गुरुवार, 6 जुलाई 2017

रंगों में लकीरों में तुम्हे उकेरुं .....

सोचती हूँ आज इस कोरे से कैनवस पर 
रंगों में लकीरों में तुम्हे उकेरुं  ..... 
पर बोलो तो क्या ये हो भी पायेगा 
अपने ख़्वाबों की हकीकत से निकालूँ कैसे 
तुमको खुद से दूर करूं  
हाँ ! निरखूं परखूं तभी तो 
रंगों से सहेज निखारूँ तुम्हे कैनवस पर 
पर सुनो न  .... खुद से  ..... 
तुमसे अलग हो कर क्या देख भी पाऊँगी 
विवेकशून्य दृष्टिहीन क्या कर सकूँगी 
छोड़ो न  ...... क्या करना  ..... 
तुम तो बस मेरे इंद्रधनुषी स्वप्न से 
मेरे अंतर्मन में ही सजे रहना  ...... निवेदिता 

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदरतम भाव, बहुत शुभकामनाएं।
    रामराम
    #हिन्दी_ब्लागिंग

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  2. ईश्वर से विमुख हो भटकाव ही है !! बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!

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  3. हाय रे यह समर्पण...कितना खूबसूरत.

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  4. वाह भाभी इस विधा में तो आप पारंगत हैं , बखूबी भावों की कूची से शब्दों को उकेर देती हैं आप वो भी कितनी सरलता से | बहुत ही उम्दा , सरल सौम्य और गहरा

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  5. कविता में पूरा नारित्व उतार दिया है

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  6. चाहकर भी अलग न हो पाना ही एक वजह नहीं
    रंगों के बगैर केनवास के कोरे रह जाने की ...
    इंद्रधनुष को मौसम के बगैर भी देखते रहना चाहती हूं मैं ....

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  7. बहुत खूब ... खुद को अलग देखना भी क्यों ...
    जब प्रेम है तो जीता केनवास साथ ही है ...

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