शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

लघुकथा : कटोरा संवेदनाओं का

 लघुकथा : कटोरा संवेदनाओं का


पता चला कि स्वघोषित प्रतिष्ठित लेखिका आई. सी. यू. में भर्ती हैं और उनकी मिजाजपुर्सी के लिए लोग सिर्फ़ जा ही नहीं रहे अपितु आई. सी. यू. के अंदर जा कर मिल भी रहे हैं और जो नहीं आ पाए हैं उनको लेखिका की इच्छानुसार वीडियो कॉल कर के बताया और दिखाया जा रहा है।

ऐसी ही वीडियो कॉल से मुझको भी बताया गया तब आज मैं भी पहुँची मिजाजपुर्सी के लिए। गेट पर ही शशिकांत चंद्र जी मिल गए, जो उन लेखिका के बताये अनुसार उनके घनघोर वाले आशिक़ हैं और उनके पीछे अपना परिवार तो क्या प्राण भी त्याग सकते हैं। दुआ सलाम के बाद मैंने पूछ ही लिया, "कब आये बंधु ... मिल चुके कि नहीं अभी?"

"नहीं मिला तो नहीं हूँ अभी तक क्योंकि वहाँ उनके पति और बच्चे हैं जिनके सामने मिलने की मनाही है मुझे। पर हाँ! संवेदनाओं का कटोरा पहुँचवा दिया है यह कहलाते हुए कि तीन दिनों से इसी चाय की टपरी पर बैठा हूँ। उनके डिस्चार्ज होने के बाद ही घर जाऊँगा", वह एक पल को ठिठका और मैं जैसे आसमान से धरातल पर गिर गयी।

मुझे यूँ हतप्रभ देख वह तिरछी मुस्कान बिखेरता बोला,"आप उनको स्वयं सा मत समझिये। आप को असली संवेदना समझ आती है और उनको तो बताने में मसालेदार लगने वाली संवेदना भाती है। कल परसों की तो व्यवस्था हो गयी थी, बस आज का यह कटोरा आप पहुँचा देना ", और वह लापरवाह सा वापस जाने को स्कूटर स्टार्ट करने लगा।
निवेदिता 'निवी'
लखनऊ 

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

हरसिंगार



सुनो साथी !

फूल लाने जा रहे हो न 

हतप्रभ मत होना   

पर सुन जरूर लेना

फूल गुलाब के नहीं 

सिर्फ हरसिंगार के ही लाना 

और चुन - चुन कर लाना ! 


हाँ ! बहुत पसन्द है मुझे 

रंग बिरंगे फूल गुलाब के

उस की हर पत्ती में

दम भरती ,झाँकती

सपनीली सुगन्ध

कोमल एहसासों जैसे उसके रंग

पर तुम लाना हरसिंगार

हतप्रभ मत हो जाओ

पूछ ही लो कारण !


जानना चाहते हो कारण

इस बदलती पसन्द का

तो सुनो साथी !

ये जो काँटे हैं न गुलाब के 

चुभन दे सकते हैं 

तुम्हारी इन नम्र नाजुक

सहलाती दुलराती हथेलियों को ।


और भी एक कारण है

बदलती चाहत का 

पास आओ तो बताऊँ 

हरसिंगार लाने को 

जब चुनोगे एक - एक फूल को 

हर उठाते फूल में 

याद करोगे मुझको 

और समझ भी लोगे कि 

फूल उठाने और चुनने दोनों के लिये ही 

झुकना ही पड़ता है 

और तुम सीख लोगे झुकना ! 

#निवेदिता_निवी 

#लखनऊ

सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

श्रुतिकीर्ति

 श्रुतिकीर्ति


अहा! इन्ही खुशियों भरे पलों की प्रतीक्षा थी हम सब को ... हमारी अयोध्या के प्रत्येक कण को। दिल करता है इन पलों के प्रत्येक अंश को जी भर देखने, संजो लेने का परन्तु इस को कर पाने में मेरी ये दो आँखें असमर्थ हो रही हैं, तो बस पूरे शरीर को आँखें बना लूँ!


भैया राम का राजतिलक, साथ में सीता दीदी अपने तीनों देवरों के साथ ... कितना मनोहर है ये सब। 

अरे ये उधर से कैसी फुसफुसाहट आ रही है ... रुको सुनूँ तो क्या बात है! राज परिवार का अर्थ सिर्फ राजसी शान का उपभोग ही नहीं है, अपितु सबका मन जानना भी है। प्रत्येक पल सजग रहना और जानना होता है सबके मन को ... और पता है इस तरह की फुसफुसाहट बिना बोले ही बहुत कुछ बता देती है।


इन सबकी बातों में मेरा और शत्रुघ्न का नाम बार बार आ रहा है ... ऐसा क्या हो सकता है! अब तो उत्सुकता और भी बढ़ गयी है ... क्योंकि ये दो नाम तो कभी इस तरह बोले ही नहीं जाते।


उफ्फ्फ .... क्या क्या सोचते हैं लोग ... पर मैं क्या करूँ ... इन बातों को सुनकर मेरी तो हँसी ही नहीं थम रही ... 


असल में उनकी चर्चा का विषय थी मेरी उपेक्षित स्थिति। देखा जाए तो गलत वो भी नहीं थे। सीता दीदी भैया राम के साथ वन गमन करके पूज्य हो गयी थी। मांडवी दीदी भरत भैया के अयोध्या में रहकर ही सन्यासी जीवन मे साथ दे प्रशंसनीय थीं। उर्मिला दीदी भी कर्मवीर का मान पा रही थीं कि लक्ष्मण भैया वन में राम भैया के साथ हैं तो वो यहाँ राजमहल में लक्ष्मण भैया के कर्मठ रूप की प्रतिमूर्ति बन गयी थी। अब बाकी बची मैं जिसकी कहीं भी चर्चा अथवा उल्लेख ही नहीं होता ! 


यद्यपि शत्रुघ्न और मुझे दोनों को ही पर्याप्त स्नेह और मान दोनों ही प्राप्य था, तथापि आमजन यही समझता कि हमें उपेक्षित किया जा रहा है ! 


किसी भी परिवार में, चाहे वो आम व्यक्ति का हो अथवा विशिष्ट का, एक सी तुला में हर किसी को कभी नहीं नापा जा सकता और चाहिये भी नहीं। हर व्यक्ति की अपनी प्रकृतिजन्य विशिष्टता होती है। किसी को परिवार में दरकती दरारें और उन दरारों को पूरित करने की आवश्यकता दिख जाती है तो किसी में सबके सामने आकर दायित्वों और उसके किसी भी तरह के परिणाम की जिम्मेदारी लेने की सजगता रहती है।


ऐसा तो सम्भव ही नहीं कि एक ही व्यक्ति प्रत्येक स्थान पर स्वयं ही पहुँच कर समाधान कर सके। परिवार नाम की संस्था का औचित्य ही यही है कि सब सहअस्तित्व के भाव से अपना योगदान दें।


यह सर्वभौम सत्य है कि राजा तो ज्येष्ठ पुत्र ही हो सकता है। इसका कारण मात्र अंधानुकरण नहीं अपितु तार्किक है। सिंहासीन अनुज के समक्ष यदि ज्येष्ठ आज्ञापालन के भाव से खड़ा होगा तब अनुज को भी विचित्र परिस्थिति में डाल देगा। सलाह तो बड़ा हो या छोटा ,कोई भी दे सकता है परन्तु आदेश देते तो बड़े ही शोभा देते हैं। 


हमारे परिवार में कार्य विभाजन ही हुआ था ... इस तरह से भैया राम और सीता दीदी ने सबसे दुष्कर कार्य अपने लिये चुना था, बहाना जरूर माता कैकेयी बनी परन्तु भैया राम के मर्यादा पुरुषोत्तम बनने में माता का अपने वरदानों को कार्य रूप में परिणित करना था। सुदूर वन्य प्रदेश के संभावित शत्रुओं का समूल नाश करके भैया ने अयोध्या को एक नई गरिमा दी। 


यदि हम ये सोचें कि प्रत्येक व्यक्ति का नाम होना चाहिये तब हमारी सेना के प्रत्येक सैनिक का नाम सबसे पहले होना चाहिये ... परन्तु क्या यह सम्भव है? जब सेना नष्ट हो जाती है तब राजा अकेले युद्ध पर नहीं जाता ,वह सबसे पहले अपना सैन्यबल बढ़ाता है तब युद्ध करता है।


मांडवी दीदी हों अथवा उर्मिला दीदी या फिर स्वयं मैं ... हम सब कहीं भी उपेक्षित नहीं हुए। हमने तो अपने दायित्वों का निर्वहन किया और परिवार के लिये नींव का कार्य किया। 

सबसे बड़ा और मूल प्रश्न यदि हम उपेक्षित होते तब क्या कोई भी हमारा नाम तक जान सकता?


प्रत्येक बिंदु के मिलने से ही किसी भी आकृति का निर्माण होता है। इस तथ्य को सबको समझना और समझाना पड़ेगा अन्यथा वनवास पर भेजे जाने की प्रक्रिया सतत चलती ही रहेगी और परिवार छोटे छोटे टुकड़ों में बँट कर नष्ट हो जाएगा।

निवेदिता 'निवी'

लखनऊ

शनिवार, 12 अक्तूबर 2024

विजयदशमी

प्राचीन काल से ही हमारी भारतीय संस्कृति स्त्रियों को प्राथमिकता देने की रही है। मेरी इस पंक्ति का विरोध मत सोचने लगिये। मैं भी मानती हूँ कि आज के परिवेश में स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। तब भी एक पल का धैर्य धारण कीजिये । 

पहले नौ दिनों तक देवी माँ के विभिन्न रूपों की आराधना की हमने। नवमी के दिन हवन और कन्या पूजन के पश्चात हम  तुरन्त ही आ गये पर्व दशहरा को उत्सवित करने की तैयारियों में व्यस्त होने लगते हैं। स्त्री रूप देवी की आराधना करने के बाद, एक और स्त्री 'सीता'  को समाज मे गरिमा देने का पर्व है दशहरा। 


दशहरा पर राम द्वारा रावण के वध का विभिन्न स्थानों की रामलीला में मंचन किया जाता है। सीता हरण के बाद रावण से उनको मुक्त कर के समाज में स्त्री की गरिमा को बनाये रखने और अन्य राज्यों में रघुवंश के सामर्थ्य को स्थापित करने के लिये ही राम ने रावण का वध किया था।


 दशहरा मनाने के पीछे की मूल धारणा, एक तरह से बुराई पर अच्छाई की विजय को प्रस्थापित करना ही है, परन्तु क्या हर वर्ष रामलीला के मंचन में मात्र रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले जला देने से ही बुराई पर अच्छाई की जीत हो जाएगी, वह भी अनन्त काल के लिये? सोच कर खुश होने में कोई नुकसान तो नहीं है, परन्तु सत्य का सामना तो करना ही पड़ेगा। जिन बुराइयों अथवा कुरीतियों को हम समाप्त समझने लगते हैं, वो ही अपना रुप बदल कर एक नये कलेवर में आ कर फिर हमारी साँसों में चुभने लगती है।


दशहरा पर्व को 'विजयदशमी' भी कहते हैं। कभी सोच कर देखिये ये नाम क्यों दिया गया अथवा राम ने दशमी के दिन ही रावण का वध क्यों किया? राम तो ईश्वर के अवतार थे। वो तो किसी भी पल, यहाँ तक कि सीता हरण के समय ही, रावण का वध कर सकते थे, अपितु यह भी कह सकते हैं कि सीता - हरण की परिस्थिति आने ही नहीं देते। 


धार्मिक सोच से अलग हो कर सिर्फ एक नेतृ अथवा समाज सुधारक की दृष्टि से इस पूरे प्रकरण में राम की विचारधारा को देखिये, तब उनके एक नये ही रूप का पता चलता है।

तत्कालीन परिस्थितियाँ शक्तिशाली के निरंतर शक्तिशाली होने और दमित - शोषित वर्ग के और भी शोषित होने के ही अवसर दिखा रही थीं। शक्ति सत्तासम्पन्न राज्य अपनी श्री वृद्धि के लिये अन्य राज्यों पर आक्रमण करते रहते थे और परास्त होने वाले राज्य को आर्थिक, सामाजिक, मानसिक हर प्रकार से प्रताणित करते रहते थे। राम ने वनवास काल में इस शोषित वर्ग में एक आत्म चेतना जगाने का काम किया।


सोई हुई आत्मा को मर्मान्तक नींद से जगाने के लिये भी राम को इतना समय नहीं लगना था। परन्तु इस राममयी सोच का वंदन करने को दिल चाहता है। उन्होंने सिर्फ आँखे ही नहीं खोली अपितु पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेंद्रियों को जाग्रत करने का काम किया। कर्मेन्द्रियों के कार्य को समझ सकने के लिये ही ज्ञानेंद्रियों की आवश्यकता होती है। जिन पाँच तत्वों से शरीर बनता है वो हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं गगन। इन पाँचों तत्वों का अनुभव करने के लिये ही कर्मेन्द्रियों की रचना हुई। पृथ्वी तत्व का विषय है गन्ध, उसका अनुभव करने के लिये नाक की व्युत्पत्ति हुई। जल तत्व के विषय रस का अनुभव जिव्हा से करते हैं। अग्नि तत्व के रूप को देखने के लिये आँख की व्युत्पत्ति हुई। वायु का तत्व स्पर्श है और उस स्पर्श का अनुभव बिना त्वचा के हो ही नहीं सकता है। आकाश का तत्व शब्द है, जिसको सुन पाने के लिये कान की व्युत्पत्ति हुई। जब पाँचों कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ जागृत हो जायेंगी, तब जीव का मूलाधार आत्मा स्वतः ही जागृत हो जायेगी।


विजयादशमी का अर्थ ही है कि दसों इंद्रियों पर विजय पाई जाये। इनके जागृत होने का अर्थ ही है कि व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति, अपने प्रति सचेत रहे। सचेत व्यक्ति गलत अथवा सही में अंतर को भी समझने लगता है। यह समझ, यह चेतना ही न्याय अन्याय में अंतर कर के स्वयं को न्याय का पक्षधर बना देती है। इस प्रकार न्याय के पक्ष में बढ़ता मनोबल, क्रमिक रूप से अन्याय का नाश कर देता है। 


एक वायदा अपनेआप से अवश्य करना चाहिए कि विजयादशमी / दशहरा पर्व मनाने के लिये सिर्फ रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले ही न जलायें, अपितु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का आपसी तालमेल सटीक रूप में साधें जिससे चेतना सदैव जागृत रहे। जीवन और समाज मे व्याप्त बुराई को जला कर नहीं, अपितु अकेला कर के समूल रूप से नष्ट करें। 

इस प्रकार की बुराई की पराजय का पर्व सबको शुभ हो !!! 

निवेदिता 'निवी'

लखनऊ

रविवार, 6 अक्तूबर 2024

कन्या पूजन

 हम सब ही उत्सवधर्मी मानसिकता के हैं। कभी परम्पराओं के नाम पर तो कभी सामाजिकता के नाम पर कोई न कोई बहाना निकाल ही लेते हैं, नन्हे से नन्हे लम्हे को भी उत्सवित करने के लिये। ये लम्हे विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक करने का भी काम कर जाते हैं, तो  कभी-कभी खटास मिला कर क्षीर को भी नष्ट कर जाते हैं। खटास की बात फिर कभी, आज तो सिर्फ उत्सवित होते उत्सव की बात करती हूँ।

आजकल नवरात्रि पर्व में माँ के विभिन्न रूपों की पूजा - अर्चना की जा रही है। अब तो पण्डाल में भी विविधरूपा माँ  विराजमान हो गयीं हैं। घरों में भी कलश स्थापना और दुर्गा सप्तशती के पाठ की धूम है, तो मंदिरों में भी ढोलक - मंजीरे की जुगलबंदी में माँ की भेटें गायी जा रही हैं। कपूर ,अगरु ,धूप ,दीप से उठती धूम्र - रेखा अलग सा ही सात्विक वातावरण बना देती हैं।
कल भी ऐसे ही एक कीर्तन में गयी थी । जाते समय तो मन बहुत उत्साहित था, परन्तु वापसी में मन उससे कहीं अधिक खिन्न हो गया। माँ की आरती के पहले प्रांगण में कन्या - पूजन की धूम शुरू हो गयी । छोटी - छोटी सजी हुई कन्याएं बहुत प्यारी लग रही थीं। उनकी अठखेलियाँ देख लग रहा था कि मासूम सी गौरैया का झुण्ड कलरव करता सर्वत्र फुदक रहा हो।
उन बच्चियों को जब कन्या - पूजन के लिये ले जाया जा रहा था, तभी घरों में सहायिका का काम करनेवालियों की भी कुछ बच्चियाँ प्रसाद लेने आ गयीं। अचानक से ही इतनी तीखी झिड़कियाँ उन बच्चियों पर पड़ने लगे गयी जैसे उन्होंने कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो। हम लोगों के आपत्ति करने पर संयोजिका बोलीं कि जिनको आमंत्रित किया गया है, उन्ही बच्चियों को पूजन और प्रसाद मिलेगा। जब देखा कि वो समझने को तैयार ही नहीं है, तब हमने अपने पास से अलग से उन बच्चियों को कुछ राशि दी और समझाया कि वो अपनी पसंद से जो भी चाहें खरीद लें। मैं भी वहाँ और न रुक पायी और उद्विग्न मन से वापस आ गयी।
घर आ कर यही सोचती रही कि ऐसा अनुचित व्यवहार कर के कैसे मान लें कि हमारे पूजन से ईश्वर प्रसन्न होंगे। ईश्वर तो सिर्फ उस भावना को देखते हैं जो हमारे अन्तःस्थल में बसी रहती है।
कन्या पूजन के लिये बुलाये जाने वाले बच्चों को देखती हूँ तब बड़ा अजीब लगता है। घर से भी बच्चों को कुछ न कुछ खिला कर ही भेजते हैं। फिर जिन घरों में उनका निमंत्रण रहता है, वहाँ बच्चे सिर्फ चख ही पाते हैं। बल्कि जिन घरों में वो बाद में पहुँचते हैं, वहाँ तो वो खाने की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते हैं। बस फिर क्या है ... सब जगह से प्रसाद के नाम पर लगाई गई थाली पैक कर के बच्चों के घर पहुँचा दी जाती है। घरों से वो पूरा का पूरा भोजन दूसरी पैकिंग में सहायिकाओं को दे दिया जाता है और उस भोजन को खाते वही बच्चे हैं, जिनको पूजन के नाम से दुत्कार दिया जाता है।
आज के समय मे बहुत सी परम्पराओं ने नया कलेवर अपना लिया है। अब कन्या - पूजन की इस परम्परा को भी थोड़ा सा लचीला करना चाहिए। मैं कन्या - पूजन  को नहीं मना कर रही हूँ, सिर्फ उसके प्रचलित रूप के परिष्कार की बात कर रही हूँ।
कन्या - पूजन के लिये सामान्य जरूरतमंद घरों से बच्चों को बुलाना चाहिए। उनको सम्मान और स्नेह सहित भोजन कराने के साथ उनकी जरूरत का कोई सामान उपहार में देना चाहिए। अधिकतर लोग माँ की छोटी - छोटी सी पतलीवाली चुन्नी देते हैं। उनके घर से निकलते ही, वो चुन्नी कहाँ चली गयी किसी को ध्यान ही नहीं रहता। चुन्नी देने के पीछे सिर ढँक कर सम्मान देने की भावना रहती है, परन्तु यही काम रुमाल या छोटी / बड़ी तौलिया से भी हो जायेगा। सबसे बड़ी बात कि बच्चे उसको सम्हाल कर घर भी ले जायेंगे।
प्रसाद भी नाना प्रकार के बनाये जाते हैं, जिनको बच्चे पूरा खा भी नहीं पाते और खिलानेवाले उनके पीछे पड़े रहते हैं कि खत्म करो। इससे अच्छा होगा यदि हम कोई भी एक या दो स्वादिष्ट वस्तु बना कर खिलाएं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अनाज उनको घर ले जाने के लिये दें। ऐसा करने से अधिक नहीं, तब भी एक और दिन वह परिवार ताजा खाना बना कर खा भी सकेगा।
उपहार में भी जो सामान दें उसकी उपयोगिता अवश्य देखें । प्रयास कीजिये कि ऐसा समान बिल्कुल न दें जो दिखने में बड़ा लग रहा हो परन्तु उनके लिये बेकार हो। कुछ ऐसे फल भी दे सकतें हैं ,जो जल्दी खराब नहीं होते हों।
कन्या - पूजन का सबसे सार्थक स्वरूप वही होगा जब उनका जीवन सँवर सके। निम्न आयवर्ग के बच्चों के स्कूल की फीस बहुत कम होती है, तब भी उनकी प्राथमिकतायें फीस भरने से रोक देती हैं। ऐसे एक भी बच्चे की फीस का दायित्व, यदि हम उठा लें तब उस बच्चे के साथ ही उनके परिवार का भविष्य भी सँवर जायेगा।इस कार्य के लिये आपको कहीं जाना भी नहीं पड़ेगा, आपके या आपके घर के आसपास काम करनेवाले सहायकों के बच्चों की पढ़ाई का दायित्व ले सकते हैं।
यदि हम इन सब में से कोई भी काम नहीं कर सकते तब भी सिर्फ एक काम जरूर करना चाहिए। जब भी किसी भी उम्र अथवा परिवेश के बच्चे को किसी भी गलत परिस्थितियों में पाएं, तब उसकी ढाल बन जाना चाहिए। जब बच्चों के साथ कुछ गलत होने की संभावना बचेगी ही नहीं, तभी स्वस्थ और संतुलित परिवेश में बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा और एक अच्छे समाज का निर्माण स्वतः ही होने लगेगा।
अन्त में मैं सिर्फ यही कहूँगी कि परम्पराओं का पालन अवश्य करें, बस उस मे तात्कालिक परिवेश की प्राथमिकताओं का समावेश अवश्य कर लें।

निवेदिता 'निवी'

लखनऊ 

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

स्तुति

स्तुति

अक्षत संग ले कुमकुम

आसन  सजा हुआ 

माँ आन विराजो तुम।

*

आँचल की दे छइयाँ

श्वेत वस्त्र धारे

पकड़े माता बइयाँ।

*

चंचल मन को साधो

ज्ञान दायिनी माँ

दे ज्ञान हृदय बाँधो।

*

मन शीतल करती है

ब्रम्हा की ललना 

 घट खाली भरती है।

*

माँ वाणी महारानी

ज्ञान नयन खोले

महिमा उनकी गानी।

#निवेदिता_निवी 

#लखनऊ

बुधवार, 18 सितंबर 2024

लघुकथा : मोक्ष

 लघुकथा : मोक्ष


दोस्तों के झुण्ड में अनिकेत गुमसुम सा बैठा था ।अपने मे ही खोया सा, जैसे खुद से ही बातें कर रहा हो। उसका मानसिक द्वंद भी यही था कि बचपन से देखी हुई आदत के अनुसार पितृ पूजन करे या अपनी आत्मा की सुने और पापा की विचारधारा के अनुसार नयी परिपाटी शुरू करे। 


मन में एक संशय भी था कि परिपाटी के विरुद्ध जाना कहीं माँ को पीड़ा न दे जाये। पापा के शरीर के शान्त होने के बाद से तो उन्होंने खुद को जैसे एक गुंजल में बाँध लिया है। किसी भी बात को मन से न स्वीकार करते हुए भी चुप ही रह जाती हैं। सच कहूँ तो उनकी ये चुप्पी उसको बहुत कचोटती है। 


मन ही मन खुद को बहुत मजबूत कर के वो उठा कि ऐसे बैठने और सोचते रहने से तो वो किसी समाधान पर तो नहीं ही पहुँच पायेगा। वो माँ के पास ही बैठ गया। 


माँ ने उसकी तरफ देखा और शान्त आवाज में बोलीं ,"बेटा तुम परेशान मत होओ। पितृ पक्ष की पूजा का विधान मैंने सोच लिया है । एक बार बस हमलोग ये देख लें कि ऐसे में कितने पैसे लगेंगे।"


वो एकदम से बोल उठा ,"माँ! जितना और जैसा आप कहिएगा, सब हो जाएगा।"


माँ बोलने लगीं ,"तुम्हारे पापा ने कभी भी इन रिवाजों को दिल से नहीं स्वीकार किया था। हम उनके निमित्त जो भी करेंगे वह उनके ही विचारों के अनुसार करेंगे। मासिक श्राद्ध में लगाये जाने वाली राशि से आर्थिक रूप से कमजोर एक बच्चे की स्कूल फीस हम स्कूल में जमा करेंगे। मृतक भोज में भी जो धन हम लगाते, उससे एक  स्कूल के बच्चों को दोपहर के भोजन के लिये जमा कर देंगे।"


माँ को दृढ़मना हो कर इतना स्पष्ट निर्णय लेते देख, अनिकेत ने अपने अंदर के बिखराव को समेटते हुए कहा," माँ ! पापा की विचारधारा के अनुरूप, आपने बिल्कुल सही निर्णय लिया। एक बात मेरे मन में भी आई है कि पण्डित जी पुरखों को गया बैठाने के लिये कह रहे थे। अगर हम उसकी जगह आर्थिक रूप से निर्बल किसी लड़की की शादी करवायें तो कैसा रहेगा !"


माँ भरी आँखों से बेटे को देखते हुए बोलीं ,"हाँ बेटे पुरखों को  मोक्ष मिलने के लिये वो दुआयें ज्यादा प्रभावी होंगी जिनसे किसी की नई जिंदगी शुरू हो ।"  

निवेदिता 'निवी'

लखनऊ

शनिवार, 14 सितंबर 2024

लघुकथा : गरिमा

 लघुकथा : गरिमा

माँ शिरोरेखा अपने अक्षर बच्चों को निहारती प्रमुदित हो रही थी, अनायास ही उसका ध्यान गया कि कुछ बच्चे खुशी से थिरक रहे हैं, वहीं उनके जुड़वाँ मन म्लान किये सिमटे हैं ।

"क्या हुआ बच्चों तुम इतने उदास क्यों हो रहे हो ... अपने बाकी के भाई बहनों के साथ खेलो न ... "

किसी भी उदास अक्षर से कोई भी प्रतिक्रिया न पाकर, उसने फिर से उन अक्षरों को अपने आँचल में समेटना चाहा ,तब एक अक्षर सिसक पड़ा, "माँ ! हमारे बाकी के साथियों को उनकी गरिमा को समझने और प्यार करने वाली  वाणी का साथ मिला है इसलिये वो कभी भी अपशब्दों की कटुता को नहीं अनुभव कर पाते हैं और मासूम हैं।"

तभी 'म' अक्षर बोल पड़ा," देखों न माँ ! मुझसे ही तो कई शब्द बनते हैं, अब जैसे आप को ही पुकारते हैं, परन्तु हम जहाँ हैं वो इसके आगे के शब्दों को विकृत कर माँ के प्रति गाली बोलते हैं। हमारा मन चीत्कार कर उठता है, परन्तु कर कुछ नहीं पाते।"

'भ' भी बोल पड़ा ,"हाँ माँ ! देखो न मुझसे ही  भगवान, भगवती, भार्या, भगिनी जैसे विश्वास बाँधते शब्द बनते हैं, परन्तु जहाँ मैं हुँ उसने मुझे सिर्फ गाली बना रखा है।"

शिरोरेखा सिसक पड़ी,"हाँ ! बच्चों भाषा का अनुशासन सब भूल चले हैं।"

एक पल बाद ही सारे शब्द और शिरोरेखा आत्मविश्वास से भर उठे,"जो हमारी गरिमा का प्यार से निर्वहन नहीं करेगा, उसके विचार कभी भी कालजयी नहीं होंगे और समय की लहरों में खो जाएंगे ।"

निवेदिता 'निवी'

लखनऊ