शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

अनकही वजह ........


माना  
बदलते वक्त के साथ 
कम हो ही जाता है 
छोटी चीजों का दिखना 
या मान लें    
वो चीजें ही हो जाती हैं 
बहुत छोटी ....

अँधेरे कोने 
कम अँधेरे लगते हैं 
तुम्हारी बातों की 
यादों के जुगनू 
साँसों के धडकने से 
चमक जाते हैं 
और बस 
मन में बसा अन्धेरा 
छट सा जाता है 

बेरंग से लम्हे 
सपनों की फुहार में 
इन्द्रधनुष से 
रंगों का 
चंदोवा तान 
काँटों की चुभन
अमलतास सा 
सहला - दुलरा 
जीने की 
अनकही वजह 
बन जाते हैं  ......
                 -निवेदिता 


16 टिप्‍पणियां:

  1. क्या कहने -जीने का कुछ तो कारण हो !

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  2. गहन लेखन ....!!
    सुंदर अनुभूति निवेदिता जी ....
    आपकी सोच आध्यात्मिक है ...!!
    शुभकामनायें ...

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  3. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति रविवारीय चर्चा मंच पर ।।

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  4. बहुत अच्छे | क्या कविता लिखी आपने | शानदार | आभार |

    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  5. भावपूर्ण रचना ... अनकही वजह बने रहें पर इंद्र्धानुष तो खिलेगा ...

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  6. जीवन में ऐसे पलों की बहुत जरूरत होती है ... जीने की वजह मिलती रहे ...

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  7. जीवन को रुचिकर बनाने के लिये ज़रूरी है !

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  8. क्या खूब कहा आपने या शब्द दिए है
    आपकी उम्दा प्रस्तुती
    मेरी नई रचना
    प्रेमविरह
    एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ

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