" घर " इस का जब जिक्र भी होता है ,बस एक सुकून सा छा जाता है | ये एक ऐसी दुनिया होती है जहाँ हम अपने मन की ज़िन्दगी जीने को स्वतंत्र होते हैं ,बगैर किसी आडम्बर के | माता-पिता उपलब्ध संसाधनों में परिवार के सदस्यों के लिए हर सुविधा जुटाने का प्रयास करते हैं | जब बात उनके बच्चों की आती है ,तो वो अपनी सीमा से भी आगे जा कर उनको संतुष्ट करना चाहते हैं | इस सुख और सुकून भरे माहौल में थोड़ी उलझनें तब जरूर सर उठाती लगती हैं जब वो अपने बच्चों को हर क्षेत्र में शीर्ष पर ही देखना चाहतें हैं |
शीर्ष पर उन नन्हों को पहुचाँ पाने की प्रक्रिया में अक्सर जब अपने आसपास देखते हैं तो पारम्परिक रूप से सफल हुए बच्चों और उनके अभिभावकों के साथ सलाह लेने का प्रयास करते हैं | पर यही वो पल होता है जब बच्चे और अभिभावक एक दूसरे से थोड़े से दूर होने लगते हैं | अभिभावक सफल प्रमाणित हो चुके बच्चों की रीति के अनुसार उनका पालन-पोषण करना चाहते हैं | बच्चों का ध्येय और उनकी मंजिल उस से कुछ अलग भी हो सकती है ,अभिभावक अक्सर ये मानने को तैयार नहीं होते | बस इस पल से अभिभावक घर को प्रयोगशाला बना देते हैं ,जिसमें से एक सर्वगुणसम्पन्न प्रोडक्ट निकलना ही होगा |
हर व्यक्ति का व्यक्तित्व सर्वथा भिन्न होता है | दो भिन्नताओं को एक समान बनाने का प्रयास दो तरह की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है ....... एक तो उपहास की और दूसरी दमन की ! इन दोनों में से किसी भी परिस्थिति में उसकी अपनी प्रतिभा का लोप हो जाना निश्चित है | बच्चे को एक स्वतंत्र और परिपूर्ण व्यक्तित्व मान कर उससे विमर्श कर के कोई भी निर्णय लिया जाए ,तो उसका सफल होना अवश्यम्भावी होगा ,क्योंकि उसमें बच्चे की पूरी सार्थक ऊर्जा भी सम्मिलित होगी | अगर सिर्फ अपनी इच्छा से कोई निर्णय लेंगे ,तब भी बच्चा सफल हो तो सकता है ,पर उसको ज़िन्दगी से एक शिकायत हमेशा बनी रहेगी कि ये उसकी रूचि की अनदेखी है | इस तरह की शिकायत कभी-कभी हाथों के छूटने की सी अनुभूति करा जाती है |
बच्चों की जब आँखें भी नहीं खुल पा रही होती हैं ,तबसे ही वो हमारे हाथों को थाम लेते हैं ,पर ये हमारा व्यवहार ही है जो उनका हाथ धीरे-धीरे हमारे हाथों से छूटता चला जाता है | इस स्थिति की भी विडम्बना ये है कि छूटते हुए हाथों के लिए हम अपने उन बच्चों को कसूरवार मानते हैं जिनमें हमारी साँसे बसती हैं | अगर हम बच्चों का और उनकी इच्छा का सम्मान करेंगे तभी हम उनसे भी समान और संतुष्टि पायेंगे | घर को उनके लिए ऐसी जगह बनायें जहाँ हर व्यस्तता और सफलता के बावजूद भी आना चाहें ,न कि एक ऐसी प्रयोगशाला बना दें जहां से भागने के लिए वो छटपटायें !
-निवेदिता
प्रयोगशाला और घर में यही फर्क है जिसे आपने बखूबी बताया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सही और सार्थक आलेख...
जवाब देंहटाएंसोचने को विवश करती है आपकी पोस्ट ... सार्थक चिंतन इस तेज़ी के दौर में ...
जवाब देंहटाएंbachhon ki manobhawanakul sundar aur saarthak prastuti ke liye aabhar!
जवाब देंहटाएंविचारणीय मुद्दा।
जवाब देंहटाएंघर में प्रयोगशाला तो होनी चाहिए। पर प्रयोग बच्चों पर नहीं बल्कि को बच्चों को प्रयोग करने देने चाहिए। हमने तो यही किया।
जवाब देंहटाएंप्रयोग जीवन भर चलते हैं, कई तो सर्वथा नये से होते हैं।
जवाब देंहटाएंbahut achha likha hai... sukshm nazariyaa
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रविष्टि...वाह!
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंचिंतनपरक पोस्ट।
सार्थक आलेख...मौजूदा हालातों को बहूत अछे से बयां किया आपने
जवाब देंहटाएंसशक्त और प्रभावशाली पोस्ट।
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ...संवेदनशील विषय को छूती पोस्ट .....
जवाब देंहटाएंघर को बच्चों को घर से बे -दखल करने वाली छोटी छोटी बातों की ओर ध्यान दिलाती है यह पोस्ट .स्कूल होम वर्क और स्कूल में मिले नंबर बिला वजह एक बड़ा मुद्दा बन रहें हैं .हर बच्चे का अपना एक रुझान होता है एक रूचि होती है लगाव होता है कुछ चीज़ों से पहचानी उन्हें और विकसने का मौक़ा दीजिए बस यही काम है आपका .
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