संवाद : पर्स की गहराई और ठिठकी हुई चाहतें
हटो तुम सब ... जब देखो मुझमें ही झाँकते रहते हो ।
सुन न ! जरा सी ... बस बहुत जरा सी झलक दिखला दे न ।
क्यों भई ... क्यो देखना है ... आखिर चाहते क्या हो ? तुम सब की नज़रों में इतनी दीवानगी दिखती है कि मुझे डर लगता है ।
नहीं ... नहीं ... तुम बिल्कुल मत डरो । हम तुमको बिल्कुल भी नुकसान नहीं पहुंचायेंगे ।
फिर ... फिर क्यों बार - बार तुम मेरे पास आ जाते हो ... पहले तो अकेले आते थे ,फिर एक - एक कर के बढ़ते हुए इतने ढ़ेर सारे हो कर इकट्ठा चले आते हों । आज अपना नाम या कुछ पहचान ही बता दो ,तो मेरा भी डर कुछ कम हो ।
ह्म्म्म ... पहचान ... जिस जिस्म ने तुमको अपने हाथों में पकड़े रखा है न हम उसी जिस्म के अंदर मौजूद दिल और दिमाग मे पलती हुई चाहते हैं ।
चाहतें ?
हाँ ! चाहतें ... पहले तो इक्का - दुक्का ही थीं पर तुम्हारी गहराई ढोल में पोल की तरह ही निकली ... किसी भी चाहत को पूरा नहीं कर सकी ,बस इसीलिये हमारी संख्या बढ़ती ही जा रही है ।
अरे तो मैं क्या करूँ ?
सच है कि तुम कुछ नहीं कर सकते । परन्तु आज हम तुम्हारे पास सिर्फ इसीलिये आये थे कि देख सकें कि कुछ हो भी सकता है या नहीं ...
फिर ... फिर क्या करते तुम सब ?
कुछ नहीं ... किसी सूली पर टँग जाते और कभी कभार इसके दिल - दिमाग मे चिकोटी काटते रहते ...
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-11-2020) को "अहोई अष्टमी की शुभकामनाएँ!" (चर्चा अंक- 3879) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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अभिनव कथोपकथन - - मुग्ध करता है, नमन सह।
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