जब से सुनना और सुने हुए को समझना आया , एक बात अक्सर सुनी कि " इंसान गलतियों का पुतला है " ...... अब तो सुनते-सुनते अभ्यासवश इस उक्ति को स्वीकार भी कर लिया है ! अब बस एक बहुत छोटी सी चाहत अक्सर सरकश होती है ...... जानते हैं वो क्या है ? बस सिर्फ इतनी सी चाहत है कि बेशक गलतियाँ करे इंसान पर एक काम अवश्य करे ...... या तो गलतियाँ नयी हों अथवा उनको मानने का तरीका ! अगर ऐसा हो तब गलतियों वाले लम्हे भी स्वीकार्य होंगे |
अब अगर इस्तेमाल के बाद तौलिया गीला ही गोल-मोल करके बिस्तर पर छोड़ना नित का नियम बन गया हो तो ,हर बार ये न कहें ," मैं भूल गया " ..... कभी कहें ," मैंने सोचा कि तौलिया फैलाने से सूखता नहीं बल्कि इसके रोयें कड़े हो जाते हैं " ......... या फिर ये भी कह सकतें हैं ,"मैं तो तौलिये को गोल-गोल कर के ऐसे ही छोड़ कर बताना चाहता हूँ कि दुनिया गोल है ".... या फिर कहें ," गीला तौलिया रिश्तों की नमी का एहसास दिलाता है "........ जब इतने से भी बात बनती न दिखे तो अतिआत्मविश्वास से कह दीजिये ," मैं ऐसा इसलिए करता हूँ कि मुझे पता है कि मेरी गल्तियों को समझने और समेटने वाला भी कोई है ".....
इस्तेमाल करने के बाद अगर साबुन साफ़ कर के रखना आदत में नहीं है तब हरदिन ये न कहें , "मैं भूल गया " ....... कभी कह दें ,"मैंने तो साफ़ किया था ,पर दूसरी तरफ साफ़ कर के रखने के चक्कर में इस तरफ झाग लग गया "......... कभी ये भी कह सकतें हैं ,"इस साबुन की नीयत ही नहीं थी साफ़ रहने की "......... कभी साफ़-साफ़ मुकर जाइए ,"मैंने तो साबुन को हाथ ही नहीं लगाया ,आज तो सिर्फ शैम्पू से ही काम चलाया "........
अगर पत्नी की डायरी को बेकार समझ कर रद्दी में डाल दिया तब कह सकतें हैं ,"अरे वो तुम्हारी थी मैंने तो समझा कि वो मेरी थी "......पर हाँ भूले से भी ये न कहियेगा ," मैंने तो समझा बेकार है भरी हुई थी "....... जो आपके लिए बेकार और भरी हुई थी वो आपकी पत्नी के कई बरसों की मेहनत थी !
इतनी बातों का तात्पर्य फ़कत इतना सा है कि या तो हर बार गलतियाँ नयी हों या फिर उन पुरानी गल्तियों का कारण हर बार नया हो | ऐसा करने से हम भी ऊब नहीं जायेंगे ,और हाँ ! आपकी सृजनात्मक शक्ति का भी आभास हो जाएगा ....