गुरुवार, 16 नवंबर 2023

यादों की महकी अमराई ...

विहस रही बदली वो पगली

यादों की महकी अमराई 

*

बैठ रहा पाटे पर वीरा 

मंगल तिलक लगाये बहना 

सुन आँखों से वो बोल रहा

तू ही है इस घर का गहना 

जब जब तू घर आ जाती है

आती खुशियाँ माँ मुस्काई।

*

मन तरसे अरु आँखें बरसे 

विधना ने क्यों रोकी राहें

नाम लिया है कुछ रस्मों का

रोक रखी वो फैली बाँहें

टीका छोटी से करवाना 

याद मुझे कर हँसना भाई।

*

बीती बात याद जो आये

भर भर जाये मेरी अँखियाँ 

इस बरस तू नहीं आयेगी

बता गयी हैं तेरी सखियाँ

एक बार तू आ जा बहना 

कर लेंगे हम लाड़ लड़ाई।

*

रीत निभाना याद दिलाते 

कदम ठिठक बढ़ने से जाये

संस्कारों ने रोक रखा है

चाह रही पर आ नै पाये

पढ़ चिट्ठी अपनी बहना की 

भाई की आँखें भर आई।

 निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

मंगलवार, 14 नवंबर 2023

अहान

नटनागर सा रुप सलोना

और मुरली की मीठी तान

छोटा सा अहान लाडला

नटखट मेरी जान!


पैनकेक मन को भाए

खाए न कोई मिष्ठान

तिरछी मिरछी चितवन है

मन को भाती मुस्कान!


देवों का स्तवन दुलारा

भोले का तू गान

मंदिर का तू दीप मेरे

खुशियों की दुकान!

*

वारी जाऊँ  राजदुलारे

तू है मेरी जान

सुन ले प्यारे नन्हे फरिश्ते

सबका तू अभिमान!

*

सबका है आशीष यही 

छू ले तू आसमान

दिग दिगन्त तक यूँ चमके

जैसे जग में दिनमान!

#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी 

#लखनऊ

शनिवार, 11 नवंबर 2023

अलबेला सपना

सजा रही अलबेला सपना 

मन आशा से दमक रहा। 

*

राह बहुत हमने थी देखी   

आन विराजो रघुनन्दन     

फूल चमेली बेला भाये       

लाये अगरु धूप चन्दन        

मंगल बेला अब है आई      

खुश हो घर गमक रहा है। 

*

रात अमावस की काली थी  

निशि शशि ने आस सजाई     

राह प्रकाशित करनी चाही  

चूनर तारों भर लाई       

सुमन मेघ बरसाने आये   

बन साक्षी अब फलक रहा। 

*

कन्धे पर हैं धनुष सजाये    

ओढ़ रखा है पीताम्बर       

सुन्दर छवि है जग भरमाये  

नाच रहे धरती अम्बर    

आज महोत्सव अवध मनाये  

दीवाली सा चमक रहा।

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2023

विजयदशमी

नौ दिनों तक देवी माँ के विभिन्न रूपों की आराधना की हमने। नवमी के दिन हवन और कन्या-पूजन के पश्चात हम, तुरन्त ही आ गये दशहरा पर्व को उत्सवित करने की तैयारियों में व्यस्त होने लगते हैं। स्त्री रूप देवी की आराधना करने के बाद, एक और स्त्री 'सीता' को समाज मे गरिमा देने का पर्व है दशहरा। दशहरा पर राम के द्वारा रावण के वध का विभिन्न स्थानों की रामलीला में मंचन किया जाता है। सीता के हरण के बाद रावण से उनको मुक्त कर के समाज में स्त्री की गरिमा को बनाये रखने और अन्य राज्यों में रघुवंश के सामर्थ्य को स्थापित करने के लिये ही राम ने रावण का वध किया था।


दशहरा पर्व को "विजयदशमी"  भी कहते हैं । कभी सोच कर देखिये ये नाम क्यों दिया गया अथवा राम ने दशमी के दिन ही रावण का वध क्यों किया ? राम तो ईश्वर के अवतार थे। वो तो किसी भी पल, यहाँ तक कि सीता-हरण के समय ही , रावण का वध कर सकते थे । बल्कि ये भी कह सकते हैं कि सीता-हरण की परिस्थिति आने ही नहीं देते।

धार्मिक सोच से अलग हो कर सिर्फ एक नेतृ अथवा समाज सुधारक की दृष्टि से इस पूरे प्रकरण में राम की विचारधारा को देखें, तब उनके एक नये ही रूप का पता चलता है।

तत्कालीन परिस्थितियाँ शक्तिशाली के निरंतर शक्तिशाली होने और दमित-शोषित वर्ग के और भी शोषित होने के ही अवसर दिखा रही थीं। शक्तिशाली सत्तासम्पन्न राज्य अपनी श्री वृद्धि के लिये अन्य राज्यों पर आक्रमण करते रहते थे और परास्त होने वाले राज्य को आर्थिक, सामाजिक, मानसिक हर प्रकार से प्रताणित करते रहते थे। राम ने वनवास काल में इस शोषित वर्ग में एक आत्म चेतना जगाने का काम किया।

सोई हुई आत्मा को मर्मान्तक नींद से जगाने के लिये भी राम को इतना समय नहीं लगना था। परन्तु इस राममयी सोच का वंदन करने को दिल चाहता है। उन्होंने सिर्फ आँखे ही नहीं खोली अपितु पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेंद्रियों को जाग्रत करने का काम किया। कर्मेन्द्रियों के कार्य को समझ सकने के लिये ही ज्ञानेंद्रियों की आवश्यकता होती है। जिन पाँच तत्वों से शरीर बनता है वो हैं पृथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु एवं गगन। इन पाँचों तत्वों का अनुभव करने के लिये ही कर्मेन्द्रियों की रचना हुई। पृथ्वी तत्व का विषय है गन्ध, उसका अनुभव करने के लिये नाक की व्युत्पत्ति हुई। जल तत्व के विषय रस का अनुभव जिव्हा से करते हैं। अग्नि तत्व के रूप को देखने के लिये आँख की व्युत्पत्ति हुई। वायु का तत्व स्पर्श है और उस स्पर्श का अनुभव बिना त्वचा के हो ही नहीं सकता है। आकाश का तत्व शब्द है, जिसको सुन पाने के लिये कान की व्युत्पत्ति हुई। जब पाँचों कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ जागृत हो जायेंगी, तब जीव का मूलाधार आत्मा स्वतः ही जागृत हो जायेगी।

विजयादशमी का अर्थ ही है कि दसों इंद्रियों पर विजय पाई जाये। इनके जागृत होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति, अपने प्रति सचेत है। सचेत व्यक्ति गलत-सही में अंतर को भी समझने लगता है। ये समझ, ये चेतना ही न्याय-अन्याय में अंतर कर के स्वयं को न्याय का पक्षधर बना देती है। इस प्रकार न्याय के पक्ष में बढ़ता मनोबल, क्रमिक रूप से अन्याय का नाश कर देता है।

एक वायदा अपनेआप से अवश्य करना चाहिए कि विजयादशमी / दशहरा पर्व मनाने के लिये सिर्फ रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले ही न जलायें, अपितु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का आपसी तालमेल सटीक रूप में साधें जिससे चेतना सदैव जागृत रहे। जीवन और समाज मे व्याप्त बुराई को जला कर नहीं, अपितु अकेला कर के समूल रूप से नष्ट करें।
इस प्रकार की बुराई की पराजय का पर्व सबको शुभ हो !!!
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ



शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

कन्या पूजन

 सब ही उत्सवधर्मी मानसिकता के हैं। कभी परम्पराओं के नाम पर तो कभी सामाजिकता के नाम पर कोई न कोई बहाना निकाल ही लेते हैं, नन्हे से नन्हे लम्हे को भी उत्सवित करने के लिये। ये लम्हे विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक करने का भी काम कर जाते हैं, तो  कभी-कभी खटास मिला कर क्षीर को भी नष्ट कर जाते हैं। खटास की बात फिर कभी, आज तो सिर्फ उत्सवित होते उत्सव की बात करती हूँ।


आजकल नवरात्रि पर्व में माँ के विभिन्न रूपों की पूजा-अर्चना की जा रही है। अब तो पण्डाल में भी विविधरूपा माँ  विराजमान हो गयीं हैं। घरों में भी कलश-स्थापना और दुर्गा  सप्तशती के पाठ की धूम है, तो मंदिरों में भी ढोलक-मंजीरे की जुगलबंदी में माँ की भेटें गायी जा रही हैं। कपूर, अगरु, धूप, दीप से उठती धूम्र-रेखा अलग सा ही सात्विक वातावरण बना देती हैं। 

 

इस अवसर पर बड़े ही विधि विधान से बहुधा कन्या खिलाई और पूजी जाती हैं। कन्या पूजन के लिये बुलाये जाने वाले बच्चों को देखती हूँ तब बड़ा अजीब लगता है। घर से भी बच्चों को कुछ न कुछ खिला कर ही भेजते हैं। फिर जिन घरों में उनका निमंत्रण रहता है, वहाँ बच्चे सिर्फ चख ही पाते हैं। बल्कि जिन घरों में वो बाद में पहुँचते हैं, वहाँ तो वो खाने की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते हैं। बस फिर क्या है ... सब जगह से प्रसाद के नाम पर लगाई गई थाली पैक कर के बच्चों के घर पहुँचा दी जाती है। घरों से वो पूरा का पूरा भोजन दूसरी पैकिंग में सहायिकाओं को दे दिया जाता है और उस भोजन को खाते वही बच्चे हैं, जिनको कमतर मान कर पूजन के नाम से दुत्कार दिया जाता है और कभी आमंत्रित भी नहीं किया जाता हैं।


आज के समय मे बहुत सी परम्पराओं ने नया कलेवर अपना लिया है। अब कन्या पूजन की इस परम्परा को भी थोड़ा सा लचीला करना चाहिए। मैं कन्या पूजन को नहीं मना कर रही हूँ ,सिर्फ उसके प्रचलित रूप के परिष्कार की बात कर रही हूँ।

कन्या पूजन के लिये सामान्य जरूरतमंद घरों से बच्चों को बुलाना चाहिए। उनको सम्मान और स्नेह सहित भोजन कराने के साथ उनकी जरूरत का कोई सामान उपहार में देना चाहिए। अधिकतर लोग माँ की छोटी-छोटी सी पतलीवाली चुन्नी देते हैं। उनके घर से निकलते ही, वो चुन्नी कहाँ चली गयी किसी को ध्यान ही नहीं रहता। चुन्नी देने के पीछे सिर ढँक कर सम्मान देने की भावना रहती है, परन्तु यही काम रुमाल या छोटी / बड़ी तौलिया से भी हो जायेगा। सबसे बड़ी बात कि बच्चे उसको सम्हाल कर घर भी ले जायेंगे।


प्रसाद भी नाना प्रकार के बनाये जाते हैं ,जिनको बच्चे पूरा खा भी नहीं पाते और खिलानेवाले उनके पीछे पड़े रहते हैं कि खत्म करो। इससे अच्छा होगा यदि हम कोई भी एक या दो स्वादिष्ट वस्तु बना कर खिलाएं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अनाज उनको घर ले जाने के लिये दें। ऐसा करने से अधिक नहीं, तब भी एक दिन और वह परिवार ताजा खाना बना कर खा भी सकेगा।


उपहार में भी जो सामान दें उसकी उपयोगिता अवश्य देखे। प्रयास कीजिये कि ऐसा समान बिल्कुल न दें जो दिखने में बड़ा लग रहा हो परन्तु उनके लिये बेकार हो। कुछ ऐसे फल भी दे सकतें हैं, जो जल्दी खराब नहीं होते हों। 


कन्या पूजन का सबसे सार्थक स्वरूप वही होगा जब उनका जीवन सँवर सके। निम्न आयवर्ग के बच्चों के स्कूल की फीस बहुत कम होती है, तब भी उनकी प्राथमिकतायें फीस भरने से रोक देती हैं। ऐसे एक भी बच्चे की फीस का दायित्व, यदि हम उठा लें तब उस बच्चे के साथ ही उनके परिवार का भविष्य भी सँवर जायेगा। इस कार्य के लिये आपको कहीं जाना भी नहीं पड़ेगा, आपके या आपके घर के आसपास काम करनेवाले सहायकों के बच्चों की पढ़ाई का दायित्व ले सकते हैं।


यदि हम इन सब में से कोई भी काम नहीं कर सकते तब भी सिर्फ एक काम अवश्य करना चाहिए। जब भी किसी भी उम्र अथवा परिवेश के बच्चे को किसी भी गलत परिस्थितियों में पाएं तब उसकी ढाल बन जाना चाहिए। जब बच्चों के साथ कुछ गलत होने की संभावना बचेगी ही नहीं, तभी स्वस्थ और संतुलित परिवेश में बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा और एक अच्छे समाज का निर्माण स्वतः ही होने लगेगा। 


अन्त में मैं सिर्फ यही कहूँगी कि अपनी जड़ों को बिल्कुल न भूलें और परम्पराओं का पालन अवश्य करें, बस उस मे तात्कालिक परिवेश की प्राथमिकताओं का समावेश अवश्य कर लें ।

#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी 

#लखनऊ

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

सुखमय हो संसार : गीतिका

उपवन जनक का, बरसे सुमन फुहार।।

राम सिया का स्वयंवर, आये देव हजार।।


जनकसुता सी हो वधू, वर भी हो रघुनाथ।

सहज सरल सुखमय रहें, करे मंगलाचार।।


चर्चा सुन रघुनाथ की, सिया गईं सकुचाय।

वरणन रघुवर का करें, ऋषि करते जयकार।।


राम सिया साथी बने, पहनाई जयमाल।

कोमल साक्षी कमल हो, प्रकृति करे उपकार।।


मातु पिता आशीष दें, कीरति मिले अपार।

दोनों कुल फलते रहें, सुखमय हो संसार।।

#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी 

#लखनऊ

सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

लघुकथा : अंतर

पार्क में चबूतरे पर खड़े-खड़े थक जाने पर, गांधी जी ने सोचा कि किसी के भी सुबह की सैर पर आने से पहले थोड़ा टहल लिया जाये। अब इस उम्र में एक जगह पर खड़े-खड़े हाथ पैर भी तो अकड़ जाते हैं। लाठी पकड़े टहलने को उद्द्यत हुए ही थे कि किसी को आते देख ठिठक कर अपनी मूर्तिवाली पुरावस्था में पहुँचने ही वाले थे कि किलक पड़े,"अरे शास्त्री तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? "


शास्त्री जी," क्या करूँ बापू मेरे लिये बहुत कम चबूतरे रखे सबने। जगह की कमी जब ज्यादा ही शरीर टेढ़ा करने लगती है तो मैं ऐसे ही टहल कर शरीर की अकड़न दूर करने की कोशिश करता हूँ ... हूँ भी तो इतना छोटा सा कि कोई देखता ही नहीं।"


गाँधी जी,"हम्म्म्म ... परन्तु तुमने कभी सोचा क्यों नहीं कि ऐसा क्यों हुआ  ... कुछ तो मुझमें होगा जो तुममें नहीं है।"


शास्त्री जी," सोचना क्या ... जबकि मैं कारण भी जानता हूँ।"


गाँधी जी,"कारण जानते हो ! बताओ क्या बात है ... किसी को कुछ कहना हो तो निःसंकोच बोलो मैं साथ में  चलता हूँ, तुम्हारा काम हो जायेगा।" 


शास्त्री जी,"रहम बापू रहम ... आप तो रहने ही दो।"


गाँधी जी,"ऐसे क्यों कह रहे हो ... तुम खुद ही सोचो और इतिहास के पन्ने पलट कर देखो कि  मेरे कहने भर से ही कितने काम हो गये हैं।"


शास्त्री जी,"हाँ अंतर तो है हम दोनों में, वो भी कोई छोटा सा अंतर नहीं अपितु बहुत बड़ा अंतर है।"


गाँधी जी,"मतलब क्या है तुम्हारा ?"


शास्त्री जी, "आपके हाथ की छड़ी सबको दिख जाती है, परन्तु मेरे जुड़े हुए हाथ दुर्बलता की निशानी समझ कर अनदेखे ही रह जाते हैं। आपकी मृत्यु पर भी आज तक सियासत और बहस होती है, जबकि मेरा अंत तो आज भी रहस्य ही है।"


गाँधी जी नजरें नीची किये कुछ सोचने लगे,"परन्तु मेरे किसी भी काम का उद्देश्य यह तो नहीं ही था।"


"छोड़िये भी बापू ... आप भी क्या बातें ले कर बैठ गए हैं। आप तो अब और भी ताकतवर हो गये हैं। आप तो रंग-बिरंगे कागज़ के नोटों पर छप कर जेब मे पहुँच कर एकाध चीज़ों को छोड़ कर, कुछ भी खरीदने की क्षमता बढ़ा देते हो ",शास्त्री जी आगे बढ़ने को उद्यत हुए। 


"पर तुम्हारा जय जवान जय किसान तो आज भी बोला जाता है ",गाँधी जी जल्दी से बोल पड़े। 


"हाँ ! जिन्दा है वो नारा आज भी, परन्तु सिर्फ बातों में ... आज का सच तो यह है कि एक सीमा पर मर कर शहीद कहलाता है और दूसरा गरीबी और भुखमरी से हार कर फन्दे में खुद को लटका देता है और यही है आज के जय जवान जय किसान का सच", विवश आक्रोश में हताश से शास्त्री जी के क़दम आगे बढ़ते चले गये। 

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

गुरुवार, 17 अगस्त 2023

चन्द हाइकु

 हाइकु


मिट्टी का तन 

चक्रव्यूह सा चाक

फौलादी मन।


डूबती शाम

उलझन में मन 

उर की घाम।


टूटते वादे

बिखरती सी यादें

मूक इरादे।


रूखी अलकें

नमकीन पलकें

कहाँ हो तुम। 


खुले नयन

बुझा जीवन दीप 

मन अयन।


चकित आँखें 

भरमाया सा मन 

बेबस तन।


बिछड़ा साथी

राहें हैं अंधियारी 

बात हमारी।

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

रविवार, 6 अगस्त 2023

सूखे आँसुओं की तासीर !

 सूखे आँसुओं की तासीर 

आँखों से मन तक 

बहती चली जाती हैं 

सूखी तो आँखें रहती 

मन उलझता जाता है !


यादों के ...वादों के ....

बादल घिरते तो बहुत हैं

बिन बरसे तरस कर 

भरे-भरे चले जातें हैं !


वो रेत सरीखी 

छोटी-छोटी बातें 

पहाड़ सी भारी हो

मन में बसी रह  कर

जीना दुश्वार कर जाती !


गलत न वो बातें हैं

न ही यादें .... और 

न वो रूखी-सूखी आँखें

गलत है सिर्फ मन का 

बंजारा न हो पाना ! #निवी

सोमवार, 31 जुलाई 2023

बिखरते परिवार

परिवार सिर्फ़ और सिर्फ़ परिवार होता है, चाहे वो एकल हो या संयुक्त, क्योंकि अपनी सोच के अनुसार ही इन दोनों ही तरह के परिवारों में सब सदस्यों की, रिश्तों की मान्यता रखते हैं। कभी पति , पत्नी और उनके बच्चे ही एकल परिवार कहे जाते हैं, जबकि वो भी अपने पड़ोसियों और दोस्तों को भी पारिवारिक सदस्यों जितना ही सम्मान देते हैं और संयुक्त परिवार जैसे ही अलग-अलग घरों में रहते हैं, तो कभी दूसरी या तीसरी पीढ़ी के सभी सदस्यों के साथ रहते हुए भी वो स्नेहभाव या कह लूँ कि नेह का जुड़ाव नहीं रहता जो कि संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी विशेषता और पहचान रहती है। मुझे तो लगता है कि सदस्य कम हों या ज्यादा, बस जिस परिवार में नेहबन्धन बना रहे वही संयुक्त परिवार है।


मुझको परिवार में बिखराव के मूल कारण सिर्फ़ दो लगते हैं ... पहला  अहं की भावना और दूसरी चुप्पी। विवाद को टालने के लिए चुप रह कर सही समय पर कारण न बताने से बात समाप्त नहीं होती है, बस कुछ समय के लिए टल जाती है।

आजकल के अभिभावक बेटे के साथ साथ ही बेटी की शिक्षा के लिए सजग रहते हैं और दोनों को ही जीवन में उन्नति करने के लिए प्रेरित करते हैं और बच्चे हर क्षेत्र में स्वयं को प्रमाणित भी करते हैं। यही प्रतिभाशाली बच्चे, अपने जैसे ही योग्य एवं सामाजिक रूप से समकक्ष जीवनसाथी के साथ जब जीवन के वास्तविक रूप और उसकी दैनन्दिन की चुनौतियों से परिचित होते हैं, तब स्वयं का परिश्रम अधिक दिखाई देता है और अपने हमसफ़र से उनकी अपेक्षाएं बढ़ती जाती हैं कि वो उनको समझे, जबकि अपने कार्यक्षेत्र में दूसरा भी लगभग उतना ही अथवा उससे अधिक परिश्रम भी करता है। यह अपेक्षा एवं अवहेलना, उन के जीवन में शनि की साढ़ेसाती बन कर क्रमशः पसरने लगता है और कभी चुप्पी तो कभी तीखे बोलों की चिटकन गूँजते हुए प्रस्तर प्रहार करती परिवार को बिखेर देती है।

विवाद न हो और बात वहीं समाप्त हो जाये सोच कर, दूसरे पक्ष की चुप्पी भी इन बिखरती दीवारों को और भी बिखरा देती है। किसी भी गलत्त लगती बात का मुखर और शालीन विरोध मन को भी शान्त कर देता है और सही अर्थों में बात को समाप्त भी, अन्यथा एक ज्वालामुखी मन ही मन धधकता रह जाते है और उस का विस्फोट रिश्ते में कोई भी उम्मीद नहीं छोड़ता।

रिश्तों के बिखरने के मूल में अहं भाव ही विस्फोटक होता है। वहम तो अहं का सिर्फ पोषण ही करता है।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

गुरुवार, 27 जुलाई 2023

परिधान और उनका प्रभाव

परिधान में सिर्फ़ ओढ़े अथवा सिले हुए वस्त्र ही नहीं आते हैं, अपितु व्यक्ति के शरीर पर धारण की गई प्रत्येक वस्तु आती है, फिर चाहें वो हाथ में लिया हुआ पर्स हो अथवा सिर पर रखी हुई टोपी, पाँवों में पहने हुए जूते हों या इसी कलाई अथवा जेब में लगाई हुई घड़ी हो। संक्षेप में कहें तो पूरे व्यक्तित्व को परिभाषित करता है उसका परिधान।


परिधान को समय एवं परिस्थिति के अनुकूल होना चाहिए। औपचारिक एवं अनौपचारिक कार्यक्रमों के परिधान अलग होते हैं, जैसे विद्यार्थियों के दीक्षांत समारोह के गाउन और हैट उसी कार्यक्रम के मंच पर ही अच्छे लगेंगे, चुनावी रैली में नहीं। ऊँची हील्स के सैण्डल अथवा जूते शहरों की पार्टी या विभिन्न सम्मिलन में उचित हो सकते हैं परन्तु वही ग्रामीण परिवेश अथवा पहाड़ों पर असुविधाजनक होंगे और हँसी का पात्र भी बना सकते हैं।

परिधान का चयन परिस्थिति एवं अपनी शारीरिक स्थिति के अनुसार ही करना चाहिए क्योंकि यह कत्तई आवश्यक नहीं है कि जो दूसरे पर अच्छा लग रहा है वह स्वयं पर भी अच्छा ही लगेगा और सुविधाजनक होगा। वस्त्र हों अथवा उस की एक्सेसरीज उनको कैरी करने का गरिमापूर्ण तरीका भी व्यक्तित्व को निखार देता है।

व्यक्ति का परिधान, उसके व्यक्तित्व को परिभाषित करता है। देखने से ही आभास हो जाता है कि उस व्यक्ति का परिवेश क्या और कैसा है, साथ ही यह भी परिलक्षित होता है कि वह परिस्थितियों के प्रति कितना संवेदनशील है।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

पलायन : कारण और निवारण

पौधे अपने प्राकृतिक परिवेश में ही ज्यादा पुष्पित एवं पल्लवित होते हैं। स्थान बदल कर अन्यत्र रोपित करने पर अतिरिक्त देखभाल और पोषण ही उनके जीवन को पुनः पुष्ट करता है, परन्तु कभी-कभी बोनसाई बन कर अपनी प्रकृति छोड़ने को विवश भी। इसी तरह हममें से अधिकतर अपने स्थान से ही जुड़े रहना चाहते हैं, वहाँ से हट कर अन्यत्र बसने की कल्पना भी हम को दारुण लगती है। सामान्यतया अपने स्थान पर उपलब्ध संसाधनों में ही हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करते हैं। परन्तु कभी-कभी आवश्यकताएं इतनी बढ़ जाती हैं कि उनको अपनी सामर्थ्यानुसार संसाधन की तलाश में अपना स्थान छोड़ना ही पड़ता है। एक बार जब अपना स्थान छूटता है तब वापसी का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है क्योंकि धीरे-धीरे हमारी सामर्थ्य बढ़ती जाती है और साथ ही महत्वांक्षाएँ भी। अपने स्थान पर वापसी के लिए उनको कोविड जैसी महामारी ही विवश कर सकती है, अन्य कुछ नहीं!


पलायन जैसे रक्तबीज का निवारण / उन्मूलन करने के लिए अपने मूल स्थान पर ही अच्छा और सुविधाजनक जीवन जी सकने योग्य काम मिलना सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिये। यदि बच्चों को अच्छी शिक्षा छोटे से छोटे स्थान पर ही मिल जाये तो बच्चों को अपने पास से दूर भेजना तो कोई माता पिता नहीं चाहेंगे। उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को महँगे विद्यालयों में भेजने के लिए, अभिभावकों द्वारा लिए गए ऋण को चुकाने के लिए महँगे पैकेज की तलाश में बच्चों को अपनी जड़ों को छोड़ना नहीं पड़ेगा।

यदि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति अपने मूल स्थान पर ही होने लग जाये तो अपनी जड़ों को छोड़ कर जाना न तो किसी की चाहत होगी और न ही विवशता।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

मंगलवार, 25 जुलाई 2023

अपने सपने बच्चों के कन्धे


बच्चे के जन्म लेने से मिली खुशी के सपनीले झोंको से सम्हलते ही, मन स्वयं को ही झूला बना कर कितनी पेंगे भरने लगता है कि अपने हॄदयांश के लालन-पालन में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। उनके लिए आसमान के सितारों को भी तोड़ लाने का हौसला रखते हुए सोचने लगते हैं कि उनकी कोई भी इच्छा अधूरी नहीं रहने देंगे। बस इसी क्रम में अपनी कुछ अनावश्यक सी अपूर्ण इच्छाओं की याद आ ही जाती है और हम सोचने लगते हैं कि उन को भी बच्चों से ही पूरा करवाएंगे।

इस सारे सिलसिले में बच्चों के नन्हे कन्धों पर दो बोझ डाल देते हैं, जिसमें से एक की चर्चा बोल के कर देते हैं तो दूसरी दिल की तहों में छुपा कर। हर माता पिता की पहली इच्छा यही होती है कि अन्तिम यात्रा उन बच्चों के कन्धों पर ही हो और दूसरी होती है कि हम अपनी ज़िन्दगी में जो भी नहीं कर पाए, वो सब हमारे बच्चे कर गुजरें। बस सारी गड़बड़ यहीं से प्रारंभ हो जाती है और नन्हे कन्धे बड़े हो कर भी बेताल सरीखा बोझ तले दबे रह जाते हैं।

बच्चे के किसी कलात्मक अभिरुचि एवं ईश्वरीय देन से सम्पन्न होने पर भी माता पिता उनको डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि कोई उच्च पदस्थ अधिकारी बना हुआ ही देखना चाहते हैं चाहें इस प्रक्रिया में बच्चे घुटन अनुभव करें या फिर तरक्की न कर कर पाएं, पर उनको अपने अभिभावकों की चाहतों को पूरा करना ही पड़ता है। जीवनसाथी में जिन गुणों की चाहत उनको होती है अथवा हो सकती है, उससे सर्वथा विपरीत साथी के साथ जीवन बिताना पड़ता है क्योंकि वो उनके अभिभावकों की चाहत होती / होते हैं और वो स्वयं सिर्फ़ अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति के साधन।

माता पिता को यह समझना चाहिये कि जितना मुश्किल अपूर्ण इच्छाओं के  बोझ के साथ जीवन जीना कठिन है, उससे कहीं अधिक मुश्किल है कन्धों पर आभासी बोझ ले कर जीवन की चुनौतियों का सामना करना।

माता पिता को अपने अनुभवों के आधार पर मार्गदर्शन करते हुए भी बच्चों को अपने फैसले स्वयं उन बच्चों को ही करने देना चाहिए। वैसे भी ज़िन्दगी का सबसे अच्छा मूलमंत्र यही है कि जियो और जीने दो।

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

सोमवार, 24 जुलाई 2023

सती प्रथा क्या सच में बन्द हो गयी है

सती प्रथा के पक्ष और प्रतिपक्ष में, बचपन से ही सुनती और पढ़ती आ रही हूँ। तब इस के विषय में बहुत अधिक, या कह लूँ कि कुछ भी समझ नहीं आता था। बस एक विषय की तरह पढ़ा और परीक्षा में लिख कर फुर्सत पा लेते थे। परन्तु जब समझ में आया कि यह कृत्य कितना अमानवीय है, तब यह सोच कर ही काँप उठती थी। एक जीवित और स्वस्थ स्त्री को सिर्फ़ इसलिए ही जला देना होगा कि उसके पति की मृत्यु हो गई है ... यह मृत्यु भी कभी बीमारी की वजह से तो कभी उम्र की वजह से भी होती थी। उस दौर के अधिक आयु के अन्तर वाले बेमेल विवाह में कभी-कभी पत्नी अबोध बालिका भी होती थी तो पति उम्र के चौथेपन में!


उस दौर में जब सती प्रथा के बन्द होने के बारे में जाना तो कहीं न कहीं एक सुकून मिला कि अब विधवा स्त्री को भी अपनी ज़िन्दगी जीने का अधिकार होगा परन्तु ... इस परन्तु ने फिर से प्रश्न उठाया कि क्या सिर्फ़ पति के साथ, उसकी चिता में उसकी विधवा पत्नी को जलाये न जाने से ही क्या उस स्त्री को जीवन जीने का अधिकार मिलने लगा?

दुःख की बात है कि सती प्रथा नाम के लिए बन्द हो गयी है परन्तु अपना रूप बदल कर प्रत्येक पल विधवा स्त्री को जलाती रही है। यह बदला हुआ रूप कभी परम्पराओं के नाम पर बहुत ही सहज चीजों / बातों से वंचित करने लगा तो कभी आश्रय देने के नाम पर शारीरिक शोषण भी करवाता रहा।

समय के साथ जब शिक्षा का प्रचार प्रसार हुआ तो परिस्थितियाँ थोड़ी सुधरी परन्तु जिसको मानसिक दिवालियापन कहने का मन करता है, ने उनके वैधव्य को उनके उन बुरे कर्मों का परिणाम बता कर दंशित किया जो उनके इस जन्म के ही नहीं अपितु पूर्वजन्मों का परिणाम बताया।

आज की तकनीकी क्रान्ति के युग में भी, बेशक पति की चिता की लपटों में उसकी पत्नी को दैहिक रूप से बेशक नहीं जलाया जाता है, परन्तु प्रतिपल उसको दाहक दंशो के दावानल में जल कर के सती होने को विवश किया जाता है।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

रविवार, 23 जुलाई 2023

पीपल : गीतिका

छाया इसकी कम घनी, कोमलता है पास।

प्राणदायिनी वायु दे, इस में प्रभु का वास।।

*

साँस अटकती जब सखी, करे दर्द जब पेट।

छाल छाँव और अर्क सब, बन जाते हैं खास।।

*

विष प्रभाव को कम करे, रस का असर विशेष।

चलती शीतल जब हवा, आती सबको रास।।

*

रंग त्वचा का निखरता, झुर्री करता साफ़।

वायु प्रदूषण का  सखे , पीपल करता ह्वास।।

*

पत्ते इसके कम विरल, आते विहग अनेक।

करना ऐसा यत्न है, बना रहे उच्छ्वास॥

*

ब्रम्हा विष्णु महेश प्रभु, करते इसमें वास।

सज्जा करें निवास की, समृद्ध हो आवास।।

*

पूजन अर्चन में सजे, घर का बंदनवार।

परमधाम जो जा चुके, उनका तरु ये ख़ास।।

*

बोधि वृक्ष कहते इसे, पूजन अलग विधान।

दूध धूप दीपक जले, मंत्र का हो अभ्यास।।

*

दिवस अमावस सोम हो, करते विधी विधान।

परिक्रमा होती फलित, भरता घर उल्लास।।


निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

गीतिका : कभी मुस्कराया करो ।।

हो सके ख़्वाब बन दिख ही' जाया करो ।

साथ तुम भी कभी मुस्कराया करो ।।


गुनगुनाती रही रात भर बन गज़ल।

साथ तुम भी कभी गुनगुनाया करो।। 


मुस्कराती रही बेबसी रात भर ।

हो सके सच कभी भी बताया करो ।।


साथ मेरे चलो शबनमी रात में ।

मैं बनूँ चाँदनी तुम सजाया करो ।।


साथ बेरहम हो कर भुलाना नहीं ।

भाव जो मन बसे ना छुपाया करो ।।


चल चलें साथ भी अब रुलाने लगा ।

दो कदम साथ 'निवी'  निभाया करो ।।

         

बेसबब चल दिये  तुम इस जहान से ।

निभ सके तो  'निवी' तुम निभाया करो ।।

  

         ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 6 जुलाई 2023

चाँद

चाँद बहुत उदास दिख रहा था

उजले और स्याह में भटक रहा था !


चन्द रेशे चुन लायी उम्मीदों के 

पिरो दिया उनमें सुनहले ख्वाबों को !


पलट कर देखना कभी 

चाँद भी अब इंद्रधनुष में हँसता है !


कुछ लम्हे चुभेंगे मन के पाँव में 

भटकेगा मन अपने बसाए गाँव मे !


रेशे सी किरच छलक उठी थी

चुभन हुई पलकों की छाँव में !


चाँदनी ने सरगोशियों में कहा

चाँद भी अब इंद्रधनुष में हँसता है ! 

#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी 

#लखनऊ

बुधवार, 14 जून 2023

अथ नाम कथा

अथ नाम कथा

अपने नाम ,या कह लूँ कि व्यक्तिगत रूप से सिर्फ़ अपने लिये कभी सोचा ही नहीं।जीवन जब जिस राह ले गया सहज भाव से बहती चली गयी। 

अब जीवन के इस संध्याकाल में जब मिसिज़ श्रीवास्तव के स्थान पर स्वयं के लिए #निवी या #निवेदिता का सम्बोधन पाती हूँ तो सच में मन को एक अलग सा ही सुकून मिलता है और इन्हीं में से किसी लम्हे ने दस्तक दी थी कि यह नाम मुझे मिला कैसे!


चार भाइयों के बाद मेरा जन्म हुआ था।सबकी बेहद लाडली थी और जितने सदस्य उतने नाम पड़ते चले गये,परन्तु उन सब के दिये गए नामों पर भारी पड़ गया ,घर में काम करनेवाली सहायिका ,हम सब की कक्को का दिया नाम। उन्होंने बड़े अधिकार से सबको हड़का लिया था,"हमार बहिनी क ई का नाम रखत हईं आप सब। हमार परी अइसन बिटियारानी के सब लोग बेबी कह।" इस प्रकार पहला नाम 'बेबी' रखा गया 😄 


इस बेबी नाम के साथ हम दुनिया के मैदान में तो आ नहीं सकते थे, तो फिर से एक नाम की तलाश शुरू हुई।सभी अपनी पसन्द के नामों के साथ फिर से आमने-सामने थे। 


अबकी बार सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि सभी लोग चिट पर अपनी पसन्द के नाम लिख कर मेरे सामने रख दें और मैं जो भी चिट उठा लूंगी वही नाम रखा जायेगा।


दीन-दुनिया से बेखबर ,सात-आठ महीने की बच्ची के सामने बहुत सारी चिट आ गयी, सभी अपनी तरफ से होशियारी दिखा रहे थे कि उनकी चिट ऊपर रहे और उठा ली जाये ... पर इस बच्ची का क्या करते उसने करवट बदली और ढ़ेरी के नीचे से 'निवेदिता' नाम की चिट निकाल ली। पूरे होश ओ हवास में, इस बिन्दु पर मैं ज़िम्मेदारी लेती हूँ कि अपना निवेदिता नाम मैंने खुद रखा 😊 


स्कूल/ कॉलेज में भी निवी, दिवी,नीतू,तिन्नी जैसे कई नामों से पुकारा सबने।जन्म के परिवेश ने सरनेम 'वर्मा' दिया जिसको विवाह ने बदल कर 'श्रीवास्तव' कर दिया।


नाम बदलने का सिलसिला यहीं नहीं थमा।लेखन तो बहुत पहले से ही करती थी परन्तु जब मंचो की तरफ़ रुख किया, तब उपनाम रखने की जरूरत अनुभव हुई। मेरी मेंटोर, जिन्होंने मुझको मंच का रास्ता दिखाया, उनका भी नाम 'निवेदिता श्रीवास्तव' ही था। एक साथ रहने पर हम तो मजे लेते पर एक से नाम सबको कन्फ्यूज भी खूब करते थे। इस उलझन से बचने के लिये मेरी वरिष्ठ ने अपने नाम के साथ 'श्री' जोड़ा और मैंने 'निवी' ।


जब थोड़ी समझ आयी,तब इस नाम की महान विभूतियों के बारे में भी जाना और एक अनकही सी ज़िम्मेदारी आ गयी कि बेशक मैं उनके जैसी कुछ विशिष्ट न बन पाऊँ पर जितना सम्भव होगा उतना सभो में सकारात्मक भाव भरूँगी और कभी भी किसी को धोखा नहीं दूँगी।

 निवेदिता श्रीवास्तव निवी 

लखनऊ

शनिवार, 3 जून 2023

विदाई : एक ख़याल भटका सा

 बिदाई शब्द से ही दो लम्हे अनायास ही दस्तक देने लगते हैं ... एक तो बेटी की विदाई और दूसरी इस दुनिया से, परन्तु जब चित्त सुस्थिर हो कर मनन करता है तब तो न जाने कितने पल याद आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी व्यक्ति, सम्बंध अथवा स्थान से स्वयं को अलग होते पाते हैं। कभी माँ के गर्भ में आने से पहले पूर्व जन्म के सम्बन्धियों से विदाई तो कभी हमसे भी अधिक हमको जाननेवाली माँ के गर्भ से, तो कभी घर से निकल कर माता पिता की उँगली थामे स्कूल को जाते हुए हम होते हैं वहीं कभी ज़िन्दगी की आँखों में आँखें डालने की तैयारी में माता पिता के थामे रहने वाले हाथों से पकड़ की विदाई ... घर, शहर, पितृ सदन से एक विद्यालय से दूसरे विद्यालय के लिए अथवा जीवन से ऐसे न जाने कितने पल होते हैं विदाई के, जो हम को एक से विलग कर के दूसरे स्थान पर ले जाते हैं।


विदा के पल बेहद पीड़ा भरे भी होते हैं, तब भी कभी-कभी मन बावरा हो कर इसी की चाहत करने लगता है। माया मोह के बन्धन में जकड़ा हुआ मन जैसे ही दुनियादारी की तन्द्रा से जाग्रत होता है, इन नश्वर बन्धनों के सत्य के निकट पहुँचने लगता है, वह इन सब से विदा होने की चाहत में जल बिन मीन सा छटपटा उठता है और चाहता है इन सब से विदाई!

विदाई के बारे में मेरी एक बहुत ही छोटी सी चाहत है कि इस दुनिया से विदा होते समय ही, सभी के दिल दिमाग से भी मेरी यादों की विदाई हो जाये ... यहाँ के नाते, रिश्ते, कर्म सब से मुक्त हो जाऊँ। आत्मा को मोक्ष मिलेगा या नहीं, यह नहीं जानती बस इतनी सी चाहत है कि यहाँ का हिसाब किताब यहीं निबट जाए और यदि नया जन्म होता है तो कोरी स्लेट सा हो ... किसी के, किसी कर्म की उधारी चुकाने / वसूलने के लिए नहीं।

भोलेनाथ! मेरी इस चाहत को पूरा करने की जिम्मेदारी तुम्हारी🥰
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

शनिवार, 20 मई 2023

सुनो न ...


जीवन हर पल बहता जाता 

गुनता रहता खुद को 

अलबेली नदी सरीखा

पर सुनो न ...

तटबंधों की पुकार भूल जाती हूँ!


नदी सी बनती जा रही हूँ

बाढ़ भी ले कर आती हूँ 

सूखती भी चली जाती हूँ

पर सुनो न ...

सागर तक जाना भूल जाती हूँ!


यादों का भँवर भी आता है

सपनों का बवंडर भी सताता है

पर सुनो न ...

अस्तित्व की गुल्लक भूल जाती हूँ!


कुछ किनारे तक आ कर 

तो कुछ मंझधार डूब जाते हैं

सबको पार उतारते उतारते

पर सुनो न ...

खुद को तारना भूल जाती हूँ!

निवेदिता श्रीवास्तव निवी 

लखनऊ

गुरुवार, 30 मार्च 2023

लघुकथा : छलनी

 


छलनी

अधर अपनी बहकती साँसों को सम्हालता मुस्कुरा पड़ा,"अरे मित्र तुम तो अपने सही स्थान पर ही हो और मैं इतनी बातें सुन-सुन कर कब से परेशान हो रहा हूँ कि तुम्हारे साथ क्या अजूबा हो गया!"

कर्ण भी स्मित बिखेर उठा,"ऐसा भी क्या सुन लिया मित्र ... अच्छा ... अच्छा पहले स्वयं को स्थिर कर लो, तब इत्मीनान से बताना।"

अधर थिरक उठे,"मित्र ! मेरी निद्रा लोगों की फुसफुसाहट से टूटी कि दीवालों के कान होते हैं और मैं डर गया कि यदि यह सच हुआ तो तुमको कितनी परेशानी का सामना करना पड़ेगा ... अभी तो कभी केशों के पीछे जा कर, तो कभी हथेलियों की नन्ही सी गुफ़ा में छुप कर तुम अनजानी ठोकरों और तीखी आवाज़ों से बच जाते हो जबकि दीवाल पर तो कोई सुरक्षित ओट भी नहीं मिलेगी।"

कर्ण ठहाके लगाने लगा,"मेरे लिए परेशान मत होना मित्र ... वो सब उस प्रजाति के कर्ण की बातें कर रहे थे जो अपने साथ छलनी लिये रहते हैं और उनका ध्यान दूसरों की त्रुटियों एवं दूषण पर ही अधिक रहता है।"
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

गुरुवार, 16 मार्च 2023

चाहत एक पल की ...

 जब लक्ष्मण बेहोश थे और सूर्योदय के पहले संजीवनी चाहिए थी, उस पल की एक चाहत ...


हे सूर्य देव! हम तुम्हारे वंशज
आस लिए मन मे विश्वास लिए
तुमसे न उगने की आस करें

चमक तुम्हारी खनक तुम्हारी
मन को आज बड़ा डराएगी
कालिमा रात्रि की लुभायेगी
एक दिन तुम देर से आओ
निशा को कुछ पल और दो

तुम जो आ जाओगे गगन पर
सूर्य डूब जाएगा अयोध्या के
अनुपम सूर्यवंशी के वंश का

आ जाने दो पवनपुत्र को
बूटी संजीवनी की आस लिये
राह तके हम विश्वास लिए

अरिदल के मर्दन के लिए
सतयुग के स्थापन के लिए
जनकसुता को सम्मान दिलाने
सौमित्र को नवजीवन दो

उर्मिला की आस न रूठे
राम की प्रतिज्ञा न टूटे
तटबंध विश्वास का बचाओ

अहा वो दिखे हनुमत प्यारे
तर्जनी संजीवनी साध उठाये
अब चमको तुम पूर्ण तेज से

पिनाक की टंकार सुनाओ
सूर्यध्वज जग में लहराओ
आओ रवि दिग्दिगंत चमकाओ!

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

रविवार, 12 मार्च 2023

होली गीत ... भांग लयी थी घोंट

होली गीत

भांग लयी थी घोंट, सखियों होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!

मेवा मिठाई थाल सजाए
पान औ मिश्री रच रच बनाये
भोले को चढ़ाई भांग अब की होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!
भांग लयी ....

गुलाल अबीर में इत्र मिलाया
सांवरिया से दिल है लगाया
रंग भर लीनी पिचकारी अब की होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!
भांग लयी ....

रेशमी लहंगा मन न भाया
सतरंगी चूनर परे सरकाया
मृगछाल बनाई पोशाक अब की होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!
भांग लयी ....

भांग लयी थी घोंट, सखियों होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ


सोमवार, 6 मार्च 2023

पिया आए ... (होली लोकगीत)


वन वन खोजूँ, मैं रसिया बाग रे

पिया आए तो गाऊँ मैं फाग रे 

पिया आए तो गाऊँ मैं फाग रे!


अलबेली लगती तेरी नगरिया 

करमन की तो उलझी डगरिया

आशा की थामे इक गठरी 

भटक रही है एक गुजरिया

रच रच गाये मन के राग रे!

आये पिया ...


बरसे बदरिया जिया डर जाये

पवन झकोरा अँचरा उड़ाये

रात अँधेरी राह है धुँधली

सखी दियना जगाया बड़े अनुराग रे

मेरी किस्मत में लग न जाये दाग रे!

पिया आए ...


महावर की जो बेल बनाई

हाथन में मेहंदी है रचाई

सिमटी सकुचि जाए नथनिया

ईंगुर से भर लिया माँग रे

जागा जागा रे हमरा सुहाग रे!

पिया आए ...

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

हाइकु

मीठी है छूरी

कहते मठाधीश

बनते ईश।


विश्वास पाश

छलिया है प्रकृति

करती नाश।


सदा हँसता

कसौटी पे कसता

दम घुटता।


सुरसा आस

हो रहा सर्वनाश

अबूझ प्यास।


प्रश्नों के घेरे

लगाते हैं पहरे

टूटती आस।


स्वार्थी का स्वांग

दावानल की आग

छाता विराग।


#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी

#लखनऊ

सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

माला में मणियाँ



सामान्यतः किसी भी जाप को करने के लिये माला की आवश्यकता होती है। यह माला रुद्राक्ष की हो सकती है, तुलसी अथवा स्फ़टिक की भी। परन्तु रुद्राक्ष की माला अन्य मालाओं की अपेक्षा श्रेष्ठ होती है, क्योंकि इसमें कीटाणुनाशक शक्ति भी होती है। जप के लिये माला में मणियों की संख्या भी निर्धारित होती है। बिना मणियों की पूरी संख्या के जप नहीं किया जाता है। इसके लिये माला में मणियों की संख्या १०८ निर्धारित की गयी है, परन्तु यह जिज्ञासा भी होती है कि  मणियाँ १०८ ही क्यों ? कम या अधिक क्यों नहीं? इस विषय में धार्मिक ग्रन्थों में अनेक मत हैं।


योग चूडामडी में साँसों के आधार पर १०८ मणियों की संख्या निर्धारित की गयी है। हम २४ घंटों में २१,६०० बार साँस लेते हैं। १२ घंटे का समय अपनी दिनचर्या हेतु निर्धारित है और बाकी के १२ घंटे का समय देव आराधना हेतु। अर्थात १०,८०० साँसों में ईष्टदेव का स्मरण करना चाहिये, किन्तु  इतना समय दे पाना मुश्किल है। अत: अन्त के दो शून्य हटा कर शेष १०८ साँसों में प्रभु स्मरण का विधान बनाया गया है। इसी प्रकार मणियों की संख्या १०८ निर्धारित की गयी है। जप विधान में धीरे-धीरे जप करने का फ़ल सौ गुणा बताया गया  है। १०८ को सौ से गुणा करने से १०,८०० साँसों की निर्धारित संख्या पूरी हो जाती है। अत: माला के १०८ मणियों की संख्या निराधार नहीं है।

   एक अन्य मत के अनुसार हिन्दू धर्म को मानने वाले सूर्य उपासना करते हैं और अर्ध्य देते हैं। सूर्य के १२ भेद होते हैं, उन में बारहवाँ भेद है विष्णु। वह सूर्य ब्रह्म रूप होता है। ब्रह्म का अंक ९ है। इस प्रकार १२ अंक वाले सूर्य का ९ अंक वाले ब्रह्म के साथ गुणा करने पर १०८ संख्या होती है। सूर्यात्मक विष्णु का जप करने का विधान १०८ बार है। इसलिये माला में १०८ मणियों का निर्धारण उचित प्रतीत होता है ।


दूसरी विचारधारा के अनुसार माला में मणियों की संख्या का निर्धारण नक्षत्रों के आधार पर है। नक्षत्र २७ होते हैं और हर नक्षत्र के चार चरण होते हैं। इस प्रकार २७×४=१०८होता है। नक्षत्रों की माला जहाँ दोनो ओर से मिलती है वहाँ सुमेरु पर्वत है और जप माला में भी सुमेरु होता है। इस तरह माला में मणियों की संख्या १०८ सिद्ध होती है।


एक अन्य विचारधारा के अनुसार ... सॄष्टि  के रचयिता ब्रह्म हैं । यह एक शाश्वत सत्य है। उससे उत्पन्न अहंकार के दो गुण होते हैं, बुद्धि  के तीन, मन के चार, आकाश के पांच,  वायु के छ, अग्नि के सात, जल के आठ और पॄथ्वी के नौ गुण मनुस्मॄति में बताये गये हैं। प्रकृति से ही समस्त ब्रह्मांड और शरीर की सॄष्टि होती है। ब्रह्म की संख्या एक है जो माला मे सुमेरु की है। शेष प्रकॄति  के  २+३+४+५+६+७+८+९=४४ गुण हुये। जीव ब्रह्म की परा प्रकॄति  कही गयी है, इसके १० गुण हैं। इस प्रकार यह संख्या ५४ हो गयी , जो माला के मणियों की आधी संख्या है ,जो केवल उत्पत्ति की है। उत्पत्ति के विपरीत प्रलय / विनाश भी होता है, उसकी भी संख्या ५४ होती है। इस माला के मणियों की संख्या १०८ होती है । माला में सुमेरु ब्रह्म जीव की एकता दर्शाता है । ब्रह्म और जीव मे अंतर यही है कि ब्रह्म की संख्या एक है और जीव की दस ,इसमें शून्य माया का प्रतीक है, जब तक वह जीव के साथ है तब तक जीव बंधन में है। शून्य का लोप हो जाने से जीव ब्रह्ममय हो जाता है।


माला का यही उद्देश्य है कि जीव जब तक १०८ मणियों का विचार नहीं करता और कारण स्वरूप सुमेरु  तक नहीं पहुंचता तब तक वह इस १०८ में ही घूमता रहता है। जब सुमेरु रूप अपने वास्तविक स्वरूप की  पहचान प्राप्त कर लेता है तब वह १०८ से निवॄत्त हो जाता है अर्थात माला समाप्त हो जाती है। फ़िर सुमेरु को लांघा नहीं जाता बल्कि  उसे उलट कर फ़िर शुरु से १०८ का चक्र प्रारंभ किया जाता है।

#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी'

#लखनऊ

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

लघुकथा : ध्वज

 लघुकथा : ध्वज 

अन्विता ," माँ हम सैनिकों के ऊपर हम अपने राष्ट्रीय ध्वज को क्यों ओढ़ाते हैं । ऐसे तो ध्वज सबका हाथ लग कर गन्दा हो जाएगा । और आप तो कहती हैं कि ध्वज को हमेशा ऊँचा रखना चाहिये ,ऐसे तो वो नीचा हो गया न।"


 माँ ,"नहीं बेटा सैनिकों को ओढ़ाने से ध्वज गन्दा नहीं होता ,बल्कि उसकी चमक और सैनिकों की शान दोनों ही बढ़ जाती है । हमारा ध्वज सैनिकों का मनोबल ,उनके जीवन का उद्देश्य होता है । जब तक वो जीवित रहते हैं ऊँचाई पर लहराते ध्वज को और भी समुन्नत ऊँचाई पर ले जाने को प्रयासरत रहते हैं । परंतु जब उनका शरीर शांत होता है तब यही ध्वज माँ के आंचल सा उनको अपने में समेट कर दुलराता है।"  

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

शिवोहम शिवोहम ...

 लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन 

कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!

 

सुमिरूँ तुझको ओ अविनासी

दरस को तेरे अँखियाँ पियासी

पिनाकपाणी जपूँ मैं स्त्रोतम

आओ उमापति मिटाओ उदासी

झुकाए मस्तक करूँ मैं अर्चन!

लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन 

कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!


कामनाओं के बादल घनेरे

मुझको माया हर पल घेरे

वासना के जाल हटाओ

याचना करूँ लगा के फ़ेरे

लगाई आस बनूँ मैं कुन्दन!

लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन 

कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!


नन्दि सवारी सर्प हैं गहने

तेरी महिमा के क्या कहने

छवि अलौकिक नेह बरसे

त्रुटि बिसारो जो हुई अनजाने

कृपा करो हे सिंधुनन्दन!

लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन 

कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!

निवेदिता श्रीवास्तव निवी 

लखनऊ

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

लघुकथा : दूसरा दीया

लघुकथा : दूसरा दीया


दिवी दीप प्रज्ज्वलित करती हुई 'ॐ नमः शिवाय' गुनगुनाती जा रही थी। पास से गुजरते हुए अंकित ने हँसते हुए टोका,"क्या यार कभी तो भोलेनाथ को भी आराम करने दिया करो, जब देखो तब उनको पुकारती रहती हो ... चाय छानते हुए भी ॐ नमः शिवाय और छलक गयी बूँद को साफ़ करते हुए भी ॐ नमः शिवाय ... घर का ताला बन्द करना हो या खोलना ... यहाँ तक कि गेट की घण्टी बजने पर भी, आनेवाले का नाम पूछने या अपने पहुँचने के लिए "आ रही हूँ"  बोलने की जगह भी ॐ नमः शिवाय ही बोलती हो। तुम उनको पुकारोगी नहीं तो क्या वो तुमको देखेंगे नहीं या ध्यान नहीं रखेंगे!"


दिवी की उपस्थिति में जैसे एक दिव्यता खिल गयी,"तुम सब सुन सको सिर्फ़ उतना ही नहीं, मेरी तो साँसों में भी भोलेनाथ की ही अरदास चलती है ... मेरी जाती हुई साँस भी आनेवाली साँस को ॐ नमः शिवाय ही बोल कर स्थान देती है। ऐसा नहीं है कि मेरी पुकार पर ही वो आएंगे, वो तो सदैव हम सभी के साथ हैं, बस हमारे नाम जाप करने से मन भी सात्विक रहता है जैसे एक दिये के नीचे का अंधेरा मिटाना हो तो उसके पास दूसरा दिया रख दो, दोनों के नीचे से कालिमा भाग जाती है ... बस ॐ नमः शिवाय यही दूसरा दिया हैं!" 

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

गुरुवार, 26 जनवरी 2023

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

 


सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत, जिला मेदिनीपुर में पंडित रामसहाय तिवारी जी के घर २१ फ़रवरी, सन् १८९९ में बसन्त पंचमी तिथि पर हुआ था। १९३० से इसी तिथि पर आपका जन्मदिन मनाया जाने लगा।

निराला जी की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरू हुई थी। कालान्तर में वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेज़ी और संस्कृत भाषा में निपुण हो गए थे। आप की रुचि घूमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लड़ने इत्यादि में भी थी। संगीत में आप की विशेष रुचि थी।

अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग आपने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। निराला जी हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। कविता के अतिरिक्त कथासाहित्य तथा गद्य की अन्य विधाओं में भी निराला जी ने प्रचुर मात्रा में लिखा है ।अनामिका, गीत कुंज, सांध्य काकली, अपरा इत्यादि आपकी मुख्य प्रकाशित #काव्य_कृतियाँ हैं। अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरुपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा इत्यादि आपकी मुख्य प्रकाशित #उपन्यास हैं। लिली, सखी, सुकुल की बीवी इत्यादि आपकी मुख्य प्रकाशित #कहानी_संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त निराला जी ने निबन्ध आलोचना, पुराण कथा, बालोपयोगी साहित्य भी लिखे हैं।

'निराला रचनावली' नाम से ८ खण्डों में आपकी पूर्व प्रकाशित एवं अप्रकाशित सम्पूर्ण रचनाओं का सुनियोजित प्रकाशन भी हुआ है।

ऐसी विशिष्ट लेखनी के धनी, यशस्वी रचनाकार एवं हिन्दी कविता के छायावादी युग के प्रमुख स्तंभ आ. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी शत-शत नमन 🙏

सोमवार, 23 जनवरी 2023

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

प्रत्येक भारतवासी की रगों में बहते लहू को जोश से भरने वाले बहुश्रुत नारे 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगी'  के जनक, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म, २३ जनवरी १८९७ में ओडिशा के कटक में, श्री जानकीनाथ बोस और श्रीमती प्रभावती देवी के परिवार में हुआ था। आप बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे और कालान्तर में इंग्लैंड की क्रैंब्रिज यूनिवर्सिटी से सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास की। १९२१ में अंग्रेजों द्वारा भारत में किए जाने वाले शोषण के बारे में ज्ञात होने पर, भारत को आजाद कराने का प्रण ले कर, इंग्लैंड में प्रशासनिक सेवा की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ अपने देश वापस आ कर आजादी की मुहिम में प्राणपण से जुट गए।

वर्ष १९४३ में बर्लिन में सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिंद रेडियो और फ्री इंडिया सेंट्रल की स्थापना की। भारत की आज़ादी के लिए प्रयास करने के लिए भगतसिंह के उत्कट जोश और गांधी जी के अहिंसाके सिद्धांत का सन्तुलन साधते हुए, मध्यम मार्ग को अपनाया था। आपने'आज़ाद हिंद फ़ौज' की स्थापना की और उसमें स्त्रियों को भी सम्मानित सहभागिता देते हुए 'झाँसी की रानी' रेजिमेंट भी बनाई।

सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु आज तक रहस्य बनी हुई है। आज तक उनकी मृत्यु से पर्दा नहीं उठ सका, बस कई चर्चाएँ उठती और मिटती रहीं। १९४५ में जापान जाते समय सुभाष चंद्र बोस का विमान ताईवान में क्रेश हो गया था, परन्तु उनका शव नहीं मिला था। बहुत समय तक एक चर्चा यह भी हुई कि नेता जी ने अपने जीवन का अन्तिम समय गुमनामी बाबा के रूप में गुमनाम जीवन जीया।

सुभाष चन्द्र बोस जी की जयन्ती को 'पराक्रम दिवस' के रूप में मनाया जाता है। आज नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती के अवसर पर आपकी कही हुई और जोश जगाती, हम सभी की प्रिय उक्तियों को याद कर के हम अपने श्रध्दा सुमन अर्पित करते हैं ...

१ : "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।"

२ : "यह हमारा कर्तव्य है, कि हम अपनी आजादी की कीमत अपने खून से चुकाएं।"

३ : "एक व्यक्ति एक विचार के लिए मर सकता है, लेकिन वह विचार, उसकी मृत्यु के बाद, एक हजार जन्मों में फिर से जन्म लेगा।"

४ : "आज़ादी दी नहीं जाती, छीनी जाती है।"

५ : "अगर कभी झुकने की नौबत आ जाए, तब भी वीरों की तरह झुकना।"

६: "अगर जीवन में संघर्ष न रहे, किसी भी भय का सामना न करना पड़े, तो जीवन का आधा स्वाद ही समाप्त हो जाता है।"

७ : “सफलता दूर हो सकती है, लेकिन वह मिलती जरूर है।”

८ : “सफलता हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी होती है, इसलिए किसी को भी असफलता से घबराना नहीं चाहिए।"

९ : "सबसे बड़ा अपराध, अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है।"

ऐसे जोशीले जज़्बात रखने और जगाने वाले वीर सेनानी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिवस पर शत-शत नमन 🙏💐💐
निवेदिता श्रीवास्तव निवी
लखनऊ

शनिवार, 14 जनवरी 2023

कैफ़ी आज़मी

 कैफ़ी आज़मी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले में १९ जनवरी, १९१९ को हुआ था। कैफ़ी आज़मी के परिवार में उनकी पत्नी शौकत आज़मी, इनकी दो संतान शबाना आज़मी और बाबा आज़मी हैं।


कैफ़ी आज़मी ने लखनऊ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई और उर्दू, अरबी और फ़ारसी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया।

कैफ़ी आज़मी में नैसर्गिक काव्य प्रतिभा थी। छोटी उम्र में ही वे शायरी करने लगे थे। यद्यपि उनकी आरंभिक रचनाओं में प्रेम-भावना प्रधान होती थी, किंतु शीघ्र ही उसमें प्रगतिशील विचारों का प्राधान्य हो गया। राजनीतिक दृष्टि से वे कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे और उन के पेपर 'कौमी जंग' में लिखते थे ।
कालांतर में फिल्मों में भी गीत लिखने लगे थे। फिल्मों में कैफ़ी आज़मी ने पहला गीत लिखा था 'रोते-रोते बदल गई रात'।
‘गरम हवा’ फ़िल्म की कहानी, पटकथा, संवाद कैफ़ी आजमी ने लिखे। इस फ़िल्म के लिए कैफ़ी आजमी को पटकथा, संवाद और बेस्ट फ़िल्म के तीन फ़िल्मफेयर अवार्ड के साथ ही राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। इसके अतिरिक्त भी कई अच्छी फिल्में आयीं थीं।

कैफ़ी आज़मी ने आधुनिक उर्दू शायरी में अपना एक ख़ास स्थान बनाया। कैफ़ी आज़मी की नज़्मों और ग़ज़लों के चार संग्रह प्रकाशित हुए हैं ... झंकार, आखिरे-शब,आवारा सिजदे, इब्लीस की मजिलसे शूरा।

कैफ़ी आज़मी बहुआयामी प्रतिभा से संपन्न थे। शायर, गद्यकार , नाटककार, फ़िल्मकार के साथ ही साथ कैफ़ी मज़दूर सभा, ट्रेड यूनियन में काम करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी के एक कुशल संगठनकर्ता थे। 

कैफ़ी आज़मी को अपनी विभिन्न प्रकार की रचनाओं के लिये कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं ...  साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ वार्ता फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार।

फ़िल्मजगत के मशहूर उर्दू के शायर कैफ़ी आज़मी का निधन १० मई, २००२ को दिल का दौरा पड़ने के कारण मुम्बई में हुआ।
ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सहकर कलमकार को शत-शत नमन 🙏
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

लेखन का आधार : भाव अथवा विधा



हाथों में लेखनी थामते और सीधी-टेढ़ी लकीरें खींचते हुए अनजाने में ही कभी पशु-पक्षी बन जाता है तो कभी कोई अक्षर ... उसके बाद इन अक्षरों को जोड़-जोड़ कर लिखने का क्रम शुरू हो जाता है। विचारों में परिपक्वता आते-आते विभिन्न विषयों पर लिखते-लिखते लेखनी सहज गति पा लेती है, तब दूसरों के लिखे हुए को पढ़ कर और सृजन के लालित्य से प्रभावित हो कर ही हम विविध विधाओं की तरफ़ आकर्षित हो कर सीखना शुरू करते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में विधा साधने के प्रयास में भाव कहीं दूसरी तरफ़ जाने लगते हैं और विधा का भाव से संतुलन साधना सुमेरु पर्वत लगता है, परन्तु अभ्यास करते रहने से यह संतुलन सध जाता है।

जहाँ तक लेखन का मूल तत्व विधा है अथवा भाव की बात है तो मेरे विचार से भाव को पकड़ कर ही विधा को साधना चाहिए। यदि भाव नहीं होगा तो सिर्फ़ विधा आधारित लेखन नीरस हो जायेगा।

यह सत्य स्वीकार करते हुए भी एक इससे भी बड़े सत्य को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हम जो कुछ भी लिखते हैं, जाने-अनजाने में किसी न किसी विधा के निकट ही होता है, आंशिक परिवर्तन के साथ ही वह उस विधा के ढाँचे में पूरी तरह समा जाता है। इसको मैंने स्वयं अनुभव किया है ... एक गीत लिखा था जिसपर मेरी मित्र की निगाह पड़ी और उन्होंने तुरन्त फ़ोन किया कि वह तो सरसी छन्द के बहुत निकट है। फिर हमने एकाध शब्दों के स्थान में आंशिक परिवर्तन किया और मेरे पास एक छन्द तैयार हो गया ... बाद में मैंने फिर आंशिक परिवर्तन किया और उसको दोहा गीतिका में परिवर्तित किया।

मैं अभी भी अपनी लेखनी को, छन्दों में बहुत कच्ची मानती हूँ, इसलिए लिखने का एक अलग तरीका अपना रखा है। कोई भाव उमगने पर, मैं उसको उमड़ती नदिया सी, मनचाही दिशा में बहने देते हुए, लिख लेती हूँ, फिर सोचती हूँ कि लिखा क्या है और किस विधा / छन्द के निकट पहुँच गयी हूँ। जैसा समझ आता है, उसके अनुसार पुनः उस सृजन को तराशती हूँ।

अन्त में यही कहना चाहूँगी कि भाव का ध्यान रखते हुए विधा को भी अवश्य साधना चाहिए ... बहुत नहीं तो किसी एक विधा को तो उर में बैठा ही लेना चाहिए।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

गुरुवार, 12 जनवरी 2023

स्वामी विवेकानंद जी

 स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म १२ जनवरी को कोलकाता में हुआ था। उनका पूरा नरेन्द्र नाथ विश्वनाथ दत्त था । उनके पिता का नाम श्री विश्वनाथ दत्त एवं माता का नाम श्रीमती भुवनेश्वरी देवी था। ये 9 भाई बहन थे। स्वामी विवेकानन्द जी को घर में सभी नरेंद्र पुकारते थे।अपने माता पिता की अच्छी परवरिश और संस्कारों के फलस्वरूप ही अपने जीवन में उच्च कोटी की सोच मिली।


१८८४ में उन्होंने कला विषय से ग्रेजुएशन की डिग्री ली और फिर उन्होंने वकालत की पढ़ाई की।स्वामी विवेकानंद जी की दर्शन, धर्म, इतिहास और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों में काफी रुचि थी इसी कारण वे इन विषयो को बहुत उत्साह के साथ पढ़ते थे यही वजह थी कि वे ग्रंथ और शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता भी थे।

स्वामी विवेकानंद जी ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया था और उन्हीं के बताए मार्ग पर चलते थे। राम कृष्ण परमहंस जी की मृत्यु के बाद विवेकानन्द जी ने वरहानगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की, बाद में जिसको 'राम कृष्ण मठ' का नाम दिया गया।

२५ साल की उम्र में ही उन्होंने सन्यासी धर्म स्वीकार कर के गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था और भारत की पैदल यात्रा पर निकल पड़े थे, जिसमें आगरा,अयोध्या, वाराणसी, वृंदावन, अलवर समेत कई जगहों पर गए। यात्रा के दौरान उन्हें जातिगत भेदभाव जैसी कुरीतियों का पता चला उन्होंने उन्हे मिटाने की कोशिश भी की।

४ जुलाई, १९०२ को ३९ वर्ष की उम्र में ही स्वामी विवेकानंद जी ने महा-समाधि ली थी।
ऐसी महान विभूति को श्रध्दा सुमन अर्पित करती हूँ 🙏
निवेदिता श्रीवास्तव निवी
लखनऊ

शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

यात्रा ...

 जीवन, मानव का हो अथवा प्रकृति का या फिर वनस्पति का, एक अनन्त यात्रा ही होती है। एक बिन्दु से प्रारम्भ हो कर मिट्टी में अथवा जल में समाहित हो कर बारम्बार प्रस्फुटित होता ही रहता है जीवन। पंचतत्वों से बना यह शरीर अपने एक जीवन की पूर्णता के बाद पुनः उन्हीं पंचतत्वों को उनका अंश दे देता है और फिर उन्हीं से वापस ले कर, अपना दूसरा, तीसरा जीवन चक्र पूरा करता है। यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह यात्रा स्थूल शरीर की अनवरत चलने वाली यात्रा है।


जन्म एवं पुनर्जन्म की यात्रा को भी कुछ लोग नहीं मानते हैं, तो कुछ मुक्ति अथवा मोक्ष की बात करते हैं। यहाँ एक बिन्दु विचारणीय है कि यदि जन्म एवं पुनर्जन्म को नहीं मानें, तब जन्म अथवा जीवन की अवधारणा कैसे होगी ... किसी एकदम ही अनजान को देख कर मन अनायास ही उसके प्रति नेह से भर बंध जाता है तो किसी को देख कर वितृष्णा जग जाती है। इस व्यवहार का कारण मुझको तो उससे पूर्वजन्म के अनुभव / सम्बंध ही लगते हैं। तथाकथित मोक्ष भी उस व्यक्ति को बन्धनमुक्त नहीं कर सकता क्योंकि वो बहुत से लोगों की अच्छी और बुरी दोनों ही आदतों के रूप में यादों में जीवित रह कर यात्रा करता ही रहता है।

व्यक्ति की एक यात्रा आध्यात्मिक भी होती है। पूर्वजन्मों के संचित कर्म के अनुसार ही, जन्म के समय परिवेश मिलता है। वर्तमान जीवन के परिवेश एवं पूर्वजन्मों के संस्कार ही हमारे कर्मों को संचियमान कर्मो में परिवर्तित करते हुए, प्रारब्ध निश्चित करते हैं। इस यात्रा में भटकाव भी बहुत है, उलझाते हुए प्रश्न भी हैं, परन्तु परमसत्ता के प्रति समर्पण ही गंतव्य तक पहुँचा देता है। सम्भवतः मेरी भी आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ हो गयी है ... भोलेनाथ के प्रति समर्पण भाव मुझको प्रत्येक व्यक्ति एवं परिस्थिति में शिव का ही आभास देता है।

एक और भी यात्रा है जिसके ज़िक्र के बिना इस विषय पर बात पूर्ण नहीं हो पायेगी। यह यात्रा ऐसी यात्रा है जिसमें कोई भी न तो अपनी तैयारी कर पाता है और न ही देख पाता है ... यह यात्रा है अन्तिम यात्रा ! साँसों के ताने बाने की माला के टूटते ही पंचतत्वों की गुनिया बिखर जाती है, परन्तु उसको उन मूल तत्वों तक वापस पहुँचाने के लिए यह यात्रा अनिवार्य हो जाती है। जाने वाला व्यक्ति किस विचारधारा का था यह सोचे बिना अपनी सुविधानुसार विविध कर्मकाण्डों का पालन करते हुए उसकी इस अन्तिम यात्रा को भी सम्पन्न करवाते हैं।

अन्त में यही कहना चाहूँगी कि यात्रा कोई सी भी हो, कैसी भी हो सदैव समभाव रखना और रहना चाहिए ... सबसे आवश्यक बात यह है कि यात्रा के लिए अपने कर्मों की गठरी का आकलन करते हुए, उसको संतुलन की धूप और हवा दिखाते रहना चाहिए। मोक्ष मिले अथवा न मिले पर किसी की यादों के गलियारे में कसैलेपन के आभास रूप बसेरा नहीं करना चाहिए ... इसके लिए आवश्यक है कि अंतरमन की यात्रा करते रहना चाहिए।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

गुरुवार, 5 जनवरी 2023

बाल गीत : साल नया नया है आया



साल नया नया है आया

खुशियाँ भी अनगिन लाया।


चुन्नू मुन्नू ने खोली बाँहे

सज्ज हुई सबकी राहें।


नई रागिनी नया तूर्य

कोहरे से झाँके है सूर्य।


तीन सौ पैंसठ साल के दिन

सज्ज आशाएँ अनगिन।


असफलता कभी जो आयें

सद्प्रयास से उन्हें भगायें।


कोहरे के जब छाये बादल

ठण्ड से सब हुए हैं पागल।


चुन्नू मुन्नू जी ने छोड़ा बिस्तर

दादू ठण्ड पर चलाओ नश्तर।

#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी 

#लखनऊ

बुधवार, 4 जनवरी 2023

आदरणीय गोपालदास नीरज जी जन्मदिन मुबारक !!!

 हिंदी साहित्य के जाने माने कवि गोपाल दास नीरज जी का जन्म ४ जनवरी १९२५ को हुआ था।

आपने हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया और मेरठ कॉलेज, मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया। कुछ समय पश्चात नीरज जी ने उस स्थान को छोड़ दिया और अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक बन गये।

कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता मिलने के बाद फिल्म जगत में गीत लिखने का निमन्त्रण मिला और पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे 'कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे' और 'देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा' बेहद लोकप्रिय हुए और वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला कई वर्षों तक जारी रहा।

आपकी लेखन शैली भी अद्भुत थी । कहीं एकदम सीधे-सादे ढंग से अपनी बात कह दी परन्तु माधुर्य भाव कभी कम नहीं लगा, तो कहीं शब्दों द्वारा चित्र ही उकेर दिया।
आप के सृजन में जीवन के निटकतम प्रतीक बहुत ही सहजता से मुखर हो उठे।

नीरज जी की कई कृतियाँ प्रकाशित कृतियाँ हुई हैं।संघर्ष आपकी पहली प्रकाशित कृति है। कारवाँ गुजर गया , फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिये, नीरज की गीतिकाएँ मेरी पसन्दीदा कृतियाँ हैं।

नीरज जी को पद्म श्री सम्मान, यश भारती, पद्म भूषण इत्यादि कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए हैं। फ़िल्म जगत में भी सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया।

ऐसी सशक्त एवं कोमलमना लेखनी से समृद्ध, आदरणीय गोपालदास नीरज जी को, उनके जन्मदिवस पर बहुत आदर से नमन करती हूँ 🙏
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

सोमवार, 2 जनवरी 2023

लघुकथा : बंजर

 लघुकथा : बंजर

लहराती इठलाती हुई सरिता अपने उद्गम से मदमाती गति में प्रवहमान स्मित बरसाती चली जा रही थी। अब उसको अपना प्रवाह मंद से, मंथर गति में परिवर्तित होता लगने लगा था। बीच-बीच में वह कनखियों से भाँपने का भी प्रयास करती थी कि किसी को उसके उद्गम स्रोत का पता तो नहीं चल गया है!

अपने प्रबल आवेग में बहती हुई, किनारे बसे तटों को देखती और उनकी हरीतिमा को अपनी ही उपलब्धि मान उच्च स्वर में अट्टहास करती। वह मार्ग के अवरोधों को युक्तियों से हटाती हुई, अपने ही एक किनारे को व्यर्थ मानती हुई, दूसरे किनारे की तरफ़ बढ़ती गयी। वो नादान भूले बैठी थी कि निःसन्देह किनारा बदल दिया हो उसने, परन्तु रूप बदल कर दूसरा किनारा, उसकी सीमा दिखाता सा साथ ही चल रहा था।

बदलती परिस्थितियों के फलस्वरूप वह किनारा, जिसको श्रेष्ठ मान वह मुड़ती जा रही थी, भी उसकी शोर मचाती लहरों में दम घुटता सा अनुभव करता, ऊब कर उसकी तरफ़ बाँध बनाने लगा था। बाँध की मजबूती और ऊँचाई का अनुमान नहीं लगा पाने के फलस्वरूप कुछ समय तो वह अकारण ही उस पर अपनी लहरों  से दस्तक देती रही। अनसुना रह जाने पर उसने छूटे हुए किनारे को वापस पकड़ना चाहा, परन्तु अब उस किनारे और सरिता की लहरों के बीच रुक्ष पड़े वीरान तट की दूरी आ गयी थी ... वह तट अपने दामन में पनप आये दलदल पर अपना अस्तित्व बनाने के लिए प्रयासरत था और सरिता कुछ अपने में ही सिमटती हुई नये किनारे की तलाश में आगे बहने का प्रयास कर रही थी।
सच! ये अवहेलना की बढ़ती दूरियाँ भी उर्वरा को बंजर कर देती हैं और उफ़नती लहरों को शुष्क!
#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी
#लखनऊ