पिंजरा ... सोचिए तो कितना बहुआयामी शब्द अथवा वस्तु है। दुनियावी दृष्टि से देखें तो सबसे पहले पक्षियों का पिंजरा ही याद आता है, उसमें भी मिट्ठू (तोते) का, जो बहुत ही शीघ्रता से अपनी टाँय-टाँय छोड़ कर जिस परिवेश में रहता है, उसी में ढ़ल कर वहीं की भाषा बोलने लगता है।
दूसरा पिंजरा याद आता है सबसे बलशाली पशु शेर का। जरा सोच कर देखिये कि जंगल का राजा शेर, जो तामसी और आक्रामक प्रवृत्ति का होता है पिंजरे में बन्द होते ही, अपनी सहज स्वाभाविक गर्जना भूल कर रिंगमास्टर के चाबुक के इशारों पर नतशीश हो दहाड़ने की इच्छा को उबासी में बदल देता है।
बहुत छोटे एवं निरीह तोते से ले कर सर्वाधिक शक्तिशाली शेर, पिंजरे में अर्थात बंधन में पड़ते ही अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति भूल जाते हैं। एक निश्चित परिधि में ही वो घूमते हैं, निश्चित आहार लेते हैं और सबसे बड़ी बात कि पिंजरे के मालिक के प्रति समर्पित हो जाते हैं। यही समर्पण भाव उनको सुनिश्चित जीवनचर्या दिलाते हुए भी स्वाभाविकता से बहुत दूर ले जाता है। परन्तु जिस भी पल उनको अपनी वास्तविक स्थिति का आभास होता है, उसी पल से वो मुक्त होने का प्रयास करने लगते हैं।
पशु पक्षियों से इतर, हम सभी मनुष्य विभिन्न स्तर एवं प्रकार के विवेक से सम्पन्न हैं। दूसरों के जीवन, उनकी जीवन शैली, गुण-दुर्गुण सभी की विवेचना, या कह लूँ आलोचना करते हैं परन्तु अपने तन एवं मन के पिंजरे के विषय मे सोचने के बारे में भी, नही सोचते हैं।
ईश्वर हमारे तन के पिंजरे में एकदम मासूम फ़ाख्ता सा निष्कलुष मन दे कर भेजता है। अन्य पशु-पक्षियों की भाँति ही जिस परिवेश में तन रहता है, मन भी उसी के अनुसार ढ़लता जाता है। वातावरण को आत्मसात करने की इस पूरी प्रक्रिया में अपनी शुभ्रता को मलिन करता हुआ,प्रतीक्षा करता है कि कोई अन्य आ कर पिंजरे की तीली तोड़ कर, उसको स्वतंत्र कर देगा ... परन्तु व्यवहारिकता के धरातल पर यदि देखा जाए तो पहला प्रयास तो हमको स्वयं ही करना होगा। माया-मोह की दलदल में फँसे होने और छूटने के लिए स्वयं को आत्मशक्ति में स्थिर करना ही पड़ेगा,अन्यथा प्रत्येक आने-जाने वाले की तरफ हाथ फेंकते-फेंकते उसी दलदल की असीम गहराइयों में समा कर दम तोड़ देंगे।
उत्तरदायित्वों से भागना नहीं है और न ही उनमें सदैव लिप्त रहना है, अपितु निस्पृह भाव से उनको पूरा करना है। साथ ही साथ आत्मचेतना को जागृत करने के लिए अतमन्थन करना होगा। तभी तन के पिंजरे के जीर्ण होने पर, मन का पक्षी शुभ्रता के साथ परम सत्ता के अपने स्वाभाविक परिवेश में मन मस्त मगन सा जाएगा।
निवेदिता श्रीवास्तव निवी
#लखनऊ
तन के जीर्ण होने पर ही क्यों अभी इसी क्षण मन का पंछी उड़ान भर सके, बात तो तब है
जवाब देंहटाएंअध्यात्म सा सृजन।
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