूँ तो उनके परिवार का अभिमान तो बच गया पर मैं टूट गयी । "
                                .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

दस पर विजय का पर्व : विजयदशमी



प्राचीन काल से ही हमारी भारतीय संस्कृति स्त्रियों को प्राथमिकता देने की रही है । मेरी इस पंक्ति का विरोध मत सोचने लगिये । मैं भी मानती हूँ कि आज के परिवेश में स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं । तब भी एक पल का धैर्य धारण कीजिये ।
पहले नौ दिनों तक देवी माँ के विभिन्न रूपों की आराधना की हमने । नवमी के दिन हवन और कन्या - पूजन के पश्चात हम , तुरन्त ही आ गये पर्व "दशहरा" ,को उत्सवित करने की तैयारियों में व्यस्त होने लगते हैं । स्त्री रूप देवी की आराधना करने के बाद ,एक और स्त्री "सीता"  को समाज मे गरिमा देने का पर्व है दशहरा । दशहरा पर राम के द्वारा रावण के वध का विभिन्न स्थानों की रामलीला में मंचन किया जाता है । सीता के हरण के बाद रावण से उनको मुक्त कर के समाज में स्त्री की गरिमा को बनाये रखने और अन्य राज्यों में रघुवंश के सामर्थ्य को स्थापित करने के लिये ही राम ने रावण का वध किया था ।
 दशहरा मनाने के पीछे की मूल धारणा ,एक तरह से बुराई पर अच्छाई की विजय को प्रस्थापित करना ही है । परन्तु क्या हर वर्ष रामलीला के मंचन में मात्र रावण ,मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले जला देने से ही बुराई पर अच्छाई की जीत हो जाएगी ,वो भी अनन्त काल के लिये ? सोच कर खुश होने में कोई नुकसान तो नहीं है ,परन्तु सत्य का सामना तो करना ही पड़ेगा । जिन बुराइयों अथवा कुरीतियों को हम समाप्त समझने लगते हैं ,वो ही अपना रुप बदल कर एक नये कलेवर में आ कर फिर हमारी साँसों में चुभने लगती है ।
दशहरा पर्व को "विजयदशमी"  भी कहते हैं । कभी सोच कर देखिये ये नाम क्यों दिया गया अथवा राम ने दशमी के दिन ही रावण का वध क्यों किया ? राम तो ईश्वर के अवतार थे । वो तो किसी भी पल ,यहाँ तक कि सीता - हरण के समय ही , रावण का वध कर सकते थे । बल्कि ये भी कह सकते हैं कि सीता - हरण की परिस्थिति आने ही नहीं देते ।
धार्मिक सोच से अलग हो कर सिर्फ एक नेतृ अथवा समाज - सुधारक की दृष्टि से इस पूरे प्रकरण में राम की विचारधारा को देखिये ,तब उनके एक नये ही रूप का पता चलता है ।
तत्कालीन परिस्थितियाँ शक्तिशाली के निरंतर शक्तिशाली होने और दमित - शोषित वर्ग के और भी शोषित होने के ही अवसर दिखा रही थीं । शक्ति सत्तासम्पन्न राज्य अपनी श्री वृद्धि के लिये अन्य राज्यों पर आक्रमण करते रहते थे और परास्त होने वाले राज्य को आर्थिक ,सामाजिक ,मानसिक हर प्रकार से प्रताणित करते रहते थे । राम ने वनवास काल में इस शोषित वर्ग में एक आत्म चेतना जगाने का काम किया ।
सोई हुई आत्मा को मर्मान्तक नींद से जगाने के लिये भी राम को इतना समय नहीं लगना था । परन्तु इस राममयी सोच का वंदन करने को दिल चाहता है । उन्होंने सिर्फ आँखे ही नहीं खोली अपितु पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेंद्रियों को जाग्रत करने का काम किया । कर्मेन्द्रियों के कार्य को समझ सकने के लिये ही ज्ञानेंद्रियों की आवश्यकता होती है । जिन पाँच तत्वों से शरीर बनता है वो हैं पृथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु एवं गगन । इन पाँचों तत्वों का अनुभव करने के लिये ही कर्मेन्द्रियों की रचना हुई ।पृथ्वी तत्व का विषय है गन्ध ,उसका अनुभव करने के लिये नाक की व्युत्पत्ति हुई । जल तत्व के विषय रस का अनुभव जिव्हा से करते हैं । अग्नि तत्व के रूप को देखने के लिये आँख की व्युत्पत्ति हुई । वायु का तत्व स्पर्श है और उस स्पर्श का अनुभव बिना त्वचा के हो ही नहीं सकता है । आकाश का तत्व शब्द है ,जिसको सुन पाने के लिये कान की व्युत्पत्ति हुई । जब पाँचों कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ जागृत हो जायेंगी ,तब जीव का मूलाधार आत्मा स्वतः ही जागृत हो जायेगी ।
विजयादशमी का अर्थ ही है कि दसों इंद्रियों पर विजय पाई जाये । इनके जागृत होने का अर्थ ही है कि व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति ,अपने प्रति सचेत है । सचेत व्यक्ति गलत - सही में अंतर को भी समझने लगता है । ये समझ ,ये चेतना ही न्याय - अन्याय में अंतर कर के स्वयं को न्याय का पक्षधर बना देती है । इस प्रकार न्याय के पक्ष में बढ़ता मनोबल ,क्रमिक रूप से अन्याय का नाश कर देता है ।
एक वायदा अपनेआप से अवश्य करना चाहिए कि विजयादशमी / दशहरा पर्व मनाने के लिये सिर्फ रावण ,मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले ही न जलायें ,अपितु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का आपसी तालमेल सटीक रूप में साधें जिससे चेतना सदैव जागृत रहे । जीवन और समाज मे व्याप्त बुराई को जला कर नहीं ,अपितु अकेला कर के समूल रूप से नष्ट करें ।
इस प्रकार की बुराई की पराजय का पर्व सबको शुभ हो !!!
                                                                     .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

कन्या पूजन


कन्या पूजन

हम सब ही उत्सवधर्मी मानसिकता के हैं । कभी परम्पराओं के नाम पर तो कभी सामाजिकता के नाम पर कोई न कोई बहाना निकाल ही लेते हैं ,नन्हे से नन्हे लम्हे को भी उत्सवित करने के लिये । ये लम्हे विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक करने का भी काम कर जाते हैं ,तो  कभी - कभी खटास मिला कर क्षीर को भी नष्ट कर जाते हैं । खटास की बात फिर कभी ,आज तो सिर्फ उत्सवित होते उत्सव की बात करती हूँ ।
आजकल नवरात्रि पर्व में माँ के विभिन्न रूपों की पूजा - अर्चना की जा रही है । अब तो पण्डाल में भी विविधरूपा माँ  विराजमान हो गयीं हैं । घरों में भी कलश - स्थापना और दुर्गा - सप्तशती के पाठ की धूम है ,तो मंदिरों में भी ढोलक - मंजीरे की जुगलबंदी में माँ की भेटें गायी जा रही हैं । कपूर ,अगरु ,धूप ,दीप से उठती धूम्र - रेखा अलग सा ही सात्विक वातावरण बना देती हैं ।
कल भी ऐसे ही एक कीर्तन में गयी थी । जाते समय तो मन बहुत उत्साहित था ,परन्तु वापसी में मन उससे कहीं अधिक खिन्न हो गया । माँ की आरती के पहले प्रांगण में कन्या - पूजन की धूम शुरू हो गयी । छोटी - छोटी सजी हुई कन्याएं बहुत प्यारी लग रही थीं । उनकी अठखेलियाँ देख लग रहा था कि मासूम सी गौरैया का झुण्ड कलरव करता सर्वत्र फुदक रहा हो ।
उन बच्चियों को जब कन्या - पूजन के लिये ले जाया जा रहा था ,तभी सहायिका का काम करनेवालियों की भी कुछ बच्चियाँ प्रसाद लेने आ गयीं । अचानक से ही इतनी तीखी झिड़कियाँ उन बच्चियों पर पड़ने लगे गयी जैसे उन्होंने कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो । हम लोगों के  आपत्ति करने पर संयोजिका बोलीं कि जिनको आमंत्रित किया गया है ,उन्ही बच्चियों को पूजन और प्रसाद मिलेगा । जब देखा कि वो समझने को तैयार ही नहीं है ,तब हमने अपने पास से अलग से उन बच्चियों को कुछ राशि दी और समझाया कि वो अपनी पसंद से जो भी चाहें खरीद लें । मैं भी वहाँ और न रुक पायी और उद्विग्न मन से वापस आ गयी ।
घर आ कर यही सोचती रही कि ऐसा अनुचित व्यवहार कर के कैसे मान लें कि हमारे पूजन से ईश्वर प्रसन्न होंगे । ईश्वर तो सिर्फ उस भावना को देखते हैं जो हमारे अन्तःस्थल में बसी रहती है ।
कन्या पूजन के लिये बुलाये जाने वाले बच्चों को देखती हूँ तब बड़ा अजीब लगता है । घर से भी बच्चों को कुछ न कुछ खिला कर ही भेजते हैं । फिर जिन घरों में उनका निमंत्रण रहता है ,वहाँ बच्चे सिर्फ चख ही पाते हैं । बल्कि जिन घरों में वो बाद में पहुँचते हैं ,वहाँ तो वो खाने की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते हैं । बस फिर क्या है ... सब जगह से प्रसाद के नाम पर लगाई गई थाली पैक कर के बच्चों के घर पहुँचा दी जाती है । घरों से वो पूरा का पूरा भोजन दूसरी पैकिंग में सहायिकाओं को दे दिया जाता है और उस भोजन को खाते वही बच्चे हैं ,जिनको पूजन के नाम से दुत्कार दिया जाता है ।
आज के समय मे बहुत सी परम्पराओं ने नया कलेवर अपना लिया है । अब कन्या - पूजन की इस परम्परा को भी थोड़ा सा लचीला करना चाहिए । मैं कन्या - पूजन  को नहीं मना कर रही हूँ ,सिर्फ उसके प्रचलित रूप के परिष्कार की बात कर रही हूँ ।
कन्या - पूजन के लिये सामान्य जरूरतमंद घरों से बच्चों को बुलाना चाहिए । उनको सम्मान और स्नेह सहित भोजन कराने के साथ उनकी जरूरत का कोई सामान उपहार में देना चाहिए । अधिकतर लोग माँ की छोटी - छोटी सी पतलीवाली चुन्नी देते हैं । उनके घर से निकलते ही ,वो चुन्नी कहाँ चली गयी किसी को ध्यान ही नहीं रहता । चुन्नी देने के पीछे सिर ढँक कर सम्मान देने की भावना रहती है ,परन्तु यही काम रुमाल या छोटी / बड़ी तौलिया से भी हो जायेगा । सबसे बड़ी बात कि बच्चे उसको सम्हाल कर घर भी ले जायेंगे ।
प्रसाद भी नाना प्रकार के बनाये जाते हैं ,जिनको बच्चे पूरा खा भी नहीं पाते और खिलानेवाले उनके पीछे पड़े रहते हैं कि खत्म करो । इससे अच्छा होगा यदि हम कोई भी एक या दो स्वादिष्ट वस्तु बना कर खिलाएं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अनाज उनको घर ले जाने के लिये दें । ऐसा करने से अधिक नहीं ,तब भी एक दिन और वह परिवार ताजा खाना बना कर खा भी सकेगा ।
उपहार में भी जो सामान दें उसकी उपयोगिता अवश्य देखे । प्रयास कीजिये कि ऐसा समान बिल्कुल न दें जो दिखने में बड़ा लग रहा हो परन्तु उनके लिये बेकार हो । कुछ ऐसे फल भी दे सकतें हैं ,जो जल्दी खराब नहीं होते हों ।
कन्या - पूजन का सबसे सार्थक स्वरूप वही होगा जब उनका जीवन सँवर सके । निम्न आयवर्ग के बच्चों के स्कूल की फीस बहुत कम होती है ,तब भी उनकी प्राथमिकतायें फीस भरने से रोक देती हैं । ऐसे एक भी बच्चे की फीस का दायित्व ,यदि हम उठा लें तब उस बच्चे के साथ ही उनके परिवार का भविष्य भी सँवर जायेगा ।इस कार्य के लिये आपको कहीं जाना भी नहीं पड़ेगा ,आपके या आपके घर के आसपास काम करनेवाले सहायकों के बच्चों की पढ़ाई का दायित्व ले सकते हैं ।
यदि हम इन सब में से कोई भी काम नहीं कर सकते तब भी सिर्फ एक काम जरूर करना चाहिए । जब भी किसी भी उम्र अथवा परिवेश के बच्चे को किसी भी गलत परिस्थितियों में पाएं ,तब उसकी ढाल बन जाना चाहिए । जब बच्चों के साथ कुछ गलत होने की संभावना बचेगी ही नहीं ,तभी स्वस्थ और संतुलित परिवेश में बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा और एक अच्छे समाज का निर्माण स्वतः ही होने लगेगा ।
अन्त में मैं सिर्फ यही कहूँगी कि परम्पराओं का पालन अवश्य करें ,बस उस मे तात्कालिक परिवेश की प्राथमिकताओं का समावेश अवश्य कर लें ।
                                 .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

मुक्ति .....


हरि हमेशा खुला ईश का द्वार है
मुक्ति के बिन सकल विश्व निस्सार है

चाहती हूँ मिले मेंहदी की महक
हर कदम पर बिछा तप्त अंगार है

वासना से भरी है मचलती लालसा
मुश्किलों से मिला अब यहाँ प्यार है

जाल में फँसा तड़पाता ये मानव 
चाँदनी को निगलता निशा का प्यार है

बिन जपे विष्णु को चैन मिलना नहीं
मुक्ति की कल्पना भी निराधार है 
     ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

लघुकथा : छुट्टीवाली चाय

लघुकथा : छुट्टीवाली चाय
( कुछ खनकती ,कुछ ठनकती सी )😅😅

एक अलसायी सी छुट्टी वाली सुबह ...

"सुनो ,चाय पियोगी ... मैं बनाऊँ आज holiday special ... 😊"

"अरे वाह ! ...  😀"

"कौन सी बनाऊँ .... 🤔
ग्रीन टी ,लेमन टी ,ब्लैक टी ,जिंजर टी ,मिंट टी ,इलायची वाली या फिर वही नॉर्मल वाली .. "

 "क्या कहा ,white tea .... ठीक ठीक ... अरे हाँ ! दूध कौन सा पावडर वाला या पैकेट वाला या फिर टेट्रा पैक ले आऊँ ... अरे बताओ न तुम्हारी पसन्द की बनाऊंगा तुम भी क्या याद रखोगी ... 😊"

थकी सी आवाज में जवाब : "कोई सी भी , यार मैं तो इतना सोचती ही नहीं ।"

वापस पलटते हुए .... "अरे मैं तो पूछना ही भूल गया था ... चलो अबसे बता दो न .... कि चाय कप मे पियोगी या मग में , कप स्टील वाला या चीनी मिट्टी का,कप के नीचे प्लेट चाहिये या नही .... "

"साथ में बिस्किट कौन सा मीठा या नमकीन ,या फिर फिफ्टी - फिफ्टी ... या फिर छोड़ो रस्क ही ले आता हूँ ... "

"और हाँ चाय मे चीनी एक चम्मच या दो चम्मच ... सुनो सुनो चीनी पहाड़ बनाये हुए चम्मच से तो नहीं चाहिये .....देखो पहले ही पूछ लेना चाहिये नहीं तो तुम्हारे टेस्ट की कैसे बना पाऊंगा ....  :-)"

पकी सी आवाज में जवाब : "सुनो न मैंने चाय पीना छोड़ दिया है । आप आज भी आफिस चले ही जाओ 😈😈😈😴😴😴 "
                  ..... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

जो भी है बस यही एक पल है ....

जो भी है बस यही इक पल है ....

छोटे छोटे पल ,पलक से झरते रहे
छोटी छोटी बातें ,बड़ी बनती गयीं

निगाहें व्यतीत सी ,छलकती रहीं
यादें अतीत सी ,कसकती ही रहीं

सामने वर्तमान है ,सूर्य किरण सा
परछाईं सी बातें , पग थामती रहीं

     ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

लघुकथा : मोक्ष

लघुकथा : मोक्ष

दोस्तों के झुण्ड में अनिकेत गुमसुम सा बैठा था ।अपने मे ही खोया सा ,जैसे खुद से ही बातें कर रहा हो । उसका मानसिक द्वंद भी यही था कि बचपन से देखी हुई परम्पराओं के अनुसार पितृ पूजन करे या अपनी आत्मा की सुने और पापा की विचारधारा के अनुसार नयी परिपाटी शुरू करे ।

मन में एक संशय भी था कि परिपाटी के विरुद्ध जाना कहीं माँ को पीड़ा न दे जाये । पापा के शरीर के शान्त होने के बाद से तो खुद को जैसे एक गुंजल में बाँध लिया है । किसी भी बात को मन से न स्वीकार करते हुए भी चुप ही रह जाती हैं । सच कहूँ तो उनकी ये चुप्पी बहुत कचोटती है ।

मन ही मन खुद को बहुत मजबूत कर के अनिकेत उठा कि ऐसे बैठने और सोचते रहने से तो वो किसी समाधान पर तो नहीं ही पहुँच पायेगा । वह माँ के पास ही बैठ गया ।

माँ ने उसकी तरफ देखा और शान्त आवाज में बोलीं ,"बेटा तुम परेशान मत होओ । पितृ पक्ष की पूजा का विधान मैंने सोच लिया है । एक बार बस हमलोग ये देख लें कि ऐसे में कितने पैसे लगेंगे ।"

अनिकेत एकदम से बोल उठा ,"माँ ! जितना और जैसा आप कहिएगा ,सब हो जाएगा । "

माँ बोलने लगीं ,"तुम्हारे पापा ने कभी भी इन रिवाजों को दिल से नहीं स्वीकार किया था । हम उनके निमित्त जो भी करेंगे वह उनके ही विचारों के अनुसार करेंगे । मासिक श्राद्ध में लगाये जाने वाली राशि से आर्थिक रूप से कमजोर एक बच्चे की हर महीने की ट्यूशन फीस हम स्कूल में जमा करेंगे । मृतक भोज में भी जो धन हम लगाते ,उसको स्कूल के बच्चों के दुपहर के भोजन के लिये जमा कर देंगे ।"

माँ को दृढ़मना हो कर इतना स्पष्ट निर्णय लेते देख ,अनिकेत ने अपने अंदर के बिखराव को समेटते हुए कहा ," माँ ! पापा की विचारधारा के अनुरूप ,आपने बिल्कुल सही निर्णय लिया । एक बात मेरे मन में भी आई है कि पण्डित जी पुरखों को गया बैठाने के लिये कह रहे थे । अगर हम उसकी जगह आर्थिक रूप से निर्बल किसी लड़की की  शादी  करवायें तो कैसा रहेगा ! "

माँ भरी आँखों से बेटे को देखते हुए बोलीं ,"हाँ बेटे पुरखों को  मोक्ष दिलवाने के लिये वो दुआयें ज्यादा प्रभावी होंगी जिनसे किसी की नई जिंदगी शुरू हो ।"
                                           .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"


बुधवार, 18 सितंबर 2019

सपनें ....

ओ अधमुँदी सी पलकों
ढुलक भी जाओ
कि नींद आ जाये
नींद से सपनों का
कुछ तो नाता है
और ...
सपने ही तो देखने हैं
शायद ...
मुंदी पलकों तले के सपने
तुम्हारी झलक लायेंगे
और मैं जी उठूंगी ... निवेदिता

शनिवार, 14 सितंबर 2019

अंधियारा जब फैला हो ...

अंधियारा जब फैला हो
जुगनू बन तुम आ जाना

रपटीली डगर जीवन की
बन सहारा छा जाना
आँधी के झोंकों में
जीवन पुष्प बिखरता है
माथे चन्द्र - कलश लिए
सुगन्ध बन बस जाना
अंधियारा जब फैला हो
जुगनू बन तुम आ जाना

जन्म जन्मांतर की बात सुनी
आलक्त कदमों साथ चली
सप्तपदी के वचनों में
जीवन की आस पली
बन प्रहरी वादों के
हर साँस में साथ निभा जाना
अंधियारा जब फैला हो
जुगनू बन तुम आ जाना ....... निवेदिता

सोमवार, 9 सितंबर 2019

प्रश्नोत्तर के घेरे में ज़िन्दगी ....

एक प्रश्न है जिंदगी से और उस प्रश्न का उत्तर देती हुई जिंदगी है ...

चुप सी जिंदगी ..

हर साँस बस एक सवाल पूछती है
ज़िन्दगी तू ऐसे चुप सी ज़िंदा क्यों है ?

क्या साँसों का चलना ही है ज़िन्दगी
हर कदम लडखडाती अटकती
मोच खाए पाँव घसीटती है ज़िन्दगी !

कभी दीमक तो कभी नागफनी
बातों और वादों की फांस लिए
अब तो हर डगर अटकाती ज़िन्दगी !

कभी मान तो कभी थी जरूरत
अब तो हर पल घुटती साँसों में
ज़िन्दगी का कर्ज़ उतारती है ज़िन्दगी !
                                   
उत्तर देती जिंदगी ...

एक पल जन्म दूसरे पल मौत है ज़िन्दगी
सिर्फ साँसों का आना जाना नहीं है ज़िन्दगी

जीने को तो बरसों जी गए
हर पल मर मर के जी गए
मासूम सी मुस्कान पर मर गये
यादों में जिंदा रहना है ज़िन्दगी
सिर्फ साँसों का .....

कभी सहारा बनते गए
कभी लड़खड़ा कर सहारा पा गए
हर साँस कदम बढ़ाते चले गये
कभी बैसाखी कभी रेस है ज़िन्दगी
सिर्फ साँसों का ....

जीने को तो सब ही हैं जीते
पीने को तो अश्क भी हैं पीते
सीले पलों में सपनों को हैं सीते
मौत के बाद भी जिंदा है ज़िन्दगी
सिर्फ साँसों का ....
                      ... निवेदिता

बुधवार, 4 सितंबर 2019

उलझन ....



इधर जग उधर  ईश्वर का द्वार है
सर्वत्र गूँजती कर्तव्य की पुकार है

चाहती हूँ थोड़ी शीतल सी छाँव
हर कदम पर बिछा ये अंगार है

वासनाओं के इस परिवेश में
बड़ी मुश्किल से मिलता प्यार है

पाये धोखे यहाँ हर कदम पर
क्यों मिलता गरल सा व्यवहार है

मन पर पड़ा मिथ्या आवरण
चाँदनी पर छाया हुआ अंधकार है

यही अनुभव हर साँस में किया
मुक्ति की कल्पना ही निराधार है

गुजरा है कोई तूफान इधर से
कह रही टूट कर पड़ी बन्दनवार है
                              .... निवेदिता

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

लघुकथा : अवकाश अपेक्षाओं से

लघुकथा : अवकाश अपेक्षाओं से

अन्विता अपने प्रोजेक्ट के लिए तरह - तरह की वनस्पतियाँ एकत्र करने बोटैनिकल गार्डन में आई थी। रह - रह कर आनेवाली खिलखिलाहट अनायस ही उसका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर लेती थी । पहले तो उसने उस तरफ से ध्यान हटाने का प्रयास किया । परन्तु जब गानों की भी बरसात होने लगी वो भी कभी सुर में तो कभी बेसुरे जैसे उन बोलों को एक नई ही धुन दे दी गयी हो ,तब उससे न रुक गया और वह उन आवाजों वाले झुरमुट की तरफ बढ़ चली ।

उस झुरमुट में झाँकते ही वह चौंक गयी । महिलाओं की टोली वहाँ इकट्ठा थी और अपनी ही मस्ती में झूम रही थी । सभी महिलाएं पचास - पचपन से ऊपर की आयु की थीं । सब मन की रौ में इतनी मगन थीं कि जैसे मस्ती की ,मनमर्ज़ियों की अंताक्षरी खेल रहीं थीं ।कोई " मोहे पनघट पे ... " नृत्य करने को कह रही थी तो दूसरी उसको बोल रही थी ,"मैं तो आप जैसा कोई .... पर ही नाचूँगी ।" जो नाचने को तैयार खड़ी थी उसने अपनी कमर पर बेल्ट लगा रखी थी ,शायद उनको पीठ की समस्या थी ,पर उत्साह से भरपूर थी ।

उस झुरमुट की मोहकता ने उधर से गुजरते हुए एक जोड़े के कदमों को जैसे थाम लिया ,पर उनका संकोच उन्हें तसवीरें लेने से रोक रहा था । उन महिलाओं में से एक कि निगाह उन पर पड़ी तो वो उठ आयी और उस जोड़े की कई तस्वीरें ले लीं ।

अन्विता को भी उन महिलाओं ने अपनी मस्ती में शामिल कर लिया । उठते - उठते अन्विता पूछ बैठी ," आप सब की आयु वर्ग में तो अधिकतर थक कर बीमारियों की चर्चा करते रहते हैं या फिर अपनी बहुओ की बुराई । आप की इस खुशी का कारण क्या है ?" उनमें से एक बोली ," थकना या बीमारियों के बारे में क्या सोचना । जन्म से ही सबके बारे में ही तो हम सब सोचते रहते हैं । कभी जिम्मेदारी याद आती है ,तो कभी परिवार, समाज या व्यवसाय की चुनौतियाँ । लगता था कि हम जन्म ही लेते हैं मरने के लिए । शरीर है तो कुछ न कुछ तो लगा ही रहेगा । अब हमने सभी जिम्मेदारियों और सबकी अपेक्षाओं से "अवकाश" ले लिया है और जिंदगी को सही अर्थों में जीने की कोशिश कर रहे हैं ।" .... निवेदिता

सोमवार, 26 अगस्त 2019

कमजोर पलों की गुनहगारी ....

कंकाल सी उसकी काया थी
पेट पीठ में उसके समायी थी

बेबसी वक्त की मारी थी
कैसी वक्त की लाचारी थी

डगमगाते पग रख रही थी
मानती ना खुद को बेचारी थी

पुकार अबला की सुन नहीं पाती थी
पुत्रमोह में बन गयी गांधारी थी

अपना कर्मफल मान सह गई
पहले कभी की न कुविचारी थी

हर पल जीती जी मर गई
कमजोर पलों की गुनहगारी थी ... निवेदिता

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

लघुकथा : किन्नर मन

लघुकथा : किन्नर मन

आज जन्माष्टमी का पर्व है और सब अपने - अपने तरीके से उसको मना रहे हैं । कोई मंदिर जा रहा दर्शन को और लड्डूगोपाल को पालने में झूला कर कर अपना वात्सल्य परिपूरित करने ,तो कोई अपने घर के पूजाघर में ही नटवर की झाँकी सजाने की तैयारी में लगा है ।सब को इतना उत्साहित देख कर बचपन याद आ गया । हम सब भी तो कितनी झाँकी सजाते थे । एक तरफ जेल में बन्द वासुदेव-देवकी ,तो दूसरी तरफ गइया चराने ले जाते कान्हा और उनके सखाओं पर नेह बरसाते नन्द-यशोदा । कान्हा का पालना भी फूलों की सुगन्धित लड़ियों से सजाते ।

मन बचपन की यादों में उलझ डगमगाने और कहीं नहीं सम्हला ,तब मंदिर की तरफ चल दी । वहाँ एक तरफ कुछ अजीब सी आवाजें आ रही थीं ,जैसे किसी को केंद्र में रख उसका उपहास किया जा रहा हो । जब खुद को नहीं रोक पायी तो उधर ही बढ़ गयी । वहाँ का दृश्य देखते ही मन अजीब से विक्षोभ से भर गया । दो किन्नर दर्शन के लिये पंक्ति में खड़े थे और उनसे थोड़ी दूरी बना कर खड़े लोग ,उनपर व्यंगबाण बरसा रहे थे ।कभी उनको ताली बजाने को उकसाते ,तो कभी नाचने को । मैंने जब उनको रोकने का प्रयास किया तब वो कहने लगे  किकिन्नरों को पूजा का अधिकार ही नहीं है । उन्होंने पाप किया होगा ,तभी तो ये जन्म मिला । परिवार भी नहीं अपना सका उन्हें । अभी भी नहीं समझते और हर दरवाजे जाकर लूटते हैं नेग के नाम पर ।

मैं स्तब्ध रह गयी ये सुन ।मन अनायास ही चीत्कार कर उठा ,इनका तो शरीर ही किन्नर का है ,हमसब का तो मन किन्नर है । शोहदे से सताई जाती लड़की को देख कभी बचाने नहीं जाते । ससुराल में सताई और जलाई जाती बहू की चीखें सुनकर भी मन की कचोट को थाम लेते हैं पड़ोसी धर्म निभाने के नाम पर । अन्याय का विरोध करने के पहले ही उसके परिणाम को सोचता मन दुबक सा जाता है ।

मैं उनके पास जाकर खड़ी हो गई ," इनको किन्नर का शरीर क्यों मिला है मैं नहीं जानती । मैं आज समझ गयी हूँ कि तन किन्नर होगा या नहीं ,परन्तु मन को किन्नर नहीं होने देना है ।" .... निवेदिता

बुधवार, 21 अगस्त 2019

बेबसी



कंकाल सी उसकी काया थी
पेट पीठ में उसके समायी थी

बेबसी वक्त की मारी थी
कैसी वक्त की लाचारी थी

डगमगाते पग रख रही थी
मानती ना खुद को बेचारी थी

पुकार अबला की सुन नहीं पाती थी
पुत्रमोह में बन गयी गांधारी थी

अपना कर्मफल मान सह गई
पहले कभी की न कुविचारी थी

हर पल जीती जी मर गई
कमजोर पलों की गुनहगारी थी ... निवेदिता

रविवार, 18 अगस्त 2019

लघुकथा : रक्षा - कवच

रक्षा - कवच

बार-बार की मर्मान्तक पीड़ा झेलते हुए तन से ज्यादा मन टूट गया था । हर बार विरोध करती ही रह जाती थी ,परन्तु उसके गर्भ में साँसें भरने का प्रयास करती उसकी अजन्मी पुत्री को कोई आकार ले पाने से पहले ही ... और वो बेबस चीखती - सिसकती ही रह जाती थी । उसके बाद यंत्रवत ही तो अपनी दिनचर्या पूरी करती थी ,जैसे साँसों की कर्जदार हो वह ।

इस पाप की भागीदार बनने पर ,हर बार उसका अन्तःस्थल चीत्कार करता । अपनी तरफ बढ़ते अपने ही पति को खुद से दूर रखना चाहती थी । "अच्छा बहुत नये जमाने की हवा लग रही है । तुझको ब्याह कर लाया किसलिये हूँ ... " उसके पति का जवाब उसको बर्फ की शिला बना देता और वह अपनी मनमानी कर गुजरता । कुछ समय बाद फिर से वही पीड़ा अपना विकृत रूप दिखाती ।

आज तो जैसे मरुस्थल के सूखे पेड़ जैसे उसके मन पर अमृतवर्षा हो गयी । डॉक्टर ने बताया था कि इस बार जुड़वाँ बच्चे हैं उसके गर्भ में ,एक बेटी और एक बेटा । किंकर्तव्यविमूढ़ से रह गए थे वो माँ बेटा ... अरे वही जो रिश्ते में उसके पति और सास थे । डॉक्टर से माथापच्ची कर रह थे वो दोनों कि अंदर ही बेटी को मार दें और बेटे को बचा लें । कई बार समझाने पर भी ,उनके न समझने पर अन्त में डॉक्टर ने उनको डपट दिया था कि ये असम्भव है और वो चाहें तो किसी और डॉक्टर को दिखा लें । अंत में उसका विशेष ध्यान रखने की ढ़ेर सारी हिदायत दे डाली थी । मन ही मन अपने बेटे पर न्यौछावर हो गयी थी वो ,जिसने अपने साथ जन्म लेनेवाली बहन की रक्षा की थी उसके साथ आ कर । .... निवेदिता

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

कहानी : उफान

 कहानी : उफान

इतने दिनों की भागदौड़ के बाद की गई व्यवस्था से संतुष्ट और असन्तुष्ट अतिथियों के जाने के बाद ,कुनमुनाता मन थकान अनुभव कर रहा था । चाय का कप लिये मैं झूले पर आ गयी थी ।

आयोजन भी तो इतना बड़ा था ... बेटे की शादी ,वो भी इस पीढ़ी के सबसे बड़े बच्चे की शादी । सबकी अपेक्षाएं जैसे आसमान छू रही थीं । कभी ननद रानी का फोन आ जाता ,"भाभी क्या कर रही हो ? अच्छा शॉपिंग में व्यस्त हो ! बताओ न मेरे लिये क्या लिया ... याद रखना बुआ की सारी रस्में होनी चाहिए । उसमें कोई बहाना नहीं सुनूँगी ।" हँसी आ गयी छुटकी ननद की इस बात पर । सबसे छोटी और सबकी लाडली बहन ,इनकी हर बात और चाहत पर मन न्यौछावर हो जाता था ।

जेठ - देवर का उत्साह अलग ही था कि बारात में बैण्ड अच्छा होना चाहिए । सच मे कितना नाचे थे सब । मुश्किल से पंद्रह मिनट का रास्ता सबने लगभग चार घण्टों में झूमते - थिरकते पूरा किया था ।

रस्मों के बीच अनगिनत काँटों की चुभन भी अनुभव की ,जो कभी तानों जैसे मजाक के रूप में दिखती तो कभी असहयोग या कह लूँ कि काम बिगाड़ने के प्रयास के रूप में । इतने समय से इन्ही के बीच संतुलन साधते जीवन बीता था इसलिए अनदेखा कर मैं दूसरी तरफ खुद को व्यस्त कर लेती थी । परन्तु बच्चे ... उनके लिये रिश्तों और रिश्तेदारों का ये रूप असह्य हो रहा था ।

एक पल को मेरा भी मन बिखर सा गया था ,जब बहू को देनेवाली अँगूठी मुझे दिखाते हुए कहा गया ,"हाथ मे लेकर देखिये कितनी भारी है । बुरा समय आने पर बेचने से अच्छे पैसे मिलेंगे ।" सच मैं तो हतप्रभ रह गई कि जिन बच्चों ने अभी जीवन शुरू भी नहीं किया है, उनके लिये ही ऐसी सोच ! एक पल लगा था मुझे सम्हलने में ,फिर मैंने कहा था ,"पहले तो ये दुआ करो कि ऐसी नौबत ही न आये ... और तब भी कभी दुर्योग से ऐसा हुआ भी तो अभी हम बड़े उनके सामने कवच सरीखे खड़े रहेंगे । उपहार में बद्दुआ की सम्भावना भी नहीं देनी चाहिए ।"
हँसी में ही ये कह कर मैंने बात आई गयी कर दी थी । सामने ही मेरी लाडो ,मेरी अन्विता भी सब देख रही थी ।

अभी और पता नहीं क्या - क्या सोच जाता मन कि अन्विता की आवाज सुनाई दी ,"माँ ... माँ ... आप कहाँ हैं ।" 

मैंने उसको भी अपने साथ ही झूले पर बैठा लिया । उसके मन की खौलन को मैं समझ रही थी ,परन्तु कुछ भी न कह कर शांत ही रही कि देखूँ वो ऐसी परिस्थिति में खुद पर कितना नियंत्रण रख पाती है । एक माँ के रूप में मैं जानती थी कि आत्मनियंत्रण कोई और नहीं ऐसी परिस्थितियाँ ही सिखाती हैं ।

"माँ सबकी अपेक्षाओं की सूली पर चढ़ते चढ़ते ,आप थकती नहीं हैं क्या ? आपसे हर व्यक्ति सिर्फ उम्मीद ही करता रहता है परन्तु आप हैं कि उनकी गलत बातों और आदतों को अनदेखा कर के ढीले पड़ गये रिश्तों में नए सिरे से कड़क वाला कलफ लगाने चल देती हैं । मुझे नहीं अच्छा लगता जब कोई भी आपके इस भोलेपन का लाभ उठता है " ... अन्विता जैसे अंदर से भरी बैठी थी ,थोड़ी देर में वो बोल उठी ।

मैंने एक मीठी से हँसी से उसको अपनी गोद मे जैसे छुपा लिया ,"चल बिट्टू आज मैं तेरे सारे सवालों के जवाब दूंगी । जानती हूँ कि कोई भी बच्चा अपने माता पिता के अच्छे स्वभाव का दोहन होते देख दुखी होता है ,तुम भी हो रही हो । मैं भी मानती हूँ कि डोर को तोड़ना बहुत सरल है परन्तु उसमें लचीलापन बनाये रख कर सन्तुलन साधना थोड़ा मुश्किल है । बस ये लचीलापन ही रिश्तों को मृत होने से रोकता है । तुम जिसको समझती हो कि दूसरा हमारा फायदा उठा रहा है वो ही उनकी कमजोरी और हमारी सामर्थ्य दर्शाता है ,जिसको वो भी मानते हैं । जैसे बीमारियाँ शरीर में रहती हैं और हम उनका इलाज करते हैं वैसे ही खट्टे मीठे रिश्ते भी परिवार में होते हैं जिनका निर्वाह उसमे रहकर ही करना होता है .... बात के बनने बिगड़ने में सिर्फ उस एक डिग्री का ही अंतर होता है जो boiling point के ठीक पहले का होता है ... । और सबसे जरूरी बात जिस बीमारी का इलाज सम्भव नहीं होता और वो अंग शरीर को नुकसान पहुंचाने लगता है ,उसका ऑपरेशन तो करना ही पड़ता है ... बस पहचानना जरूरी है ।"   - निवेदिता

मंगलवार, 13 अगस्त 2019

शिकायत किससे : लघुकथा

शिकायत किससे : लघुकथा

दिन ब दिन माँ के कमजोर होते जाते शरीर को सहलाती मेरी हथेलियाँ कितनी बेबस हो जाती हैं । कितने ही निराशमना लोगों को अपनी बातों से ,अपने स्नेहिल स्पर्श से फिर जिंदगी में वापस ले आयी थी । आज अपनी ही माँ के सामने ,जहाँ सबसे ज्यादा सफल होना चाहती है ,वहीं सब कुछ कितना निरर्थक हो जा रहा है ।

एकबार फिर से समस्त आत्मबल समेट उसने माँ का चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में भर लिया ,"माँ बोलो न क्या बात है जो आप जीवनभर संघर्ष करती रहीं पर कभी गिरना तो दूर लड़खड़ाई भी नहीं । अब ऐसा क्या हो गया ? "

बहुत देर बाद माँ की बेहोशी में डूबती हुई आवाज ने मानो एक सिसकी सी भरी ," हर मुसीबत का सामना करते समय ये विश्वास था कि हमारा अटूट विश्वास है एक दूसरे के साथ । एक ऐसा व्यक्ति जिससे मैं कोई भी बात ,किसी की भी शिकायत कर सकती हूँ । पर अब जीवन के इस गोधूलि वेला में मेरा वो विश्वास उसी व्यक्ति ने तोड़ कर मुझे तोड़ दिया । विश्वासघात की स्वीकारोक्ति भी उसने तब की ,जब उसको मेरे साथ में खड़े रहने की जरूरत पड़ी ,और मैं भी बच्चों और परिवार का सोच कर मन ही मन घुटती हुई भी सामाजिकता के नाते ही उसके साथ खड़ी हो गयी । पर मन ही मन घुटती रही हूँ कि उसकी शिकायत किसी और से तो क्या खुद उससे भी नहीं कर सकती । विश्वास के टूटने से बड़ा आत्मघात और क्या होगा ! "

एक खामोश शिकायत की पीड़ा भी जैसे अंतिम साँस ले चुकी थी । ... निवेदिता

गुरुवार, 8 अगस्त 2019

लघुकथा : उड़ान

लघुकथा : उड़ान

सब काम समेटते हुए अनायास ही अन्विता की निगाहें  उड़ते हुए पर्दे से अंदर की तरफ चली गई । निरन्तर आनेवाली उबासियाँ को सायास रोकता हुआ अनिरुद्ध अपना सामान समेट कर बैग में रख रहा था । सच बहुत ध्यान से सामान रखना होता है । अगर एक भी चीज छूट गयी तब बेवजह ही परेशान होंगे दिनभर । मुँहअंधेरे ही निकलते हैं घर से तब कहीं समय पर ऑफिस पहुँच पाते हैं ,और ढ़लती हुई शाम के साथ ही फिर ट्रेन में तब ऊंघती हुई रात के साथ घर वापस आते हैं । इतनी परेशानी उठा कर रोज का आना-जाना करते हैं ,पर तब भी कहते हैं ,"मेरे लिये तुम कितना परेशान होती हो । तुम्हारी नींद भी तो पूरी नहीं हो पाती है । ऐसा करो तुम मेरा खाना रख कर सो जाया करो ।मेरे पास तो चाभी रहती है है ,मैं अंदर आ जाऊँगा । और ये जो सुबह - सुबह उठ कर नाश्ता खाना बनाने लग जाती हो ,उसको भी रात में ही बना कर रख दिया करो । तुम बीमार पड़ गयी तब तुम्हारे साथ - साथ ये घर भी बीमार पड़ जायेगा ।"

सच जीवन भी कितना संघर्ष करवाता है अपनों के सुकून के लिये । बच्चे भी तो बड़ी कक्षाओं में आ गए हैं । हर दो - तीन साल बाद होनेवाले स्थानांतरण पर स्कूल बदलने से पढ़ाई पर भी असर पड़ने लगा था ,तभी तो अपनों के हिस्से में सारे सुख और सुकून संजोने की चाहत में अनिरुद्ध ने सारे संघर्ष अपने हिस्से कर लिए थे । उनके हर दिन की भागदौड़ देख लगता है कि रोज वो एक तिनका लाते हैं और हम सब के घोंसले को अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति की मजबूती से बाँधे रहते हैं । हर दिन का संघर्ष एक तिनका ही तो है ।

एक नई ऊर्जा से साँसें भरती हुई अन्विता भी सुबह के इंतजार में अनिरुद्ध की ही कही हुई बात को याद करने लगी कि परिंदे अपनी चोंच में  घोंसला लेकर नहीं उड़ सकते ,पर चोंच में दबा कर लाये हुए तिनकों से घोंसले जरूर बना सकते हैं । ... निवेदिता

शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

दोहे

दोहे

1
बदरा बरस बरस गये ,मन क्यों भया उदास
चलने की बेला सखी ,देव मिलन की आस

2
खोल मन की खिड़कियाँ ,हँस रहा अमलतास
वासनायें उड़ा चली ,ले ले तू कल्पवास 

3
चमके चपला दामिनी ,मन में हुआ उजास
मोती बन बादल झरे  ,क्यों करे अविश्वास 

4
जीवन डगर लगे कठिन ,न कर कभी उपहास
सम्हल कर तू कदम रख , समय करे परिहास 

निवेदिता

बुधवार, 31 जुलाई 2019

सावन गीत

सावन गीत

रिमझिम बरस रहा सावन
मन जा पहुँचा मैके का आँगन

अल्हड़ सखियों की टोलियाँ
सब चुन लाती थीं कलियाँ
झूला झुलाये अमुआ की डालियाँ
वो बचपन की गलियाँ
तब जीवन था बस क्रीड़ावन
रिमझिम बरस रहा सावन ...

चुन चुन लाते मेहंदी की पत्तियाँ
खिल जाती थीं सब हथेलियाँ
बहना की पियरी ,भाभी की चुनरी
सुहागन मन थिरकता सुहावन
झूमती गाती कजरी मनभावन
रिमझिम बरस रहा सावन ....

स्नेहिल कलाई पर राखी सजाई थी
शगुन के लिये ठिठोली मचाई थी
कच्चे सूत की मजबूत डोरी पावन
भइया तुमसे करवाई कितनी मनावन
नयना बरस करते जल प्लावन
रिमझिम बरस रहा सावन ....

जब तन बदला तब मन बदला
कुछ मैं सकुचाई कुछ वो मचला
बिखरी अलकें झुकी सी पलकें
हरसिंगार सजता नित नई सजावन
कान्हा संग रास रचाने पहुँचा निधिवन
रिमझिम बरस रहा सावन ....
                            .... निवेदिता

सोमवार, 29 जुलाई 2019

हाइकु

हाइकु

1
शिव सत्य है
हिमालय निवास
गौरा के साथ

2
मन चंचल
शिव अपने साथ
मेरा विश्वास

3
मन धतूरा
विष कण्ठ निवास
न बुझे प्यास

4
रुद्राभिषेक
अटूट जलधारा
नतमस्तक
 ... निवेदिता

.... निवेदिता

शनिवार, 29 जून 2019

गीत : उम्र झूठ की तुमने बताई न होती

गीत

उम्र झूठ की तुमने बताई न होती ।
वफ़ा की यूँ कभी रुसवाई न होती ।।

सूरज भी झुलसा होगा तन्हाई में
अंधेरा सोया रहा मन की गहराई में ।
चाँद ने चाँदनी बरसाई न होती
वफ़ा की भी यूँ कभी रुसवाई न होती ।।

नयन बोलते रह गए मन की अंगनाई में
तारे भी हँस पड़े अम्बर की अमराई में ।
शब्दों ने यूँ वल्गा लहराई न होती
वफ़ा की यूँ कभी रुसवाई न होती ।।

तन ऐसे चल रहा लम्हों की भरपाई में
मन क्यों डूब रहा उम्र की गहराई में ।
रस्मों में उलझन समायी न होती
वफ़ा की यूँ कभी रुसवाई न होती ।।
                                       ... निवेदिता

मंगलवार, 25 जून 2019

लघुकथा : प्यार या लगाव

लघुकथा : प्यार या लगाव

टहलते हुए थोड़ी सी थकान लगने लगी तब वहीं पार्क में पड़ी बेंच पर बैठ गयी । अचानक ही पास वाली बेंच पर बातें करती दो युवतियों पर ध्यान चला गया ।

"आजकल तुम बहुत परेशान और चुप चुप सी दिखती हो ,क्या हुआ है कुछ तो बताओ ।"

"नहीं यार ... ऐसा कुछ खास नहीं ।"

"अच्छी बात है पर अगर कभी मन उलझे तो ये जरूर याद रखना कि मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ ।"

थोड़ी देर की खामोशी के बाद आवाज आई ,"दरअसल मैं ये सोच रही हूँ कि प्यार और इंफैचुएशन में अंतर कैसे पता चलता है । हमें कैसे पता चलेगा कि ये एक पल का लगाव है उम्र भर साथ रहने वाला प्यार ।"

बड़ी शांत सी आवाज आई ,"इसकी कोई स्पष्ट व्याख्या तो नहीं की जा सकती ,पर इसके मूल में जो भाव है वो सिर्फ यही है कि लगाव किसी भी विरोधी परिस्थिति के सामने घुटने टेक आसान सा रास्ता खोजता है ,जबकि प्यार उसका सामना करने का साहस देता है ।"

"इसको और भी आसान शब्दों में कहूँ तो लगाव परिवार को छोड़ कर भागने की सोचेगा और कहीं न कहीं साथ छोड़ धोखा दे जाएगा जबकि प्यार अपने प्रिय के सम्मान बनाये रखने के लिए ढाल बन सदैव साथ देगा ।"
                                                                                                               - निवेदिता

शनिवार, 22 जून 2019

गीत : उम्र गुजरती है सपनों की तुरपाई में

गीत

उम्र गुजरती है सपनो की तुरपाई में ।
हर रेशा जोड़ा रिश्तों की सरमाई में ।।


तन्हा तन्हा मन बेबस सा छलकता रहा
जीवन नवरस से अनमना सा बरसता रहा ।
बिसरी बातों से जीवन कलश भी दरक रहा
साँसे भरता रहा रिश्तों की भरपाई में ।।
उम्र गुजरती है सपनों की तुरपाई में ...


बचपन किलक किलक कर कदम बहकाता रहा
बुढापा यौवन की भी याद दिलाता रहा ।
पगला मन यादों की धार बरसाता रहा
दिल बेबस सा डरता रहा जग हँसाई में ।।
उम्र गुजरती है सपनों की तुरपाई में ...


नव कलिका भी थिरक थिरक कर सुरभित हुई
डोली मैके की गलियाँ रोता छोड़ चली ।
लोभी दुल्हन को तड़पा कर जलाता रहा
मन यूँ भी कलप रहा खुदा की खुदाई में ।।
उम्र गुजरती है सपनों की तुरपाई में ... निवेदिता


सोमवार, 17 जून 2019

#लघुकथा : डेज़र्ट

#लघुकथा : डेज़र्ट

सामने अविका को देख खुशी से झूम ही गई मैं ,"कैसी है अवि ... आज उतने दिनों बाद दिखी ,न तो फोन रिसीव कर रही थी और न ही कॉलबैक ... कहाँ गुम हो गई थी ... और ... और ये क्या डेजर्ट लेकर बैठी है ... तुझे तो ये कॉम्बिनेशन एकदम नापसंद था ,फिर ... "
अविका शांत भाव से मुस्कुरा उठी ,"अंकु सब्र कर न ... इतने सारे सवाल एक ही बार में ... चल तेरे सारे सवालों का जवाब मेरा ये डेजर्ट कॉम्बिनेशन ही है "
मैं कुछ भी न समझ उसको देखती ही रह गयी ,"डेज़र्ट ... "
अविका और भी शांत हो रहस्यमयी सा मुस्कुरा दी ," जानती है अंकु ये हमारी जिंदगी इस डेज़र्ट की तरह है ... ठण्डी आइसक्रीम ,गर्म गाजर का हलवा और सबसे गर्म चाशनी से भरा गुलाबजामुन । ये खौलती चाशनी में डूबा गुलाबजामुन हमारी जिंदगी के मुश्किल पल हैं ... पिघलती आइसक्रीम उन मुश्किल पलों में साथ छोड़ते दिखावटी सम्बंध हैं ... और ये नीम गर्म गुनगुनाते एहसास जैसा गाजर का हलवा हमारी सन्तुलित मनःस्थिति है जो इन मेवों ,खोये और मिठास को एक ऐसी एकरूपता देता है जिसमें सबका स्वाद (पहचान) अलग अलग भी पता चल रहा है और एक दूसरे को सम्मान देता सा बाँध कर नई पहचान भी दे रहा है । पिघलती आइसक्रीम और गुलाबजामुन की चाशनी जैसे लम्हों को जिंदगी से निकाल कर ही सहजता से जी सकते हैं ,नहीं तो पछतावे में ही घुटते रह जाना होगा .... "
..... निवेदिता

मुक्तक

1
कलियाँ भी खिल पड़ी चमेली में
यूँ बचपना हँस पड़ा अठखेली में
नींव नेह की बड़ी गहरी रखी थी
मीठी यादें बरस रही हवेली में

2
लम्हों के काँच चुभ रहे हथेली में
जीवन बीता जा रहा पहेली में
साँसों के दरम्याँ बड़ा है फ़ासला
यादें भी बरस रही चंगेली में  .... निवेदिता

शनिवार, 15 जून 2019

रिश्तों का सर्किट : लघुकथा

रिश्तों का सर्किट

अनझपी पलकों से वो उसको देखे जा रही थी ... और वो भी तो दीन दुनिया से एकदम बेखबर अपने सामने पड़े उस पुराने से ट्रांजिस्टर के सर्किट में उलझा हुआ था ।
उसे देख कर आश्चर्य होता था कि इतना कार्य पटु है कि कैसे भी उलझे ,बिगड़े हुए तन्तु  हों वो सहेज ही लेता था और खरखराहट मधुर स्वर लहरियों में बदल जाती थी ।

एक कचोट सी भी उठी दिल में कि बेजान तारों की भूलभुलैया को सुलझा लेने वाला ये रिश्तों के तार में कैसे उलझ गया और हर रिश्ता उसका फायदा उठाने उससे जुड़ता रहा और काम निकलते ही छोड़ता भी रहा ...

सच अजीब है रिश्तों की संरचना ,इसमें अधिकतर एक ही समझता है जबकि दूसरा उसको एक नामालूम से पल का एहसास ही मानता है ।

रोज सोचती हूँ कि उसको समझाऊँ पर उसके इस बात का जवाब मेरे पास आज तक नहीं आया ," मैं ऐसा ही हूँ अपनी तमाम कमियों के साथ । अगर जरा भी बदल गया तो वो बदला हुआ व्यक्ति कोई भी हो सकता है पर मैं नहीं । तुम भी तो मेरी परवाह करती हो न जैसा मैं हूँ ,अगर मैं इससे तनिक भी कम या अधिक होता तब शायद तुम्हारा ध्यान भी नहीं होता मुझ पर ।"

शायद हम साथ भी इसीलिए हैं कि हम एक दूसरे की कमियों के पूरक हैं ।
       .... निवेदिता

मंगलवार, 11 जून 2019

लघुकथा : लक्ष्मण रेखा

लघुकथा : लक्ष्मण रेखा

"क्या होता जा रहा है तुमको ! कुछ बताओ तो ... हम सब परेशान हैं तुम्हारे लिये । कुछ समझ में आ ही नहीं रहा कि तुमको दिक्कत क्या है या तुम चाहती क्या हो ... अरे कुछ बता भी दो । डॉक्टर भी कहते हैं कि बीमारी तन की नहीं मन की है । अब हमारे पास वो सब कुछ है जिसके लिये अच्छे अच्छे लोग तरसते हैं । अपने अपने जीवन मे सुव्यवस्थित प्यार बरसानेवाले बच्चे ,हमारा मान करनेवाली बहुएं ,घर , सम्पत्ति सब तो है हमारे पास । मन का रोग तो  कुछ कमी महसूस करने पर होता है न , पर जब कुछ कमी है ही नहीं तो ये कैसी लक्ष्मण रेखा खींच कर उसके अंदर घुस गई हो । " हताश सा अनिकेत झुंझला रहा था ।

कुछ पलों तक उसको देखते देखते , हठात ही अन्विता हँस पड़ी ," नहीं मुझे कोई दिक्कत नहीं है । मैंने अपनी सब जिम्मेदारियों को पूरा कर दिया है । बच्चे और तुम सब अपने क्षेत्र में अपनी पहचान बना चुके हो । बहुएं भी इस घर को अपना चुकी हैं । अब किसी बात की अनदेखी के लिये मुझे गलत नहीं ठहरा सकते हो । बस अब मैं अपने लिये जी रही हूँ जो तुम सबको असामान्य लग रहा है ।"

एक सुकून भरी साँस ली उसने ,"जानते हो अब मैं लक्ष्मण रेखा के अंदर नहीं रहती , बस उन सबके लिये जरूर ये रेखा खींच दी है जिनकी आदत मुझको अस्वीकार करने और मुझमे कमी निकालने की पड़ गयी है ।"
                                                  ... निवेदिता

गुरुवार, 6 जून 2019

लघुकथा : निष्कासन


लघुकथा : निष्कासन

अनवरत बहती अश्रुधारा को पोछते हुए ,आत्मविश्वास के प्रतीक सी उसकी आँखों मे आँखे डाल खड़ी हो गयी ,"तुम जो ये इतनी देर से लिख लिख कर पन्ने काले कर रहे हो ,ये सब व्यर्थ है । तुम्हारी दिखावटी दुनिया के स्याह पन्ने हैं ... खोखली मानसिकता ! तुम ये तस्वीर दिखा रहे हो सूखी चिटकी धरती की और बड़े बड़े व्याख्यान दे रहे हो ,पर तुमको ये रोती सिसकती माँ नहीं दिख रही । इसकी अजन्मी बेटियों की हत्या कभी मजबूरी बता कर तो कभी मजबूर कर के की है तुमने । धरती माँ सूखती है तो उसका आँचल सूखता और चिटकता है ,पर जब हाड़ मांस की माँ सूखती है न तो उसका मन भीगता है और हौसला टूटता है । पर अब नहीं ... अब जाओ तुम कम से कम धरती माँ का ही कर्ज उतार लो ,मैं अपनी कोख का जिम्मा खुद उठाउंगी ।"

लम्बी गहरी साँस जैसे उसकी आत्मा से निकली ,"जा कापुरुष मैं तुझे पिता के पद से निष्कासित करती हूँ!'
                                        .... निवेदिता

मंगलवार, 4 जून 2019

लघुकथा : घर का पता

लघुकथा : घर का पता

अन्विता को उदास देख माँ दुलराते हुए समझाने लगी ,"क्यों परेशान होती हो बेटे ।शादी होने से तुम्हारा ये घर छूट नहीं रहा बल्कि एक और घर मिल रहा है । जब जहाँ मन हो वहॉं रहना ।फिर  कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा ।"

अन्विता जैसे अपनी उलझन से उबर चुकी थी ,बोल पड़ी ,"माँ घर तो नहीं ही छूटेगा शादी से पर अंतर ये हो जाएगा कि मेरे इस घर का पता बिक जाएगा । जिस शादी में घर बिक जाए वो सुख नहीं ला सकती । हम शादी के खर्चे अपने बजट में ही करेंगे । किसी की झूठी शान बढ़ानेवाली शादी मुझे स्वीकार्य नहीं ।"

अन्विता जैसे इतना कहते कहते आत्ममंथन से निकल बोलती गयी ,"आप जहाँ भी  चाहे मेरी शादी कर दीजिये बस मेरे इस घर के पते को मत बिकने दीजिये ।" ..... निवेदिता

सोमवार, 3 जून 2019

ऐ मेंरे मन !

ऐ मेंरे मन !
तू थक नहीं सकता
तू रुक नहीं सकता
हाथ में छन्नी है तो क्या
धार यूँ बहती है तो क्या
एक दिन पावस जगेगी
यूँ बर्फ की चट्टान जमेगी ... निवेदिता

रविवार, 2 जून 2019

तुम मन की वीणा बजाते हो

मैं प्रेम की भाषा गुनगुनाती हूँ
तुम मन की वीणा बजाते हो
मैं क्षितिज धरा का मिलन दिखाती हूँ
तुम दृश्य विहंगम छलावा बतलाते हो
मैं सागर की लहरों में सीपी चुनती हूँ
तुम लहरों में सरकती रेत दिखलाते हो
मैं मूक विहग को गुनगुनाती हूँ
तुम नीड़ बनाता जोड़ा दिखलाते हो
मैं सूखे पत्तों का उड़ना जीती हूँ
तुम सूनी पड़ी डाल दिखलाते हो
मैं स्वप्न सा जीवन यूँ ही सजाती हूँ
तुम पथ के काँटे चुन चुन हटाते हो
निवेदिता

गुरुवार, 30 मई 2019

लघुकथा : बबूल

लघुकथा : बबूल

अपनी ही धुन में मग्न बिना कुछ भी देखे वो ख्यालों के सुर ताल पर थिरकती सी आगे बढ़ती जा रही थी । अनायास ही जैसे कँटीले गुंजल में उलझ गयी वो । अपने हाथों और पैरों पर छिटक आयी ,लहू की लालिमा को देख ,अपना रास्ता रोके बबूल की झाड़ियों से शिकायत कर बैठी ,"सब सच ही तुम्हारा तिरस्कार करते हैं । हर जगह काँटे ही काँटे भरे हैं तुममें तो । इससे तो अच्छा था कि किसी फूल या फल वाली पौध लगाई गई होती ।"

इतनी तिरस्कार भरी बातें सुन कर ,एक पल को बबूल का पेड़ भी सहम कर दुखी हो गया । परन्तु अगले ही पल वो आत्ममंथन करता सा अपने बारे में और खुद से दूसरों की शिकायतों के बारे में सोचने लगा  ...

पूरा जीवन बीत गया यही सुनते सुनते कि"बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से होये "...

वैसे सच ही तो है कि जो बोओगे वही तो फसल होगी ! पर किसी को भी इस तरह हीनता से सम्बोधित करना सही है क्या ?

मानता हूँ कि मुझ में काँटे बहुतायत में होता हैं ,पर ये भी तो सच है कि मेरी कोई विशेष देखभाल भी नहीं करनी पड़ती । न तो पानी डालते हो तुम सब और न ही खाद ,तब भी मैं जिजीविषा का प्रतिरूप बन पनप जाता हूँ।

तुम सब को मेरे काँटे दिखते हैं पर मेरे औषधीय गुण की चर्चा भी नहीं करते ... पर हाँ जब जरूरत होती है मेरी पत्ती, छाल सब ले जाते हो ... बेशक काँटे मुझमें तब भी रहते हैं ,पर शायद जरूरत उन पर ज्यादा भारी पड़ जाती है । मुँह के छालों में ,घाव भरने में ,रक्त रिसाव रोकने में ,झरते बालों को रोकने में ,आँख की बीमारियों में ,पसीना रोकने में ... कहाँ तक गिनाऊँ अपने औषधीय गुण । सब छोड़िये दातुन करने में नीम से अधिक प्राथमिकता मुझे ही मिलती है । कभी कभी कुछ नुकसान भी हो जाता है पर कारण औषधि बना कर गलत मात्रा में सेवन करने से होता है ।

सब बातें छोड़ भी दें तो घर की ,खेतों की बाड़ बनाते समय तो बड़ी ही बेदर्दी से मेरी ही डालियाँ काट ले जाते हो तुम सब ।

शायद मेरी स्थिति परिवार के उस अभिभावक सी है जिसके परिश्रम और ज्ञान का लाभ तो सब लेना चाहते हैं पर उसकी डाँट मेरे काँटों जैसी चुभती है ।
                                                   .... निवेदिता

मंगलवार, 28 मई 2019

लघुकथा : आत्मबल

लघुकथा : आत्मबल

माँ : "अन्विता रात हो रही है अकेले मत जाओ ... जाना जरूरी हो तो भाई या अपनी किसी सहेली को साथ ले लो ।"

अन्विता : "माँ समस्या चुनाव की नहीं है कि सहेली को साथ लूँ या भाई को । दूषित विचार को वो मेरा भाई नहीं लगेगा और फब्तियाँ सुननी पड़ेगी ... और अगर दोस्त के साथ जाऊँगी तो उनकी जुगुप्सा को एक की जगह दो के मानसिक और शाब्दिक चीरहरण के अवसर मिलेंगे । जब भी अकेली लड़की दिखती है तो सब फब्तियाँ कसते हैं ,पर वही लड़की अगर अकेली किसी दुःशासन के सामने होती है तब वो उनको दिखाई ही नहीं देती ... या कह लूँ कि वो उनके लिये अवसर होती है या फिर अदृश्य ... वैसे भी मैं कराटे क्लास में जा रही हूँ जहाँ जाने के लिये साथ से अधिक जरूरी आत्मबल होता है ।"  .... निवेदिता

मंगलवार, 21 मई 2019

लघुकथा : चाभी

लघुकथा : चाभी

आंटी के पास बैठी मैं उनको देखती ही रह गयी । किसीको दुलराती ,किसीको धमकाती ,किसीको छेड़ती गुदगुदाती तो किसी को डाँटती एकदम मन मस्तमगन झूम रही थीं । आखिर मुझसे नहीं रहा गया तब पूछ ही बैठी ,"आंटी आपकी डाँट का भी कोई बुरा नहीं मान रहा है । आपके पास से सब हँसते हुए ही जा रहे हैं , वो भी तब जबकि ये आपके परिवार से भी नहीं कि लिहाज करना मजबूरी हो । ऐसे कैसे सबको सहेजे हैं आप ... !"

आंटी मुक्तमना हँस पड़ीं ,"अरे ऐसा कुछ नहीं मुझमे ... बस ये सब मुझे अपने मन के ताले की चाभी मानते हैं । जानती हो कभी कभी ताला खोलने के लिये अपनी ही विवेकरूपी चाभी बेकार हो जाती है तब डुप्लीकेट चाभी बनवानी पड़ती है न । उस प्रक्रिया में ताले को कई बार ठोकर भी लगती है ,पर जब चाभी बन जाती है तो ताला भी बेकार होकर फेंका नहीं जाता । उसकी उपयोगिता बनी रहती है । मैं इनसबके लिये यही काम करती हूँ । ये सब निःसंकोच होकर मुझसे हरबात करते हैं । उनकी आधी समस्या तो बताते ही खत्म हो जाती है और बाकी उनका ही शांत हो चुका मन सुलझा देता है । मैं तो उनके लिये एक ऐसा मजबूत चौखट में जड़ा व्हाइटबोर्ड हूँ जिसपर उनका विश्वास है कि उनकी बात मुझ तक ही रहेगी । "
-- निवेदिता

सोमवार, 20 मई 2019

सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी .....



सखी अकेली तुम्हें न रहने दूंगी
धूप के ताप में न जलने दूंगी
तुम्हारे अश्रुधार रोक नहीं सकती
अश्रु न जमीं पर गिरने दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी

जलधार का बहना रोक नहीं सकती
दिल की नमी पलको धर लूंगी
दर्द की राह रोक नहीं सकती
दर्द न अकेले सहने दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी

तूफानी लहरों को रोक नहीं सकती
पदतल की मिट्टी रेत न बनने दूंगी
तानों की बौछार रोक नहीं सकती
मन ही मन न घुटने दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी

पतझर आये जब मन के मौसम में
तुमको न यूँ मुरझाने दूंगी
तुम्हारे साथी को तो न रोक सकी
तुमको न यूँ जाने दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी

हँसी तुम्हारे अधरों पर ला न सकी
मुस्कान तो मन मे बसा दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी
                ... निवेदिता

शनिवार, 18 मई 2019

लघुकथा : अंगदान




आनिकेत : "क्या हुआ अन्विता ... अब क्या सोचने लगी ... ऑपरेशन बिल्कुल ठीक हो गया और तुम घर भी आ गयी हो ... डॉक्टर ने कहा है न कि तनाव बिल्कुल नहीं लेना है .. बताओ न क्या बात है ... "

अन्विता :"बस ये सोच रही हूँ कि जिसने दिल दान किया है मुझे ,वो कैसा होगा ... उसके घरवालों ने कितना साहस और धैर्य संजोया होगा ये सब करने में । और पता अनिकेत अब मेरे दिल मे एक संकल्प भी आ रहा है कि जिसने अपनी धड़कन देकर हमारे परिवार को कुछ और खुशी भरे पल दिये हैं ,उसके परिवार के लिये हमको  भी कुछ करना चाहिए । साथ ही साथ अंग दान के लिये सबको  जागरूक करना चाहिये । "
                            .... निवेदिता

मंगलवार, 14 मई 2019

लघुकथा : जिंदगी की चाय

लघुकथा : जिंदगी की चाय

चाय इतनी बेस्वाद सी क्यों लग रही है ...
कब से बैठी यही सोच रही हूँ कि चाय पत्ती ,चीनी ,दूध ,अदरख सब तो उसी अनुपात में ही डाला था ,फिर क्या हो गया ! इतना बेस्वाद तो न था अपना हाथ कभी । हमेशा यही सुना और पाया कि ये तो अपने अंदाज से ही सादे से पानी को भी स्वादिष्ट पेय बना देती है ।

अजीब उलझन है ये जिंदगी ... कभी सीधी पगडंडी तो कभी एकदम सरल दिखती पर रेत सी रपटीली ।अनायास भटकते मन को सप्रयास समेटने का प्रयास करती सी वो अल्बम के पन्ने पलटने लगी ...

पलटते पन्नों में जैसे समस्या का समाधान मिल गया ... दो कप चाय बनाने और साथ पीने की आदत थी और आज एक कप बनाई थी । चाय का स्वाद नहीं बदला था ,वो तो उस दूसरे कप की कमी को उसका अवचेतन अनुभव कर अनमना हो गया था ।

उसने खुद को जैसे जगा लिया था कि सर्दियों में अदरखवाली चाय पीती थी ,पर मौसम बदलते ही लेमनग्रास या इलायची चाय में जगह बना अदरख को विदा कर देते थे । ये भी तो मन के समय का बदलता मौसम ही है जो चाय का कप अकेला पड़ गया है । बिछड़े सभी बारी - बारी ,पर चाय तो तब भी बनी ही ... यही जीवन है ।

वो नयी ऊर्जा से भर जिंदगी के प्याले में नया स्वाद भरने चल दी ... निवेदिता

गुरुवार, 9 मई 2019

पहाड़ भी मरते हैं ...

*पहाड़ भी मरते हैं*

आप गए तब सोचती रह गयी
एक चट्टान ही तो दरकी रिश्तों की
अब देखती हूँ
वो सिर्फ एक चट्टान नहीं थी
वो तो एक सिलसिला सा बन गया
दरकती ढहती चट्टानों का

आप का होना नहीं था
सिर्फ एक दृढ़ चट्टान का होना
आप तो थे एक मेड़ की तरह
बाँधे रखा था छोटी बड़ी चट्टानों को
नहीं ये भी नहीं ....

आप का होना था
एक बाँध सरीखा
आड़ी तिरछी शांत चंचल फुहारों को
समेट दिशा दे दशा निर्धारित करते
उर्जवित करते निष्प्राण विचारों को

वो एक चट्टान के हटते ही
बिखर गया दुष्कर पहाड़
मैं बस यही कहती रह गयी
मैं सच देखती रह गयी
पहाड़ को भी यूँ टूक टूक मरते ... निवेदिता

मंगलवार, 7 मई 2019

लघुकथा : जिंदगी का ब्रांड एंबेसडर



माँ : "क्या बिट्टू जब देखो मेरा बैग पैक कर के घुमाने ले चलती हो । मेरी जैसी उम्र में तो पूजन भजन करती हैं सब और तुम हो कि कभी पहाड़ तो कभी समंदर के किनारों पर ले जाती हो । अब इस बार तो हद कर दी तुमने फूलों की घाटी का प्रोग्राम बना लिया ।"

अन्विता :" माँ सबसे पहले तो ये अच्छे से समझ लो कि किसी भी काम को करने की कोई उम्र नहीं होती । जिस काम मे मन को सुकून मिलता हो उसको अपने स्वास्थ्य और परिस्थितियों के अनुसार जरूर करना चाहिए । "
"अब तक अपनी जिम्मेदारियों को निबाहती रही और अपने जीवन का एक पल भी खुद की पसंद का नहीं बिताया । अगर अब भी आप अपनी इच्छाओं को लोकाचार के पीछे दबाती रहेंगी तब आपके साथ ही ये हम बच्चों के साथ भी अन्याय ही होगा । हम अपनी अंतिम साँस तक ख़ुद को माफ नहीं कर पाएंगे ।आप इस परिवार की नींव हैं और अगर हमने इस नींव की अनदेखी की तो न चाहते हुए भी ,अनजाने में ही सही पर नींव दरक जाएगी और ये इमारत नहीं बचेगी ।मुझे पता है कि आपको बागवानी का कितना शौक था पर जब स्थानाभाव हुआ तो अपनी बगिया को हटा कर हमारे पढ़ने का कमरा बनवा दिया था आपने । फ्लैट में आपका शौक रसोई में छोटे छोटे गमलों में सिमट गया था । अब जब आपने इस योग्य बना दिया है तो कि फूलों की घाटी ले जाकर आपके मन और चेहरे पर कुछ पलों को ही सही ,पर उस बगिया की महक तो जी ही सकती हूँ । "
"और हाँ उम्र की बात आप कीजिये ही मत । अब आपको अपने हर शौक को पूरा करना है । खूब घूमिये और सखियों के साथ इतने जोर के ठहाके लगाइए कि सब कुछ जिंदगी से भर जाए । हमसब में जिंदादिली भरनेवाली आप को अब जिंदगी का ब्रांड एम्बेसडर बनना है ।"
                                       ..... निवेदिता

शनिवार, 4 मई 2019

दर्द और मैं

अक्सर दर्द और मैं
दोनों ही देखते हैं
यूँ ही एक दूसरे को
अक्सर ही हम हँस पड़ते हैं

साथ न तुम छोड़ते न ही मैं
सच बड़ा अजीब सा है ये नाता
दर्द भरी हँसी का
या हँसते हुए दर्द का

तुम को बसेरा दिया दिल में
मैं तो बस हँसी बिखेरती
छुपाये रखती हूँ इस जहाँ से
और जानते हो सब कहते है
आपकी हँसी सच बहुत हसीन है .... निवेदिता

सोमवार, 22 अप्रैल 2019

लघुकथा : परिवर्तन

लघुकथा : परिवर्तन

"अरे ... ये क्या बहू तुम चाय पी रही हो ... और तुमने ये बिंदी ,चूड़ी उतार रखी है । पता नहीं ये आजकल की लड़कियाँ अपने मायके में क्या देखती और सीखती हैं ।तुम्हारे मायके में जो भी होता हो अब एक बात ध्यान में रख लो अच्छे से तुमको यहाँ की परम्पराओं का पालन करना ही होगा ... " अनवरत बोलती सासू माँ की निगाह बहू के पैरों पर पड़ गयी और जैसे ज्वालामुखी फट पड़ा ... चाय का कप फेंकते हुए चीख पड़ीं ,"हद्द कर दी बहू तुमने तुमने बिछुये भी नहीं पहने हैं ... चाहती क्या हो  ... अपने ही पति का अपशगुन क्यों कर रही हो ..."

अन्विता के सब्र का बाँध जैसे टूट गया ... वो अपने संस्कारों से बंधी हाथ जोड़ कर बोल पड़ी ,"माँ मेरी तबियत ठीक नहीं है और मुझे दवा खाना है इसलिए मैंने चाय बिस्किट लिया है । "

सासू माँ ,"तुम्हारी तबियत हमारी परम्पराओं से बढ़ कर नहीं है ।"

अन्विता ,"माँ समय के अनुसार परम्पराओं को भी बदला जाता है । मुझे किसी श्रृंगार अथवा परम्परा का पालन करने में ऐतराज नहीं ,पर सिर्फ उनका ही विरोध करती हूँ जो व्यवहारिक हो और दिक्कत का कारण होती हैं। मेरे पैरों की उंगलियों में चोट लगी है जो बिछुये से दब कर और भी बढ़ती जा रही है । वैसे भी अगर परम्पराओं को समयानुसार न बदलते और सती प्रथा जैसी कुप्रथा को न बदलते तब पापा की मृत्यु के बाद आपको भी सती होना पड़ता ,जबकि आप तो तमाम परम्पराओं का बखूबी पालन करती थीं बस  इसीलिए ... "   
                                ... निवेदिता

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

पहाड़ भी मरते हैं ....

*पहाड़ भी मरते हैं*

आप गए तब सोचती रह गयी
एक चट्टान ही तो दरकी रिश्तों की
अब देखती हूँ
वो सिर्फ एक चट्टान नहीं थी
वो तो एक सिलसिला सा बन गया
दरकती ढहती चट्टानों का
आप का होना नहीं था
सिर्फ एक दृढ़ चट्टान का होना
आप तो थे एक मेड़ की तरह
बाँधे रखा था छोटी बड़ी चट्टानों को
नहीं ये भी नहीं ....
आप का होना था
एक बाँध सरीखा
आड़ी तिरछी शांत चंचल फुहारों को
समेट कर दिशा दे दशा निर्धारित करते
उर्जवित करते निष्प्राण विचारों को
एक चट्टान के हटते ही
बिखर गया दुष्कर पहाड़
मैं बस यही कहती रह गयी
सच मैं देखती रह गयी
पहाड़ को भी यूँ टूक टूक मरते ... निवेदिता

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

चन्द हाइकू

मन बावरा
बन बन भटका
मन भर का ...

रूखे बेरुखी
मन ही मन भावे
ये मेरा मन ...

प्रीत है सच्ची
फिर भी मन रूठे
जग न छूटे

नाराज़ नहीं
जीवन जी रही हूँ
नासमझ हूँ ... निवेदिता

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

लघुकथा : अस्तित्व की पहचान

लघुकथा : अस्तित्व की पहचान

अन्विता अर्चिका को देखते ही स्तब्ध रह गयी ,"अरे ... ये तुझे क्या हुआ ... कैसी शकल बना रखी है ..."

अन्विता जैसे अपनी सखी के मन में विराजमान शून्य तक पहुँच गयी हो ,उसको साहस देते हाथों से थाम लिया ,"जानती है अर्चिका असफलता या अस्तित्व को नकारे जाने से निराश होकर जीवन से हार मान लेने से किसी समस्या का समाधान नहीं मिल सकता । तुम्हारी ये स्थिति किस वजह से है ये मैं नहीं पूछूँगी सिर्फ इतना ही कहूँगी कि तुम्हारा होना किसी की स्वीकृति का मोहताज नहीं है । हो सकता है कि तुमको लग रहा होगा कि इतनी बड़ी दुनिया में तुम्हारा अस्तित्व ही क्या है । सच्चाई तो ये है कि हर व्यक्ति की कुछ विशिष्ट पहचान न होते है भी विशिष्ट अस्तित्व होता है । तुम पूरी दुनिया तो नहीं बन सकती पर ये भी सच है कि तुम्हारे बिना ये दुनिया भी अधूरी रहेगी । लहरों में उफान सिर्फ एक बूँद पानी से नहीं आ सकता पर उस जैसी कई नन्ही बूँदों का सम्मिलित आवेग ही तो तूफानी हो जाता है । अपनेआप को और अपनी महत्ता सबसे पहले खुद के लिये पहचानो ,फिर देखो तुममे कमी निकालनेवाले स्वर ही तुम्हारी वंदना करते हुए अनुगमन करेंगे ।"

खिड़की से झाँकते इंद्रधनुषी रंगों की चमक जैसे अर्चिका की आँखों में सज गयी !  ... निवेदिता

बुधवार, 3 अप्रैल 2019

पापा आप बहुत याद आये ....






शीर्षक : पापा आप बहुत याद आये

डगमगाते दृढ़ मना कदमों को
अनायस ही सप्रयास  बढ़ते देखा
आँखों से छलके आँसू
दिल ने भरी सिसकी
पापा आप बहुत याद आये

दरख़्त देखा जब बरगद का
आंधी में टूटी थी डाली
मौसम है फागुनी हवाओं का
चली धूल भरी आंधी
पापा आप बहुत याद आये

थामे थे कुछ जिन्दा लम्हे यादों ने
हाथों में भरी जब मिठास
नाम और रिश्तों की अजब ये दुनिया
छूटे कुछ बेजान से धागे
पापा आप बहुत याद आये

प्राणहीन शरीर नहीं डूबा करता
डूबा अक्सर ये गीला मन
जाते देखा जनाजा बुजुर्ग का
मन छनका काँच सा
पापा आप बहुत याद आये
                  .... निवेदिता

मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

लघुकथा : दूसरा अवसर

 लघुकथा : दूसरा अवसर

अन्विता ,"माँ ये सब समान फेंक दूँ क्या ... सारा खराब और टूटा फूटा है ... "

माँ ,"नहीं बेटा सब ठीक हो जायेगा ... ये इस चप्पल में दूसरा बंध डलवा देंगे ,तब घर मे पहनने के काम आ जायेगी । पैन का हैंडल ही तो टूटा है ,कपड़े से पकड़ कर  काम आएगा । अरे ये साड़ी तो मेरी माँ ने दी थी फट गई तो क्या हुआ ,उससे कुछ और बना लेंगे । अन्विता बेटा गृहस्थी सब समझ कर चलानी पड़ती है ,ऐसे ही कुछ भी फेंका नहीं जाता ।"

अन्विता ,"माँ यही तो मैं भी कहना चाहती हूँ ... भइया का शरीर शांत हुआ और भाभी को जीते जी ही मरना पड़ रहा है । जब इन निर्जीव वस्तुओं को फिर से उपयोगी बना सकती हैं आप ,तब जीती जागती भाभी को जीवन जीने का दूसरा अवसर क्यों नहीं मिल रहा ? माँ आप भाभी की शिक्षा पूरी करवाइए और उनकी पसंद का रंग उनके जीवन में फिर से भर दीजिये ।"
                                ..... निवेदिता

गुरुवार, 21 मार्च 2019

रंग तो प्रिय ....

नीला -काला -बैगनी,
रंग न ये तुम लगाना ,
ये तो सारे अंधियारा लाते !
लाल-गुलाबी-हरा औ पीला
ये ही सब मनभाते हैं
सबके  शगुन बन
खुशियाँ फैला जाते हैं
लाल चुनरिया ,
गुलाबी गात
हरी है चूड़ी,
पीला रंग शगुन 
बन लहरा जाता
रंग तो प्रिय वही लगाना
तुम देखो ,मैं समझूं
मैं निरखूं तुम परखो
रंग तो प्रिय ........
             -निवेदिता-

रविवार, 17 मार्च 2019

झण्डे को तो एक सा रहने दो .....

चुनाव का माहौल जब छाया
नेता जी पर देशभक्ति का जोश छाया
सोचा चलो हम भी कुछ नया करते हैं
दुकानदार से पूछा
भैया देश का झण्डा रखते हो
दुकानदार बोला ...
हाँ नेता जी
सिर्फ रखते ही नहीं बेचते भी हैं
बोलो क्या तुम खरीदोगे
नेता जी थोड़ा सकपकाए
थे तो नेता ही ,झट से मुस्काये
अरे तुम बेचोगे तो क्यों न खरीदेंगे
झण्डा बनाने वाले से लेकर
बेचनेवाले तक सबको
रोजगार मुहैय्या करवाएंगे
दिखाओ तो तुमने कैसा झण्डा है रखा
तिरंगा बोल कर पाँच रंगोंवाला झण्डा ही रखा
अरे जरा इसमें कुछ और रंग तो दिखाओ
दुकानदार जरा न सकुचाया
बोला ....
नेताजी बाकी रंग तो चुनाव में आप बदलोगे
झण्डे को तो एक सा रहने दो .... निवेदिता

बुधवार, 6 मार्च 2019

ध्वज

लघुकथा : ध्वज

अन्विता ,"दादी माँ ये बताओ न हमने अपने ध्वज में रंगों को इसी क्रम में क्यों रखा है ? अगर हम सफेद रंग ऊपर कर दें फिर हरा और उसके बाद केसरिया ,तब क्या होता 🤔! "

दादी माँ ,"बेटे ध्वज में रंग प्रकृति के विभिन्न अंश के प्रतिरूप हैं । हरा रंग धरा की उर्वरता का प्रतीक है ,तो केसरिया रंग उगते सूर्य की किरणों का । सफेद रंग बीच में रखने का उद्देश्य ही यही है कि सूर्य की किरणों के  तीखेपन और उर्वरा धरा की कोमलता को संतुलित रखे । मध्य में स्थित चक्र निरन्तर गतिशील जीवन और उन्नति को दर्शाता है । अब बताओ ध्वज को देखते ही हमको क्या कहना चाहिये .... "

नन्ही सी अन्विता ने तुरंत ही जयघोष किया ," जय हिन्द ..... !!! "
                                                                  -- निवेदिता

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

लघुकथा : मुआवजा

लघुकथा : मुआवजा
"काकी एक मिनट के लिये बाहर आ जाओ न । देखो ये सब अधिकारी तुमसे मिलने के लिये कब से बैठे हैं । अब तो देखो न मंत्री जी भी आ गये हैं । " अन्विता पड़ोसन काकी को बुलाने बाहर तक आ गयी थी । वो सोच रही थी कि शून्य में खोई काकी कुछ तो बोलें । उस मनहूस पल में फोन ने बोल कर जैसे काकी के सारे शब्दों को छीन लिया था ।
सब कमरे में झाँक कर तरह तरह के प्रयास कर रहे थे उनकी स्तब्धता भंग करने की । अचानक ही मंत्री जी की आवाज आई ,"आप सब परेशान न हों । इनको मुआवजा भी मिलेगा और मैं स्वयं सपरिवार इनके पालन पोषण की जिम्मेदारी लेता हूँ ।"
काकी झपट कर बाहर आ गईं ,"आप या कोई भी क्या मुआवजा देगा किसीको भी । हमारे ही पैसे जो हमने टैक्स में जमा किये हैं वही तो देंगे । कौन सा आप अपनी जेब से दे रहे हैं जो इतने बड़बोले हो रहे हैं । हम सैन्य परिवार हैं जो सम्मान को परिभाषित करते हैं । अगर कुछ कर सकते हैं तो बस यही कर दीजिये कि जब हम आतंकवादियों को पकड़ें तब उनको छोड़ने को विवश मत कीजिये । पत्थरबाजों को पकड़ने के हमारे प्रयास पर हम पर कोर्ट केस न हों । निर्णय लेने में इतनी शिथिलता भी न दिखाइये कि हम बिना युद्ध किये ही भितरघात में विदा हो जाएं । अरे जनाब हमारा चयन और ट्रेनिंग युद्ध के लिए होती है न कि इस प्रकार मरने के लिये । "
.... निवेदिता

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

उम्मीद की गंगा ...

सखी सुनो न ,एक बात बतानी है
बात में न तो राजा है न रानी है

ये जो घुटनों पर रख हाथ उठती है
बहती इनमें भी स्फूर्ति की रवानी है

बन्द धड़कन की,ओढ़ ध्वज रवानी है
आँखों में कैद लहू है ,न समझ पानी है

आँखों की चमक चेहरे की चांदनी है
हर तरफ अब उम्मीद की गंगा बहानी है .... निवेदिता

बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

नमन .... 🙏🌹🌹🌹🌹

धरा को चूमा ,दिलों में बस गए
साँसें थम गयीं ,यादों में बस गए

दिल के इंद्रधनुष ,आसमान में रच गए
तिरंगे के रंग में ,लहू अपना रच गए

पिता के सहारे ,बच्चों की याद बन गए
माँ की आस थे ,देश का विश्वास बन गए

चूड़ी की खनक से ,पायल झनका गए
माँग से सिंदूर उड़ा ,चाँद में चमक गए

यात्रा शेष थी ,तुम अनन्त को चले गए
जयचन्द की करनी ,तुम यूँ भुगत गए .... निवेदिता

रविवार, 17 फ़रवरी 2019

लघुकथा : ध्वज / तिरंगा



अन्विता ," माँ हम सैनिकों के ऊपर हम अपने राष्ट्रीय ध्वज को क्यों ओढ़ाते हैं । ऐसे तो ध्वज सबका हाथ लग कर गन्दा हो जाएगा । और आप तो कहती हैं कि ध्वज को हमेशा ऊँचा रखना चाहिये ,ऐसे तो वो नीचा हो गया न ।"

 माँ ,"नहीं बेटा सैनिकों को ओढ़ाने से ध्वज गन्दा नहीं होता ,बल्कि उसकी चमक और सैनिकों की शान दोनों ही बढ़ जाती है । हमारा ध्वज सैनिकों का मनोबल ,उनके जीवन का उद्देश्य होता है । जब तक वो जीवित रहते हैं ऊँचाई पर लहराते ध्वज को और भी समुन्नत ऊँचाई पर ले जाने को प्रयासरत रहते हैं । परंतु जब उनका शरीर शांत होता है तब यही ध्वज माँ के आंचल सा उनको अपने में समेट कर दुलारता है । "  ..... निवेदिता

शनिवार, 16 फ़रवरी 2019

नमन वीरों ....

सिसकी धरा
अनवरत बरसा
कुंठित मन

ध्वज थामे थे
उन्नत हो मस्तक
वीरों नमन

लहू बरसा
साँसे थम गयीं थी
हम तो चले

गर्वित मन
अनगिनत मेडल
विक्षत तन

हरी वसुधा
शोणित है लाल
शर्मिंदा हम ..... निवेदिता

शनिवार, 26 जनवरी 2019

तिरंगे का पाँचवां रंग

तिरंगे का पाँचवां रंग
आँखों से बहते हुए आँसुओं ने जैसे उसके दिल में बसेरा कर लिया हो । अभी विज्ञापन देखा था जिसमें बच्चे ने शहीद हुए फौजी के रक्त को झंडे के पाँचवे रंग के रूप में गिनाया था ।
सच जब तक फौजी साँसें भरता है पराक्रम करता है तिरंगे की आन को बनाये रखता है ... पर जब उसकी साँसें थमती हैं तो जैसे उस झंडे में ही समाहित हो एक अनोखा सा रंग बन उभरता है । इस रंग के उभरने से राष्ट्र की चमक तो नहीं फीकी पड़ती पर उस फौजी के परिवार का क्या कहें ... कुछ समय बाद सब उसको भूल जाते हैं । कभी कुछ अनुकम्पा राशि या किसी दुकान की एजेंसी दे देते हैं ।उसके बाद .... उसके बाद कुछ खास नहीं बस 15 अगस्त या 26 जनवरी पर यादकर लेते हैं और कुछ फूल या माला अर्पित कर कर्तव्यमुक्त हो जाते हैं ।
पर क्या इतना ही पर्याप्त है एक फौजी के लिए कि वो निश्चिन्तमना हो अपने परिवार अथवा आश्रितों को भूल ,अपनी साँसें अपना जीवन वार दे राष्ट्र के नाम ....
क्या ये हमसब का कर्तव्य नहीं है कि उन के नाम सिर्फ सड़क ,पार्क अथवा मूर्ति ही न लगा कर कुछ सार्थक भी करें । जिन राजनेताओं की कोई कोई विशेष योग्यता - शौक्षणिक अथवा शारीरिक / सामाजिक - नहीं होती उनके लिये भी अच्छाखासा वेतनमान और अन्य सुविधाएं दी जाती हैं ।हम आम जन भी वेतन भत्ते के साथ ही कुछ न कुछ सुविधाओं का उपभोग करते हैं । जिन वीर फौजियों के लिये के बल पर हम स्वतंत्र साँसें भरते हैं ,उनके लिए कोई विशिष्ट प्रावधान क्यों नहीं करते ।
मुझे लगता है कि हमको उन जांबाजों का मनोबल बनने के लिये उनके परिवार के लिये नींव सदृश होना चाहिए ।उनके लिये आर्थिक ,सामाजिक हर स्तर पर अतिविशिष्ट दर्जा देना चाहिए ।
तब ही हम तिरंगे के पाँचवें रंग का सम्मान करते हुए उसको गर्व से फहराने योग्य हो पाएंगे । अगर ऐसा नहीं कर सकते हैं तो आइये एक रस्म की तरह बोल लेते हैं ..... जय हिंद !!!
                                                           .... निवेदिता

बुधवार, 23 जनवरी 2019

जो तुम चाहो ....

देनेवाला ऊपर बैठा
निहारता वारता
बहुत कुछ
देता ही रहता
तब भी बहुत कुछ
कसकता अनपाया सा
रह जाता
आज सोचती हूँ
माँग ही लूँ
शायद कहीं
लिखनेवाले ने
लिखा हो
जो तुम चाहो ... निवेदिता

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

लघुकथा : रंगो की त्रिवेणी

#लघुकथा

रंगों की त्रिवेणी

सुबह से ही बरसती फुहार में चहलकदमी कर रही थी कि अनायास ही लगा सामने से रंगों की क्यारी सी उमग आयी है । ये रंग भी न अपने मे ही मगन हवा के झोंको से लहराते कभी इस सूत पर तो कभी उस सूत पर बरस उसको अपने ही रंग से सराबोर कर देते । सूत भी कहाँ रुकनेवाले थे कभी किसी के साथ तो कभी अकेले ही विभिन्न रूप भर लेते थे ।

अचानक इस खिलखिलाते इन्द्रधनुष पर जैसे अमावस की कालिमा घेरने लगी । चांदनी से धवल रंग ने इसका कारण जानना चाहा तो उन रंगों की त्रिवेणी ने भारी सी साँस भरी ... "इन रंगों से सज कर मैं तिरंगा बन आसमान में कितनी शान से लहराता हूँ । सबसे श्रद्धासुमन और सैल्यूट मिलने पर झूम उठता हूँ ... पर जानते हो जिनके शौर्य से मैं इतनी ऊँचाई पर लहराता हूँ ,उन वीरों के निस्पंद लहू से नहाये शरीर पर जब मुझको चढ़ाया जाता है ,बस उस एक लम्हे को ही याद कर मैं धूमिल हो रहा हूँ । कभी गलत राजनीतिक नीतियाँ तो कभी तथाकथित महिमामण्डित वैश्विक परिदृश्य इन जोशीलों को निस्पंद कर देता है .... और पलक झपकते ही मैं आन बान शान का प्रतीक एक कफ़न बन उन पर बिछ जाता हूँ और माँ की दम तोड़ती सिसकी सा भारी हो जाता हूँ ।"
                        -- निवेदिता

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

लघुकथा :पतंग और डोर

लघुकथा

पतंग और डोर

इधर से उधर ,मानों पूरे फर्श को रौंदते से अनिकेत बड़बड़ाये ही जा रहे हैं ," पता नहीं क्या समझती हो खुद को । हो क्या तुम कुछ भी तो नहीं है तुममें । हुंह एक हाउसवाइफ हो दिन भर आराम से पसरी रहती हो । अरे जब कोई मेरे बारे में कुछ उल्टा पुल्टा बोलता है तब अलग खड़ी रहती हो चुप लगाकर ,जैसे तुम मेरी कुछ हो ही नहीं । "

अन्विता ने बड़ी ही सहजता से नजरें मिलाते हुए कहा ,"ये जो तुम कह रहे हो न कि मैं तुम्हारी कोई नहीं ,तो इसको ही सच मान लो तुम ... शायद तब तुम चैन से रह पाओगे ,पर जानते हो ये जिसको तुम कोई नहीं कहते रहते हो न वो पतंग की उस डोर की तरह है जो पतंग को उसके कर्तव्य पथ से भटकने नहीं देती । दूर आसमान की ऊँचाइयों पर रंगबिरंगी पतंग ही दिखती है ,डोर तो तब दिखाई देती है जब पतंग कट कर हवा के थपेड़ों से लड़खड़ा कर नीचे आने लगती है । उस वक्त न तो चरखी दिखती है न ही उस पतंग को उड़ानेवाला व्यक्ति कहीं आसपास होता है । "

जैसे एक साँस भरती सी वो फिर बोल उठी ," हाँ मै अस्तित्वहीन सी लगती हूँ ,पर जानते हो पतंग आसमान में ऊँचाइयों पर हो या कट कर नीचे पड़ी हो ,पानी की एक बूँद भी उसको गला कर नष्ट कर देती है ,पर डोर तो मिट्टी में दबने के बाद भी निकल कर अपना आकार ले ही लेती है । हाँ उसको मनोबल तोड़नेवाली बातों के द्वारा काटा तो जा सकता है ,पर अब डोर ने अपनेआपको काँच लगा मांझा बनाना सीख लिया है ।"
                     .... निवेदिता

गुरुवार, 10 जनवरी 2019

लघुकथा : समस्या समाधान

लघुकथा : समस्या समाधान

छुटकू को गोद में दुबकायी कब से दुलरा रही थी ,पर पता नहीं किस बात से डरा अबोध मन सहज नहीं हो पा रहा था । अंत मे ये सोचकर कि कभी कभी अनदेखा करना भी समाधान ढूंढ लाता है ,मैं अपने काम समेटने लगी ... पर ये देख कि उसके हाथों से मेरा पल्लू छूट ही नहीं रहा था ,मैं काम करते करते उसको कहानियाँ सुनाने लगी ।

अचानक से वो चौंक कर बोला ,"माँ मुश्किलें बिल्ली ऐसे रास्ता रोके खड़ीं हो तो कैसे भगा सकते 🤔"

समस्या का कारण अब मैं समझ गयी थी 😊

मैंने उसको दुबारा से गोद में समेट लिया ,"बेटा हर समस्या का समाधान उस समस्या में ही छुपा रहता है ,हमको जरूरत सिर्फ उसको समझने और समाधान मिलने के अवसर पर ध्यान देने की है । अब जैसे बिजली चली जाने पर अचानक से अंधेरा हो जाता है न तब हमारे पास सिर्फ दो रास्ते रहते हैं ... पहला चुप बैठ कर डरते और गुस्सा कर बड़बड़ाते समय नष्ट कर देने का ,दूसरा थोड़ा सा समय खुद को देकर जब आँखें अंधेरे की थोड़ी अभ्यस्त हो जायें तब मोमबत्ती जला कर अंधेरा दूर करने का ।"

उससे बातें करते मैं छत की तरफ आ गयी थी ,"देखो जरा सा अपने को संतुलित कर लिया जाये न तो रास्ता रोकने वाली इस बिल्ली की तरह समस्याएं भी प्रतिरोध से थक जाती हैं फिर रास्ता छोड़ चली जाती हैं या फिर ऊब कर सोने लगती हैं और हम उस बगल के रास्ते से निकल सकते हैं ।"
              ..... निवेदिता