गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

पलकों की ओस .........



अश्रु  पुकार क्यों खारा करूँ
मैं तो हूँ पलकों की ओस
ऐसे-कैसे अपना परिचय दूँ
यही मनन करूँ बारम्बार
ये लरजते हुए आँसू सिर्फ
स्वाद ही नहीं बेस्वाद करते
अच्छी चमकीली राहों को
धुंधलेपन का अभिशाप
लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
विरासत में दे जाते हैं !
ओस तो सुरभित सुमन में
रिश्तों की नमी को सहेजे
अतिशीतलता से बचा जाती
हर आती-जाती हवा के तेज
ठिठुरते थपेड़ों से सामने
टिके रह जाने की जिजिविषा
सहेज सहलाती बलखाती
वैसे भी कुछ तो बदलाव
हर दिन सौगात में ले आता
बस अश्रुओं को बदल दिया
पलकों की ओस से ........
                        -निवेदिता

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

मौसम का अवसाद !

           ठंड का मौसम व्यक्ति को आत्मकेंद्रित कर देता है | पूरी दुनिया से काट कर एकदम अकेला | जल्दी से छा  जाने वाला अन्धेरा ,बिना किसी मजबूरी के घर की गर्म परिधि से न निकलने पर मजबूर कर देता है | परन्तु यही एहसास अपनी व्यस्त जीवनचर्या को जल्दी समेट कर मानसिक शून्यता का एहसास करा जाता है | अपने निकट सम्पर्कों से कट कर सिर्फ फोन तक सीमित हो जाने पर सोचने को बहुत कुछ देता है |
           ऐसा अकेलापन अक्सर अवसाद को भी जन्म देता है | ज़िन्दगी से कुछ झूठी-सच्ची शिकायतें भी सर उठा झाँकने लगती हैं | पाया-अनपाया का हिसाब करते हुए ,निराशा का कोई लम्हा भारी हो जाता है और खुद अपने ही अस्तित्व से इतना वैरभाव बढ़ जाता है कि आत्मघाती कदम उठाने में एक पल भी नहीं लगता है | आत्महत्या के अधिकतर हादसे इस मौसम की उदासी के कारण भी होते है जहां नकारात्मकता हावी रहती है |
           हर तरफ फ़ैली हुई धुंध चौबीस घंटों में से मात्र सात-आठ घंटे ही दूसरों की शक्लें और आवाज़ सुनने देती है | मौसम की धुंध मन में भी घर कर लेती है | मृत्यु के बाद शरीर का ठंडा हो जाना ,शायद इस सच का ही आभास देता है | शरीर के अंत से जैसे रिश्तों की यादों पर भी पाला पड़ जाता है ,वैसे ही वंचित होने का एहसास अवसाद में बदल कर अंत की तरफ कदमों को बढ़ा लेता है | इस ठंड के मौसम के अवसाद से ज़िन्दगी अक्सर हार जाती है !

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

बर्फीले एहसास !!!


अजीब से हैं
ये बर्फीले एहसास
इस रूह को भी
कंपकंपाते ..
साँसों को थामने 
बढ़ते दुआओं के
साए तले जज़्बात !
तुमने तो खुद को
छुपा ही लिया
ज़िन्दगी की
गर्माहट तले ,
फिर मुझे क्यों दी
बर्फीली चट्टान की
ठिठुरती शय्या !
चाय के प्याले से
उठती भाप के
गुनगुनी गुबार तले
औरों को आवाज़ दी
कड़क बर्फ लगाने को !
तुम तो गर्म दुशालों में
सिकुड़ ठंड भगाते रहे
मुझे बर्फ पे सुला
सिकुड़ने को मजबूर किया !
ये कैसे दुनियावी दस्तूर
मेरी निर्जीव शक्ल
औरों को दिखलाने को
मुझको ही विकृत बनाते रहे !
                              -निवेदिता 

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

कारवाँ गुजर गया .........

      
             कभी नन्हे-नन्हे लडखडाते क़दमों से तो कभी लम्बे स्थिर डग भरती ,ज़िन्दगी यूँ ही अपनी तरंग में अनजाने से भवितव्य की तरफ ,कभी राजसी तो कभी फ़कीरी अंदाज़ में बढती चली जाती है | लगता है कि हम ज़िन्दगी को एक सुविचारित और सुनियोजित रूप देने के प्रयास में सफल हो गये ,परन्तु तभी ज़िन्दगी सिर्फ हवा के एक हल्के झोंके की तरह लहरा कर अपनी ही राह हमें उड़ा ले जाती है | ये राह कभी हमारी मनचाही डगर से बेहतर लगती है ,तो कभी एक कराह भरती पगडंडी सी !
             हर उठता कदम ज़िन्दगी के एक नये रूप से परिचित कराता है | ये कभी एक विद्यालय से दूसरे विद्यालय की तरफ तो कभी एक स्थान से दूसरे स्थान की तरफ ,ऐसे ही नित नवीन अन्वेषण करता है | ऐसा परिवर्तित रूप सिर्फ स्थान ही नहीं रिश्तों के भी नये रूप दर्शाता है | कभी हम जिन रिश्तों को जीवन का सबसे बड़ा सच मानते हैं ,बदलता समय उन के बारे में सोच पाने की भी मोहलत नहीं देता है |
              बदलता समय ज़िन्दगी को ऐसे खूबसूरत मोड़ पर ला देता है कि बस ज़िन्दगी के हर पल को जीने की चाहत उमड़ जाती है | हर आती-जाती साँसे ज़िन्दगी को संवारना ,अपना बनाना चाहती हैं | संजीवनी से भरे लम्हों पर फिर वही अनदेखी और अनजानी सी ज़िन्दगी अपनी शर्तें ले कर आ जाती है अपने ही रंग में रंगने के लिए | साँसों की डोर को थामने की जगह एक ही प्रबल वेगपूर्ण झटके से तोड़ जाती है !
               आदरणीय "नीरज जी" की पंक्तियाँ याद आती हैं "कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे"....
                                                                                                                                      
                                                                                                                                      
               

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

मुकम्मल जहां ......

          
               एक शब्द "काश" अक्सर हमारी ज़िन्दगी के पन्नों पर उभर आता है | ये सब कुछ होते हुए भी आ सकता है ,जो ज़िन्दगी से असंतुष्टि नहीं दिखाता ,बस सिर्फ अपनी बेलगाम दौडती कल्पना का एक परिदृश्य झलका जाता है | कभी अंधियारे लम्हों में अपूर्ण बना शून्य का एहसास दिला जाता है | लगता है कि जो भी चीज़ हमारी ज़िन्दगी में नहीं है ,उसके बिना हमारा संसार अधूरा है | इसको मुकम्मल बनाने के लिए ,इसके हरएक लम्हे को जीवंत करने के लिए उस अप्राप्य की तलाश में जो हमारे हाथों में है उसको भी गंवाते चले जाते हैं | हो सकता है कि जब वो मिल जाए तो शायद वह कुछ मिल भी जाए ,परन्तु तब शायद जो हमारे पास है वो हमसे छूट सकता है |
            अभी जो भी समीकरण हमारे जीवन में बना है ,उसमें ही हमारा स्वत्व झलकता है | इसके हर लम्हे में हम ही साँसे लेते हैं | परछाईं के साकार होने की तलाश में व्यर्थ का भटकाव सिर्फ वंचित होने का एहसास दे कर हर सांस को दूभर बना देगा | इसका एक सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू ये भी है कि जो परिस्थिति किसी एक के लिए सम्पूर्ण सी होती है वो दूसरे के लिए अपूर्ण होती है !
              शायद इस भटकाव का अंत अपने खुद के जीवन के प्रति एक वितृष्णा को जन्म देगा और एक वीरानेपन के एहसास के साथ उसका अंत तलाशना चाहेगा | जीवन की राहें जब जिस डगर ले जाएँ ,उसके हर पग का मान रखते हुए जीना चाहिए | मुकम्मल जहां की खोज तो की जा सकती है पर उसका मिलना कुछ असम्भव सा ही है , क्योंकि  ये तो हर पल बदलती मानवीय प्रकृति ही है जो बदलते मानसिक परिवेश के साथ वस्तुस्थिति को देखने का नजरिया भी बदल देती है |

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कारण तुम ,निवारण तुम


होती एक टुकडा कागज़ का ,
तकिये के नीचे ठौर पाती ....
होती कोई ख़्वाब सलोना ,
तुम्हारे नयनों में बस जाती
होती प्यारा भाव तुम्हारा ,
दिल की धडकन में बस जाती
होती रंगीला रंग तुम्हारा ,
तुम्हारे अंगों में रच जाती
मैं तो हूँ बस साथ तुम्हारा ,
तुम में ही जी लेती हूँ
एक अटपटा सा सच तुम्हारा ,
साँसे तुमसे ही उधार लेती हूँ
किससे करें ये शिकवे ,
कैसी भूलभुलैय्या सी शिकायतें
इनका कारण ही नहीं
निवारण भी हो सिर्फ तुम !
                           -निवेदिता 

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

आज तो बस ............




आज निगाहें पीछे मुडना चाहती है
कहीं कुछ छूट गया था ,थोड़ा पहले
वक्त समेट संजोये  रखना चाहतीं हूँ
कहीं यादों में ,वादों में जो रह गया
अनसुना बस वही सुनना चाहती हूँ
सदा फूलों की ,ओस की ,रोशनी की
देखती सुनती बोल गुनगुनाती रही ,
आज सिर्फ इस धुंध की ,पतझड की
अंधियारी गहराइयों की नीरव पड़ी
राह की धूल बुहार हटाना चाहती हूँ
जानती हूँ पीछे मुडना ,आगे की राहें
कहीं सपनों सा अटक ठहरा जायेंगी
उसी दायरे में घूमती सी रह जाऊंगी
गति थमने की सजा ,राह भटक चुके
लम्हों की नियति कैसे बनी रहने दूं
पीली पड चुकी पत्तियों को निहार कर
बसंत सा खिलखिलाना चाहती हूँ ........
आज तो बस पीछे मुडना चाहती हूँ !
                                   -निवेदिता 

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

घर या बच्चों की प्रयोगशाला !


        
           " घर " इस का जब जिक्र भी होता है ,बस एक सुकून सा छा जाता है | ये एक ऐसी दुनिया होती है जहाँ हम अपने मन की ज़िन्दगी जीने को स्वतंत्र होते हैं ,बगैर किसी आडम्बर के | माता-पिता उपलब्ध संसाधनों में परिवार के सदस्यों के लिए हर सुविधा जुटाने का प्रयास करते हैं | जब बात उनके बच्चों की आती है ,तो वो अपनी सीमा से भी आगे जा कर उनको संतुष्ट करना चाहते हैं | इस सुख और सुकून भरे माहौल में थोड़ी उलझनें तब जरूर सर उठाती लगती हैं जब वो अपने बच्चों को हर क्षेत्र में शीर्ष पर ही देखना चाहतें हैं |

          शीर्ष पर उन नन्हों को पहुचाँ पाने की प्रक्रिया में अक्सर जब अपने आसपास देखते हैं तो पारम्परिक रूप से सफल हुए बच्चों और उनके अभिभावकों के साथ सलाह लेने का प्रयास करते हैं | पर यही वो पल होता है जब बच्चे और अभिभावक एक दूसरे से थोड़े से दूर होने लगते हैं | अभिभावक सफल प्रमाणित हो चुके बच्चों की रीति के अनुसार उनका पालन-पोषण करना चाहते हैं | बच्चों का ध्येय और उनकी मंजिल उस से कुछ अलग भी हो सकती है  ,अभिभावक अक्सर ये मानने को तैयार नहीं होते | बस इस पल से अभिभावक घर को प्रयोगशाला बना देते हैं ,जिसमें से एक सर्वगुणसम्पन्न प्रोडक्ट निकलना ही होगा |

           हर व्यक्ति का व्यक्तित्व सर्वथा भिन्न होता है | दो भिन्नताओं को एक समान बनाने का प्रयास दो तरह की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है ....... एक तो उपहास की और दूसरी दमन की ! इन दोनों में से किसी भी परिस्थिति में उसकी अपनी प्रतिभा का लोप हो जाना निश्चित है | बच्चे को एक स्वतंत्र और परिपूर्ण व्यक्तित्व मान कर उससे विमर्श कर के कोई भी निर्णय लिया जाए ,तो उसका सफल होना अवश्यम्भावी होगा ,क्योंकि उसमें बच्चे की पूरी सार्थक ऊर्जा भी सम्मिलित होगी | अगर सिर्फ अपनी इच्छा से कोई निर्णय लेंगे ,तब भी बच्चा सफल हो तो सकता है ,पर उसको ज़िन्दगी से एक शिकायत हमेशा बनी रहेगी कि ये उसकी रूचि की अनदेखी है | इस तरह की शिकायत कभी-कभी हाथों के छूटने की सी अनुभूति करा जाती है |
             बच्चों की जब आँखें भी नहीं खुल पा रही होती हैं ,तबसे ही वो हमारे हाथों को थाम लेते हैं ,पर ये हमारा व्यवहार ही है जो उनका हाथ धीरे-धीरे हमारे हाथों से छूटता चला जाता है | इस स्थिति की भी विडम्बना ये है कि छूटते हुए हाथों के लिए हम अपने उन बच्चों को कसूरवार मानते हैं जिनमें हमारी साँसे बसती हैं | अगर हम बच्चों का और उनकी इच्छा का सम्मान करेंगे तभी हम उनसे भी समान और संतुष्टि पायेंगे | घर को उनके लिए  ऐसी जगह बनायें जहाँ हर व्यस्तता और सफलता के बावजूद भी आना चाहें ,न कि एक ऐसी प्रयोगशाला बना दें जहां से भागने के लिए वो छटपटायें  !
                                         -निवेदिता 

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

"रिश्ते".........एक नाज़ुक सा रेशमी ख़याल


          "रिश्ते" इतने छोटे से शब्द में जैसे पूरी दुनिया समा जाती हैं | हम पूरा जीवन बिता देते हैं ,इन अबूझ से रिश्तों की तलाश और समझ में | कभी अनजाने से रिश्तों में पूरी दुनिया समा जाती है तो कभी जाने पहचाने रिश्ते हाथ छुड़ा आगे बढ़ जाते हैं | जिन रिश्तों को ओस की बूंदों जैसे संजोना चाहते हैं ,प्रयास करते हैं पता नहीं कब कैसे अजनबी बन जाते हैं और जिन रिश्तों को बेपरवाही से देखतें हैं वो सबसे सुरीला साज़ बन जाते हैं !
           रिश्तों को समेटने -सहेजने का कोई निश्चित फार्मूला आज तक कोई भी नहीं बना पाया | पल-पल राह देखते हैं एक नया आकार देने को एक नई पहचान देने को ,पर जब वो मिल जाते हैं सहेज पाना इतना मुश्किल क्यों बन जाता है ! इस मुश्किल को बढ़ाने में सबसे बड़ा कारण बातें ही होतीं हैं .... कभी खुद की तो कभी दूसरों की | इन बातों की परत लगा दें या गाँठ बना लें ,यहीं इस समस्या का मूल निवास रहता है | इस परत अथवा गाँठ में पूरी सतह नहीं दिखाई पडती ... कुछ न कुछ अनदेखा अजनबी सा रह जाता है जो रिश्तों में आती दूरी का कारक बनता जाता है |
          कभी-कभी रिश्तों में इस हद तक दूरियाँ आ जाती हैं कि चाह कर भी उसको सुधार नहीं पाते | रिश्तों को तोड़ने की शुरुआत गलतफ़हमी से ही होती है | जैसे-जैसे समय बीतता जाता है और चीज़ें जुडती जातीं हैं | जिन रिश्तों की तलाश एक नाज़ुक सा रेशमी ख़याल होती है ,उन की परिणति ऐसी तो नहीं होनी चाहिए !

                   तमाम उम्र गवाँ दी जिन की तलाश में 
                   बस इक पलक झपकी और बिखर गये   
                   ये कैसे नातें ,ये कैसी बातें  कब - कैसे 
                   वक्त की मुट्ठी से रेत सी फिसल गयी 
                                                            -निवेदिता 

बुधवार, 30 नवंबर 2011

याद न जाये बीते दिनों की ........

           " यादें " इस रूप में ईश्वर ने हम सब को बहुत बड़ी दुआ दी है | अगर अपने जीवन से यादों को हटा दें तो सम्भवत: ज़िन्दगी जीने लायक रहेगी ही नहीं | वर्तमान सुखद भी हो सकता है और दुखद भी ,परन्तु जब वही वर्तमान व्यतीत हो कर अतीत बन जाता है और हमारी यादों में जा बसता है ,तब वो अनमोल हो जाता है | दुःख देने वाला वर्तमान यादों में अकसर उस घटना की पीड़ा भूल ,उन पलों से जुड़े अपनों को आसपास ला देता है | कभी जिन बातों अथवा घटनाओं की पीड़ा जीवन के अंत का दर्शन कराती लगती थी ,व्यतीत बन कर अपना बचपना दिखाती जीवन का सच बता जाती है |
           इन यादों का ही एहसान है कि हमारे जो अपने हमसे बिछड़ गये हैं ,उनको हम अब भी अपनी साँसों में पुनर्जीवित पाते हैं | जब भी दिल करे इन यादों की उँगली थामे उन के साथ जीये हुए पलों को पुन: जीवंत कर लेते हैं |याद कर के देखिये हाथों में पेन्सिल थमाते हुए माँ के स्नेहिल हाथ .... कभी किसी के टेढ़े बोलों के सामने बादल बन शीतल करती पिता की छवि ....... कभी किसी सवाल पर अटक जाने पर मदद को आये हुए बड़े भाई ....... हर एक अंक के लिए प्रतियोगी बन चुनौती देता अपना बहुत ही प्रिय मित्र ...... ! बेशक इनमें से कुछ समय के आगोश में समा गये हैं तो कुछ दुनिया की भूलभुलैय्या में खो गये हैं और कुछ अपने दायित्वों को वहन करने में व्यस्त ,पर सच में जब भी इनमें से किसी के बारे में सोचा जीवन जीने की लालसा पुन: बलवती हो जाती है | इनमें सबसे प्यारी यादें अपने बच्चों के बचपन की होती हैं | अपने अनाडीपन में उनकी जिन बातों से मन डर जाता था ,डगमगाते कदमों को देख उनके गिरने पर लगने वाली चोट का अंदेशा होने लगता था अब वो स्मित सी लहरा देती है |
         कैसी भी हों और किसी की भी हों ये ज़िन्दगी उन यादों की शुक्रगुजार है !

सोमवार, 28 नवंबर 2011

अनमोल ईश्वरीय छवि ........


                                इन अधरों पर खिली हँसी ,मेरे मन में बसती है
                               ये नयन बड़े ही प्यारे हैं ,इनमे बसे मेरे रंग सारे हैं

                               ये कदम जब भी लड़खड़ाये ,बाँहे खुद बढ़ आयी
                               पलकें राह बुहार आयीं ,जब रेत की आहट पायी

                               ख्यालों में भी जब - जब ,अंधियारे बादल छाये
                               मंगलदीप के जुगनू बना ,अमावस भी जगमगाई

                               बताओ क्या अब भी ,तुम यही मुझसे पूछोगे
                               मेरे मन की आहट पा ,कैसे सजाये ये चौबारे हैं

                              सच बोलूँ तुममें ही तो ,मेरी आत्मा बसती है
                              तुममें दिखती अनमोल ईश्वरीय छवि मनोहारी है !
                                                                                  -निवेदिता

शनिवार, 26 नवंबर 2011

"मोती के लाल "


अहा !
ये प्यारा पुनर्मिलन !
पलकों में छाई नमी ,
लबों पे खिलखिलाती
शबनमी यादें छायीं !
यूँ ही बस इक जरा सा
हाथ  बढ़ा तुम्हे थामा ,
सितारों सी टिमटिमाती
ओस की बूंदों सी पावन
फूलों से सुरभित दिन
अलमस्त अल्हड़ बातें !
विस्मृत करते सब अपने
वर्तमान ,मन मयूर सा
थिरक उठे ,जब किसी ने
छेड़ी पुरानी तान ......
अनायास गूँज जाने वाली
वो किसी की भी जयकार !
कभी बजरंगबली की जय
तो कभी बमबम ,लोटन ,
चीकू ,चौडू की पुकार .....
ज़रा सी निगाह फेरी देखा
गांधी ही नहीं बापू भी थे
वहीं सशरीर विराजमान !
गुंजन की गुनगुन में भी
टाइगर की पुकार थी
करते भी क्या थे तो ये सब
"मोती के  लाल "
इतनी ऊर्जा ,इतनी विशुद्ध
ऑक्सीजन कहीं और मिलना
दुर्लभ था ,इस धरा पर यूँ
अट्टहास साथ पलकों की नमी
और कहीं मिल पाना दुष्कर था !
                                   -निवेदिता          

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

बाल - शोषण का एक नया रूप ......


          
          कुछ दिनों पहले हम लोग इलाहाबाद गए थे | मित्रों के साथ कई स्थानों पर घूमने भी गये | हर स्थान का अपना अलग ही महत्व था ....... वो सब फिर कभी साझा करूंगी | आज तो संगम यात्रा के अनुभव बांटने आयी हूँ |
           विद्यालय प्रांगण ,छात्रावास ,मेस इत्यादि कई स्थानों पर विशुद्ध ऑक्सीजन पा लेने के बाद हम सब प्रतिष्ठान की ही बस में संगम पहुँचे | मैं नदी से बहुत डरती हूँ ,अत: नाव में संगम तक जाने से बचने के बहाने तलाशती इधर-उधर देख रही थी कि अचानक से बढ़ते कदमों को किसी ने थाम लिया | चौंक कर जब देखा तो एक छोटा सा बच्चा " भोलेबाबा शंकर " का रूप धरे हमें रोक कर खड़ा था | पहले तो उसकी मासूम सी शक्ल और हाव-भाव पर बहुत स्नेह आया | पलक झपकते ही उसने अपना छिपा व्यापारी रूप दिखाना शुरू कर दिया ............."फोटो खिचवाने का दस रुपिया लेगा " ..... तब तक ऐसे कई बच्चे वहां आ गये | उन बच्चों में कुछ उससे बड़े थे तो कुछ उससे छोटे भी थे ,जो अभी भोले बाबा बनना सीख रहे थे | उस पहले वाले बच्चे ने बाकी सब बच्चों को भगा दिया ...."मेरे गिराक हैं "  ! फिर उसने अपनी कलाकारी दिखानी शुरू की .... फोटो खींचने के पहले ही "दस रुपिया " की रट लगाने लगा | इस पूरे समय में उसका पिता ढ़ोलक ले कर उसके साथ ही था और बच्चे को निर्देश देता जा रहा था | जैसे हम सब आगे बढने को हुए , उस बच्चे के पिता ने कुछ इशारा सा उसको किया और वो बच्चा हमारे एक साथी के पैरों को पकड़ कर झूल गया और पैसों की मांग के साथ | किसी भी तरह जब वो छोड़ने को तैयार नहीं हुआ ,तब उन साथी ने पुलिस से पकड़वाने का डर दिखाया तब कहीं हम आगे बढ़ पाये !
              इस पूरे प्रसंग में बच्चा तो अपनी बालसुलभ चंचलता की वजह से आकर्षित करता रहा ,पर कहीं कुछ सोचने पर भी विवश भी कर गया | उसके पिता के प्रति आक्रोश भी बहुत हुआ ,जिसने अपने इतने छोटे से बच्चे को ऐसा करने पर विवश किया | उस छोटे से बच्चे का बचपना तो कहीं खो ही गया | वो एक ऐसे देवता का रूप धरे सबको अपना आशीष दे रहा था ,जिनका वो सही तरीके से नाम भी नहीं ले पा रहा था " भोये बाबा " कह रहा था ! बाल शोषण का ये एक अनूठा रूप देखने को मिला था | हम सब कुछ देर उस बच्चे को ही देखते रहे ..... बच्चा कुछ खा रहा था ,तभी कुछ लोग आ गये और उस बच्चे के पिता ने उसके हाथों से खाना ले कर फिर उसको दौड़ा दिया एक नये फोटो सेशन के लिए | एक बार फिर उसने अपनी हरकतें करनी शुरू कर दी थीं ,बस बीच-बीच में अपने छोड़े हुए खाने की तरफ निगाह डाल लेता था !हम सब बस हतप्रभ से उसको देखते ही रह गये |
             आज हम किसी राजनेता पर लगे थप्पड़ पर बहस कर रहे हैं ,अथवा सचिन के चिरप्रतीक्षित शतक की राह में हसरत से निगाहें बिछाए हुए हैं | ऐसे में कहीं एक छोटा सा लम्हा भी इन शोषित बच्चों की समस्या के समाधान के लिए हम क्यों नहीं दे पा रहे हैं ? घरों में तो हम बच्चों से काम न करवा कर बाल-श्रम से तो बच जाते हैं ,परन्तु देव-स्थलों पर देवता बन आशीष देते इन बच्चों के बचाने के लिए क्या किया जा सकता है इस पर मनन करने की आवश्यकता है ..........

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

उलझी गाँठ सी है ......


            
पता नहीं ये लम्हों की खुशी है 
या खुशनुमा लम्हे मंद स्मित 
बन किलकारियां बरसाते हैं 
ये पलकों तले छुपे अश्रु ही थे 
जो समय के साये परवान चढ़ते  
सुहानी भोर में ओस की बूंदों से 
मलयानिल के हिंडोलों पर झूमते  
सुरभित सुमनों के कपोलों पर 
जीवन ज्योति सा झिलमिला 
पूर्णिमा के चाँद सा जीवन में 
ज्वार-भाटा बन बस  भी जाते हैं 
भूलभूलैय्या सी अस्थियों के इस  
पिंजर में नन्हा सा दिल बन 
धड़कन बढ़ा चंद साँसे दे 
जीने का आसरा बसा जाते हैं 
दिल है तो कहीं कुछ दर्द भी है 
पंख हैं तो पंछी की उड़ान भी है 
कंधे हैं तो कभी अर्थी का भार है 
कभी पुष्प हार हैं ,तो कभी कहीं 
ज़िन्दगी की प्राणवान नसों को 
तोड़ती फंदों की उलझी गाँठ सी है......
                                -निवेदिता  


सोमवार, 7 नवंबर 2011

बहुरूपिया सी मनोवृत्ति ......

          
           हम सब अपने जीवन की पहली साँस से अंतिम साँस तक न जाने कितने रिश्तों को निभाते हैं | ये रिश्ते कभी-कभी अनदेखे भी होते हैं और अनजाने भी | अपनी हर आती-जाती साँसों में हम ये दावा भी करते हैं कि हमने अपना जीवन इन तथाकथित रिश्तों को समर्पित कर रखा है | कभी शांत मन से हम अपने इस दावे को परख कर देखें कि हम इन रिश्तों के प्रति कितने ईमानदार हैं ! अधिकतर यही पायेंगे कि जो रिश्ते हमारे जीवन का आधार हैं उन्हीं की अनदेखी भी हो जाती है | जो भी सम्बन्ध जितने दूर के हैं ,या यूँ कहें कि औपचारिक हैं उनके प्रति हम अधिकतर अतिरिक्त रूप से सतर्क रहते हैं | शायद इसके पीछे कारण यही होगा कि कुछ पलों को तो हम तलवार की धार पर चलने की सजगता रख सकते हैं ,हमेशा ऐसा नहीं कर सकते हैं | 
             इस तथ्य को मानते हुए भी कि मानव मन अपने निकट सम्बन्धों में तनावरहित शैथिल्य को जीना चाहता है ,हम अकसर एकपक्षीय क्यों हो जाते हैं | हम स्वयं तो तनावरहित रहना चाहते हैं ,परन्तु उसी व्यक्ति से हर पल की सजगता की अपेक्षा करते हैं | ये बहुरूपिया सी मनोवृत्ति जीवन जीने का सही तरीका तो हो नहीं सकती | 
              इस मनोवृत्ति का मूल कारण शायद यही हो सकता है कि हम अपने जीवन को जीने में नहीं अपितु किसी प्रकार बिता देने में विश्वास रखते हैं | जब से कुछ भी समझ पाने लायक होते हैं हमारे सामने एक "रिक्त स्थान भरो " जैसी जीवनशैली थमा दी जाती है और हम शेष जीवन उस निर्धारित लक्ष्य को पाने के प्रयास द्वारा उस "रिक्त स्थान " को भरने में बिता देते हैं | एक निश्चित परिपाटी के अनुसार पहले शिक्षा ,फिर कोई व्यसाय .उसके बाद विवाह और फिर पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते अपने जीवन के परम को पा जाने की अनुभूति करने लगते हैं | पर इस सब आपा-धापी में हम ज़िन्दगी का सम्मान करना भूल जाते हैं और जिन रिश्तों की वजह से ये सब सम्भव हो पाता है  उनकी ही अनदेखी कर जाते हैं | 
               हम जिस पल ये समझ जायेंगे कि जिन कि हम अनदेखी अथवा अवहेलना करते हैं ,शायद उन के साथ की वजह से ही जीवन ऐसा रूप ले पाया है | जिनको हम शून्य समझते हैं वही हमारे मूल्य में वृद्धि करते हैं | अगर ऐसा नही होता है तब इसके कारण हम खुद भी होते हैं क्योंकि हमने उस शून्य को उसका उचित स्थान नहीं दिया !
                 जीवन जीने का सही तरीका उसके हरएक पल को जी लेने में है |जो हमने पाया उसको भी और जो अनपाया रहा गया है उसको भी सकारात्मकता से स्वीकार करना चाहिए !

शनिवार, 5 नवंबर 2011

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ये कैसी मानसिकता 
ये कैसी आयी दुर्बलता 
अनिश्चित को सहेजा 
निश्चित नियति देख 
घबराया कंपकंपाया 
आती सांस तो कभी 
इक पल आते-आते 
रुक कर अटक-भटक 
थकती ही चली जानी है 
नाम की परवाह सब 
संजोते ,सांस के थमते 
नाम अनाम हो कैसा 
गुमनाम  कर जाता है
चिरपरिचित कहूँ या
मानूँ चिरप्रतीक्षित....
उस अनपेक्षित तिथि की
ये कैसी अपेक्षाओं की
सूली चढ चुकी उपेक्षा
रिश्तों के ताने-बाने का
चंदोवा ताने ये कैसी
पहचान अनजानी बनी !
                -निवेदिता 

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

" शून्य "


        " शून्य " कितना छोटा सा शब्द ,पर इसका विस्तार इतना ज्यादा है कि सब कुछ इसमें समा जाता है और पता नहीं कहाँ खो जाता है | शून्य एक तरह से खालीपन की ,रिक्तता की स्थिति है | जब मन रिक्त रहता है तब सब कुछ हो कर भी नहीं हुआ सा प्रतीत होता है | इसके विपरीत मन पूर्णता अनुभव कर रहा हो ,तो कुछ न होते हुए भी अंत में भी अनंत सा हो जाता है | 
             खालीपन मन का हो या घर का ,विचित्र होता है | कभी इस रिक्तता से ही आत्म इतना सार्थक और परिपक्व हो कर सामने निकल  कर आता है कि कुछ अनोखा सृजन हो जाता है ................ अन्यथा इसका दूसरा पहलू इतना भयावह होता है कि सब ध्वस्त हो जाता है | शायद कमजोर करते ख़याल ऐसे शून्य में पहुंच चुकी मन:स्थिति में ही प्रभावी हो पाते हैं | 
              अकेला " शून्य " व्यर्थ होता है ,निष्क्रिय कर देता है | भिन्न परिस्थिति में किसी अन्य के साथ प्रभावी मित्र  बन उसमे गुणात्मक वृद्धि कर जाता है | इस " शून्य " को वस्तुत: शून्य मानने वाले अपनी महत्ता कम कर जाते हैं | 
           ये इकलौता " शून्य " हर पल ये एहसास दिलाता है कि हम किसी अन्य का सम्मान अथवा अपमान नहीं करते हैं ,अपितु अपना मान बनाये रखने का प्रयास ही करते हैं ,क्योंकि हमारे साथ से ही हमारा भी आकलन किया जाता है | अगर हमारे परिवेश में कहीं गरिमा अनुभव की जाती है इसका तात्पर्य सिर्फ इतना है कि हम ने अपनी ज़िन्दगी में अपने " शून्य " को उसका उचित स्थान दिया है !

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

काँच के रिश्ते ?


नहीं पता ये काँच के रिश्ते हैं 
या रिश्तों में दरकता है काँच 
निर्मल काँच ही है चमकता
रेत का एक कण भी कहीं 
बहुत गहरे छोड़ जाता है 
चंद प्रश्न करते हुए निशान 
आत्मा को खरोंचती अनबूझी 
रपटीली पगडंडियों सी चिटकन 
इन रिश्तों में दिखती अपनी ही 
अजनबी सी परछाईं है , 
अपने ही  अनसुलझे सवालों के 
मनचाहे जवाब तलाशता 
अपराधी सा अंतर्मन है .....
                        -निवेदिता 

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

अर्धनारीश्वर .....


रौशनी के पावन पर्व में 
झिलमिलाते दीयों की 
टिमटिमाती उजास में 
खिलखिलाते ये पल 
आंखमिचौनी सी खेलते 
कुछ अनदिखा दिखला 
यादों से पर्दा हटा जाते 
सकुचाये कदमों में 
झांझर सा झनक जाते 
डगर थी नई नई सी 
कदमों की बनी लीक को 
सहेजती अनुगामिनी बन 
चलना सहज था ........
न तो वक्त बदला न मौसम
शायद बदले थे हालात  
अनुगामिनी बने चलते जाना 
रोकता प्रवहित गति तुम्हारी 
बस एक कदम ही तो बढ़ाना था 
अनुगामिनी से सहगामिनी बन 
हाथों का दो से चार बन जाना
एक अनोखा विस्तार दे गया 
चलो कुछ हम भी बाँट लें
अर्धनारीश्वर को साकार करें  
तुम बाती बन राह दिखलाओ 
मैं दीप की ऊष्मा बन बस 
प्राणवायु जगाती रहूँ ..........
                          -निवेदिता
.

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

भटकते बहकते पल .....


अंधियारी रातों की वीरानी 
रूखेपन को घोलता सन्नाटा 
गंगाजल .... ओस की बूँदें ...
कुछ भी नहीं चाहिए ...
जरूरी हैं जीवन - जल सी 
बस चंद अश्रु - बिंदु की आहट
रेगिस्तानी मारीचिका जैसे 
ओएसिस बन वीराने में 
बरसाते जीवंत ऊष्मा भरे 
भटकते बहकते  पल ........
                        -निवेदिता 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

बिखरे लम्हे ..................



क्या खोजा ,क्या पाया 
क्या चाहा ,क्या सराहा 
क्या फला ,क्या झरा 
क्या जला ,क्या बुझा 
इन उलझनों में भटकता 
मन वृन्दावन हो गया !


सबसे मूल्यवान जल 
प्रिय नयनों में बसता है 
मात्र इक प्रतिशत पानी 
शेष बसती भावनाएं हैं !


इतना भर आया मन 
सब शून्य हो गया 
छलकते रहे मन-प्राण 
शुष्क मधुबन हो गया !


बाल मन की चाह चाँद पाने की 
युवा मन की चाह चाँद बन जाने की 
हारे मन की कैसी अनोखी प्यास 
अमावस में चांदनी बचा ले जाने  की !
                                       -निवेदिता 

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

मरने के पहले जीना सीख ले .............


  
    हमारा जीवन हर आती - जाती ,छोटी - छोटी साँसों की डोर से बँधा चलता है | जिस भी पल ये कच्चा धागा टूट जाता है ज़िन्दगी पर एक पूर्णविराम लग जाता है !आज का वर्तमान कल का अतीत बन व्यतीत हो जाता है ,परन्तु जब ज़िन्दगी को महसूस करने की बारी आती है ,अक्सर हम बड़े अवसरों को खोजने लगते हैं | जैसे एक इंतज़ार सा रहता है कि कोई चुटकुला सुनाये और हम हँस दें | जबकि अगर हम शांत हो एकांत में सोचें तो मुस्कराहटों की लड़ी न टूटे ऐसे कई सारे लम्हे दिल - दिमाग को सहलाते लहरा जायेंगे
             कितनी भी असाध्य लगता रोग हो ,हम उसका उपचार खोजने का प्रयत्न करते हैं और साथ में पीड़ित व्यक्ति के हँसते गुदगुदाते पलों को भी खोजते हैं | दुर्भाग्यवश जिस का एक पैर न हो ,उस को भी ज़िन्दगी बैसाखी के सहारे चलना सिखा देती है | नेत्रहीन व्यक्ति भी गिरने की सोच कर बढ़ते कदमों को थाम नहीं लेता ,टटोल कर चल ही पड़ता है | कई को तो जीवनरक्षक उपकरणों के सहारे भी कुछ पल का विस्तार ज़िन्दगी दे ही देती है
             अक्सर तनिक सा भी व्यवधान आ जाने पर ,जीवन में निराशा भर जाती है ........ एक अंधकूप सा बन जाता है और उठने वाला अगला कदम उन अतल अबूझ सी गहराइयों में धकेलता लगता है
             ये सब सत्य होते हुए भी जब ज़िन्दगी से विमुख नहीं करते हैं ,तो इसका मूल कारण क्या हो सकता है ? क्या हम ज़िन्दगी को जीना नहीं जानते हैं ? क्या हम उसका सम्मान नहीं रख पाते ? मुझे लगता है ये एक कटु सत्य है | हम शायद जीना भूलते जा रहे हैं | हमारी प्रकृति ,हमको अपनी कलाकारियों से भ्रमित करती ,जिन्दादिली से विमुख कर देती है | अपने सामने डगमगाते नन्हे कदमों को भूलते हुए उनके एक उच्च स्थान पर आसीन होने की कल्पना और कामना करते रह जाते हैं
           अन्धेरा भी हमको इसलिए ही समझ आता है क्योंकि हमने कभी प्रकाश भी देखा था | जब सभी रंग संतुलित होते हैं तभी हमें भी उजलापन दिखता है | जहाँ भी रंगों ने संतुलन खोया अंधियारा छा जाता है |
           छोटी -छोटी साँसों से सीख कर हर पल में सुकून पाने का प्रयास ही ज़िन्दगी को जीने काबिल बनाता है | मरने के पहले जीना सीख लेना चाहिए .............
           ......निवेदिता                                                    
                                                                                                                                                                                                                                   

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

जीवन एहसासों में बसता है ...........



सहज  लम्हे थे या फिर वो 
लम्हे थे इसलिए सहजता .....
जीवन साँसों के रहने से नहीं 
जीवंत एहसासों में बसता है 
चाँद-तारों के विस्तार से 
इक नन्हीं सी कली गुलाब की 
सुरभित दायरा पूरती है 
काँटों की चुभन सहलाती 
शोखी रंगों की छुपा जाती 
हल्की सी गुलाबी फुहार से 
ये एहसास ये जज़्बात 
लगते गंगासागर से 
गंगा निर्मल औ सागर विशाल 
जीवन में भरते अनोखा विस्तार
हीरे मोती जो तुमने वारे हैं 
जीवन में बहुत सारे हैं 
सुंगध लहराती ये कली 
लगती सबसे प्यारी है 
जानते हो क्यों .....क्योंकि 
दिखती इसमें छवि तुम्हारी है ...........
                        -निवेदिता 

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

ओ आसमान के चाँद !!!




ओ आसमान के चाँद ,
तुम वहीं कहीं चमकना ,
भूले से भी कभी यूँ ही 
नीचे न आ जाना .....
अपनी आदत से मजबूर 
तुझे किरचों सा तराश 
टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट डालेंगे 
तेरी चांदनी भी कटी-फटी
टुकड़ों में ही झिलमिलायेगी
चमक कहाँ ,वो तो चांदनी की 
दम तोड़ती परछाईं रह जायेगी
हम तो तुझे हर वार-त्यौहार  में 
शगुन सा पुकारेंगे ,तुझे देख-देख  
तुझ पर पुष्प ,अर्ध्य - जल वारेंगे 
कामना की पूर्ती में शीश नवायेंगे  
गणेश -चौथ हो या करवा -चौथ
निहारते तेरी बाट ..... 
पर तू न आया तब भी  ,हम तो 
अपने धरती के चाँद में तुझे पायेंगे 
पर कहीं भूले से आ गया , तुझ में 
दाग खोज मन ही मन मुस्कायेंगे .....
कभी जीवन कभी जल की खोज में 
तुझ तक पहुँच तेरे भी टुकड़े कर डालेंगे
तुझे पूजते-पूजते तेरे टुकड़ों को भी   
बेच-बेच कर सब से ऐसे ही पुजवायेंगे
इसीलिये ओ चाँद !आसमान के चाँद !
भूले से भी धरती पर न आ जाना .........
                                           -निवेदिता 

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

हम दूसरों का जीवन अधिक अच्छी तरह से अनुभव करतें हैं .......



      शायद सुनने में अजीब लगे ,पर ये अक्षरश: सच है कि हम दूसरों का जीवन अधिक अच्छी तरह से अनुभव करतें हैं | 

     अपने स्वयं के जीवन में घटने वाली घटनाओं और चुनैतियों का हम सामना करते हैं ,जबकि दूसरों के साथ घटित होने पर हम प्रतिक्रिया भी देते हैं |अपना बचपन कब आ कर बीत जाता है कोई भी नहीं जान पाता ,क्योंकि वो जीवन का सबसे निश्छल और पावन समय होता है | बच्चे कुछ सोचते नहीं हैं ,बस अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर देते हैं | वो कैसे लग रहें हैं अथवा क्या कर रहें हैं ,ये बिना सोचे अपने हर पल को जीते हैं | जब खुद बड़े हो जाते हैं तब दूसरों का बचपन देख कर उसको समझते हैं | थोड़े बड़े होने पर अपनी पढाई में इतना व्यस्त हो जातें हैं कि और कुछ भी नहीं देखते हैं | जब जीवन एक दिशा पा कर थोड़ा सा शिथिल होता है तब घर अथवा छात्रावास में जीवन के सबसे अमूल्य बेफिक्री के लम्हों को जीते हैं | जब अपने जीवन के कर्मक्षेत्र में चुनौतियों का सामना करते हैं और अपना पारिवारिक जीवन प्रारम्भ करते हैं ,तब फिर से व्यस्तताओं में घिर कर छोटे-छोटे लम्हों और उनकी खुशियों  को अनदेखा सा कर जाते हैं | इस पूरे समय में ही हमारे जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बातें हो चुकती हैं ,जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर के और अधिक उपलब्धियां पाने का प्रयास करते हैं | अपने जीवन के अधिकतर उत्तरदायित्वों से मुक्त हो कर प्रौढावस्था में ,हमको खुद अपने जीवन को देख पाने का समय मिलता है ,पर तब जीवनचर्या एक सपाट ढर्रे पर चल देती है लगभग घटनारहित हो कर | उस समय हम दूसरों के बच्चों में अपना और अपने बच्चों का बचपन खोजने लगते हैं | अपने जीवन का लक्ष्य खोजते युवाओं को देख कर उनकी ऊर्जा को अनुभव करते हैं | अपने बच्चे कब पढाई पूरी करके जीवन में व्यवस्थित हो गये पता ही नहीं चलता | दूसरों के बच्चों को देखने पर इसमें किये जाने वाले प्रयास की अनुभूति होती है | 
        शायद इसके मूल में एक ही तत्व रहता है कि हम अपना जीवन चुनते नहीं है ,अपितु जब - जैसी परिस्थितियाँ सामने आती हैं उसको जीते हैं | उन लम्हों की व्यस्तता चुनौतियों का सामना करने को ही प्रवृत्त करती है ,दूसरे रास्ते खोजने का मौक़ा ही नहीं रहता है | अपने जीवन के उत्तरकाल में एक प्रकार से कार्यरिक्त होने पर बचने वाले खाली समय में हम दूसरों के जीवन की अनुभूतियों को अधिक तीव्रता से अनुभव करते हैं | ऐसा सिर्फ सुखद परिस्थितियों में ही नहीं ,दुःख में भी होता है | दूसरों का दुःख और उससे उत्पन्न हालात हम समझ पातें हैं ,जबकि अपने जीवन में घटित दुखद हालात हमें स्तब्ध कर देते हैं | इन परिस्थितियों से सम्भवत: सिर्फ वही लोग बच पाते होंगे जो आत्मकेंद्रित रहते हों |
         अपने जीवन में बीतने वाले हर पल को हम जीते हैं और दूसरों के पलों को हम अनुभव करते हैं !

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

शारदीय नवरात्रि का अनमोल वरदान : अभिषेक


       नवरात्रि का पर्व ,सबके लिए सुख और समृद्धि की वर्षा करता आता है | हमारे परिवार को तो माँ जगदम्बा ने अनमोल वरदान दिया है | शारदीय नवरात्रि की  द्वितीया को ,हमारे छोटे बेटे अभिषेक का जन्मदिन है :) 

         जब भी कभी एक माँ अपने बच्चे के बारे में कुछ लिखती है ,तो वो लिखने से कहीं ज्यादा महसूस कर रही होती है | अनगिनत पल यादों में तैर जाते हैं | आज भी अभिषेक की पहली जिद की याद स्मित ला देती है |  अभिषेक बहुत छोटा था तब की बात है .... अपने बड़े भाई अनिमेष को स्कूल जाते देख खुद भी स्कूल जाने की बातें करता रहता था | एक दिन मैं अनिमेष को स्कूल के लिए तैयार कर रही थी ,तभी अचानक से पूरी तरह भीगा हुआ अभिषेक सामने आ गया और बोला " मै नहा चुका अब मुझे भी स्कूल भेजो "..... समझाने पर भी नहीं माना और स्कूल चला भी गया |दोपहर में जब दोनों भाई वापस आये तो अभिषेक के पास बातों का जैसे एक नया ख़जाना मिल गया था | उसने स्कूल जाने में कभी भी परेशान नहीं किया | ये उसकी पहली और अभी तक की आख़िरी जिद है !

           अभिषेक को ,जब से अक्षरों की पहचान हुई ,उसको पढ़ने का नशा हो गया था | किसी भी उपलब्धि पर ,उसकी फरमाइश सिर्फ और सिर्फ किताबों की होती थी | आज भी मुझे याद है ,जब हैरी पॉटर की किताबें आती थी उसको स्कूल जाने के पहले ही चाहिए होतीं थी | बेशक पढ़ता तो वो स्कूल से आ कर अपनी पढ़ाई पूरी कर के ही था ! हमारे घर के पास की 'युनिवर्सल' पर सब उसको पहचानते थे और उसकी सारी फरमाइशें पूरी करते थे | बाद में यही हाल 'लैंडमार्क' में भी हो गया था | आजकल आई.आई.टी.कानपुर जाने के बाद उसको अपना ये शौक पूरा करने के लिए थोड़ी सी समय की कमी हो गयी है | जब भी घर आता है, इस बात का अफ़सोस उसकी बातों में झलक जाता है | अभी उसके पास किताबों का बहुत अच्छा संग्रह हो गया है | अभिषेक के इस शौक पर हमें संतुष्टि मिलती है | उसकी भाषा पर उसके इस शौक का असर दिखता है | मेरे जन्मदिन पर वो हमेशा खुद कार्ड बनाता था और बहुत प्यारी बातें भी लिखता था ...... मेरे संग्रह में वो सभी कार्ड सुरक्षित हैं :)

           अनिमेष के आई.आई.टी. कानपुर जाने के बाद घर पर सिर्फ हम दोनों ही रह गये थे ,बच्चों के पिताश्री का स्थानान्तरण लखनऊ से बाहर हो गया था | उस समय हमारे परिवार के इस सबसे छोटे सदस्य ने मेरे लिए अभिभावक वाली संवेदनशीलता दिखाई थी | मैं सोचती थी कि वो घर से बाहर कैसे रहेगा और वो सोचता था कि उसके बिना मैं कैसे रहूँगी ! हर दिन एक नई सोच के साथ आता था कि मैं कुछ ऐसा करने लगूँ कि अकेलापन न महसूस करूँ | अभी भी हॉस्टल में तकरीबन डेढ़ साल रह चुकने के बाद भी मेरे आवाज़ की शिकन को भाँप जाता है | अभी भी  उसकी बातें ऐसी होतीं हैं कि वो एक मासूम सा छोटा बच्चा ही लगता है |

             कल २८ सितम्बर को आंग्ल तिथि से उसका जन्मदिन था और आज नवरात्रि की द्वितीया को हिन्दी तिथि के अनुसार जन्मदिन है | आज और हर पल बस यही दुआ करती हूँ कि "अभिषेक में हर पल नया करने की चाह बनी रहे और जो मिले उससे संतुष्टि भी मिले "........ अनन्त मंगलकामनाएं और शुभेच्छाएं :)

रविवार, 25 सितंबर 2011

don't want an ending........


        दोस्तों ,मेरे बड़े बेटे अनिमेष ,जो आई .आई .टी कानपुर में बी टेक तृतीय वर्ष का छात्र है ,ने अपने विचारों को कुछ इस रूप में कहा है ............. अनिमेष को अपना आशीष दीजिये :)


paths crossed...was it meant to be???
don't want an ending...
will it hold???...or just be a passing dream???
don't want an ending...
what changed it all...will it change???
don't want an ending...
can someone tilt the hour glass back???
don't want an ending...
those moments passed...would just fade???
don't want an ending...
fight for it???...is it worth it???
don't want an ending...
want to risk it all...do i really???
don't want an ending...
if has to end...why not now???
don't want an ending...
better wait...because really...
DON'T WANT AN ENDING...
               -Animesh Srivastava

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

आज फिर कहीं इक तारा टूटा .......

               
             आज कुछ सवाल उन बच्चों से जो ज़िन्दगी के मुश्किल हालातों से इतनी जल्दी घबडा जाते हैं कि              आत्मघात जैसा कदम उठाने के सोच लेतें हैं .......



आज फिर कहीं इक तारा टूटा 
दूर कहीं गगन की छाँव में ,
या कहूँ फिर कहीं सपनें टूटे 
पलकों की छाँव से दूर जाके 
ये है क्या हमारी अपेक्षाओं के 
बोझ तले दबे कोमल कंधे 
या हमने कहीं कमी कर दी 
आत्मबल को थाम लेने में 
आओ पास बैठो हम बातें कर लें 
सुलझ जायेंगी तेरी हर उलझन 
इस देखे हुए जहाँ की उलझनों से 
घबरा कर तुम यूँ कहाँ भाग चले 
अगर वहाँ भी अटकी राह तब ...
सोच कर बतला दो किधर जाओगे 
संजोये रखा तुम्हे धडकन की तरह 
तुम तो चल दिए हम कैसे जी पायेंगे 
हमारी आस तुम हर श्वास तुम 
हम साँसों के आने-जाने का बोझ
तुम्ही बताओ कैसे उठा पायेंगे .........
                           -निवेदिता 

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

दस दिशायें........



डगमगाते कदमों ने जब-जब देखा
पाँव के नीचे धरती का आसरा और
सिर पर तना निर्मल आसमान देखा 
निखरते रिश्तों की पहचान ने 
चारों दिशाओं का अभिमान दिया
इस पहचान और अभिमान ने  
शेष चारों दिशाओं का भी ज्ञान दिया 
इन दसों दिशाओं की प्यारी सुरक्षा ने 
अपनी आत्मा सा अपना साथ दिया 
आत्म की पहचान में उड़ने की आस जगी 
मुक्त गगन में परवाज़ भरने को दो प्यारे 
सुगठित पंखों का मुक्तमना साथ दिया 
इस दौर में टिमटिमाते तारों ने 
सप्तऋषियों सा तारक मंडल रच डाला 
धरती छूटी , आसमान भी छूटा 
एक दिशा ने भी मंझधार छोड़ा ......
बदलते मौसम सी सपनीली यादों ने 
नयनों में तिनके सी नमी का एहसास किया 
फिर डगमगा जाते कदमों को 
सप्तऋषियों ने बांह बढ़ा थाम लिया 
मुक्त मना हो अंत:स्थल गगन विशाल हुआ !!!
                                                -निवेदिता 

               कल भाई का जन्मदिन था ,उनकी फ़रमाइश पर ये लिखा | इसमें माँ-पापा धरती और आसमान हैं | चारों दिशाएँ मेरे चारों भाई हैं ,बाद में मिलने वाली दिशाएँ मेरी भाभियां हैं और सप्तऋषि हमारी दूसरी पीढ़ी | दो पंख मेरे बेटे हैं और आत्मा .पतिदेव के अतिरिक्त और कौन हो सकता है ......:)

बुधवार, 14 सितंबर 2011

???????





सन्नाटा या वीरानापन
सब हैं कितने अकेले ,
फिर भी समानार्थी बड़े ....
अकेलापन शब्द ही दृषद्वत है  
धरा का हर अणु हर पल 
कितना एकाकी है .......
तन्हाई का साथी अश्रु 
ये भी बहता अकेला है 
कितना बदनसीब है 
सहारा खोजता - खोजता 
भिगोता अपना ही दामन है ............
जब-जब मन व्यथित हुआ ,
तन की पीड़ा भी अलसाई ,
पल-पल कण प्रस्तर हुआ
सराहा तो मन अंधकूप हुआ ..
अकेलापन तो शायद नियति है
सृष्टि का निर्माण भी एकाकी था
अंत भी अकेला है ........ .
                            -निवेदिता 

रविवार, 11 सितंबर 2011

गहराते साए ........



मानवीय प्रवृत्ति कभी-कभी विचित्र परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती है | हम जिस दुखद स्थिति से खुद को दूर रखना चाहते हैं ,उसको ही प्रतिपल अपने अंदर-बाहर ध्वनित करते रहते हैं | जिन सुख के लम्हों को थामने की सोचते हैं ,उन्हें ही उत्सवित होते गुजर जाने देते हैं | शायद वो उन लम्हों का भारी अथवा हल्का होना ही इसका कारण होगा | खुशियों से भरे न जाने कितने वर्ष कब बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता ,जब भी सोचा तो पलक झपकने की अनुभूति ही हुई | मातम की सिर्फ एक रात ,जब कोई अपनी जीवन-यात्रा पूरी कर सामने निश्चल-निर्जीव हो लिटाया गया हो लगता है अनंत युग से भी लम्बी हो गयी है ......सुबह होने का नाम ही नहीं लेती !

खुशी भरे पल अंतस तक को प्राणवान कर देते हैं | शायद इसीलिये हँसी पहले हृदय में तरंगित होती है ,फिर शरीर तक आती है और चेहरे तक पहुँच स्मित अथवा अट्टहास बन माहौल को ऊर्जवित कर देती है | जब मन शांत होता है तभी किसी भी सुख का आभास हो सकता है | दुःख का प्रथम आभास जरूरी नहीं कि मन को ही हो |शारीरिक पीड़ा पहले वाह्य रूप से महसूस करते हैं | कष्ट होने पर बहने वाले आँसू का स्रोत अवश्य अंतरमन ही होता है ,परन्तु आँसू आँखों से बह कर हमारे चेहरे को ही भिगो जाते हैं | बेशक माहौल थोड़ा संजीदा हो जाता है ,पर उस के सामने से हटते ही सब भूल भी जाते हैं | सूख चुके आँसू भी मन को यदाकदा भिगोते ही रहते हैं |

इसके मूल में शायद अच्छे की अनदेखी करना ही है | कितनी खराब चीजों को हम सहेजे रहते हैं | सराहना के भावों और शब्दों को भूल कर चुभती बातें याद करते रहते हैं | संभवत: ऐसा करके हम खुद से शत्रुता निभाते हैं|

पेंचो ख़म में उलझी ज़िन्दगी 
नित नई कसौटी पर कैसे कसें  
ख़ुद को चीरती पगडंडियों  को 
चक्रव्यूह की उलझन कैसे दे
अपने लम्हों का भारीपन
कुछ ऐसा हल्का भी नहीं 
औरों के गहराते साए क्यों ढोयें ........
                              -निवेदिता 

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

मासूम से सपनों को.........



                                                 नन्हीं पलकें अलसाई
                                                स्वप्निल सी मुस्काई 
                                                ओस सी मासूम अँखियाँ 
                                                खिलते और खुलते ही 
                                                अपनों के अरमानों की 
                                                अपेक्षाओं के तले कुछ 
                                                सहमी सी कसमसाई 
                                                सबने अपनी चाह जताई 
                                                अधूरे अरमान जगाये....
                                                अधूरी आशाओं अपेक्षाओं का 
                                                चंदोवा तान ,असीमित सीमाएं  
                                                समेट ,सिमटे आसमान का 
                                                कोना दिखलाया .......

                                             मनमोहक सुमन की सुरभि को 
                                             इत्र बना छोटी -छोटी शीशियों की 
                                             कैद में सजा सामान(?) बनाया  
                                             क्यों न इन नन्ही पलकों की 
                                             पावन अँगड़ाई सुरभित सुमन सा 
                                             लहराने इतराने दें ..................
                                             नन्हीं साँसों के अलबेले सपनों को 
                                             सावन के झूलों सी इक नयी  
                                             ऊँचाई छू आने  दें ..... 
                                             उनके  मासूम से सपनों को 
                                             एक नया बसेरा बनाने दें .....

                                                                                                -निवेदिता
 

सोमवार, 5 सितंबर 2011

अभिनंदन



                                                    चाहती हूँ रंगों के सागर में  
                                                    कुछ रंग मैं भी सजा आऊँ .
                                                    एक धुंधली सी तस्वीर में 
                                                    इक रंग प्यार का भर आऊँ 
                                                    हो न जाए कहीं किसी रंग में
                                                    धूमिल या चटकीली मिलावट 
                                                    सफेद तो रहे ही बेदाग़ ,
                                                    काला भी हो रौशन चमकीला 
                                                    चाँद-तारों की थिरकन से 
                                                    भरा-भरा रहे सजा सँवरा....
                                                    उस धुंधली तस्वीर में 
                                                    ख़्वाबों की सुवास बसा दूँ
                                                    धुप ,कपूर ,अगरु औ चन्दन 
                                                    इन से करूँ अभिनंदन ..........
                                                                                 -निवेदिता 

  

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

संबंधों की काँवर..........



                                                 काँधे पर लिए संबंधों (?) की काँवर
                                                 अपनी धुन में रिश्ते यूँ ही निभाते रहे 
                                                 पिछली रिसती साँसे अनदिखी रहीं 
                                                 सलामत रहे रिश्ते टीस सा चुभते रहे 


                                                सोचा दरारों में कुछ फूल पनप जाएँ 
                                                टूटन से बहते पलों को यादें थाम लेंगी 
                                                सुरभित पुष्प न सही कहीं से कभी तो 
                                                थोड़ी सेवार बहते लम्हों की बाँह गहेगी



                                                  नाकाम सी उम्मीद लिए रीतते लम्हों को 
                                                  नई पहचान देते झूठा सुकून तलाशते रहे 
                                                  शून्य सी पहचान लिए दायरे का अनदिखा 
                                                  सिरा तलाशते रह गये ..................



                                                  टूटे बरतन या चिटके फूलों से सजा गुलदान
                                                  सच अंतिम परिणति तो सिर्फ इतनी ही है 
                                                  दोनों की माटी को माटी में ही मिल जाना है
                                                  मन बावरा बहकता रहा भटकता रहा ....... 
                                                                                        -निवेदिता 


रविवार, 28 अगस्त 2011

आज मेरे ब्लॉग "झरोखा" की पहली वर्षगांठ है :)



आज की ही तारीख "२८ अगस्त "को पिछले वर्ष ,बहुत सारी झिझक भरी हिचकिचाहट के साथ ,विद्यार्थी जीवन की डायरी से शुरू हुआ सफर जो नितांत व्यक्तिगत था ," झरोखा " के साथ ब्लाग जगत में आने का साहस किया | इस दुनिया में आने के लिए बड़े भाई सदृश "श्री अनूप शुक्ल जी " ने  प्रेरित किया और इसमें पूरा साथ और समर्थन मेरे better half "अमित "ने दिया | झरोखा की पहली पोस्ट में सिर्फ चंद शब्द ही थे | इस एक वर्ष में गद्य और पद्य दोनों में ही प्रयास किया ......... इस प्रयास में आप मित्रों ने भी पढ़ कर और टिप्पणी दे कर मनोबल बढाया | शुरू की पोस्ट में जब कोई  टिप्पणी नहीं मिली ,तब अक्सर ख्याल आता था कि सम्भवत:मेरे लेखन में इतनी परिपक्वता अभी नहीं है इसीलिये कोई पढ़ता नहीं है | सबसे पहली टिप्पणी जाकिर अली जी की आयी ....... फिर धीरे-धीरे मित्र समर्थन देते गए और पहली वर्षगाँठ भी आज आ गयी | 
अपने ब्लॉग की विधा के बारे में सिर्फ इतना ही कहूँगी कि ये उस पल में आये हुए मेरे मनोभाव हैं .............. धन्यवाद !!!