सुनो तुम हर कदम पर मुझको परीक्षक की दृष्टि से ही क्यों देखते रहते हो ?
नहीं ... ऐसा तो नहीं है ।
अच्छा ! उन तमाम लम्हों की याद दिलाऊँ क्या ?
नहीं ... नहीं ... जाने भी दो न ... उन लम्हों को याद कर ,इस उजली चाँदनी पर अमावस की बदली क्यों ओढ़ना ... मान जाओ न ।
चलो छोड़ो क्योंकि अब उन लम्हों की मिठास को तो स्वयं ईश्वर भी नहीं ला पाएंगे ... परन्तु सिर्फ़ एक बार कारण तो बता ही दो न ,जिससे मेरा मन कुछ तो शान्त हो जाये।
इसका कारण हमारा यह सामाजिक ढाँचा है ,इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं ।
ये क्या बात हुई ... यह तो अपने ही किये गए कार्यों की जिम्मेदारी से पलायन हुआ न ।
मेरा विश्वास करो ,यही सच है । मैं पुरूष हूँ न ,बस इसीलिये तुम्हारे किये गए प्रत्येक कार्य को मैंने कभी अपनी तो कभी दूसरों की निगाहों से ही देखा ।
और मेरी निगाहें या मेरा नज़रिया ...
वो तो कभी सोचा ही नहीं । तुम या तुम्हारा अलग व्यक्तित्व है ही कहाँ ? तुम तो मुझमें ही समाहित हो और मुझे तो आदर्शों के प्रतिमान रचने है न !
हो सकता है कि तुम अपनी जगह सही हो ,परन्तु गलत मैं भी नहीं । तुम तो मन में भी राम की कठोरता सम्हाले रहे,जबकि मैं तुम्हारे मन में कान्हा को तलाशती रही ।
क्या मतलब है तुम्हारा ... क्या मैंने तुम्हारी अस्मिता का मान नहीं रखा ?
बेशक़ रखा होगा ,परन्तु वह भी अपने ही नज़रिए से । वैसे भी तुम्हारा काम तो मेरी प्रतिमा से भी चल जाएगा ,परन्तु मेरा नहीं ।
क्या कह रही हो ?
मैं उस कृष्ण मन को चाहती हूँ जो एक धागे का मान रखने के लिये ,वस्त्रों का ढ़ेर लगा दे । अपने साथी के मन में मैं राधा और द्रौपदी वाला नेह भरा सम्मान चाहती हूँ ।
... निवेदिता श्रीवास्तव #निवी
अच्छी और रोचक लघुकथा।
जवाब देंहटाएंSarkariexam Says thank You Very Much For Best Content I Really Like Your Hard Work. Thanks
जवाब देंहटाएंamcallinone Says thank You Very Much For Best Content I Really Like Your Hard Work. Thanks
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