जीवन हर पल बहता जाता
गुनता रहता खुद को
अलबेली नदी सरीखा
पर सुनो न ...
तटबंधों की पुकार भूल जाती हूँ!
नदी सी बनती जा रही हूँ
बाढ़ भी ले कर आती हूँ
सूखती भी चली जाती हूँ
पर सुनो न ...
सागर तक जाना भूल जाती हूँ!
यादों का भँवर भी आता है
सपनों का बवंडर भी सताता है
पर सुनो न ...
अस्तित्व की गुल्लक भूल जाती हूँ!
कुछ किनारे तक आ कर
तो कुछ मंझधार डूब जाते हैं
सबको पार उतारते उतारते
पर सुनो न ...
खुद को तारना भूल जाती हूँ!
निवेदिता श्रीवास्तव निवी
लखनऊ
सुंदर कविता।
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