बुधवार, 29 जून 2011

ये ज़िन्दगी .......



अंकुरित  होते 
पल्लवित  होते  
सांस-सांस श्वांस भरते 
एक-एक कर 
यूँ डग भरते
कब कहाँसे 
बढ़ चली ज़िन्दगी............

सोचा क्या-क्या 
क्या-क्या अरमान सजाये 
वर्षों का  सोच-सोच 
परत दर परत  तह लगाए
पता नहीं कैसे 
हाथ छुडा चली ज़िन्दगी ...........



आसमान को छूने की 
हसरत लिए ,पंखों ने इक 
आस भरी परवाज़ भरी ,
ना जाने कहाँ से सूरज सा चमक 
पंख जला गयी ज़िंदगी ........... 
                                -निवेदिता 



सोमवार, 27 जून 2011

"एक मुलाकात खुद से"


           बच्चों की छुट्टियां चल रही हैं |छोटा बेटा कल ही हॉस्टल से वापस घर आया है ,अपना प्रोजेक्ट पूरा कर के | दोनों बेटों को एक साथ देख पाने का अवसर बहुत समय बाद मिला है | इसको ऐसे भी कह सकतें हैं कि लम्बे अन्तराल के बाद पूरा परिवार इकठ्ठा हुआ है |बच्चों के पिताश्री भी अपना वनवास पूरा कर के वापस लखनऊ स्थानांतरित हो कर आ गए हैं | आजकल समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता ......
            ये देख कर अच्छा लगता है कि बी.टेक. के दूसरे और तीसरे वर्ष में पहुँच गए बच्चों में अभी भी बचपना बचा हुआ है ,चश्मे-बद्दूर !वही बचपन सी धमाचौकड़ी ,शरारतें  और खिलखिलाती आवाजें मकान को घर की गरिमा दे रहीं हैं | पर अब उनके वापस जाने के दिन जैसे-जैसे पास आ रहें हैं आने वाले अकेलेपन के बारे में सोच कर मन घबराता भी है | फिर खुद से खुद को ही तसल्ली भी देती हूँ कि ये इकठ्ठा होना अलग होने के लिए ही था और अब अलग होना भी फिर अगली छुट्टियों में इकठ्ठा होने के लिए है | 
             आज पौधों को देख रही थी तब यही लग रहा था कि अपना जीवन भी उन के जैसा ही है |हम दोनों ने मिल कर जैसे जीवन में एक पौधा लगाया था ,अपना परिवार शुरू कर के |जब तक बच्चे छोटे थे , एक कली की जैसे देख-भाल की जाती है संजोये रखा ,कि कहीं मौसम का कुछ गलत असर न हो जाए |जैसे-जैसे अपनी  उम्र के साथ स्कूल में सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते बड़ी कक्षाओं में पहुँचें लगा कि फूल  खिलने लगा है | सुगंध खुद न महसूस कर  पाए तो औरों ने कहना शुरू कर दिया |पर तब लगता था कि ये शायद तथाकथित सामाजिकता के नाते कह रहें हैं ,क्यों कि उनके दोस्त भी वैसा ही अच्छा कर रहें थे | आज भी अच्छा लगता है जब उनके और दोस्तों को भी अच्छे संस्थान में पढ़ते देखती हूँ | तब तो मुझे और भी अच्छा लगता है जब वो छुट्टियों में घर आने पर आंटी को याद कर चले आते हैं | अब जब  बच्चे अर्धकुसुमित पुष्प से हैं तब यही सोचतीं हूँ कि इन अनमोल पलों को सहेज लूँ , क्योंकि अब शायद उनके एक अलग गुलदान में प्रफुल्लित होने के दिन बहुत पास आ गए  हैं .......
              शायद यही जीवन की रीत है | शायद हम भी अपनी परिधि पूरी करने वाले हैं | कल हमने अपना जीवन शुरू किया था ,आज अब बच्चों की बारी है | पर ये मन इतना पगला है कि सब जानते समझते हुए भी इन पलों को रोक कर रखना चाहता है ...........
                                                      निवेदिता 

गुरुवार, 23 जून 2011

मैं तारा ....बाली की पत्नी या फ़िर सुग्रीव की या फ़िर ......

 ये कैसी विडम्बना है ,
ये कैसा उद्वेलन है .......
अपने प्रश्नों के ही घेरे में ,
क्षत-विक्षत अंतर्मन है !
कैसे परिचय दूँ ? नहीं-नहीं 
ये कैसी आप्त पुकार है ,
क्या दूँ अपना परिचय !
तथाकथित अपनों से ,
गयी हमेशा छली .......
मैं एक नारी ,तारा ,
विवाह बाद कहलाई 
बाली की पत्नी ........
बाली - सुग्रीव युद्ध में ,
सुग्रीव की विजय और 
बाली के पराभव  का फल ,
बना दी गयी सुग्रीव की वधु !
दो पुरुषों के जय-पराजय का 
परिणाम भुगतने को  ,
अभिशप्त क्यों है नारी ......
शायद ऐसे  ही सरमा भी 
तड़पी होगी जब ,
सुग्रीव हुआ पराजित और 
विजय के चिन्ह सा बाली ने 
किया उससे विवाह ........
सच मानवता भी कलंकित हुई 
हमारे रिश्तों की भूलभुलैया में !
शायद मेरा परिचय सिर्फ इतना है ,
मैं हूँ अंगद की माँ.......
शायद नारीत्व सिर्फ माँ के रूप में ही ,
अनुशंसा पा सुरक्षित है ...........
अन्यथा तो नारी मात्र एक साधन है ,
गुमान या नफरत दिखाने का ,उसमें 
ना तो दिल है ,ना ही दिमाग ,वो तो है 
फकत एक नश्वर शरीर ............
                                  -निवेदिता


बुधवार, 22 जून 2011

ये कैसी सामाजिकता ........

कभी-कभी लगता है कि ये सामाजिकता मन को हद से ज्यादा थकाने वाली चीज़ है | इस को निभाना भी एक तरह से अनिवार्य होता है | जैसे कि किसी भी परिक्षा का पहला प्रश्न हो !करना आवश्यक है ,वरना नम्बर कट जायेंगे | ऐसी थकाऊ और पकाऊ चीज़ें प्रचलन में नहीं आनी चाहिए .......और अगर आ भी गयी हो तो इनको हटाने में देर नहीं करनी चाहिए | 

अब आप सोच रहें होंगे कि ऐसा भी क्यों ..... चलिए हम कुछ मदद कर ही देतें हैं |

ज़रा सोचिये आप के किसी मित्र या पड़ोसी के घर पुत्री के जन्म की बधाई देने पहुँच गए और बड़े जोश के साथ बधाई के साथ मिठाई की मांग भी कर डाली | पर ये आपको चार सौ चालीस वोल्ट का झटका क्यों लग गया ! अरे भाई आपको जवाब में सिर्फ इतना ही तो सुनना पड़ा ,' मिठाई काहे की ये तो क़र्ज़ चढाने आ गयी ' | अब बताइये हो गयी न आपकी सामाजिकता की ऐसी तैसी |कहीं दूसरी या तीसरी पुत्री हुई हो ईश्वर ही आपको बचाए ........

छोडिये इसे ,पड़ोसी का बच्चा अच्छे नम्बर लाया है ,आप खुशी-खुशी अभिभावक को बधाई देते हैं कि बच्चे ने तो ख़ानदान का नाम रौशन कर दिया और उसको तोहफ़ा थमाते है |बच्चा भी बहुत खुश है ,
पर अचानक से बुजुर्गवार की आवाज़ आती है 'हाँ ये तो हो गया , अब देखो कहाँ जायेंगे ? थोड़े और नम्बर  होते तब .....' अब इस तब का क्या करें ?

बच्चे थोड़े बड़े हो गए और आप बस यूँ ही पूछ बैठे उस की शादी के बारे में ,बस आ गयी आफत |दहेज़ ,बेरोजगारी , सामाजिक विभेद जैसी सारी समस्याओं पर सुन लीजिये |अगर आप ने ये सब सोच कर पूछा ही नहीं ,तब असामाजिक होने का तमगा देने में पल भर का भी विलम्ब न होगा |अब आप क्या करें इधर कूआँ उधर खाई .........

ये सब तो तब भी एक बार को झेल लीजिएगा |सबसे बीहड़ ( क्षमा कीजियेगा इस शब्द के लिए ) स्थिति तब आती है जब कहीं शोक प्रकट करने जाना हो |ये ऐसी परिस्थिति होती है जब आप क्या बोले ये समझ ही नहीं पाते हैं |आप सब खामोश बैठे हैं ,अचानक ही किसी ने कुछ पूछ लिया अब सामने वाला शुरू हो जाता है कि उसे तो पहले ही आभास हो गया था ,उसने कहा भी था और लगे हाथ गवाही भी दिला देंगे |ज़रा उनसे पूछो कि अगर पता था तो सुरक्षा के उपाय पहले ही क्यों नहीं कर लिए ! उसके बाद भी ढीठ की तरह अगर अंतिम यात्रा के बारे में पूछ लिया ,तो ऐसा वर्णन होगा जैसे किसी बरात का विवरण दे रहे हों |कहीं गलती से किसी महिला से पूछ लिया तो आपका मालिक ईश्वर है ! उनका कौन गया ये भूल कर ,फूलों की चादर ,मेवे लुटाना ,दान की सामग्री ,तमाम भोज ..... इन सबका ऐसा रोचक विवरण प्रस्तुत कर देंगी कि आप सोचने को मजबूर हो जायेंगे कि ये सारा वर्णन शोक का तो होगा नहीं |कहीं आपको मिली सूचना गलत तो नहीं ?इतना तो हम भी समझते हैं कि वो लोग भी उस दुःख से भागना चाहते हैं |पर इस तरह का व्यवहार क्या मृत्यु का अपमान या उपहास जैसा नहीं लगता !

अब आप ही बताइये ऐसी सामाजिकता किस काम की जो आपके मन पर बोझ को बढ़ा दे ........... 

रविवार, 19 जून 2011

फ़ूलों को सम्हाल ,पत्तों को .......



बताओ तो ज़रा .......
मुझको क्यों किया 
हमेशा यूँ ही अनदेखा
फूलों को तो तुमने 
देखा भी सराहा भी 
तेज चलती हवाओं औ 
कीटों से संरक्षित किया 
पर ज़रा सोच कर देखो 
अगर पत्ते न होते ,तब 
तुम्हारे इन सुरभित  ,
सुवर्णित फूलों का क्या होता 
क्या काँटों से दामन बचा ,यूँ 
इठला कर मुस्करा पाते .....
हम पत्तों में छुप कर ही ,
सुरक्षित हो  शोभित होते  ,
तुमने भी कभी न  सराहा ,
न ही देख पाए पत्तों का 
उपेक्षित-अनपेक्षित सौन्दर्य ,
अलग से तो मनी प्लांट सा ,
सजा भी लिया ,पर जहाँ भी 
देखा दोनों को साथ - साथ ,
फूलों को सम्हाल ,पत्तों को 
बस यूँ ही नोंच फेंक दिया ...
एक बार सोच भी लो ,कोई ऐसा 
पौधा जिसमें कांटें हों ,फूल भी हो ,
बस पत्तों से हो वंचित ................
                              -निवेदिता 

शुक्रवार, 17 जून 2011

मुग्ध मन - प्राण


सुबह ने किरणें बिखराई  ,
महकती शाम निखर गयी 
रात जो लरजती सरकी ,
दिन ने थामी सुरीली कमान 
बस यूँ ही सोचते-सोचते ,
उम्र मेरी तमाम गयी ........
तलाशती रही अपनों को ,
जिनकी मुस्कराहट मेरी ,
साँसों को ऊर्जावान कर गयी !
अचानक लगी ठोकर ने ,
थामा थिरकते कदमों को ,
एक खुशबू ने उमगते  पूछा ,
कभी उन को देख भी थम जाओ ,
जिनके चेहरे पर खिलती स्मित ,
देख तुम्हारा मुग्ध मन-प्राण ........
                                          -निवेदिता 

बुधवार, 15 जून 2011

मन और मानस ........


मेरा मन और मानस ,
दोनों ही थे श्रांत-क्लांत ,
उलझनों को सुलझाते ,
खुद ही उलझते  जाते ,
मिला न कोई ओर-छोर,
ये जीवन है क्या .........
पुनर्जन्म और पूर्वजन्म ,
ये दोनों ही मकड़जाल से 
जकडे रहते हर तंतु को ,
हम भटक कर हार से जाते ,
वेद-उपनिषद-गीता-रामायण
जितने भी हैं धर्म ग्रन्थ सब ,
बस एक नाम ही  रह गए ,
साधु-सन्यासी या मौलवी 
पिलाते रहे वही उपदेश का 
बासी लगता सा प्याला ,
थक-हार कर सोचा ,ऐसा 
कुछ अलग सा कोई ,
और क्या बतलायेगा .........
अपना समाधान तो हम ,
खुद से भी पा सकते हैं ,
बस जरा सा अपने ,
अंतर्मन में ही तो झांकना है ....
मन मेरा ,निगाहें मेरी ,
उलझन भी तो ये मेरी !
अब नई उलझन आ खडी  - 
ये अंतर्मन .............
इस बला को कहाँ से पाऊँ .................
                                        -निवेदिता 
   

सोमवार, 13 जून 2011

दिये की लौ .........


दिये की लौ ,
हवा के थपेड़ों से ,
प्रकम्पित होती ,
कैसी चमकती ,
अंधेरी राहें बस यूं ही ,
रौशन कर जाती .......
पर कभी जा कर ,
देख तो लो बाती को !
दिया तो फिर एक ,
नयी बाती ले कर ,
हर दिन चमकेगा ,
पर जो जल-जल कर ,
दिये को रौशन कर गयी ,
क्या उस बाती को ........
भूले से भी कभी - कहीं ,
यादों में ला पायेगा !
क्या कभी समझ पायेगा ,
रौशनी तो बाती से ही थी ,
दिया तो सिर्फ नाम था ........
                            -निवेदिता 

रविवार, 12 जून 2011

अन्तिम यात्रा के साज श्रॄंगार..............



यात्रा कोई सी हो ,
या कहीं की भी हो ,
करनी ही पड़ जाती है ,
तैयारियाँ बहुत सारी !
जब छोटे थे खिलौने ,
सम्हालते ,थोड़े बड़े हुए 
तो थामा किताबों का हाथ ,
बस यूँ ही बदलते रहे ,
यात्रा के सरंजाम .....
अब जब अंतिम यात्रा की ,
करनी है तैयारी ,विचारों ने 
उठाया संशय का बवंडर !
सबसे पहले सोचा ,ये 
अर्थी के लिए सीढ़ी


या कहूँ बांस की टिकटी,
ये ही क्यों चाहिए .......
शायद इस जहाँ से 
उस जहाँ तक की 
दूरी है कुछ ज्यादा ...
क़दमों में ताकत भी 
कम ही बची होगी ,
परम सत्ता से मिलने को 
सत्कर्मों की सीढ़ी
की जरूरत भी होगी !
ये बेदाग़ सा कफ़न ,
क्या इसलिए कि ,
सारा कलुष ,सारा विद्वेष
यहीं छूट जाए ,साथ हो 
बस मन-प्राण निर्मल,
फूलों के श्रृंगार में ,
सुवासित हो सोलह श्रृंगार !

अँधेरे पथ में राह दिखाने ,
आगे-आगे बढ़ चले ,
ले अग्नि का सुगन्धित पात्र !
परम-धाम आ जाने पर ,
अंतिम स्नान क़रा ,
अंतिम-यात्रा की ,अंतिम 
धूल भी साफ़ कर दी !

सूर्य के अवसान से पहले ,
अग्नि-दान और कपाल-क्रिया ,
भी जल्दी कर ,लौट जाना ,
निभाने दुनिया के दस्तूर !
मैं तो उड़ चलूंगी धुंएँ के ,
बादल पर सवार ,पीछे 
छोड़ अनगिनत यादें ....
आज से सजाती हूँ ,
अपनी बकुचिया ,तुम तो 
सामान की तलाश में ,
हो जाओगे परेशान ......
चलो ,जाते-जाते इतना सा 
साथ और निभा जाऊँ ,
अपनी अंतिम पोटली बना ,
अपना जाना कुछ तो ,
सहज बना जाऊँ ..........
                         -निवेदिता  



  

शुक्रवार, 10 जून 2011

मैने महसूस किया है ..................


मैंने महसूस किया है ,
अपनी अंतिम साँसों को ,
माँ तुम्हारे आख़री लम्हों में !
तुम्हारी जाती साँसे ,जैसे 
लेती गयीं मेरा अल्हड़पन !
एक पल में ही स्तब्ध शून्य ,
बन खो गयी उन गलियों में ,
कहीं भूले से तुम दिख जाओ ,
उंगली पकड़ फिर सम्हाल दो !
पर दूर तक फैले सन्नाटे ने ,
जैसे मेरा अकेलापन और बढ़ा ,
कुछ पल और जीने की सुना दी सजा !
                                         -निवेदिता




बुधवार, 8 जून 2011

" विश्वास या अन्धविश्वास "

       कुछ विचार अथवा मान्यताएं चिर - पुरातन होते हुए भी चिर - नवीन ही 
प्रतीत  होती हैं | विश्वास  और  अंधविश्वास  तर्क - कुतर्क  दोनों  ही  के  लिए सनातन सत्य है | नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को अन्धविश्वासी होने  का  तमगा        देने के लिए सदैव ही तत्पर दिखाई पड़ती है | चलिए आज  हम  इस निरंतर 
चलने वाली बहस को एकदम ही नहीं छेड़ेगे ,परन्तु इस विषय को छोड़ेंगे भी नहीं |
     अगर एकदम तटस्थ हो कर मनन करें ,तो ये एक ही सिक्के के दो पहलू 
ही प्रतीत  होते हैं | जब हम  विश्वास  करते हैं ,उस  वक़्त  हम खुद को इतना अधिक  संतुलित और शक्तिशाली समझते हैं , कि हम  गर्व से ऐलान सा  ही कर देते हैं  कि किसी भी किस्म का  अंधविश्वास  हमको  छू  भी  न सकेगा|
हमको पता भी नहीं चलता है कि कब हम विश्वास करते-करतेअन्धविश्वासी  
हो जाते हैं | विश्वास का अर्थ है  किसी की  सत्ता को स्वीकार  करना और जब
हम किसी को स्वीकार कर लेते हैं तब उस पर  अविश्वास कर पाना असंभव 
होता है |अब आप स्वयं ही सोच कर देखें इस स्वीकृति से ही अंधविश्वास की
अधिकार-परिधि के घेरे में हम खुद को घिरे हुए पाते हैं |
    इस पूरे प्रकरण में सबसे हास्यास्पद स्थिति यही रहती है कि तथाकथित       
विश्वास - अंधविश्वास को हम तर्कों की  कसौटी  पर नहीं कस सकते | इससे 
छुटकारा पाने का इकलौता मार्ग  है अविश्वास | परन्तु प्रश्न तो  फिर वहीं रह
गया और जब किसी भी वस्तु अथवा विचार का अस्तित्व ही नहीं  है  हमारे लिए ,तब उस की विवेचना का कोई भी हल नहीं मिल सकता | अंधविश्वास,
विश्वास अथवा अविश्वास - इन  सभी मन:स्थितियों को कोई  भी नाम दे लें,
ये सब सिर्फ हमारा खुद अपने आप में आत्मबल बढाने का एक साधन मात्र 
हैं | अगर कोई  भी मान्यता हमारे परिवार ,समाज और स्वयं हमारे लिए भी 
नकारात्मक नहीं है तब उसको कोई भी नाम दे लें क्या फ़र्क पड़ता है !

रविवार, 5 जून 2011

शब्द सारे नि:शब्द हैं ..............

  
शब्द सारे नि:शब्द हैं ,
स्वर सभी खामोश हैं ,
भावनाएं अवाक हैं ,
आत्मा भी स्तब्ध है ,
ये कैसी आज़ादी ,
ये कैसा देशप्रेम है !
प्रशासन के विकृत ,
आतंक के सामने ,
निर्जीव हर तंत्र है ,
हमारा कसूर क्या ,
सिर्फ यही है कि ,
हम भारतीय हैं !
हमारे पार्श्व-रक्षक ,
ना तो अमरीका है ,
और ना ही पाक है ,
अपने ही घर में ,
दुत्कार दिए जाने को 
विवश राष्ट्रभक्त हैं !
त्रासदी तो यही है ,
ये आतंकी ही हमारी  ,
सता में नीति-निर्धारक हैं,
हमला चाहे मुम्बई में हो ,
या फिर संसद में ,
आरोपितों के स्वत:ही ,
प्रमाणित अपराधों पर ,
लम्बी बहसें होती है ,
जेल की कोठरी भी ,
फाइव स्टार होटल सा ,
सजाई जाती है ,
ऐसा दोगला व्यहार क्यों !
विचारों की भिन्नता ,के 
विरोध का प्रकटीकरण ,
इतना वीभत्स क्यों ....
शायद यही हमारे ,
तथाकथित प्रजातंत्र के ,
अवसान की शुरुआत है !



शनिवार, 4 जून 2011

सुनो ना ........

सुनो ना ,
आज इन हवाओं में ,
अजीब सी 
सरगोशियाँ हैं ,
मेरी कमियाँ 
बताते-बताते 
फेहरिस्त 
कुछ ज्यादा
बढ़ती गयी .......
पर ज़रा इनसे ,
पूछ कर देखो 
जब मैं ना हूँगी ,
तब.........
मुझमें तो नहीं,
क्यों कि मैं 
हूँगी ही नहीं 
पर क्या मेरी कमी 
कभी समझ पायेंगें .......
               -निवेदिता 

शुक्रवार, 3 जून 2011

बाल - श्रम




आज सुबह सुबह घंटी की झंकार ने, 
मेरी उनींदी सपनीली आँखे खोली ,
देखा तो सामने एक लडकी खड़ी थी ,
काम की तलाश में पुकारती ,मैंने पूछा 
क्या काम कर पाओगी तुम तो हो इतनी छोटी ,
उसने कहा जो भी आप कहें कर लूंगी ,
घर की सफाई ,या फिर बर्तनों की धुलाई ,
रोटी ही बनवा लें ,या कपडे संवरवा लें !
उसकी अवस्था देखती मैं कुछ कह पाती 
तभी कुछ शोर सा सुन वो बाहर को भागी ,
मैं भी थी उसके पीछे-पीछे ,देखा दो-तीन बच्चे 
खाने को छीनाझपटी सी कर रहे थे ,
मैं अवाक उन्हें देखती ही रह गयी,
उसने उनका झगडा सुलझाया ,मेरी प्रश्न भरी 
निगाहों से नज़रें चुराती किसी तरह बोल गयी ,
"हाँ ! मेरे ही बच्चे हैं ये......."
मैं अवाक उसको देखती ही रह गयी  ,
खिलौनों से खेलने की नन्ही सी उम्र में ,
अपने ही बच्चों की उंगलियाँ थामे उनके 
बचपन को बचाने की चिंता में ,
कम उम्र में ही प्रौढ़  होती गयी  ,
मैं नि:स्तब्ध इसका कुछ भी समाधान निकाल पाने में 
असफल हो रही थी .................
अनायास ही मैंने कहा चलो कहीं तुम्हारे लिए  काम 
खोजती हूँ ,पर एक शर्त है ,काम सिर्फ 
तुम करोगी और बच्चों को स्कूल भेजोगी ....
अपने जैसा उनको न बनाओगी ,और 
उनका विवाह इस बचपन में भूल के भी न करोगी
अपने माँ बाप जैसा पाप तुम न करोगी ........   
अब उस की निगाहें थी प्रश्न भरी  ,
शायद मुझ को वो समझ ही नहीं पायी ,
या कहूं मैं ही उसको समझा नहीं पायी !!!
                                            -निवेदिता    

गुरुवार, 2 जून 2011

खुशियाँ......................


बड़ी खुशियों की तलाश में ,
दम तोड़  जाती नन्हीं खुशियाँ !
सूत दर सूत बढ़ कर ही ,
बन पाता वृक्ष विशाल .....
अंकुरण काल से ही ,बीज में 
छुपी रहती अपार संभावनाएं ....
जरा नन्हे से बीज से झांकती ,
पत्तियों को सँवार कर तो देखें  ....
बाल-मन की किलकारियों पर झूमती ,
नन्ही हथेलियों को सहला कर तो देखें ........ 
नींव की अनदेखी पड़ जायेगी भारी ,
जरा रेत पर इमारत बना कर तो देखें  .....
कहकहे लगाना हो मुश्किल तो ,
जरा थोड़ा सा मुस्कुरा कर तो देखें  .......
एवरेस्ट की चढ़ाई मुमकिन नहीं ,
जरा घर में ही क़दमों को बढ़ा कर तो देखें  .......
चमकते सूरज को नहीं देख सकते ,
जरा जर्रे को माहताब बना कर तो देखें  .....
दुनिया को हंसा नहीं सकते तो क्या ,
एक मुरझाये चेहरे को गुदगुदा कर तो देखें  ......
बड़ी खुशियाँ जब आयेंगी तब की तब देखेंगे ,
एक छोटे से प्रोत्साहन पर खिलखिला कर तो देखें .....
ये सुकून भरी साँसे इतनी मुश्किल भी नहीं ,
जरा प्यार से हाथ बढ़ा कर तो देखें ..........