ज़िन्दगी
वो दो हाथ और हँसती ज़िन्दगी
वही दो हाथ और बिखरती ज़िन्दगी
हँसते हुए हाथों में पल्लवित हो
नित नये अर्थ निखारती ज़िन्दगी
सहम और डर से काँपती रेखायें
बेवज़ह के सवाल पूछती ज़िन्दगी
जोड़े हुए हथेलियों को रोकती
पल - पल ,हर पल रिसती ज़िन्दगी
चन्द रेशों और चन्द ही मन्त्रों संग
कैसे - कैसे रिश्ते जोड़ती ज़िन्दगी
दुआओं के ट्रैफिक में अटकती साँसें
बिखर कर चुप दम तोड़ती है ज़िन्दगी
कामनाओं की शुभकामनाओं का रेला
जीने की चाहत संजोती ये ज़िन्दगी
वेदना दे जाती वो चुभती संवेदनायें
और बस बिखरती जाती ज़िन्दगी !
.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
बेहतरीन ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएं