मंगलवार, 29 सितंबर 2020

लघुकथा : कर्मफल

 लघुकथा : कर्मफल


अस्पताल के अपने बेड पर वह पीड़ा से छटपटाते हुए कराह रहा था ,परन्तु उसके आसपास से सब अपने ही दर्द और अपनों की तकलीफों से त्रस्त उसको अनदेखा सा करते हड़बड़ी में गुजरते ही जा रहे थे । तभी एक युवती ने उसके पास आ संवेदना से उसका माथा सहलाया और उसकी पीड़ा उसके नेत्रों और वाणी से बह चली ,"पता नहीं किस पाप का फल भुगत रहा हूँ ! मेरे साथ तुम भी तो ... अब तो मुझे मुक्ति मिल जाती ।  "


युवती ने उसको शांत करने का प्रयास किया ,"बाबा ! ऐसा क्यों कह रहे हो । सब ठीक हो जायेगा ।"


वह फफक पड़ा ,"बेटे के न रहने पर तुम पर शक करना और साथ न देने के पाप का ही दण्ड भुगत रहा हूँ मैं ,पर बेटा तुमको किस कर्म का यह फल मिल रहा है जो मुझ से बंधी हुई इस नारकीय माहौल में आना पड़ता है ।" 


"बाबा ! मैंने अपनी कमजोरी या परिस्थितियों से वशीभूत हो कर आपकी गलत्त बातों का विरोध नहीं किया और चुप रह कर साथ दिया ,उसका ही कर्मफल है यह । गलत्त करने से भी कहीं बड़ा गुनाह गलत्त का साथ देना होता है ," उसके चेहरे की उलझनों पर वीरान शांति छा गई थी । 

                      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 27 सितंबर 2020

#मातृत्व_एक_एहसास



मातृत्व एक ऐसा शब्द ,ऐसी अनुभूति है जो सृजन के कोमल भाव से सिंचित हो कर पूर्णता की कोमलतम भावनाओं से मन को आप्लावित कर देती है । माँ बनने का भाव पूरित होता है अपने शरीरांश के जन्म से ,परन्तु मातृत्व के अनुभव के लिये सिर्फ माँ बनना ही पर्याप्त नहीं है । इसके लिये सिर्फ तन ही नहीं अपितु मन के प्रत्येक कण को भी ,माँ बनने के अनुभव को प्रत्येक आती जाती साँस में पूरे समर्पण भाव से जीना पड़ता है । 


हम स्वयं के शरीरांश के प्रति एक अलग ही प्रकार का लाड़ ,दुलार ,मान ,गुमान ,सुख ,दुःख ,चिंता सब अनुभव करते हैं  और इसी को मातृत्व मान बैठते हैं । जबकि माँ बनना एक शारीरिक क्रिया है और मातृत्व भावनात्मक । कभी कभी हम ऐसी स्त्रियों को देखते हैं जो स्वयं तो माँ नहीं बनी होती हैं परंतु सभी के प्रति उन के मन में ममता का अथाह सागर हिलोरें मारता रहता है । सजीव - निर्जीव ,पशु ,पक्षी ,मनुष्य सबका ध्यान वो अपनी सन्तति की तरह ही रखती हैं । जबकि कई बार ऐसी माँ को भी देखते हैं जो सन्तति के प्रति भी सिर्फ अपने दायित्वों का ही वहन करती हैं । मातृत्व के कोमल भाव से बहुत दूर , उन की सन्तति और उनकी उपलब्धियाँ उनके लिये मात्र एक स्टेटस सिंबल ही होती हैं । सन्तति जब तक सफल होती रहती है वो उनकी रहती है ,वहीं उन की एक भी असफलता उन के लिये शर्मिंदगी का कारण बन स्वयं को दूर कर जाती है । 


मेरे विचार से #मातृत्व एक ऐसा भाव है जो समष्टि के साथ जुड़ कर सब के उत्थान के प्रति निरन्तर प्रयत्नशील रहता है । कभी भी असफल होने वाले पल में अकेला नहीं छोड़ सकता है । मातृत्व को किसी में भी कभी भी कोई गलती अथवा कमी नहीं दिखेगी । उसको तो उसकी ऐसी त्रुटि ही दिखेगी जिसका परिमार्जन किया जा सकता है । 


मातृत्व एक ऐसा भाव है जो किसी को भी देख कर नेह से भर कर एक कोमल स्मित उसके मन से लेकर तन पर छा जाए । कितनी भी दुष्कर परिस्थितियाँ हों ,मातृत्व का भाव एक शीतल छाया बन सदैव साथ रहता है । 

          ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 26 सितंबर 2020

अभिव्यक्ति की आज़ादी

 अभिव्यक्ति की आज़ादी 


अभिव्यक्ति और आज़ादी ,ये दोनों ही शब्द स्वयं में बेहद सशक्त भाव समेटे हुए हैं और जब मिल कर आ जाते हैं तब तो इनकी प्रखरता और भी बढ़ जाती है । पहले इनकी अलग - अलग विवेचना कर लेते हैं।


प्रत्येक पल इंसानी मस्तिष्क में जाने अथवा अनजाने भी ,विचारों का झंझावात चलता रहता है । ये भाव स्वयं में हर्ष ,विषाद ,पीड़ा ,आक्रोश ,विवशता सबसे आलोड़ित होते रहते हैं । स्वयं को भाषा अथवा हाव - भाव के द्वारा अपने मनोभावों को जब तक किसी पर जाहिर नहीं कर लेता है ,तब तक मन में अजीब सी उलझन मची रहती है । कभी - कभी मन के संत्रास और उल्लास को किसी के समक्ष उलीचने से भी ,उस का समाधान नहीं मिलता है परंतु मन स्वयं को बहुत हल्का अनुभव करता है । साधारण शब्दों में कहें तो बस यही प्रगटीकरण ही #अभिव्यक्ति है । 


पशु पक्षी हों अथवा मानव ,कोई भी जीवधारी कभी भी बँधना नहीं चाहता है । किसी भी प्रकार का बन्धन उसके सहज प्रवाह को बाधित करता है । वह सहज सतत प्रवहमान रहना चाहता है ,बगैर किसी रोक टोक के । मानसिक ,शारीरिक ,आर्थिक ,सामाजिक जैसे किसी भी प्रकार के बंधन से मुक्त होना ही #आज़ादी कही जाती है ।


मन जब इन दोनों को भिन्न धरातल पर पा जाता है तब एक स्वतः स्फूर्त विचार पनपता है और इन दोनों को एक साथ कर देता है और तब उभरती है चाहत इन दोनों  को एक साथ  #अभिव्यक्ति_की_आज़ादी के रूप में पाने की । ये दोनों अलग - अलग तो सम्हले रहते हैं परंतु साथ में रखने पर संतुलन साधना आवश्यक हो जाता है । हम सभी विवेक सम्पन्न और विचारशील हैं अपने भावों को अभिव्यक्त करना चाहते हैं और करते भी हैं ,परन्तु विशेष ध्यान देना चाहिए कि हमारी आज़ाद अभिव्यक्ति किसी दूसरे की आज़ादी का हनन नहीं कर रही हो । हमारी अभिव्यक्ति इतनी संतुलित होनी चाहिये कि वह यदि किसी अन्य की तरफ इंगित करती भी है तो वह कभी भी उसकी कमी बताती न लगे ,अपितु त्रुटि दिखाती और सौहार्दपूर्ण समाधान भी बता रही हो । यदि इस संतुलन के साथ हो तब ही अभिव्यक्ति की आज़ादी का स्वागत है ,जो कि अनिवार्य भी है ।

       .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 23 सितंबर 2020

लघुकथा : कर्मफल

 लघुकथा : कर्मफल


अस्पताल के अपने बेड पर वह पीड़ा से छटपटाते हुए कराह रहा था ,परन्तु उसके आसपास से सब अपने ही दर्द और अपनों की तकलीफों से त्रस्त उसको अनदेखा सा करते हड़बड़ी में गुजरते ही जा रहे थे । तभी एक युवती ने उसके पास आ संवेदना से उसका माथा सहलाया और उसकी पीड़ा उसके नेत्रों और वाणी से बह चली ,"पता नहीं किस पाप का फल भुगत रहा हूँ ! मेरे साथ तुम भी तो ... अब तो मुझे मुक्ति मिल जाती ।  "


युवती ने उसको शांत करने का प्रयास किया ,"बाबा ! ऐसा क्यों कह रहे हो । सब ठीक हो जायेगा ।"


वह फफक पड़ा ,"बेटे के न रहने पर तुम पर शक करना और साथ न देने के पाप का ही दण्ड भुगत रहा हूँ मैं ,पर बेटा तुमको किस कर्म का यह फल मिल रहा है जो मुझ से बंधी हुई इस नारकीय माहौल में आना पड़ता है ।" 


"बाबा ! मैंने अपनी कमजोरी या परिस्थितियों से वशीभूत हो कर आपकी गलत्त बातों का विरोध नहीं किया और चुप रह कर साथ दिया ,उसका ही कर्मफल है यह । गलत्त करने से भी कहीं बड़ा गुनाह गलत्त का साथ देना होता है ," उसके चेहरे की उलझनों पर वीरान शांति छा गई थी । 

                      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

ये ख़ामोश औरतें ....



घुटी घुटी सी साँसों में साँस भरती 

बेबसी से पलके खोलती मुंदती 

हिचकियों में बेहिचक खटखटाती

दम तोड़ती हैं ये खामोश औरतें !

                            

आसमान छूते कहकहे

दम तोड़ते अबोली सिसकी पर 

आसमान छूने को उचकती

बिना रीढ़ की ये लुढ़कती औरतें !   


ये औरतें न बस औरतें ही हैं

बेबात ही हँस के रो देती हैं

सब के आँसू दुलार से सुखा 

आँचल अपना भिगोती ये औरतें !


खुशियों से चमकती सी आँखें देख

सबकी खुशी में तृप्त होती ये औरतें

सबके दिल का आईना चमकाती 

दम तोड़ती सिसकियों सी लरजती ये औरतें !

                        ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

पत्र मुहावरों से भरा

 


ऐ #कलम_के_धनी मेरे मन !

अकसर ही तुमको बोल देती थी कि #तीन_पाँच_मत_करो और तुम जो बोलनेवाले होते थे उसको #गूंगे_के_गुड़ जैसा अनुभव करते #चुप्पी_साध_लेते थे और मेरे मन के बिखराव को अपने #अंक_में_समेट मुस्करा देते । मैं तो बहुत बाद में समझ पायी थी कि इस #रंग_बदलती_दुनिया में इस तरह #अक्ल_के_घोड़े_दौड़ाना या #अरण्य_रूदन करना व्यर्थ है क्योंकि सभी #अपनी_खिचड़ी_अलग_पकाना चाहते हैं । यह समझने में मुझे बहुत समय लग गया कि उनकी मुँहदेखी करती बातों के पीछे उनका मतलब सिर्फ #अपना_उल्लू_सीधा_करना ही था । मतलब निकल जाने के बाद उनकी #अंगारे_उगलती बातें सुन कर मेरी समझ तो जैसे #घास_चरने ही चली जाती थी ।


परन्तु जानते हो मैं भी बिलकुल #अड़ियल_टट्टू की तरह #अंगारों_पर_पैर_रखते_हुए ही फिर उनको समझाने का प्रयास करने लगती हूँ ... इस पूरी रस्साकशी में मुझे #अँगूठी_में_नगीने सरीखे साथी मिले ,जिन्होंने #अंधा_बनाने वालों के समक्ष मुझ #अल्लाह_मियाँ_की_गाय सरीखी कलम का साथ दे कर उनके लिये #अंगूर_खट्टे कर दिये । 


और पता है दोस्त ! इन चन्द नगीनों का साथ मेरा मनोबल इतना बढ़ा गया कि #अपने_अड्डे_पर_चहकने वाले #मुँह_की_खाने लगे और मैं #अपनी_खाल_में_मस्त रहने लगी । अब न जाने कितनी अठखेलियाँ सूझती हैं कि जब जहाँ का  #अन्न_जल_बदा_होगा वहीं हम #अर्श_से_फर्श तक का जीवन जियेंगे । #आग_पर_तेल_छिड़कने वाले लोगों से दूर हो उनका साथ ही करना चाहिये जिनकी प्रवृत्ति ही #आग_पर_पानी_डालने की हो ,बाकी #आँख_पर_पड़ा_पर्दा तो समय हटा ही देता है ।


अब तक के जीवन में इतना तो समझ ही गयी हूँ कि कितना भी #आटा_गीला हो जाये #आँखें_तरेरने वालों के न सोच कर #आकाश_पाताल एक कर सब कुछ #आँचल_में_बाँधना ही श्रेयस्कर है । #"आस्तीन में साँप" को पालना तो #"आग पानी को साथ" रखने जैसा ही है ,जो ध्यान न देने पर #"आठ - आठ आँसू" रोना पड़ता है ।


#"इधर -उधर की बात" करने से तो अच्छा है #"इतिश्री" करना ,क्योंकि #"इज्जत उतारना" तो सब जानते हैं ,परन्तु यह तो हमको ही बताना होगा कि #"इन तिलों में तेल" नहीं जिससे वो #"अपना उल्लू सीधा" कर सकेंगे ।


अब सोचती हूँ कि तुमसे ही #"दिल हल्का" कर लिया करूँगी और सुनो ! तुम #"ईद का चाँद" मत बन जाना । तुमसे बातें करते ही #"उन्नीस - बीस करती ज़िंदगी के #"काले बादल" न जाने कहाँ #"उड़नछू" हो जाते हैं । 


"राम - सलाम" करती रहना और मेरे मनोबल की रीति पड़ती "गागर में सागर" भर जाना ... तुम्हारी "किताबी कीड़ा" 'निवी'

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

#अतिथि_एक_दिन_का ( हिंदी दिवस )



#अतिथि_एक_दिन_का ( हिंदी दिवस )


अच्छी भली सो रही थी और सपनों में ,पर्वतों के पार दूर कहीं क्षितिज पर सैर कर रही थी कि अचानक ही धीमे से तेज ... और भी तेज होती "खट - खट" की आवाज़ ने आराम करती हुई पलकों को जबरदस्ती खोल ही दिया । 


मैं भी किसी प्रकार उनींदी पलकों को खुला रखने का प्रयास करती सी दरवाज़े की तरफ बढ़ चली ,"कौन है भई  ? इतनी सुबह - सुबह किसी के घर कोई आता है क्या ? " 


दरवाज़े को खोलती मैं वहीं पड़ी कुरसी पर बैठ गयी ,"आ जा भई ,अब बैठ भी जा और अपना नाम ,काम सब बता ही दे ।" 


सामने बड़ी ही आकर्षक परन्तु प्रौढ़ छवि खड़ी दिखाई दे रही थी । अरे हाँ ! बड़ी ही मनमोहिनी मुस्कान भी छाई थी उस प्रभावित करते चेहरे पर ,"बैठती हूँ बेटे परन्तु तुम अपनी आँखें तो खोलो ... बन्द होती पलकों से तो तुम कुछ स्पष्ट देख भी नहीं पाओगी और न जाने कितने विचार आ कर मेरी छवि धूमिल कर ओझल कर देंगे ", अब उसकी हँसी थोड़ी और मुखर हो गयी । 


अब मैंने सप्रयास स्वयं को और भी चैतन्य किया और उस को और भी ध्यान से देखने लगी । उसके केशों की प्रत्येक लट अपने स्थान पर एकदम दुरुस्त थी , जैसे किसी ने उनको किसी क्रीम से व्यस्थित कर रखा हो । केशों को विभक्त करती माँग भी कितनी सीधी सी थी जैसे आप ,तुम ,तुम्हारा ,तू कौन सा शब्द किसको क्या बोलना है पहले से ही पता हो । उन्नत मस्तक गर्व से चमक रहा था परन्तु कहीं भी गुमान की झलक भी नहीं थी । आहा ! आँखें कितनी ममता से भरी ... जैसे पलकों की बाँहें फैला सबको अपने आँचल में ही समेट लेंगी । उसके अधर भी कितने सहज भाव से प्रत्येक भाषा ,ज़ुबान ,बोली ,लैंग्वेज सब बरसती फुहारों में अविरल स्रवित कर रहे थे ।


उसके व्यक्तित्व की गरिमा से प्रभावित हो कर स्वयं को संयत करती सी मैं अपने इस एक दिन के गरिमामयी अतिथि के स्वागत को ततपर हो उठी ,"आइये पहले आप यहाँ बैठिए तो ... चाय - कॉफी क्या पसंद करेंगी ... या फिर कुछ ठंडा लेंगी ... नाश्ता साथ में ही करते हैं ... "


वह विहँस पड़ीं,"अरे वाह ! एक दिन के अतिथि ,वह भी बिना बुलाया ... इतना सत्कार कर रही हो ! तुम सब तो कल खूब ठहाके लगा रहे थे कि पूरे साल जिसको भुलाये रखा ,सिर्फ एक दिन के लिये उसको याद क्या करना ... या जो ढ़ंग से बोल भी नहीं पाते ,वो क्यों कोई दिवस मना कर पर्व जैसी महत्ता दें ... फिर मेरी पसंद - नापसंद को इतना महत्व देना ,कुछ विचित्र नहीं लग रहा क्या ? "


मैं उनकी मित्र की तरह छेड़ने वाली बातों में उलझ कर फिर से उनके पास ही बैठ गयी ,"आप ऐसा क्यों कह रही हैं ... मैं तो आपसे आज पहली बार मिली हूँ ,आपका नाम तक नहीं जानती ,फिर मैं आपको कुछ भी गलत्त कैसे बोल सकती हूँ ... कल आप कब मिली थीं मुझसे ,मुझे तो कुछ भी याद नहीं आ रहा ।" 


"यही तो विद्रूप है कि मैं सदैव तुम्हारे साथ रहती हूँ, परन्तु तुम पहचानती ही नहीं हो । मैं #हिंदी हूँ ... कल ही तो तुमने मेरा दिवस - #हिंदी_दिवस  मनाया था और मजाक बनाया था कि जो साल भर कभी हिंदी नहीं बोलते उनको मुबारक ... जो उनहत्तर ,उन्यासी ,नवासी में अंतर नहीं समझते उनको #हिंदी_दिवस मुबारक ... । मेरी आज की स्थिति एक ही दिन में तो आयी नहीं है । जैसे एक - एक दिन कर के मेरा चलन कम हुआ है वैसे ही एक - एक दिन कर के ही मुझको मेरी पूर्वस्थिति वापस मिलेगी ",वह स्नेह से मेरे हाथों को सहलाती हुई उठ खड़ी हुई । 


अपने विचारों में उलझी मैंने जब सामने देखा ,तब वहाँ जाते हुए कदमों का एक धुंधला साया भर था । सम्भवतः मुझे उलझनों में घिरा देख मेरी पहचान मुझ से हाथ छुड़ा कर कहीं दूर जाने लगी थी । 


मैं एक दृढनिश्चय के साथ उठ खड़ी हुई और चल दी अपनी मातृभाषा के आँचल में हिंदी दिवस ,हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़े के सितारे टाँकने !

                                 ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिन्दी : दोहवलि

 हिन्दी हिन्दी सब  कहें ,सीखे नहीं विधान ।

स्वर व्यंजन भी याद हो ,मात्रा का रख ध्यान ।।


उच्चारण भी शुद्ध करो ,प्रवहमान तब जान ।

तत्सम तद्भव लो समझ ,त्रुटियों का ले ज्ञान ।।


अलग - अलग हर भाव के ,इसमें रखे निशान ।

कण्ठ तालु अरु हलक से ,बोलो समझ विधान ।।


नाम संबंध के अलग, रहती भिन्न पुकार ।

समझो इसकी महत्ता ,भाषा है संस्कार ।।


   ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 13 सितंबर 2020

मन बावरा है न ....

 मन बावरा है न 

आज चाँद बनने को मचल पड़ा

मानो माँ की उंगली थामे 

उचका था बचपन चाँद पकड़ने को !


चाँद बनना है पर वह

आसमान में चमकने वाला नहीं 

न ही पानी से भरे थाल में लहराता !


चाँद बनना है पर वही 

चातक की आँखों में चमकता आस बन 

शिशु की किलकारी में किलकता मामा बन !


 मेरे चाँद से मन को पाने के लिये

मत सजाना प्रयोगशाला 

नहीं खोजना गड्ढ़े मन की गहराई में !


बस जगा लेना सम्वेदनाओं को 

मेरा ये चाँद विहँस बस जायेगा

चमकता ही रहेगा तुम्हारे आनन पर !

              ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 7 सितंबर 2020

लघुकथा (संवाद ) : दास्तान ए लेखनी और शमशीर ...

 दास्तान ए लेखनी और शमशीर ...


मेरे सामने तुम कुछ नहीं हो । तुमको तो चलने के पहले स्याही रूपी रक्त पीना पड़ता है ।


हाँ .. हाँ ... यदि मैं पहले रक्त पीती हूँ ,तब तुम भी तो बाद में रक्त ही तो पीती हो ।


तुमको तो इन्सान अंगुलियों के इशारे से नचाता रहता है ,जबकि मुझे चलाने में उसको पूरी ताक़त लगानी पड़ती है ।


मुझको चलाने के लिये वह बचपन से ही विधिवत शिक्षा भी लेता है और यदि तब नहीं सीख पाता तो उम्र के किसी भी पड़ाव पर सीखता है। तुम्हारी याद तो उसे तभी आती है ,जब वह इतना शक्तिशाली हो जाता है कि तुमको सम्हाल सके । 


बोल तो ऐसे रही हो जैसे तुम कोई बहुत तुर्रम खाँ हो ... 


हाँ ! हूँ मैं तुर्रम ख़ाँ 


कैसे ? 


अरे ! मुझे जानती नहीं हो ,जरा सा भी लहरा जाऊँ तो ख़ुदा को जुदा और अर्श को फ़र्श कर दूँ ... मेरे शब्दों में इतनी ताक़त है ।


हाँ ! मान गयी तुम मुझसे शक्तिशाली हो । मैं जब लहराती हूँ तब एक ही बार में जीवन ले लेती हूँ ,परन्तु तुम तो जिन्दा रहते हुए भी कई - कई बार मारती रहती हो । 

                                     ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

रस्मे उल्फ़त

 आज की इस आपाधापी के दौर में 

कुछ यूँ रस्मे उल्फत चलो निभाते हैं


कुछ मैं करती हूँ कुछ तुम समेट लो

चलो कुछ यूँ अपने काम बाँट लेते हैं


नानाविध भोजन हम पका लाते हैं 

बर्तनों की निगहबानी तुम कर लो


झाड़ू डस्टिंग तो हम कर ही आएंगे 

पोछे की बाल्टी जानम तुम ले आओ


कहो तो सौंफ इलायची हम चख लेंगे 

तुम तो बस वो सौंफ़दानी उठा लाओ 


किधर चल दिये अब ऑफिस को तुम

जरा रुको लैपटॉप मैं ले कर आती हूँ


वक्त का पहिया चल पड़ा उल्टी चाल

दो से चार हुए अब चार से फिर दो हुए


ई सी जी के रिपोर्ट सी  देखती चेहरा

कभी कुछ शब्द भी तुम  लुटा जाओ 


बीतती जा रही अनमोल ये ज़िंदगी

बाद में तुम भी याद कर पछताओगे


कितने लम्हों को थामे ये 'निवी' खड़ी

दो चार लम्हे तुम भी कभी खोज लाओ 

       .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 2 सितंबर 2020

लघुकथा ( संवाद ) : कनिष्ठा


सुनो 

हूँ

बहुत सोचा पर एक बात समझ ही नहीं आ रही😞

क्या 

अधिकतर लोगों को देखा है कि वो तीन उंगलियों में ,यहाँ तक कि अंगूठे में भी अंगूठी पहन लेते हैं ,परन्तु सबसे छोटी उंगली को खाली ही छोड़ देते हैं । 

हा ... हा ... सही कह रहे हो 

अरे हँसती जा रही हो ,कारण भी तो बताओ 

हा ... हा ... अरे सबसे छोटी होती है न किसीका ध्यान ही नहीं जायेगा इसीलिये ... 

मजाक मत करो सच - सच बताओ न ,तुम क्या सोच रही हो 

अच्छा ये बताओ ,हम कहीं जाते हैं तो तुम मेरी छोटी उंगली ,मतलब कनिष्ठा क्यों पकड़ लेते हो 

अरे वो तो किसी का ध्यान न जाये कि हमने एक दूजे को थाम रखा है ,बस इसीलिये ... 

अब समझे तर्जनी पकड़ाते हैं किसी को सहारे का आभास हो इसलिये ...

हद्द हो यार तुम ,मैं बात करूंगा आम तुम बोलोगी इमली ... 

सुनो तो ... कनिष्ठा प्रतीक है प्रेम का ...

प्रेम का ? 

हाँ ! हम जिसके प्रेम में होते हैं उसकी हर छोटी से छोटी बात भी महत्व रखती है ...

वो तो ठीक है परन्तु कनिष्ठा को आभूषण विहीन क्यों रखना ?

क्योंकि जब दो प्रेमी अपने होने का एहसास करते हैं तब वो कनिष्ठा पकड़ते हैं क्योंकि रस्सी का सबसे छोटा सिरा पकड़ लो तो दूरी खुद नहीं बचती । पकड़ में मजबूती नहीं होती पर विश्वास होता है । अब इस छुवन में आभूषण बैरी का क्या काम ... हा ... हा ...

तुम भी न बस तुम हो 💖💖

                ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

गीत : प्रणय की बेला

 देख रही मैं सपन अनोखे ,

आ पहुँची प्रिय प्रणय की बेला !


निशा भोर की गैल चली है

तारों ने तब घूँघट खोला ,

मन्द समीर उड़ाये अंचल

रश्मि किरण का मन है डोला ,

पागल मन हो जाता विह्वल

रोज सजाता जीवन मेला !


माया में मन भटक रहा है

पल - पल करता जीवन बीता ,

अनसुलझी लट खोल रहा है

जीवन का हर घट है रीता ,

अंत समय जब लेने आया

मन फिर से हो गया अकेला !


बन्द नयन वह खोल रहा है

सच जीवन का वह बतलाता ,

तेरा - मेरा झूठा नाता

रह रह कर वह है समझाता ,

विहग तो उड़ जाये अकेला

लोभ सजाये मन का तबेला !

   .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'