सोचती हूँ आज इस कोरे से कैनवस पर
रंगों में लकीरों में तुम्हे उकेरुं .....
पर बोलो तो क्या ये हो भी पायेगा
अपने ख़्वाबों की हकीकत से निकालूँ कैसे
तुमको खुद से दूर करूं
हाँ ! निरखूं परखूं तभी तो
रंगों से सहेज निखारूँ तुम्हे कैनवस पर
पर सुनो न .... खुद से .....
तुमसे अलग हो कर क्या देख भी पाऊँगी
विवेकशून्य दृष्टिहीन क्या कर सकूँगी
छोड़ो न ...... क्या करना .....
तुम तो बस मेरे इंद्रधनुषी स्वप्न से
मेरे अंतर्मन में ही सजे रहना ...... निवेदिता
रंगों में लकीरों में तुम्हे उकेरुं .....
पर बोलो तो क्या ये हो भी पायेगा
अपने ख़्वाबों की हकीकत से निकालूँ कैसे
तुमको खुद से दूर करूं
हाँ ! निरखूं परखूं तभी तो
रंगों से सहेज निखारूँ तुम्हे कैनवस पर
पर सुनो न .... खुद से .....
तुमसे अलग हो कर क्या देख भी पाऊँगी
विवेकशून्य दृष्टिहीन क्या कर सकूँगी
छोड़ो न ...... क्या करना .....
तुम तो बस मेरे इंद्रधनुषी स्वप्न से
मेरे अंतर्मन में ही सजे रहना ...... निवेदिता
बहुत ही सुंदरतम भाव, बहुत शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंरामराम
#हिन्दी_ब्लागिंग
ईश्वर से विमुख हो भटकाव ही है !! बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंहाय रे यह समर्पण...कितना खूबसूरत.
जवाब देंहटाएंक्या बात है जी....!
जवाब देंहटाएंवाह भाभी इस विधा में तो आप पारंगत हैं , बखूबी भावों की कूची से शब्दों को उकेर देती हैं आप वो भी कितनी सरलता से | बहुत ही उम्दा , सरल सौम्य और गहरा
जवाब देंहटाएंकविता में पूरा नारित्व उतार दिया है
जवाब देंहटाएंचाहकर भी अलग न हो पाना ही एक वजह नहीं
जवाब देंहटाएंरंगों के बगैर केनवास के कोरे रह जाने की ...
इंद्रधनुष को मौसम के बगैर भी देखते रहना चाहती हूं मैं ....
बहुत खूब ... खुद को अलग देखना भी क्यों ...
जवाब देंहटाएंजब प्रेम है तो जीता केनवास साथ ही है ...