सबके उचित-अनुचित का आकलन कर के न्याय करते-करते आज अनायास ही मेरी अंत:चेतना मुझसे प्रश्न करने लगी -क्या मेरे द्वारा किया जाने वाला न्याय उचित होता है ?क्या मैं न्याय करने का अधिकारी हूं भी?
क्या उस तरह के गुनाह मैंने भी नहीं कियें हैं ?सब के साथ न्याय करने की घोषणा करने वाला मैं ,सब के साथ न्याय कर पाया हूँ ? सच पूछो तो नहीं |
मैंने तो अन्याय की नीवं अपने घर में ही रखी | चलिए शुरू से ही शुरुआत
की जाए |
सृष्टि के सबसे संहारक युद्ध ,महाभारत के लिए सब ने दोषी माना
मेरे अनुज दुर्योधन को |आज शांत मन से इस का दोषी मैं खुद को मानता
हूं | अगर मैं अपनी चरित्रगत कमजोरियों से बच पाता तो कोई मेरे अपने परिवार के साथ कुछ भी गलत न कर पाता | अगर मैंने दृढ़तापूर्वक मना किया होता तो जुआ खेल कर मैं राज्य के साथ-साथ अपना , भाइयों और
सबसे बढ़ कर द्रौपदी का मान भंग करवाने से बच जाता |
मैं द्रौपदी का भी अपराधी हूं |सब इस को ही सच मानते हैं कि अर्जुन
द्वारा विजित द्रौपदी को माता कुंती ने आपस में बांटने को कहा था | एक पल को इस को सच मान भी लें ,तब भी प्रश्न यही है कि मां ने उससे विवाह करने को तो नहीं कहा था ! द्रौपदी के सौन्दर्य पर हम सब भाई मोहित थे ,
परन्तु वैसा शर - संधान हमारे लिए संभव नहीं था | हमने हमेशा की तरह
अर्जुन के पराक्रम का ही सहारा लिया | अर्जुन द्वारा विजित द्रौपदी से हमने
विवाह कर के उस को असमंजस की स्थिति में डाल दिया | माता कुंती द्वारा बांटने को कहने का ये तात्पर्य ,नैतिक रूप से ,कभी भी नहीं हो सकता था |
हम द्रौपदी को मां के रूप में ,अनुज - वधु होने पर पुत्री रूप में अथवा कृष्ण की तरह सखी रूप में भी बांट सकते थे | परन्तु हमारे मन का चोर किसी और रूप में द्रौपदी को देख ही नहीं पाया |
अपराधी तो मैं अपने प्यारे भाई अर्जुन का भी हूं | जब भी कोई बड़ा
ख़तरा आता , मैं निरुपाय सा अर्जुन को तलाशता और वह उस ख़तरे का सामना करने को तैयार नज़र आता | जब हमें किसी दैवीय शक्ति के लिए तप करना होता तब भी अर्जुन ही जाता |
द्रौपदी के बारे में सोच कर ही मुझे खुद पर ग्लानि होती है | एक
सरलमना स्त्री को शब्दों में बाँध कर के ऐसा विवश कर दिया कि पंचपतियों को स्वीकार करने को उसको बाध्य होना पड़ा | द्रौपदी के उपहास बन गए
जीवन का मूल कारण मेरे द्वारा मां के शब्दों को दिया गया घुमाव था |
सब के प्रति जाने-अनजाने में किये गए अपराधों (इस तरह के किये
गए अन्याय अपराध की ही श्रेणी में आते हैं )के बोध से मैं इतना पीड़ितऔर
त्रस्त अनुभव कर रहा हूं , कि धर्मराज का संबोधन तीखे बाणों सा मेरी आत्मा को भी कचोटता है | परन्तु अब कुछ भी नहीं कर सकता ये मेरी विवशता है !!!