जानती हूँ .... आज भी ....
तुम खुद को ,अपनी ही नज़रों में
बहुत बड़ा मान रहे होगे …
सोचा होगा .... तुमने कहा था
किसी पल … अपनी जीने के कारण को
कहा था " ना " ....
शायद "ना" कहना आसान होता है
"हाँ" कहने के बाद
उस "हाँ" को बनाये रखने के लिए
बनाये रखना पड़ता है
अपने समस्त आत्मबल को
और जानते हो न
आत्मबल होता ही उनके पास है
जिनके पास आत्मा होती भी है
अच्छा ये तुम खुद को ही बता लेना
तुम्हारी इस "ना" ने
किससे क्या है छीना
लता को आसमान छूने के लिए
तने का सहारा चाहिए
पर ज़रा सोचो तो
लता भले ही आसमान न छू सके
अकेले अपने ही कदमों पर न खड़ी हो सके
पर लता के फूल तो ज़मीन पर भी
खुल कर खिल जाएंगे
पर सोचो तो ....
वो पेड़ जरूर आसमान को देख रहा होगा
पर उस लता के फूलों से तो वंचित ही रहेगा
जब भी सपनों के तराजू पर तौल कर देखोगे
अपना पलड़ा भारी ही समझोगे
पर ऐसा है क्या ….
तुम्हारे एक बार "नहीं" कहने की
सज़ा भी तुम्हारे स्वर को ही मिली
अभिशप्त है वो मेरा नाम न ले सकने को
तुम्हारी आँखों की तलाश
दिल का भारीपन
समय की तराज़ू पर तौल कर देखो
किसने क्या खोया किससे क्या छूटा …… निवेदिता !