सोमवार, 21 दिसंबर 2020

चिंगारी प्यारी थी !

किरण बेदी 💐💐


निशि दिवस की उजास बन

रवि शशि की किरण वह प्यारी थी

एक चिंगारी सी लगती वो  

शौर्य भरी किरण बेदी न्यारी थी  

*

जून माह इतना इतराता इठलाता 

जन्म लिया था तभी इस चिंगारी ने 

अमृतसर की शौर्य भूमि ने अलख जगा  

साहस भरा हर आती सजग साँस ने

महिला सशक्तिकरण का प्रतिमान बनी वो   

सत्य और कर्त्तव्य की वो ध्वजाधारी थी !   

*

शिक्षा ले अंग्रेजी साहित्य और राजनीति शास्त्र में  

पढ़ा रही थी वह अमृतसर कॉलेज में

समय ने जब अनायास ही खोली थी पलकें  

तब किरण बेदी बनी एक पुलिस अधिकारी

शौर्य ,राष्ट्रपति ,मैग्सेसे जैसे अनेकानेक    

पदकों से सम्मानित जिम्मेदार अधिकारी थी !

*

गलती किसी की कभी नहीं थी बख्शी   

पार्किंग गलत होने पर उठवाई उसने

तत्कालीन प्रधानमंत्री की भी गाड़ी थी

ट्रैफिक दिल्ली का भी खूब सुधारा उसने

बन महानिरीक्षक सँवारा तिहाड़ जेल को उसने  

अवमानना के सवाल पर खूब चली वो दुधारी थी !  

*

जीवन भर कभी हार नहीं उसने मानी थी  

मानवता के शत्रुओं से रार खूब ही ठानी थी

यदाकदा विवादों के उछले छींटे बहुत सारे थे

लिखी गईं उसपर पुस्तकें ,बनी फिल्में भी कई सारी थीं 

नशामुक्ति और प्रौढ़ शिक्षा की अलख जगा  

समाज सुधार का प्रयास कर निभाई जिम्मेदारी थी !  

                               ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 7 दिसंबर 2020

लघुकथा : दूसरा इश्क़

लघुकथा : दूसरा इश्क़


दिवी अपना नाम सुनते ही दृढ़ क़दमों से मंच की तरफ बढ़ ही चली थी ,कि सामने से आता अवी उसको देख कर चौंक ही गया था । अलग होने के बाद जैसे उसकी ज़िन्दगी उसी लम्हे में अटकी रह गयी थी और दिवी कितना आगे बढ़ गयी है ... आत्मविश्वास और ज़िंदादिली  का बेमिसाल शाहकार हो जैसे । दिल मे ख़लिश सी हुई और नज़रें मानो उसके इस रूप के कारण को उसके स्थान के आजू - बाजू में भौतिक रूप को तलाशने लगीं । किसी नतीज़े पर वह पहुँच पाता कि मंच से दिवी की आवाज़ आयी । वह अपने नये उपन्यास 'दूसरा इश्क़' के बारे में बता रही थी ।


"यह सवाल मेरे ज़हन में भी सरगोशियां करता रहता है और मुझसे मुख़ातिब लोगों के भी ,कि दूसरा इश्क़ सम्भव कैसे हो सकता है ... इश्क़ तो एक बार ही होता है और वह पहला जुड़ाव इतना असरदार रहता है कि किसी और रंग को चढ़ने ही नहीं देता ... उसके बाद के जुड़ाव जिसको सब दूसरा तीसरा इश्क़ कहते हैं वह तो सिर्फ़ और सिर्फ़ ज़िम्मेदारियों और सम्बन्धों का निर्वहन ही होता है   ,शेष कुछ नहीं ," हल्की सी हँसी ने उसके चेहरे को एक नई चमक से भर दिया ,"परन्तु सच कहिये तो हम कई बार इश्क़ करते हैं ,क्योंकि सिर्फ़ आशिक - माशूक का इश्क़ ही असली इश्क़ नहीं होता । इश्क़ तो तन्तु है एक जुड़ाव का ... हर वो जुड़ाव जो किसी से बाँधता चले इश्क़ है ,चाहे वो काम से इश्क़ हो या ऊपरवाले से ,प्रकृति से हो या शौक से । "


नई ऊर्जा से साँस भरती वह कहती ही चली गयी ,"यदि अपना अनुभव बताऊँ तो कहूँगी कि हाँ ! मुझे भी दूसरा इश्क़ हुआ है ... ऐसा इश्क़ जिसने मुझको ज़िन्दगी से जोड़े रखा ... और अब मैं इश्क़ करती हूँ खुद अपनेआप से ... मुझको मुझसे ज्यादा कोई समझ ही नहीं सकता और न ही ख़ुद को मैं कभी भी दग़ा दूंगी । मेरे इस इश्क़ ने ही तो इन क़दमों में यायावरी भर नई पहचान दी है ... पहचान खुद से खुद की !"

           ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 30 नवंबर 2020

लघुकथा : कन्यादान

 लघुकथा : कन्यादान


भाभी ! हम लोगों का समय ही ठीक था । छह - सात साल की होते ही लड़कियों की शादी कर दी जाती थी । बताओ इतनी बड़ी हो गयी ये इला ... अभी भी पढ़ाई की जिद्द करती रहती है ।


पढ़ लेने दो न जिज्जी ... पढ़ - लिख कर तो अच्छा - बुरा समझने लगेगी और फिर जीवन जिस राह ले जायेगा ,ये सब सम्हाल लेगी ।


तुम्हारी बात सही है भाभी ... पर यही सोच रही हूँ  कि अकेली बिटिया है ये ,इसका भी बिना कन्यादान किये मर गये ,तब न जाने कौन सा नरक मिले ! बड़े - बूढ़े कहते भी तो थे कि बेटियों की शादी जल्दी न करने से पाप लगता है । इसी पाप से बचने के लिये ही तो इसकी शादी करना चाह रही हूँ ।


इला के कानों तक माँ और मामी की बातों  की आवाज पहुँच रही थी । वह भी परेशान हो गयी थी माँ को समझाते - समझाते । अब आज उसकी शादी को नया मोड़ दे कर कन्यादान ,पाप ,पुण्य ... क्या - क्या बोलने लगीं हैं । 


इला कमरे से बाहर आ गयी ,"माँ ! परेशान मत होओ शादी मैं जरूर करूँगी ... परन्तु मैं उसके पहले इतनी सामर्थ्य जुटाना चाहती हूँ कि मेरी ससुराल या पति कोई भी तुम लोगों को बोझ या एहसान न समझ कर मेरी माता - पिता का सम्मान दे .... और ये जो कन्यादान किये बिना नरक की भागीदार बनने का डर समाया है न ,इसको तो अपने अन्दर से निकाल फेंको । कन्या का तो पाणिग्रहण होता है दान नहीं । कन्यादान का मतलब है उसकी आर्थिक सुरक्षा के लिये परिजनों द्वारा दिये गये उपहार । इसी आत्मनिर्भरता के लिये ही तो पढ़ाई सबसे जरूरी है जो मैं करना चाहती हूँ ।"

                                           .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

शृंगार चिन्ह

 शृंगार चिन्ह

शृंगार चिन्ह के औचित्य पर मनन करने से भी प्रबल प्रश्न मेरे मन में यही उठता है कि शृंगार है क्या ... क्या मात्र तन को नानाविध सज्ज करना ही शृंगार है या मन को सज्ज करना भी ! बहुधा हम मन को भूल ही जाते हैं और विविध सामाजिक और पारिवारिक परम्पराओं की ही टीका करते रह जाते हैं । बस इसीलिये जो बात सामान्यतः बाद के लिये छोड़ देते हैं ,मैं उसको सबसे पहले ले कर आना चाहूँगी । चेतना का बोध होते ही सबसे पहले मन को शृंगारित करना चाहिए । मनन की धारा सन्तुलित कर के आत्मबल को दृढ़ करना चाहिए ,साथ ही वाणी पर संयम भी हो । वाणी पर संयम का अर्थ मात्र इतना ही है शब्दों का चयन और बोलने का तरीका कटु न हो । मन के इस सौंदर्य के साथ हम शृंगार चिन्ह की तार्किकता पर मनन करें तो औरों के लिये भी स्वीकार्य होगा । 

तथाकथित प्रचलित सोलह शृंगार की बात करूँ तो यह एक आदत की तरह सोच में शामिल हो गयी है ,जो विभिन्न अवसरों पर मुखरित हो उठता है और शकुन - अपशकुन के मकड़जाल में फँसाये रखता है । 

सनातन काल से स्त्री घरों के अन्दर ही रहती थी और परिवार की प्रतिष्ठा की द्योतक भी समझी जाती थी । इसी क्रम में पर्दा प्रथा का चलन था । स्त्रियों के साज - शृंगार को भी इसी से जोड़ा जाता था । जितना अधिक सम्पन्न घर ,उतने ही अधिक आभूषणों और शृंगार से सज्जित होगी उस घर की स्त्री । साथी की मृत्यु के बाद ,स्त्री के लिये शृंगार वर्जित करने के पीछे पुरुषवादी सोच का मूल कारण उसको अधिकारहीन अनुभव करवाना ही रहता होगा । मन टूटा रहेगा तो वो अधिकारों के विषय में सोच ही नहीं पायेगी । परिवार की शेष स्त्रियों ने इस सोच को एक आदत और स्वयं को महत्तर समझने की लालसा में अपनाया होगा । 

इन शृंगार चिन्हों को धारण करने के पीछे स्वयं के आकर्षक दिखने से मिलनेवाला आत्मविश्वास भी एक कारण है । इनके पीछे कुछ वैज्ञानिक कारण भी हैं । परन्तु सभी कारणों के मूल में पुरूषप्रधान समाज की स्त्री को कमतर और वस्तु मानने की सोच ही अधिक प्रबल है । 

पति के न रहने पर शृंगार न करने देना सर्वथा अमानवीय कृत्य है । वह कैसे रहना चाहती है ,यह निर्णय स्वयं स्त्री का होना चाहिए । बिन्दी लगाना है या नहीं ,लाल लगानी है या काली ,चूड़ी काँच की पहननी है या प्लास्टिक की ,मेहंदी ,आलता ,आभूषण प्रयोग करना है या नहीं यह  निश्चित करने में उस स्त्री के मन की सुननी चाहिए । जो और जैसे करने से उस के मन को शान्ति मिले वही करना चाहिए । 

परम्पराओं को मात्र परम्परा न मान कर जीवित रहने में सहायक की तरह ही अपनाना चाहिए ,न कि किसी के मन को और भी तोड़ने के लिये और तन से ज्यादा मन के शृंगार के प्रति सजग और सन्नद्ध रहना चाहिए .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

ज़िन्दगी ....

 ज़िन्दगी


वो दो हाथ और हँसती ज़िन्दगी

वही दो हाथ और बिखरती ज़िन्दगी


हँसते हुए हाथों में पल्लवित हो

नित नये अर्थ निखारती ज़िन्दगी


सहम और डर से काँपती रेखायें

बेवज़ह के सवाल पूछती ज़िन्दगी


जोड़े हुए हथेलियों को रोकती 

पल - पल ,हर पल रिसती ज़िन्दगी


चन्द रेशों और चन्द ही मन्त्रों संग

कैसे - कैसे रिश्ते जोड़ती ज़िन्दगी


दुआओं के ट्रैफिक में अटकती साँसें

बिखर कर चुप दम तोड़ती है ज़िन्दगी


कामनाओं की शुभकामनाओं का रेला

जीने की चाहत संजोती ये ज़िन्दगी


वेदना दे जाती वो चुभती संवेदनायें

और बस बिखरती जाती ज़िन्दगी !

       .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

संवाद : पोटली और हाथ का


आगे - पीछे झूलता हुआ हाथ आँखों के चंचल इशारे पर रुक कर ,पोटली उठाने को लपका ही था कि पोटली बोल पड़ी 


पोटली : रुको ! 


हाथ : क्यों ?


पोटली : क्या मैं तुम्हारी हूँ 🤔


हाथ : पता नहीं 😏


पोटली : फिर मुझे देखते ही मुझ पर आधिपत्य जमाने की तुममें लालसा क्यों जाग गयी😎


हाथ : अरे ! तुम सड़क पर पड़ी हुई हो ,जिसकी निगाह पड़ेगी ,वही तुमको ले जायेगा ।


पोटली : गलतफ़हमी मत पालो । मुझ पर किसी की नेमप्लेट नहीं लगी होने का मतलब ये नहीं है कि किसी का भी अधिपत्य मुझको स्वीकारना पड़ेगा । 


हाथ : तुम भी इस गुमान में मत रहना कि तुम इस समाज में ... वी भी हमारी प्रधानता वाले समाज में ऐसे अकेली और सुरक्षित रहोगी ।


पोटली : मतलब क्या है तुम्हारा ? क्या मेरी इच्छा और अस्तित्व का कोई अर्थ ही नहीं है ? 


पोटली : अरे ओ पोटली ! तू और तेरी इच्छा है किस चिड़िया का नाम ... तू कितने अच्छे से सँवरी हुई इस आकर्षक कपड़े में लिपटी हुई मुझको भा गयी है और अब तुझ पर मेरा अधिकार है ।


पोटली : तेरी इतनी हिम्मत कैसे हुई ? मुझको इतना कमजोर समझने की भूल मत करना । 


हाथ : अच्छा ! तू कर क्या लेगी मेरा ... तुझको अपने मन की करनी थी तो अपने घर में छुप कर बैठी रहती न । आज तो मैं अपनी सारी चाहतें पूरी करूंगा । सबसे पहले तो आँखों की भूख शान्त करूँगा ,फिर स्वादेन्द्रियों की ... और तब भी मेरी कुछ हसरत बची रह गयी न तो बाजार में ले जाऊँगा तुझे ,वहाँ भी तेरा कोई न कोई चाहनेवाला  मुझको मिल ही जायेगा । अब मुझसे तुझको कौन बचा पायेगा ... 🤣🤣🤣


पोटली : खुशफ़हमी में तू जी रहा होता तब भी कोई बात होती ,परन्तु तू तो निरा ग़लतफ़हमी में ही साँसें ले रहा है । हाथ लगा कर तो देख जरा । 


आँखों में एक वीभत्स सी चमक जाग उठी और उसकी रौशनी में हाथ पोटली उठाने को लपका ही था कि पोटली ने आत्मरक्षार्थ आंतरिक बल की विद्युत तरंगे बिखेर दी और उसको छूते ही हाथ के मुँह से चीखें फूट पड़ीं ।

                                   ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 10 नवंबर 2020

लघुकथा : अदला - बदली

पराठे सेंकते हुए वसु ने अवि को आते देखा तो वहीं से हँसते हुए बोल उठी ,"सुनो ! ये वाला पराठा थोड़ा करारा हो गया है ,तो मैंने उसको मोड़ दिया है । चुपचाप बिना देखे खा लेना ।" 


अवि पानी लेने रसोई में आ गया था ,"मतलब पराठा जल गया है न ... ऐसे बोलो न ,बिना मतलब के बहाने बना रही हो ," और हँसता हुआ प्लेट ले कर डायनिंग टेबल की तरफ चल गया ,"वैसे जानती हो स्वाद तो इसी पराठे का ज्यादा अच्छा है । "


वसु दूसरा पराठा ले आयी ,"सुनो !देखो न ये वाला कितना अच्छा सिंका है न ... ऐसा करो इस को देखते हुए उस करारे पराठे को खा लो । तुम तो अक्सर यही करते ही हो ... कल्पना से वर्तमान की ख़्याली अदला बदली ... "

    ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

संवाद : पर्स की गहराई और ठिठकी हुई चाहतें

 संवाद : पर्स की गहराई और ठिठकी हुई चाहतें


हटो तुम सब ... जब देखो मुझमें ही झाँकते रहते हो ।


सुन न ! जरा सी ... बस बहुत जरा सी झलक दिखला दे न ।


क्यों भई ... क्यो  देखना है ... आखिर चाहते क्या हो ? तुम सब की नज़रों में इतनी दीवानगी दिखती है कि मुझे डर लगता है ।


नहीं ... नहीं ... तुम बिल्कुल मत डरो । हम तुमको बिल्कुल भी नुकसान नहीं पहुंचायेंगे । 


फिर ... फिर क्यों बार - बार तुम मेरे पास आ जाते हो ... पहले तो अकेले आते थे ,फिर एक - एक कर के बढ़ते हुए इतने ढ़ेर सारे हो कर इकट्ठा चले आते हों । आज अपना नाम या कुछ पहचान ही बता दो ,तो मेरा भी डर कुछ कम हो ।


ह्म्म्म ... पहचान ... जिस जिस्म ने तुमको अपने हाथों में पकड़े रखा है न हम उसी जिस्म के अंदर मौजूद दिल और दिमाग मे पलती हुई चाहते हैं । 


चाहतें ? 


हाँ ! चाहतें ... पहले तो इक्का - दुक्का ही थीं पर तुम्हारी गहराई ढोल में पोल की तरह ही निकली ... किसी भी चाहत को पूरा नहीं कर सकी ,बस इसीलिये हमारी संख्या बढ़ती ही जा रही है । 


अरे तो मैं क्या करूँ ? 


सच है कि तुम कुछ नहीं कर सकते । परन्तु आज हम तुम्हारे पास सिर्फ इसीलिये आये थे कि देख सकें कि कुछ हो भी सकता है या नहीं ... 


फिर ... फिर क्या करते तुम सब ? 


कुछ नहीं ... किसी सूली पर टँग जाते और कभी कभार इसके दिल - दिमाग मे चिकोटी काटते रहते ... 

                                    ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 4 नवंबर 2020

तुम प्रियवर उससे उज्ज्वल ...

नवगीत


पूजन का ये थाल सजाये

सुख - सुहाग माँगू हर पल !


सरस सलिल सी बहती धारा

घाट - घाट चलती लहराती

संग पथिक दो चलते हर पल

मलयानिल उनको महकाती 

तिरछी चितवन नेह बसाए

बढ़ते जाते बन सम्बल !


चन्द्र किरण मद में बलखाती 

रजनी अंचल बीच छुपाये

इत उत झाँके बन शोख अदा

ललित रूप उर को भरमाये

मन बरबस ही गाता जाये

जीवन नदिया हो निर्मल !


पवन झकोरा आये साथी 

अलबेली यादें ले आया

बदली से झाँके जब चन्दा 

साँसों में मधुमास है छाया 

उदित चन्द्र की पुलकित आभा 

प्रियवर तुम 'निवी' के उज्ज्वल !

     ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'


सोमवार, 2 नवंबर 2020

लम्हों की सौगात ...

 बिखरे लम्हों के हर मोती चुन लायेंगे

लरजती साँसों के धागे से माला बनायेंगे

थकना तो सिर्फ कुछ लम्हों की सौगात है 

ऐ ज़िंदगी तुझको क्या जीना सिखायें हम

यादों के दिये में आशा के दीप जलायेंगे हम

कहती #निवी  बिखरे ज़िंदगी जितना चाहे

प्यार की आस से इसको जी के दिखायेंगे 

                ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

काश_अब_भी_तुम_साथ_मेरे_होते !

 #काश_अब_भी_तुम_साथ_मेरे_होते !


तप्त हुआ मरुथल है जलता 

रुक्ष हुआ इक सागर है बहता  

क्या बात करूँ उन बातों की 

जिनमें तेरा हर अक्स है सजता !


यादों की बूँदे ओस सी हैं सजती 

बिनमौसम बरखा सी अँखियाँ हैं बहती 

एक बार ठिठक के देखा तो होता

ये विरहन तेरा पथ है निरखती !


चाहत की क्या मुक्तामाल बनाऊँ

रंग अरु दियों से कैसे घर सजाऊँ

हर साँस अटक कर कहती है

पीड़ा अंतर्मन की कैसे भुलाऊँ !


कुछ मैं कहती कुछ तुम कहते

राह के काँटे हम - तुम चुनते

जीना इतना न दुष्कर होता

काश अब भी तुम साथ मेरे होते !

     ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

संवाद : खुशी और दुःख का

 संवाद : खुशी और दुःख का 


धुंध भरी सड़क पर टहलते हुए दो रेखाओं ने एक दूजे को देखा और बस देखती ही रह गईं । एक सी होते हुए भी कितनी अलग लग रही थीं । एक मानो उगती खिलखिलाती रश्मिरथी ,तो दूसरी निशा की डूबती सिसकी सी लग रही थी । दोनों के रास्ते अब एक ही थे और बहुत देर की ख़ामोशी से भी मन घबरा कर चीत्कार कर ,कुछ भी बोलना चाहता है । बस उन दोनों की ख़ामोशी भी आपस में बात करने को अंकुरित होने लगी । 


सखे ! तुम इतनी ख़ामोशी ,इतना सूनापन लिये क्यों चल रहे हो ? कुछ स्वर के द्वार खुलें तो कुछ किरणें तुम्हारे पास भी खिल जाएंगी । 


हम्म्म्म ....


एक बार बोल कर तो देखो 


क्या बोलूँ ! मैंने तो तुमसे नही पूछा न कि तुम इतनी चमकदार क्यों हो ? इतनी रौशनी से तुम्हारी आँखें चौंधियाती क्यों नहीं ?


तुम बेशक़ मत पूछो ,पर पता नहीं क्यों तुमको ये बताने का मन कर रहा है कि इस रौशनी से कभी - कभी मेरी आँखें भी भागना चाहती हैं ,परन्तु सिर्फ तभी जब इसमें झूठी और दिखने में चमकीली पर चुभती किरणें मिल जाती हैं । 


जब इतनी परेशानी होती है तो छोड़ क्यों नहीं देती उस चमक को ? 


नहीं छोड़ सकती क्योंकि मैं खुशी हूँ न ... और खुशी की चमक तभी ज्यादा खिलती है, जब वो औरों के बारे में भी सोचती है ।


ह्म्म्म ... 


अब तो तुम भी कुछ अपने बारे में बताओ न ... 


समझ नहीं आ रहा है कि क्या बताऊँ ... जानती हो मुझसे तो सब पीछा ही छुड़ाना चाहते हैं । 


ऐसा क्यों ? 


क्योंकि मैं दुःख हूँ न ... एक घनीभूत पीड़ा ... 


ओह !!!  पर सुनो तुम भी तो ज़िंदगी का एक अभिन्न अंग हो और जैसे साँसें आ कर जाती भी हैं ऐसे ही तुम भी तो आ कर चले जाते हो ।


हाँ ... पर इस सत्य को ,पीड़ा की गहनता में कोई याद नहीं रख पाता और छटपटाता है ,जो मुझे बहुत पीड़ा देता है । 


तुम मेरी बात सुनो ... सबसे पहले तो तुमको खुद को ही बदलना होगा और तिमिर के घटाटोप से निकल कर ढ़लता या उगता हुआ सूर्य बनना होगा ,एक आनेवाली रोशनी के संदेश की ऊर्जा से भरपूर । 


ह्म्म्म ... 


और सुनो इस ज़िंदगी की राह पर हम एक दूजे का हाथ थामे चलेंगे और ये भी समझाएंगे कि एक पैर पर तो कूद ही सकते हैं परन्तु चलने के लिये दोनों पैरों का साथ स्वीकार करना पड़ता है ,फिर चाहे वो नकली पैर हो या बैसाखी का सहारा । बस ऐसे ही खुशी और दुःख ज़िंदगी के अनिवार्य रंग हैं ।


दोनों एक दूजे के हाथों में हाथ डाले ज़िंदगी की रपटीली डगर पर आगे बढ़ चले ,क्योंकि दोनों की मंज़िल भी एक ही थी और यात्री भी ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी

रविवार, 25 अक्तूबर 2020

कन्या पूजन अनुष्ठान

 कन्या पूजन 

नवरात्रि पर्व में माँ के विभिन्न रूपों की पूजा - अर्चना की जाती है । पण्डाल और घरों में भी कलश - स्थापना और दुर्गा - सप्तशती के पाठ की धूम के साथ ही कन्या पूजन भी किया जाता है । कन्या पूजन के समय मुझे दो बातें कचोटती हैं ... पहली तो यह कि अन्न का अपव्यय और दूसरी पूजन का औचित्य ।


कन्या पूजन के लिये बुलाये जाने वाले बच्चों को उनके अपने घर से भी कुछ न कुछ खिला कर ही भेजते हैं और  जिन घरों में उनका निमंत्रण रहता है ,वहाँ बच्चे सिर्फ चख ही पाते हैं । बल्कि जिन घरों में वो बाद में पहुँचते हैं ,वहाँ तो वो खाने की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते हैं । फिर सब जगह से प्रसाद के नाम पर लगाई गई थाली पैक कर के बच्चों के घर पहुँचा दी जाती है । उन घरों से वो पूरा का पूरा भोजन दूसरी पैकिंग में सहायिकाओं को दे दिया जाता है या फिर सड़क पर पशुओं के खाने के लिये डाल दिया जाता है ।


आज के समय मे बहुत सी परम्पराओं ने नया कलेवर अपना लिया है । अब कन्या - पूजन की इस परम्परा को भी थोड़ा सा लचीला करना चाहिए । मैं कन्या - पूजन को नहीं मना कर रही हूँ ,सिर्फ उसके प्रचलित रूप के परिष्कार की बात कर रही हूँ । कन्या - पूजन के लिये सामान्य जरूरतमंद घरों से बच्चों को बुलाना चाहिए । उनको सम्मान और स्नेह सहित भोजन कराने के साथ उनकी जरूरत का कोई सामान उपहार में देना चाहिए । अधिकतर लोग माँ की छोटी - छोटी सी पतलीवाली चुन्नी देते हैं । उनके घर से निकलते ही ,वो चुन्नी कहाँ चली गयी किसी को ध्यान ही नहीं रहता । चुन्नी देने के पीछे सिर ढँक कर सम्मान देने की भावना रहती है ,परन्तु यही काम रुमाल या छोटी / बड़ी तौलिया से भी हो जायेगा । सबसे बड़ी बात कि बच्चे उसको सम्हाल कर घर भी ले जायेंगे ।

प्रसाद भी नाना प्रकार के बनाये जाते हैं ,जिनको बच्चे पूरा खा भी नहीं पाते और खिलानेवाले उनके पीछे पड़े रहते हैं कि खत्म करो । इससे अच्छा होगा यदि हम कोई भी एक या दो स्वादिष्ट वस्तु बना कर खिलाएं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अनाज उनको घर ले जाने के लिये दें । ऐसा करने से अधिक नहीं ,तब भी एक दिन और वह परिवार ताजा खाना बना कर खा भी सकेगा ।


उपहार में भी जो सामान दें उसकी उपयोगिता अवश्य देखे । प्रयास कीजिये कि ऐसा समान बिल्कुल न दें जो दिखने में बड़ा लग रहा हो परन्तु उनके लिये बेकार हो । कुछ ऐसे फल भी दे सकतें हैं ,जो जल्दी खराब नहीं होते हों । 


दूसरा प्रश्न औचित्य का है ... मात्र एक दिन का पूजन और शेष दिन तिरस्कार ... बल्कि तिरस्कार से भी एक कदम बढ़ कर अपमान या उनके अस्तित्व को ही नकारने की बात कहूँगी । अपमान शारीरिक ,मानसिक, सामाजिक प्रत्येक स्तर पर होता है । पूजन के समय माता की चुनरी ओढ़ाते हाथ ही ,बाद में आँचल खींचने को मचल उठते हैं । पहले से स्थितियाँ कुछ तो बदली दिख रही हैं ,परन्तु वास्तविकता में ऐसा है ही नहीं । बस पहले उनकी स्थिति घरों के अहाते में भी दिख जाती थी ,परन्तु अब बाहर से देखने में मन्द मलयानिल के झोंके सा अनुभव होता है । जितना भी सबके अनुभवों को सुनती हूँ मुझको तो यही लगता है कि फ़टी - पुरानी जीर्ण सी किताब पर रंगीन कवर चढ़ा कर सेलोफिन चढ़ा दिया गया है कि अन्दर की सीली वस्तुस्थिति किसी को दिखे ही नहीं ।


कन्या - पूजन का सबसे सार्थक स्वरूप वही होगा जब उनका जीवन सँवर सके । निम्न आयवर्ग के बच्चों के स्कूल की फीस बहुत कम होती है ,तब भी उनकी प्राथमिकतायें फीस भरने से रोक देती हैं । ऐसे एक भी बच्चे की फीस का दायित्व ,यदि हम उठा लें तब उस बच्चे के साथ ही उनके परिवार का भविष्य भी सँवर जायेगा ।इस कार्य के लिये आपको कहीं जाना भी नहीं पड़ेगा ,आपके या आपके घर के आसपास काम करनेवाले सहायकों के बच्चों की पढ़ाई का दायित्व ले सकते हैं ।


यदि हम इन सब में से कोई भी काम नहीं कर सकते तब भी सिर्फ एक काम अवश्य करना चाहिए कि जब भी किसी भी उम्र अथवा परिवेश के बच्चे को किसी भी गलत परिस्थितियों में पाएं ,तब उसकी ढाल बन जायें । जब बच्चों के साथ कुछ गलत होने की संभावना बचेगी ही नहीं ,तभी स्वस्थ और संतुलित परिवेश में बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा और एक अच्छे समाज का निर्माण स्वतः ही होने लगेगा । 


अन्त में मैं सिर्फ यही कहूँगी कि परम्पराओं का पालन अवश्य करें ,बस उस मे तात्कालिक परिवेश की प्राथमिकताओं का समावेश अवश्य कर लें ,क्योंकि ईश्वर तो सिर्फ उस भावना को देखते हैं जो हमारे अन्तःस्थल में बसी रहती है .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

लघुकथा : आहट नन्हे कदमों की

लघुकथा : आहट नन्हे कदमों की

कल तक जो नन्हे कदम खूब जोर लगा कर बस करवट बदल पाते थे या थोड़ा सा खिसक ही पाते थे ,आज ढोलक की थाप पर नन्ही गौरैया जैसे मनमस्त से खूब थिरक रहे थे और घर में जमा हुई रिश्तेदार महिलाएं उस की खुशी से चमकते चेहरे को देख दिल को कचोटती टीस को सप्रयास दबा कर ,उस की चंचलता पर न्यौछावर हो रही थीं । तभी कपड़ों के ढ़ेर लिये फेरी लगनेवाले काकू सा आँगन में आ विराजे । सभी बहुएं और बेटियाँ उनके खुलते हुए गट्ठर के रंग - बिरंगे खजाने को देखती बेसब्री में घेर कर खड़ी हो गईं थीं ।


छुटके कदम भाग चले थे रसोई में काम करती माँ को खींचने ,"चलो न माँ ... हर समय काम करती रहती हो और यही सफेद सी साड़ी पहनी रहती हो । पता है कपड़े वाले दद्दू बहुत सारी रंग - बिरंगी चुनर लाये हैं । ये जो सबसे सुन्दर थी न , मैं तुम्हारे लिए ले कर भाग आयी हूँ । अब तुम जल्दी से इसको पहनो ।"


नम आँखों से माँ ने उसको रोका ,"लाडो ! इसको वापस कर आ । मैं इसको नहीं पहन सकती ।" 


उसकी आँखों में प्रश्नों के जुगनू झिलमिला रहे थे ,"क्यों माँ ...  ऐसा क्या हुआ है ?"


उधर से गुजरते हुए दद्दू ने अपनी आँखें पोंछते हुए उसको गोद में भर लिया ,"माँ को ऐसे परेशान नहीं करते लाडो ... अभी तुम नहीं समझोगी पर ये समाज के नियम हमें मजबूर करते हैं ऐसा करने को । तेरी माँ की स्थिति तो मैं नहीं सुधार सकता ,पर तुझ पर कोई आँच नहीं आने दूंगा । तेरी राह के काँटे तो मैं अपनी पलकों से भी हटा दूंगा । तेरी राह में तो मेरी हथेली बिछी रहेगी कि तुझको कुछ न चुभे ।" 


चन्द पलों में ही जैसे वो नन्हे कदम बड़े हो गए और वो दद्दू की गोद से उतर गई ,"नहीं दद्दू ! मुझे आपकी हथेलियों की सुरक्षा नहीं चाहिए क्योंकि जब कोई ऐसी सामाजिक मजबूरी आ जायेगी तब आप भी विवश हो कर अपना सुरक्षा घेरा तोड़ देंगे । अब मुझको पढ़ाई कर के इतना सशक्त होना है कि अपने साथ ही अपनी माँ और उन जैसी विवश स्त्रियों के लिए मैं हथेली बन जाऊँ ।" 

                                   ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी'

रविवार, 18 अक्तूबर 2020

नवगीत : विधना बैठी राम झरोखे


विधना बैठी राम झरोखे 

हँसती यूँ ही हलके- हलके 


नव पल्लव खिलता देख - देख

थिरक उठी अल्हण अमराई

रौद्र रूप ले कर रवि बैठा

रो पड़ी मेरी अंगनाई

रोता अम्बर अँखियाँ मूंदे

अश्रु बहा रही चुपके - चुपके !


महावर अरु हिना थी संगी

थिरक - थिरक पायल खनकाई

चूनर ओढ़े थी सतरंगी

कालिमा अभी कैसी छाई

काल रंग बदल छल रहा है

ले गया खुशियाँ वो छल के !


बिलख रही साँसें अब मेरी

रो रहा मन हो कर अब विह्वल

उतर गया सिंगार जिसका

ये बुलबुल है मेरी घायल

अंतस में भर लूंगी उसको 

भोले आओ तुम तो चल के !

         ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

लघुकथा : लौ चिंगारी की



धूप दिखते ही , दिवी छत पर कपड़े सुखाने आयी ही थी कि उसकी निगाह सड़क की तरफ गयी । स्कूल यूनिफॉर्म में एक कम उम्र की बच्ची डरी - सहमी सी बार - बार पीछे देखती चली आ रही थी । उसकी कच्ची उम्र और डर से सशंकित दिवी ने छत से ही उसको आवाज़ लगाई ,"क्या बात है ? इतनी परेशान और डरी हुई क्यों हो ? "


उसकी बात पर अपनी उखड़ी साँसों को थामने का प्रयास करती बच्ची ने जवाब देना ही चाहा था कि ,पास आती ऑटो की आवाज़ से घबरा कर वह भागती हुई दिवी के घर के सामने तक आ गयी ,"आंटी ,मैं इस ऑटो पर स्कूल जाने के लिये बैठी थी परन्तु ये अजीब सी बातें करने लगा और ऑटो रोक भी नहीं रहा था । अभी ट्रैफिक की वजह से धीमा हुआ तो मैं उतर गई ,पर ये अभी भी पीछे ही लगा है ।"


तब तक ऑटोवाला भी वहाँ रुक कर उस बच्ची का हाथ पकड़ खींचने का प्रयास करने लगा । दिवी पर जैसे शक्तिरूपा माँ चण्डी आ गयी हों ,उसने छत से एक गमला उठा कर ऑटोवाले पर फेंका और चीख पड़ी ,"घबराना बिल्कुल नहीं । वो ईंटा उठा कर मार इसको ,मैं आई ।"


ऑटोवाला गमले के प्रहार से लड़खड़ा गया और उसको आते देख वहाँ से भागता बना । हाथ में हॉकी स्टिक थामे दिवी ने नीचे आ कर बच्ची को साहस बंधाया और कहा ,"किसी दूसरे से उम्मीद बाद में करो ,पहले खुद ही विरोध करना सीखो। हर जगह कोई मिले जरूरी नहीं है ,पर हाँ ! हर जगह तुम खुद को अपने साथ हमेशा पाओगी ।"


दिवी उस बच्ची को हाथ में ईंट थामे दृढ़ कदमों से आगे बढ़ता देखती रही ,मानो एक चिंगारी खिल उठी हो ।

                             ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

बदलती चाहत ....

 सुनो साथी !

फूल लाने जा रहे हो न 

हतप्रभ मत होना   

पर सुन जरूर लेना

फूल गुलाब के नहीं 

सिर्फ हरसिंगार के ही लाना 

और चुन - चुन कर लाना ! 


हाँ ! बहुत पसन्द है मुझे 

रंग बिरंगे फूल गुलाब के

उस की हर पत्ती में

दम भरती ,झाँकती

सपनीली सुगन्ध

कोमल एहसासों जैसे उसके रंग

पर तुम लाना हरसिंगार

हतप्रभ मत हो जाओ

पूछ ही लो कारण !


जानना चाहते हो कारण

इस बदलती पसन्द का

तो सुनो साथी !

ये जो काँटे हैं न गुलाब के 

चुभन दे सकते हैं 

तुम्हारी इन नम्र नाजुक

सहलाती दुलराती हथेलियों को ।


और भी एक कारण है

बदलती चाहत का 

पास आओ तो बताऊँ 

हरसिंगार लाने को 

जब चुनोगे एक - एक फूल को 

हर उठाते फूल में 

याद करोगे मुझको 

और समझ भी लोगे कि 

फूल उठाने और चुनने दोनों के लिये ही 

झुकना ही पड़ता है 

और तुम सीख लोगे झुकना !

        ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

लघुकथा : हिसाब



"ओफ्फो क्या करती हो ? बर्तन माँजते समय ध्यान कहाँ रहता है तुम्हारा ? इस तरह से रोज प्लेटें टूटती रहेंगी तो कैसे काम चलेगा ," कहती वसुधा रसोई में आई तो देखा कि रेखा सिर झुकाए सहमी सी खड़ी थी । वह उससे कुछ बोलती उसके पहले ही उसकी निगाह बालकनी के कोने में खड़े रसोइये रामू पर पड़ गयी ,जो सशंकित निगाहों से इधर - उधर देखता हुआ चुपके - चुपके रसोई में उसकी और रेखा की बातें सुनने का प्रयास कर रहा था । 


"रेखा ! ध्यान दे कर आराम से काम करो ,"बोलती हुई बालकनी का दरवाज़ा बन्द करती हुई ,सामने ही लॉबी में आ कर बैठ गयी और रामू का हिसाब जोड़ने लगी । 

                                   ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

ज़िंदगी



ज़िन्दगी तू इतनी ग़मज़दा सी क्यों है ,

आ ये चुराये लम्हात तुझ पर वार दूँ ।


तबस्सुम जो सजे तेरे मासूम लबों पर ,

चुभते वक़्त पे यादों का मरहम लगा दूँ ।


तेरे साथ की फाकाकशी करते ये लम्हे ,

दिलकश सितारों से तुझ को सजा दूँ ।


वो आफ़ताब आग बरसाता है हर सू ,

आ अपने इस हसीं महताब से मिला दूँ ।


मेरे ख़यालों की भटकती रूह सी 'निवी' ,

आ तेरे ख़्वाबों की ख्वाहिशों से मिला दूँ ।

            ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

डर ज़िंदगी के



डर एक ऐसा शब्द या भाव है जो अपनी जगह बहुत जल्दी और बहुत पक्की बना लेता है ,जिससे उबरना असंभव तो नहीं परन्तु कठिन अवश्य होता है । 


डर का मूल कारण मोह होता है ... मोह जो होता अपनेआप से और अपनों के संग बंधे मोह तंतु से । जन्म लेते ही शिशु रोता है और रौशनी से चौंक कर आँखें मिचमिचाता है क्योंकि उसको माँ के गर्भ की सुरक्षित दुनिया से एकदम अलग नई दुनिया मिलती है ,जहाँ सब कुछ सर्वथा अनजाना रहता है । फिर तो उम्र भर ज़िंदगी कदम - कदम पर कभी ठोकर देती तो कभी दुलरा कर अपने रंग से उसको परिचित कराती रहती है । 


अपनों की सुरक्षा और उन्नति की चाहत लिये हम सतत प्रयत्नशील रहते हैं और इस राह में उन के सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में सोच - सोच कर डरते रहते हैं । कभी - कभी तो मुझे लगता है कि मंगल की कामना करने के साथ ही अमंगल भी दिखने लगता है ,जिससे बचाने के प्रयास में हम अपनी आस्थानुसार विभिन्न धार्मिक कर्मकांड भी करने लगते हैं । अंधविश्वासी न भी हों ,तब भी कई काम यही सोच के कर जाते हैं कि उस से किसी का नुकसान भी तो नहीं हो रहा है । 


अक्सर सोचती हूँ कि थोड़ा सा डरना भी बहुत आवश्यक है । यही डर हमको सचेत रखता है आनेवाले खतरों से ,जिसके परिणामस्वरूप ही गलतियाँ करने बच जाते हैं । आत्मघाती निर्णय लेने से यही डर ही हमको बचाता है क्योंकि हम यह कल्पना करते हैं कि हमारे अपनों पर उस काम का प्रभाव भी पड़ेगा । 


ज़िंदगी हमको इस डर की आँखों में आँखें डाल कर उसके सम्मुख खड़े होना भी सिखाती है ,जो बहुत जरूरी भी है । समाज मे विचरण करते पाशविक मनोवृत्ति वाले लोगों से डर कर ,घरों में ही छुप कर नहीं बैठा जा सकता है । आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि डर की भावना को चेतावनी समझें बन्धन नहीं । 


प्रत्येक पल डर के साये में जीना स्वयं में भी मानसिक विकृतियों को जन्म दे देगा ,जो न स्वयं के हित में होगा और न ही समाज के । बस इसीलिये सहअस्तित्व के भाव से डर की सत्ता को स्वीकृति अवश्य दें परन्तु उसको अपने दिल - दिमाग में घर न बसाने दें ।

                                      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

नाजुक सा वो ख़्वाब ....

 ढ़लते चाँद के संग 

पुरसोज़ नज़्म की मानिंद

एक ख़्वाब ने दी है

बड़ी ही नामालूम सी दस्तक

और बस इतना ही पूछा

भर लो मुझको आँखों में

सजा दूँ तेरी यादों का दामन 

या तलाशूं कोई दूजा माहताब

आँखों की चिलमन बरबस

यूँ ही सी बेपरवाह छलक उठी

और नाजुक सा वो ख़्वाब 

पैबस्त हो गया दिल की नमी में !

      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'


शनिवार, 3 अक्तूबर 2020

लघुकथा : एक संवाद कुछ यूँ ही सा

 लघुकथा : एक संवाद कुछ यूँ ही सा 


पार्क में चबूतरे पर खड़े - खड़े थक जाने पर गांधी जी ने सोचा कि किसी के भी सुबह की सैर पर आने से पहले थोड़ा टहल लिया जाये । अब इस उम्र में एक जगह पर खड़े - खड़े हाथ पैर भी तो अकड़ जाते हैं । लाठी पकड़े टहलने को उद्द्यत हुए ही थे कि किसी को आते देख ठिठक कर अपनी मूर्तिवाली पुरावस्था में पहुँचने ही वाले थे कि किलक पड़े ,"अरे शास्त्री तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? "


शास्त्री जी ," क्या करूँ बापू मेरे लिये बहुत कम चबूतरे रखे सबने । अब जगह की कमी जब ज्यादा ही शरीर टेढ़ा करने लगती है तो मैं ऐसे ही टहल कर शरीर की अकड़न दूर करने की कोशिश करता हूँ । हूँ भी तो इतना छोटा सा कि कोई देखता ही नहीं ।"


गाँधी जी ,"हम्म्म्म ... पर सोचा क्यों नहीं कभी कि ऐसा क्यों हुआ  ... कुछ तो मुझमें होगा जो तुममें नहीं है । "


शास्त्री जी ," सोचना क्या ,जबकि मैं कारण भी जानता हूँ ।"


गाँधी जी ,"कारण जानते हो ! बताओ क्या बात है ... किसी को कुछ कहना हो तो निःसंकोच बोलो मैं साथ में  चलता हूँ ,तुम्हारा काम हो जायेगा ।" 


शास्त्री जी ,"रहम बापू ... रहम ... आप तो रहने ही दो । "


गाँधी जी ,"ऐसे क्यों कह रहे हो ... तुम खुद ही सोचो और इतिहास के पन्ने पलट कर देखो कि  मेरे कहने भर से ही कितने काम हो गये हैं । "


शास्त्री जी ,"हाँ अंतर तो है हम दोनों में ,वो कोई छोटा सा अंतर नहीं अपितु बहुत बड़ा अंतर है । "


गाँधी जी ,"मतलब क्या है तुम्हारा ? "


शास्त्री जी , "आपके हाथ की छड़ी सबको दिख जाती है ,परन्तु मेरे जुड़े हुए हाथ दुर्बलता की निशानी समझ कर अनदेखे ही रह जाते हैं । आपकी मृत्यु पर भी आज तक सियासत और बहस होती है ,जबकि मेरा अंत तो आज भी रहस्य ही है ।"


गाँधी जी नजरें नीची किये कुछ सोचने लगे ,"परन्तु मेरे किसी भी काम का उद्देश्य यह तो नहीं ही था । "


"छोड़िये भी बापू ... आप भी क्या बातें ले कर बैठ गए हैं । आप तो अब और भी ताकतवर हो गये हैं । आप तो रंग - बिरंगे कागज़ के नोटों पर छप कर जेब मे पहुँच कर एकाध चीज़ों को छोड़ कर ,कुछ भी खरीदने की क्षमता बढ़ा देते हो ",शास्त्री जी आगे बढ़ने को उद्यत हुए । 


"पर तुम्हारा जय जवान जय किसान तो आज भी बोला जाता है ",गाँधी जी जल्दी से बोल पड़े । 


हाँ ! जिन्दा है वो नारा आज भी ,परन्तु सिर्फ बातों में ... आज का सच तो ये है कि एक सीमा पर मर कर शहीद कहलाता है और दूसरा गरीबी और भुखमरी से हार कर फन्दे में खुद को लटका देता है और यही है आज के जय जवान जय किसान का सच ",विवश आक्रोश में हताश से शास्त्री जी के क़दम आगे बढ़ते चले गये । 

                               ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

लघुकथा : वेंटिलेटर


लघुकथा : वेंटिलेटर 


सघन चिकित्सा - कक्ष से बाहर आ कर डॉक्टर ने कहा ," जयेश जी को वेंटिलेटर के सहारे साँसें भरते आज सातवाँ दिन हो गया है परन्तु उनमें सुधार के कुछ भी लक्षण नहीं दिख रहे हैं ।"


जयेश की पीड़ा से विक्षिप्त सी जया जैसे कुछ समझ ही नहीं पा रही हो ,"डॉक्टर साहब आप कहना क्या चाहते हैं  ? "


"देखिये सुनने में ये बात बहुत गलत भी लग सकती है ,परन्तु परिवार को मरीज की वस्तुस्थिति बताना हमारा कर्तव्य है । जयेश जी की जैसी स्थिति है ,उसमें कुछ उम्मीद नहीं लग रही है । अब ये तो दिन टालने जैसी बात है कि आप कृत्रिम साधनों से कब तक उनके शरीर को सुरक्षित रखते हैं । इसमें आपका धन तो जायेगा ही साथ ही साथ आपके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ेगा ।"डॉक्टर ने अपनी बात स्पष्ट की ।


जया तड़प उठी ,"मतलब क्या है आपका ... मैं पैसों के लोभ के पीछे अपने जयेश की साँसें छीन लूँ !"


"नहीं जया जी ,शायद मैं अपनी बात आपको समझा नहीं पाया । देखिये यहाँ पर ऐसे मरीज आते हैं जिनको चिकित्सा की तुरन्त जरूरत होती है । ऐसी परिस्थिति में हमारा प्रयास रहता है कि उनको तुरन्त सभी सुविधाएं मिल सकें । "


डॉक्टर अभी बोल ही रहे थे कि जया ने टोका ,"आप कीजिये न आपको कौन रोक रहा है ।"


डॉक्टर ने जया की बात का उत्तर बहुत शान्ति से दिया ,"जयेश जी के प्रति आपका मोह स्वभाविक है ,परन्तु उनके मोह में आप उनको वेंटिलेटर से नहीं हटा रही हैं । बताइये दूसरे किसी मरीज को हम कैसे भर्ती करें । यदि आप जयेश जी को सदैव के लिये जीवित रखना चाहती हैं ,तो उनके अंगों को दान कर दीजिए । इससे कई लोगों को जीवन मिल जायेगा और उनकी प्रतिछवि बन कर जयेश जी को आप सदैव महसूस भी कर पायेंगी ।"


           .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

लघुकथा : कर्मफल

 लघुकथा : कर्मफल


अस्पताल के अपने बेड पर वह पीड़ा से छटपटाते हुए कराह रहा था ,परन्तु उसके आसपास से सब अपने ही दर्द और अपनों की तकलीफों से त्रस्त उसको अनदेखा सा करते हड़बड़ी में गुजरते ही जा रहे थे । तभी एक युवती ने उसके पास आ संवेदना से उसका माथा सहलाया और उसकी पीड़ा उसके नेत्रों और वाणी से बह चली ,"पता नहीं किस पाप का फल भुगत रहा हूँ ! मेरे साथ तुम भी तो ... अब तो मुझे मुक्ति मिल जाती ।  "


युवती ने उसको शांत करने का प्रयास किया ,"बाबा ! ऐसा क्यों कह रहे हो । सब ठीक हो जायेगा ।"


वह फफक पड़ा ,"बेटे के न रहने पर तुम पर शक करना और साथ न देने के पाप का ही दण्ड भुगत रहा हूँ मैं ,पर बेटा तुमको किस कर्म का यह फल मिल रहा है जो मुझ से बंधी हुई इस नारकीय माहौल में आना पड़ता है ।" 


"बाबा ! मैंने अपनी कमजोरी या परिस्थितियों से वशीभूत हो कर आपकी गलत्त बातों का विरोध नहीं किया और चुप रह कर साथ दिया ,उसका ही कर्मफल है यह । गलत्त करने से भी कहीं बड़ा गुनाह गलत्त का साथ देना होता है ," उसके चेहरे की उलझनों पर वीरान शांति छा गई थी । 

                      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 27 सितंबर 2020

#मातृत्व_एक_एहसास



मातृत्व एक ऐसा शब्द ,ऐसी अनुभूति है जो सृजन के कोमल भाव से सिंचित हो कर पूर्णता की कोमलतम भावनाओं से मन को आप्लावित कर देती है । माँ बनने का भाव पूरित होता है अपने शरीरांश के जन्म से ,परन्तु मातृत्व के अनुभव के लिये सिर्फ माँ बनना ही पर्याप्त नहीं है । इसके लिये सिर्फ तन ही नहीं अपितु मन के प्रत्येक कण को भी ,माँ बनने के अनुभव को प्रत्येक आती जाती साँस में पूरे समर्पण भाव से जीना पड़ता है । 


हम स्वयं के शरीरांश के प्रति एक अलग ही प्रकार का लाड़ ,दुलार ,मान ,गुमान ,सुख ,दुःख ,चिंता सब अनुभव करते हैं  और इसी को मातृत्व मान बैठते हैं । जबकि माँ बनना एक शारीरिक क्रिया है और मातृत्व भावनात्मक । कभी कभी हम ऐसी स्त्रियों को देखते हैं जो स्वयं तो माँ नहीं बनी होती हैं परंतु सभी के प्रति उन के मन में ममता का अथाह सागर हिलोरें मारता रहता है । सजीव - निर्जीव ,पशु ,पक्षी ,मनुष्य सबका ध्यान वो अपनी सन्तति की तरह ही रखती हैं । जबकि कई बार ऐसी माँ को भी देखते हैं जो सन्तति के प्रति भी सिर्फ अपने दायित्वों का ही वहन करती हैं । मातृत्व के कोमल भाव से बहुत दूर , उन की सन्तति और उनकी उपलब्धियाँ उनके लिये मात्र एक स्टेटस सिंबल ही होती हैं । सन्तति जब तक सफल होती रहती है वो उनकी रहती है ,वहीं उन की एक भी असफलता उन के लिये शर्मिंदगी का कारण बन स्वयं को दूर कर जाती है । 


मेरे विचार से #मातृत्व एक ऐसा भाव है जो समष्टि के साथ जुड़ कर सब के उत्थान के प्रति निरन्तर प्रयत्नशील रहता है । कभी भी असफल होने वाले पल में अकेला नहीं छोड़ सकता है । मातृत्व को किसी में भी कभी भी कोई गलती अथवा कमी नहीं दिखेगी । उसको तो उसकी ऐसी त्रुटि ही दिखेगी जिसका परिमार्जन किया जा सकता है । 


मातृत्व एक ऐसा भाव है जो किसी को भी देख कर नेह से भर कर एक कोमल स्मित उसके मन से लेकर तन पर छा जाए । कितनी भी दुष्कर परिस्थितियाँ हों ,मातृत्व का भाव एक शीतल छाया बन सदैव साथ रहता है । 

          ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 26 सितंबर 2020

अभिव्यक्ति की आज़ादी

 अभिव्यक्ति की आज़ादी 


अभिव्यक्ति और आज़ादी ,ये दोनों ही शब्द स्वयं में बेहद सशक्त भाव समेटे हुए हैं और जब मिल कर आ जाते हैं तब तो इनकी प्रखरता और भी बढ़ जाती है । पहले इनकी अलग - अलग विवेचना कर लेते हैं।


प्रत्येक पल इंसानी मस्तिष्क में जाने अथवा अनजाने भी ,विचारों का झंझावात चलता रहता है । ये भाव स्वयं में हर्ष ,विषाद ,पीड़ा ,आक्रोश ,विवशता सबसे आलोड़ित होते रहते हैं । स्वयं को भाषा अथवा हाव - भाव के द्वारा अपने मनोभावों को जब तक किसी पर जाहिर नहीं कर लेता है ,तब तक मन में अजीब सी उलझन मची रहती है । कभी - कभी मन के संत्रास और उल्लास को किसी के समक्ष उलीचने से भी ,उस का समाधान नहीं मिलता है परंतु मन स्वयं को बहुत हल्का अनुभव करता है । साधारण शब्दों में कहें तो बस यही प्रगटीकरण ही #अभिव्यक्ति है । 


पशु पक्षी हों अथवा मानव ,कोई भी जीवधारी कभी भी बँधना नहीं चाहता है । किसी भी प्रकार का बन्धन उसके सहज प्रवाह को बाधित करता है । वह सहज सतत प्रवहमान रहना चाहता है ,बगैर किसी रोक टोक के । मानसिक ,शारीरिक ,आर्थिक ,सामाजिक जैसे किसी भी प्रकार के बंधन से मुक्त होना ही #आज़ादी कही जाती है ।


मन जब इन दोनों को भिन्न धरातल पर पा जाता है तब एक स्वतः स्फूर्त विचार पनपता है और इन दोनों को एक साथ कर देता है और तब उभरती है चाहत इन दोनों  को एक साथ  #अभिव्यक्ति_की_आज़ादी के रूप में पाने की । ये दोनों अलग - अलग तो सम्हले रहते हैं परंतु साथ में रखने पर संतुलन साधना आवश्यक हो जाता है । हम सभी विवेक सम्पन्न और विचारशील हैं अपने भावों को अभिव्यक्त करना चाहते हैं और करते भी हैं ,परन्तु विशेष ध्यान देना चाहिए कि हमारी आज़ाद अभिव्यक्ति किसी दूसरे की आज़ादी का हनन नहीं कर रही हो । हमारी अभिव्यक्ति इतनी संतुलित होनी चाहिये कि वह यदि किसी अन्य की तरफ इंगित करती भी है तो वह कभी भी उसकी कमी बताती न लगे ,अपितु त्रुटि दिखाती और सौहार्दपूर्ण समाधान भी बता रही हो । यदि इस संतुलन के साथ हो तब ही अभिव्यक्ति की आज़ादी का स्वागत है ,जो कि अनिवार्य भी है ।

       .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 23 सितंबर 2020

लघुकथा : कर्मफल

 लघुकथा : कर्मफल


अस्पताल के अपने बेड पर वह पीड़ा से छटपटाते हुए कराह रहा था ,परन्तु उसके आसपास से सब अपने ही दर्द और अपनों की तकलीफों से त्रस्त उसको अनदेखा सा करते हड़बड़ी में गुजरते ही जा रहे थे । तभी एक युवती ने उसके पास आ संवेदना से उसका माथा सहलाया और उसकी पीड़ा उसके नेत्रों और वाणी से बह चली ,"पता नहीं किस पाप का फल भुगत रहा हूँ ! मेरे साथ तुम भी तो ... अब तो मुझे मुक्ति मिल जाती ।  "


युवती ने उसको शांत करने का प्रयास किया ,"बाबा ! ऐसा क्यों कह रहे हो । सब ठीक हो जायेगा ।"


वह फफक पड़ा ,"बेटे के न रहने पर तुम पर शक करना और साथ न देने के पाप का ही दण्ड भुगत रहा हूँ मैं ,पर बेटा तुमको किस कर्म का यह फल मिल रहा है जो मुझ से बंधी हुई इस नारकीय माहौल में आना पड़ता है ।" 


"बाबा ! मैंने अपनी कमजोरी या परिस्थितियों से वशीभूत हो कर आपकी गलत्त बातों का विरोध नहीं किया और चुप रह कर साथ दिया ,उसका ही कर्मफल है यह । गलत्त करने से भी कहीं बड़ा गुनाह गलत्त का साथ देना होता है ," उसके चेहरे की उलझनों पर वीरान शांति छा गई थी । 

                      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

ये ख़ामोश औरतें ....



घुटी घुटी सी साँसों में साँस भरती 

बेबसी से पलके खोलती मुंदती 

हिचकियों में बेहिचक खटखटाती

दम तोड़ती हैं ये खामोश औरतें !

                            

आसमान छूते कहकहे

दम तोड़ते अबोली सिसकी पर 

आसमान छूने को उचकती

बिना रीढ़ की ये लुढ़कती औरतें !   


ये औरतें न बस औरतें ही हैं

बेबात ही हँस के रो देती हैं

सब के आँसू दुलार से सुखा 

आँचल अपना भिगोती ये औरतें !


खुशियों से चमकती सी आँखें देख

सबकी खुशी में तृप्त होती ये औरतें

सबके दिल का आईना चमकाती 

दम तोड़ती सिसकियों सी लरजती ये औरतें !

                        ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

पत्र मुहावरों से भरा

 


ऐ #कलम_के_धनी मेरे मन !

अकसर ही तुमको बोल देती थी कि #तीन_पाँच_मत_करो और तुम जो बोलनेवाले होते थे उसको #गूंगे_के_गुड़ जैसा अनुभव करते #चुप्पी_साध_लेते थे और मेरे मन के बिखराव को अपने #अंक_में_समेट मुस्करा देते । मैं तो बहुत बाद में समझ पायी थी कि इस #रंग_बदलती_दुनिया में इस तरह #अक्ल_के_घोड़े_दौड़ाना या #अरण्य_रूदन करना व्यर्थ है क्योंकि सभी #अपनी_खिचड़ी_अलग_पकाना चाहते हैं । यह समझने में मुझे बहुत समय लग गया कि उनकी मुँहदेखी करती बातों के पीछे उनका मतलब सिर्फ #अपना_उल्लू_सीधा_करना ही था । मतलब निकल जाने के बाद उनकी #अंगारे_उगलती बातें सुन कर मेरी समझ तो जैसे #घास_चरने ही चली जाती थी ।


परन्तु जानते हो मैं भी बिलकुल #अड़ियल_टट्टू की तरह #अंगारों_पर_पैर_रखते_हुए ही फिर उनको समझाने का प्रयास करने लगती हूँ ... इस पूरी रस्साकशी में मुझे #अँगूठी_में_नगीने सरीखे साथी मिले ,जिन्होंने #अंधा_बनाने वालों के समक्ष मुझ #अल्लाह_मियाँ_की_गाय सरीखी कलम का साथ दे कर उनके लिये #अंगूर_खट्टे कर दिये । 


और पता है दोस्त ! इन चन्द नगीनों का साथ मेरा मनोबल इतना बढ़ा गया कि #अपने_अड्डे_पर_चहकने वाले #मुँह_की_खाने लगे और मैं #अपनी_खाल_में_मस्त रहने लगी । अब न जाने कितनी अठखेलियाँ सूझती हैं कि जब जहाँ का  #अन्न_जल_बदा_होगा वहीं हम #अर्श_से_फर्श तक का जीवन जियेंगे । #आग_पर_तेल_छिड़कने वाले लोगों से दूर हो उनका साथ ही करना चाहिये जिनकी प्रवृत्ति ही #आग_पर_पानी_डालने की हो ,बाकी #आँख_पर_पड़ा_पर्दा तो समय हटा ही देता है ।


अब तक के जीवन में इतना तो समझ ही गयी हूँ कि कितना भी #आटा_गीला हो जाये #आँखें_तरेरने वालों के न सोच कर #आकाश_पाताल एक कर सब कुछ #आँचल_में_बाँधना ही श्रेयस्कर है । #"आस्तीन में साँप" को पालना तो #"आग पानी को साथ" रखने जैसा ही है ,जो ध्यान न देने पर #"आठ - आठ आँसू" रोना पड़ता है ।


#"इधर -उधर की बात" करने से तो अच्छा है #"इतिश्री" करना ,क्योंकि #"इज्जत उतारना" तो सब जानते हैं ,परन्तु यह तो हमको ही बताना होगा कि #"इन तिलों में तेल" नहीं जिससे वो #"अपना उल्लू सीधा" कर सकेंगे ।


अब सोचती हूँ कि तुमसे ही #"दिल हल्का" कर लिया करूँगी और सुनो ! तुम #"ईद का चाँद" मत बन जाना । तुमसे बातें करते ही #"उन्नीस - बीस करती ज़िंदगी के #"काले बादल" न जाने कहाँ #"उड़नछू" हो जाते हैं । 


"राम - सलाम" करती रहना और मेरे मनोबल की रीति पड़ती "गागर में सागर" भर जाना ... तुम्हारी "किताबी कीड़ा" 'निवी'

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

#अतिथि_एक_दिन_का ( हिंदी दिवस )



#अतिथि_एक_दिन_का ( हिंदी दिवस )


अच्छी भली सो रही थी और सपनों में ,पर्वतों के पार दूर कहीं क्षितिज पर सैर कर रही थी कि अचानक ही धीमे से तेज ... और भी तेज होती "खट - खट" की आवाज़ ने आराम करती हुई पलकों को जबरदस्ती खोल ही दिया । 


मैं भी किसी प्रकार उनींदी पलकों को खुला रखने का प्रयास करती सी दरवाज़े की तरफ बढ़ चली ,"कौन है भई  ? इतनी सुबह - सुबह किसी के घर कोई आता है क्या ? " 


दरवाज़े को खोलती मैं वहीं पड़ी कुरसी पर बैठ गयी ,"आ जा भई ,अब बैठ भी जा और अपना नाम ,काम सब बता ही दे ।" 


सामने बड़ी ही आकर्षक परन्तु प्रौढ़ छवि खड़ी दिखाई दे रही थी । अरे हाँ ! बड़ी ही मनमोहिनी मुस्कान भी छाई थी उस प्रभावित करते चेहरे पर ,"बैठती हूँ बेटे परन्तु तुम अपनी आँखें तो खोलो ... बन्द होती पलकों से तो तुम कुछ स्पष्ट देख भी नहीं पाओगी और न जाने कितने विचार आ कर मेरी छवि धूमिल कर ओझल कर देंगे ", अब उसकी हँसी थोड़ी और मुखर हो गयी । 


अब मैंने सप्रयास स्वयं को और भी चैतन्य किया और उस को और भी ध्यान से देखने लगी । उसके केशों की प्रत्येक लट अपने स्थान पर एकदम दुरुस्त थी , जैसे किसी ने उनको किसी क्रीम से व्यस्थित कर रखा हो । केशों को विभक्त करती माँग भी कितनी सीधी सी थी जैसे आप ,तुम ,तुम्हारा ,तू कौन सा शब्द किसको क्या बोलना है पहले से ही पता हो । उन्नत मस्तक गर्व से चमक रहा था परन्तु कहीं भी गुमान की झलक भी नहीं थी । आहा ! आँखें कितनी ममता से भरी ... जैसे पलकों की बाँहें फैला सबको अपने आँचल में ही समेट लेंगी । उसके अधर भी कितने सहज भाव से प्रत्येक भाषा ,ज़ुबान ,बोली ,लैंग्वेज सब बरसती फुहारों में अविरल स्रवित कर रहे थे ।


उसके व्यक्तित्व की गरिमा से प्रभावित हो कर स्वयं को संयत करती सी मैं अपने इस एक दिन के गरिमामयी अतिथि के स्वागत को ततपर हो उठी ,"आइये पहले आप यहाँ बैठिए तो ... चाय - कॉफी क्या पसंद करेंगी ... या फिर कुछ ठंडा लेंगी ... नाश्ता साथ में ही करते हैं ... "


वह विहँस पड़ीं,"अरे वाह ! एक दिन के अतिथि ,वह भी बिना बुलाया ... इतना सत्कार कर रही हो ! तुम सब तो कल खूब ठहाके लगा रहे थे कि पूरे साल जिसको भुलाये रखा ,सिर्फ एक दिन के लिये उसको याद क्या करना ... या जो ढ़ंग से बोल भी नहीं पाते ,वो क्यों कोई दिवस मना कर पर्व जैसी महत्ता दें ... फिर मेरी पसंद - नापसंद को इतना महत्व देना ,कुछ विचित्र नहीं लग रहा क्या ? "


मैं उनकी मित्र की तरह छेड़ने वाली बातों में उलझ कर फिर से उनके पास ही बैठ गयी ,"आप ऐसा क्यों कह रही हैं ... मैं तो आपसे आज पहली बार मिली हूँ ,आपका नाम तक नहीं जानती ,फिर मैं आपको कुछ भी गलत्त कैसे बोल सकती हूँ ... कल आप कब मिली थीं मुझसे ,मुझे तो कुछ भी याद नहीं आ रहा ।" 


"यही तो विद्रूप है कि मैं सदैव तुम्हारे साथ रहती हूँ, परन्तु तुम पहचानती ही नहीं हो । मैं #हिंदी हूँ ... कल ही तो तुमने मेरा दिवस - #हिंदी_दिवस  मनाया था और मजाक बनाया था कि जो साल भर कभी हिंदी नहीं बोलते उनको मुबारक ... जो उनहत्तर ,उन्यासी ,नवासी में अंतर नहीं समझते उनको #हिंदी_दिवस मुबारक ... । मेरी आज की स्थिति एक ही दिन में तो आयी नहीं है । जैसे एक - एक दिन कर के मेरा चलन कम हुआ है वैसे ही एक - एक दिन कर के ही मुझको मेरी पूर्वस्थिति वापस मिलेगी ",वह स्नेह से मेरे हाथों को सहलाती हुई उठ खड़ी हुई । 


अपने विचारों में उलझी मैंने जब सामने देखा ,तब वहाँ जाते हुए कदमों का एक धुंधला साया भर था । सम्भवतः मुझे उलझनों में घिरा देख मेरी पहचान मुझ से हाथ छुड़ा कर कहीं दूर जाने लगी थी । 


मैं एक दृढनिश्चय के साथ उठ खड़ी हुई और चल दी अपनी मातृभाषा के आँचल में हिंदी दिवस ,हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़े के सितारे टाँकने !

                                 ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिन्दी : दोहवलि

 हिन्दी हिन्दी सब  कहें ,सीखे नहीं विधान ।

स्वर व्यंजन भी याद हो ,मात्रा का रख ध्यान ।।


उच्चारण भी शुद्ध करो ,प्रवहमान तब जान ।

तत्सम तद्भव लो समझ ,त्रुटियों का ले ज्ञान ।।


अलग - अलग हर भाव के ,इसमें रखे निशान ।

कण्ठ तालु अरु हलक से ,बोलो समझ विधान ।।


नाम संबंध के अलग, रहती भिन्न पुकार ।

समझो इसकी महत्ता ,भाषा है संस्कार ।।


   ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 13 सितंबर 2020

मन बावरा है न ....

 मन बावरा है न 

आज चाँद बनने को मचल पड़ा

मानो माँ की उंगली थामे 

उचका था बचपन चाँद पकड़ने को !


चाँद बनना है पर वह

आसमान में चमकने वाला नहीं 

न ही पानी से भरे थाल में लहराता !


चाँद बनना है पर वही 

चातक की आँखों में चमकता आस बन 

शिशु की किलकारी में किलकता मामा बन !


 मेरे चाँद से मन को पाने के लिये

मत सजाना प्रयोगशाला 

नहीं खोजना गड्ढ़े मन की गहराई में !


बस जगा लेना सम्वेदनाओं को 

मेरा ये चाँद विहँस बस जायेगा

चमकता ही रहेगा तुम्हारे आनन पर !

              ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 7 सितंबर 2020

लघुकथा (संवाद ) : दास्तान ए लेखनी और शमशीर ...

 दास्तान ए लेखनी और शमशीर ...


मेरे सामने तुम कुछ नहीं हो । तुमको तो चलने के पहले स्याही रूपी रक्त पीना पड़ता है ।


हाँ .. हाँ ... यदि मैं पहले रक्त पीती हूँ ,तब तुम भी तो बाद में रक्त ही तो पीती हो ।


तुमको तो इन्सान अंगुलियों के इशारे से नचाता रहता है ,जबकि मुझे चलाने में उसको पूरी ताक़त लगानी पड़ती है ।


मुझको चलाने के लिये वह बचपन से ही विधिवत शिक्षा भी लेता है और यदि तब नहीं सीख पाता तो उम्र के किसी भी पड़ाव पर सीखता है। तुम्हारी याद तो उसे तभी आती है ,जब वह इतना शक्तिशाली हो जाता है कि तुमको सम्हाल सके । 


बोल तो ऐसे रही हो जैसे तुम कोई बहुत तुर्रम खाँ हो ... 


हाँ ! हूँ मैं तुर्रम ख़ाँ 


कैसे ? 


अरे ! मुझे जानती नहीं हो ,जरा सा भी लहरा जाऊँ तो ख़ुदा को जुदा और अर्श को फ़र्श कर दूँ ... मेरे शब्दों में इतनी ताक़त है ।


हाँ ! मान गयी तुम मुझसे शक्तिशाली हो । मैं जब लहराती हूँ तब एक ही बार में जीवन ले लेती हूँ ,परन्तु तुम तो जिन्दा रहते हुए भी कई - कई बार मारती रहती हो । 

                                     ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

रस्मे उल्फ़त

 आज की इस आपाधापी के दौर में 

कुछ यूँ रस्मे उल्फत चलो निभाते हैं


कुछ मैं करती हूँ कुछ तुम समेट लो

चलो कुछ यूँ अपने काम बाँट लेते हैं


नानाविध भोजन हम पका लाते हैं 

बर्तनों की निगहबानी तुम कर लो


झाड़ू डस्टिंग तो हम कर ही आएंगे 

पोछे की बाल्टी जानम तुम ले आओ


कहो तो सौंफ इलायची हम चख लेंगे 

तुम तो बस वो सौंफ़दानी उठा लाओ 


किधर चल दिये अब ऑफिस को तुम

जरा रुको लैपटॉप मैं ले कर आती हूँ


वक्त का पहिया चल पड़ा उल्टी चाल

दो से चार हुए अब चार से फिर दो हुए


ई सी जी के रिपोर्ट सी  देखती चेहरा

कभी कुछ शब्द भी तुम  लुटा जाओ 


बीतती जा रही अनमोल ये ज़िंदगी

बाद में तुम भी याद कर पछताओगे


कितने लम्हों को थामे ये 'निवी' खड़ी

दो चार लम्हे तुम भी कभी खोज लाओ 

       .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 2 सितंबर 2020

लघुकथा ( संवाद ) : कनिष्ठा


सुनो 

हूँ

बहुत सोचा पर एक बात समझ ही नहीं आ रही😞

क्या 

अधिकतर लोगों को देखा है कि वो तीन उंगलियों में ,यहाँ तक कि अंगूठे में भी अंगूठी पहन लेते हैं ,परन्तु सबसे छोटी उंगली को खाली ही छोड़ देते हैं । 

हा ... हा ... सही कह रहे हो 

अरे हँसती जा रही हो ,कारण भी तो बताओ 

हा ... हा ... अरे सबसे छोटी होती है न किसीका ध्यान ही नहीं जायेगा इसीलिये ... 

मजाक मत करो सच - सच बताओ न ,तुम क्या सोच रही हो 

अच्छा ये बताओ ,हम कहीं जाते हैं तो तुम मेरी छोटी उंगली ,मतलब कनिष्ठा क्यों पकड़ लेते हो 

अरे वो तो किसी का ध्यान न जाये कि हमने एक दूजे को थाम रखा है ,बस इसीलिये ... 

अब समझे तर्जनी पकड़ाते हैं किसी को सहारे का आभास हो इसलिये ...

हद्द हो यार तुम ,मैं बात करूंगा आम तुम बोलोगी इमली ... 

सुनो तो ... कनिष्ठा प्रतीक है प्रेम का ...

प्रेम का ? 

हाँ ! हम जिसके प्रेम में होते हैं उसकी हर छोटी से छोटी बात भी महत्व रखती है ...

वो तो ठीक है परन्तु कनिष्ठा को आभूषण विहीन क्यों रखना ?

क्योंकि जब दो प्रेमी अपने होने का एहसास करते हैं तब वो कनिष्ठा पकड़ते हैं क्योंकि रस्सी का सबसे छोटा सिरा पकड़ लो तो दूरी खुद नहीं बचती । पकड़ में मजबूती नहीं होती पर विश्वास होता है । अब इस छुवन में आभूषण बैरी का क्या काम ... हा ... हा ...

तुम भी न बस तुम हो 💖💖

                ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

गीत : प्रणय की बेला

 देख रही मैं सपन अनोखे ,

आ पहुँची प्रिय प्रणय की बेला !


निशा भोर की गैल चली है

तारों ने तब घूँघट खोला ,

मन्द समीर उड़ाये अंचल

रश्मि किरण का मन है डोला ,

पागल मन हो जाता विह्वल

रोज सजाता जीवन मेला !


माया में मन भटक रहा है

पल - पल करता जीवन बीता ,

अनसुलझी लट खोल रहा है

जीवन का हर घट है रीता ,

अंत समय जब लेने आया

मन फिर से हो गया अकेला !


बन्द नयन वह खोल रहा है

सच जीवन का वह बतलाता ,

तेरा - मेरा झूठा नाता

रह रह कर वह है समझाता ,

विहग तो उड़ जाये अकेला

लोभ सजाये मन का तबेला !

   .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 30 अगस्त 2020

काश .....

 काश ...

ज़िंदगी किताब होती 

थोड़ी सी ही नहीं 

बस बेहिसाब होती 

बिखर जाते पन्नों को 

चुभन के साथ

बाँधे रखती पिन 

चुभन में भी अपनी

मिठास रखती 

पन्नों का बिखराव 

समेट छुपा रखती

काश ! ज़िंदगी सुलझी गणितीय हिसाब होती !!!


काश ...

ज़िंदगी फूलों की 

बरसती बरसात होती

सूख जाती पंखुड़ियाँ 

खुशबू की फुहार होती

सजाते चटख रंग 

तितली के शोख पंख

हथेलियों की रेखाओं में 

कर जाते बसेरा 

और बस ही जाते 

उन ख्वाबो से कच्चे रंग

काश ! ज़िंदगी बेमुरौव्वत लहरों की न धार होती !!!

                              ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

लघुकथा : वो कुर्सी


अकसर शाम होते ही दो कुर्सियाँ ले जाकर बालकनी में रख देती थी और नजरें घड़ी की सुइयों के साथ हिचकती ,कसकती आगे बढ़ती जाती थीं । हाँ ! उस समय  सिर्फ दो ही काम होते थे कभी रूखी लगती सूनी सी सड़क को देखती तो कभी घड़ी को ...बहुत देर यही होता रहता था । फिर ढलती शाम और रात के गहराते साये हक़ीकत से रु - ब - रु करवा देते थे और कोरी कुर्सियाँ अंदर आ जाती थीं । 


अनायास ही कुछ खिलखिलाती आवाज़ें सुनाई देने लगी थीं । पड़ोस में एक नया परिवार आ गया था । उनके बच्चे खेलते हुए इस तरफ आ गयी गेंद को वापस देने की पुकार लगाते हुए खिलखिला देते थे और मैं मन्त्रमुग्ध सी उनकी हँसती सूरत में लड्डूगोपाल को महसूस करने लगी थी । 


अब भी बाहर दो कुर्सियाँ ले जाती हूँ ... एक पर बैठी ,बच्चों की गेंद के इस पार आने की प्रतीक्षा करती हूँ और हाथ में थामी हुई किताब को पढ़ने का प्रयास किये बिना ही दूसरी खाली कुर्सी पर छोड़ देती हूँ । 


पास ही रखे 'कारवाँ'  से गाना गूँज उठता है "ज़िंदगी कैसी है पहेली .... "


सच ये मन भी न कहाँ - कहाँ भटकता रहता है !

                                  ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

लघुकथा : #पहला_प्यार

 लघुकथा : #पहला_प्यार


लाडो ! चल खाना खा ले ।

उहूँ 

चल न बेटा ,इतना भी क्या गुस्सा । सब तेरा भला ही तो सोच कर कह रहे हैं । 

इसमें क्या भला सोच रहे हैं ?

अरे लाडो पहले पढ़ाई कर ले ,फिर जो तू कहेगी सब मानेंगे । परन्तु अभी नहीं ।

माँ ! तुम नहीं समझ रही हो । पहला प्यार है मेरा ... 

हाँ लाडो तुम्हारी बात समझ रही हूँ ।

नहीं समझ रही हो । पहला प्यार भूलना आसान नहीं होता ( सिसकता प्रतिरोध )

गलत्त बोल रही है तू । कोई भी हो वह पहला प्यार खुद से करता है ।

खुद से ... मतलब ? 

हॉं ! 

कैसे ? 

तू मुझे क्यों प्यार करती है  ?

अरे यह क्या बात हुई ... माँ को प्यार करने का कोई कारण होता है क्या ! 

हाँ होता है । तू मुझसे नहीं उसको प्यार करती है जो तेरी माँ है । मेरी जगह कोई और होती तो तू उसको भी प्यार करती । मुझको प्यार करने के लिये मेरा नहीं तेरा होना जरूरी है ।

क्यों उलझा रही हो माँ ! 

नहीं आज तुझे समझना होगा । तू है इसलिये पढ़ रही है ,नृत्य सीख रही है ,गा रही है और उस व्यक्ति के लिये तड़प रही है ,जो अभी तेरे दिल - दिमाग तक ही आ पाया है । अभी वो तेरे जीवन में कहीं नहीं है ।

माँ !

लाडो ! इसीलिये कह रही हूँ कि पहले खुद को प्यार कर और इतनी योग्य बन जा कि सब तेरी बात को सुने ,समझें और मानें भी । 

हम्म्म्म

अभी तेरी उम्र बहुत कम है और जीवन की चुनौतियों का सामना करने की योग्यता भी नहीं है । 

परन्तु माँ ...

दो बातें अच्छे से समझ ले कि यदि वह तुझसे सच्चा प्यार करता और गरिमा को समझता है तो तेरी बात को भी समझेगा और तेरी प्रतीक्षा भी करेगा । दूसरी बात कि तुम दोनों इतने क़ाबिल हो जाओ कि एक दूसरे की गरिमा को बिना कुछ भी कहे ही बनाये रख सको ।

माँ ! तुम न होती तो मेरा क्या होता ... 

हा ! हा ! हा ! मैं ऐसा इसीलिये बोल रही हूँ क्योंकि मैं खुद को बहुत प्यार करती हूँ । मेरी बेटी परेशान होती तो मैं भी तो चैन से नहीं रह पाती । 

                 .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 23 अगस्त 2020

गीत : सजा गया विरहन का सावन ...

 महक रहा है हलका - हलका ,

बालों में गूँथा जो गजरा ।  

देख रहा है छलका - छलका ,

नयनन में हँसता वो कजरा ।।


बोल रही है बहकी - बहकी ,

हिना हथेली में  मुस्काई ।

बिखर गई थी ढ़लके - ढ़लके ,

चुनरी माथे पर वो छाई ।।  


चूड़ी कंगन करते पागल ,

छनक - छनक कर गाते जाये । 

पाँवों में पहनी जो पायल ,

भरमाती उर को वो जाये ।। 


सजनी मचले बहकी - बहकी ,

घर आये परदेसी साजन । 

बिंदिया खिली चमकी - चमकी ,

सजा गया विरहन का सावन ।।   

 .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 22 अगस्त 2020

संवाद : बूँद और मोती

बूँद और मोती


बहुत दिनों बाद उसको देख कर वह किलक पड़ी : अरे !तुम ... कितने दिनों बाद मुलाकात हुई है और ये क्या ... तुम मुझसे इतने अलग कैसे लगने लगे 


 मोती : मतलब ?


बूँद : आसमान से तो हम दोनों ने साथ ही यात्रा शुरू की थी ।


मोती : हाँ ! की तो थी ...


बूँद : फिर तुम में इतनी चमक भर गई और मैं ... 


मोती : ना बहन दिल छोटा नहीं करते 


बूँद : नहीं ... नहीं ... तुम मुझसे सच - सच बताओ न ये कैसे हुआ ?


मोती : बताऊँ !


बूँद : और क्या ... कबसे पूछ रही हूँ और तुम बता ही नहीं रहे हो । अच्छा समझ गयी सब तुमको ही तो अपने पास रखना चाह रहे हैं और सराह भी रहे हैं । और मैं ... मुझे तो गलती से भी उनके ऊपर पड़ जाने पर झटक देते हैं । 


मोती : फिर वही बेकार की बातें कर रही हो ।


बूँद : समझ गयी ,तुम चाहते ही नहीं हो कि मैं खुद को सुधारूँ ...


मोती : तुम भी ... जानती हो हममें यह अन्तर परिवेश की वजह से आया है । मैं सीप में चला गया तो मोती बन गया और तुम दरिया में मिल कर जीवनदायिनी बन गयी । 


बूँद : जीवनदायिनी


मोती : और क्या ... कभी तुम प्यास बुझा जाती हो तो कभी फसल को सींच देती हो ... 


बूँद : हाँ ! यह तो है 


मोती : आज तुमको मेरी चमक आकर्षित कर रही है पर जानती हो मुझको तो कुछ पलों के लिये पहनने को निकालते हैं ,नहीं तो बाकी समय तो तिजोरी में ही मेरा दम घुटता रहता है । 


बूँद : तुम्हारा दम घुटता है ?


मोती : हाँ ! और तुम देखो कितनी मुक्त हो हवा के झूले पर सवार हो कर धरती आकाश सब घूमती हो ।


बूँद : शायद हम में भी इन्सानी प्रवृत्ति आ गयी है । दूसरों का जीवन ही अधिक अच्छा और आकर्षक लगता है ।

                                   .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

नवगीत : गान नहीं था साधारण ....

परम्परायें रहीं देखतीं

गान नहीं था साधारण !


शिशु अबोध किलक नहीं पाता

अपने सब छूटे जाये

नाव समय भी खूब सजाता

अंधेरा घिरता जाये  

रश्मि किरण भी सच को ढँकती

नियति करे तब निर्धारण !


पूछ रहे सभी कुल का नाम 

मौन सभी सामर्थ्य रही 

गुणी देखते नहीं क्यों काम 

वेदना अविरल हो बही

धधक रही थी उर में ज्वाला

पीर तभी बनती चारण !


बतलाता परिचय जो अपना 

ज्ञान कभी मिलता कैसे

झूठ छुपाये सौ परतों में 

पहुँच गया छल कर जैसे

चक्र फाँस सब मंत्र भूलता

चढ़ा शाप था गुरु कारण !

   .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 17 अगस्त 2020

हाइकु ....

 हाइकु


मिट्टी का तन 

चक्रव्यूह सा चाक

फौलादी मन


डूबती शाम

उलझन में मन 

उर की घाम


टूटते वादे

बिखरती सी यादें

मूक इरादे


रूखी अलकें

नमकीन पलकें

कहाँ हो तुम 


खुले नयन

बुझा जीवन दीप 

मन अयन


चकित आँखें 

भरमाया सा मन 

बेबस तन


बिछड़ा साथी

राहें हैं अंधियारी 

बात हमारी

      .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शनिवार, 15 अगस्त 2020

वीर बाँकुरे

 वीर बाँकुरे ...


देश के रक्षक वीर बाँकुरे ,

आन देश की रखते प्यारे ।

अपनी माटी शीश सजा के,

ऊंची राष्ट्र ध्वजा फहरा के ।।


जय हिन्द का घोष हैं करते ,

निज प्राण का मोह ना करते ।

गगन धरा या सागर  गहरा ,

हर जगह लगाते हैं पहरा ।।


देश हित पर करे जो शंका ,

बज रहा हो युद्ध का डंका ।

चल देती वीरों की टोली ,

जय हिन्द की लगा कर बोली ।।


अरिदल को फिर गरल पिला कर ,

धूसर में भी पुष्प खिला कर ।

झूम रही टोली बलशाली ,

इनसे हम हैं गौरवशाली ।।

    .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'


मंगलवार, 11 अगस्त 2020

गीत : शर शय्या पर समय विराजे

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राधे - राधे 

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शर शय्या पर समय विराजे 

टेर रहा हो कहाँ कन्हाई !


बात धर्म की तुम हो करते 

परे सदा अन्याय हटाया 

नहीं शीश को देखा मोहन  

नेह चरण पर था बरसाया  

माया का यूँ चक्र चलाया  

अलख सत्य की सदा जगाई  


मान एक धागे का जाना 

वस्त्रों के तब ढ़ेर लगाये 

नहीं किसी को कुछ सूझा था 

बोल नहीं सच्चाई पाये 

आ पहुँचे तुम भरी सभा में 

द्रुपद सुता की आन बचाई  !


सुनो जरा मेरे मनमोहन

बतला दो गलती तुम सारी 

मैंने कब क्या पाप किया था     

बाणों की शय्या क्यों मेरी  

गंगा तट पर हूँ मैं लेटा  

जैसे हो मेरी अँगनाई !


सुनो पितामह तुम इस सच को

वही काटते जो हैं बोते  

चक्र चले अनगिन कर्मों का 

परिणाम सुखद कब हैं होते 

हर पद इक गरिमा है रखता  

नही राह सच की क्यो भायी !


  .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

कब मिलोगे ...

कब मिलोगे ...

पूरे चाँद की चमकती रात अंधेरी लगती है ,
अकसर ख़ामोश सी पूछती है कब मिलोगे !

बिखरी अलकों से पूछती अधखुली पलकें 
तुम्ही बताओ ऐ स्वप्न सच बन कब मिलोगे !

मुझसे दूर जाती नामालूम से लम्हों की कतारें ,
ठिठकती अटकती सी पूछती है कब मिलोगे !

दूर जाते क़दमों की सुनती हूँ जब कोई आहट ,
धड़कना छोड़ कराहती पूछती है कब मिलोगे !

मोती बनने की चाहत में स्वाति नक्षत्र खोजती ,
सीप में समाती हर बून्द पूछती है कब मिलोगे !

कहते हो तुम भोले का महानिवास (श्मशान) मुझे भाता , 
पता है कहीं मिलो न मिलो वहाँ जरूर मिलोगे ! 

यादों की मंजूषा छुपाये कितना शांत है साग़र
सिसकती लहरों से 'निवी' पूछती हैं कब मिलोगे !
                              ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

नवगीत : यादों की महकी अमराई


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विहस रही बदली वो पगली
यादों की महकी अमराई 
*
बैठ रहा पाटे पर वीरा 
मंगल तिलक लगाये बहना 
सुन आँखों से वो बोल रहा
तू ही है इस घर का गहना 
जब जब तू घर आ जाती है
आती खुशियाँ माँ मुस्काई 
*
मन तरसे अरु आँखें बरसे 
विधना ने क्यों रोकी राहें
नाम लिया है कुछ रस्मों का
रोक रखी वो फैली बाँहें
टीका छोटी से करवाना 
याद मुझे कर हँसना भाई
*
बीती बात याद जो आये
भर भर जाये मेरी अँखियाँ 
इस बरस तू नहीं आयेगी
बता गयी हैं तेरी सखियाँ
एक बार तू आ जा बहना 
कर लेंगे हम लाड़ लड़ाई 
*
रीत निभाना याद दिलाते 
कदम ठिठक बढ़ने से जाये
संस्कारों ने रोक रखा है
चाह रही पर आ नै पाये
पढ़ चिट्ठी अपनी बहना की 
भाई की आँखें भर आई
      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'


शनिवार, 1 अगस्त 2020

नवगीत : बिलख बिलख वसुधा है रोती ...


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बिलख - बिलख वसुधा है रोती
समझ नहीं कोई पाया

हर्ष - विषाद उर में बस जाये  
प्रेम विशाल दिखा जाता ,
तब अंतर्मन संवाद करे 
नयन जलद सा खिल भाता ,
वीणा यादों की गान करे 
गीत पुरातन तब गाया ,
बिलख - बिलख वसुधा है रोती
समझ नहीं कोई पाया !
*
उम्मीदों की गगरी छलकी
समय विभीषण आ जाये ,
पर्वत - पर्वत घूम रहा था
छुपा अमिय रहा बताये ,
भूकम्पी सी आहट दे कर 
झटका घर को गिरा गया ,
बिलख - बिलख वसुधा रोती
समझ नहीं कोई पाया !
*
नयनों से जब जब नीर बहे
आसमान क्रंदन भरता ,
आस जगा साहस यूँ भर कर 
दायित्व वहन है करता ,
कर्तव्यों की बलिवेदी पर
हर पल की वह मौत जिया ,
बिलख - बिलख वसुधा है रोती
समझ नहीं कोई पाया !
 ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

दोहा गीतिका : अवनी धमनी सी सखी

दोहा गीतिका

अवनी धमनी सी सखी ,प्रेम सुधा बरसाय ।
दूषित उसको क्यों करो ,सुन लो ध्यान लगाय ।।

जब जब काटो पेड़ को ,नई लगाओ पौध ।
शुद्ध हवा कैसे मिले ,धरा सूख जब जाय ।

बात प्रदूषण की करें , सुनो लगा कर ध्यान ।
उद्द्यम हमने क्या किया ,जरा सोच समझाय ।।

पानी घटता जा रहा ,बुझे नहीं अब प्यास ।
फेंक रहे क्यों व्यर्थ ही ,कुछ लो अभी बचाय ।।

धरा सोच कर रो रही ,आँसू बहे अपार ।
लाल बनो तुम मातु के ,लोचन नीर बहाय ।। 

मलबे से मत तुम भरो ,कैसे ले वो साँस ।
मन उदास उस का हुआ  ,तुम दो उसे हँसाय ।। 

 ..... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

नवगीत : जियूँ मैं कैसे ....



***
पीर गहन हो यूँ बह निकली
शब्दों की ज्वाला हो जैसे

उर का ग़म नयनों में झलके 
अनायास झलक गया ऐसे
बाँध सकी ना बिखरी अलकें
करूँ बन्द मैं पलकें कैसे 

पर्वत का आँसू है झरना
नदी हर्ष की गाथा कैसे
पीर गहन हो यूँ बह निकली
शब्दों की ज्वाला हो जैसे

बदल बदल कांधा थे चलते
संग सदा जो लगते अपने
जली शलाका वही बढ़ाते
देखे थे जिनके ही सपने

हिय को तो पाहन कर लूँ
पर बतलाओ जियूँ मैं कैसे
पीर गहन हो बह निकली
शब्दों की ज्वाला हो जैसे

.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 29 जुलाई 2020

नवगीत : पिय मिलन को चली है रजनी !

नवगीत
******
ओढ़ चुनरिया तारों वाली
पिय मिलन को चली है रजनी !

झूम रहा है अम्बर सारा
रवि पहने ओसन की मालाH
उर में सजा बसन्त है न्यारा
नज़रें बन जाती मधुशाला

किरणों के संदेसे आये
मधुमय यादें हैं सजनी
ओढ़ चुनरिया तारों वाली
प्रिय मिलन को चली है रजनी !
*
गगन मगन हो हो कर बरसे
विटप झूम लहराते जायें
इस पल जियरा क्यों है तरसे
अरमां भी अब सारे गायें

चंचल कलियाँ बहती तितली
आकर्षण का केंद्र बनी
ओढ़ चुनरिया तारों वाली
पिय मिलन को चली है रजनी !

*
उमड़ घुमड़ कर नदियाँ विहसी
छू कर तट कर रही किलोलें
मदिर मदिर अधरन पर बरसी
अरमानों के पड़ रहे हिंडोले

चन्द्रकिरण सी बातें छलकी
मनुहार की थी फुहार  घनी
ओढ़ चुनरिया तारों वाली
पिय मिलन को चली है रजनी !
       .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 29 जून 2020

लघुकथा : माँ

लघुकथा : माँ

नन्हा सा अवि अपनी बाल चित्र कथा के पन्नों पर अंकित चित्रों को देखता कुछ - कुछ बोलता जा रहा था और वह अपने काम करती उसकी जिज्ञासा भी शांत करती जा रही थी । अचानक से उसकी चुप्पी से चौंक कर वह उसके पास पहुँच गयी ,"अवि !क्या हो गया बेटा ?"

"माँ ! सारी माएँ अपने बच्चे की सुरक्षा के लिये सतर्क रहती हैं ,फिर ये शेरनी अपने बच्चे को इस हाथी की सूँड़ में कैसे छोड़ कर आराम से टहलती चल रही है और उसको देख भी नहीं रही है ",नन्हा अवि शेर के नन्हे के लिये चिंतित था ।

"बेटा ! माँ कोई भी हो वह सिर्फ माँ होती है ", वह हँस पड़ी ,"बताओ कैसे ?"

अवि भी खिलखिलाता उसके गले मे झूल गया ,"हाँ माँ ! जैसे वो पड़ोसन काकी सब पर गुस्सा करती हैं ,परन्तु हम सब बच्चों को सिर्फ लाड़ । हमारे लिये आप सब को भी डाँटती हैं न !"
            ... निवेदिता श्रीवास्तव'निवी'

बुधवार, 24 जून 2020

लघुकथा : दीवाल


लघुकथा : दीवाल

चाय पीने का मूड हो रहा ..

 अच्छा ...

साथ में ऑमलेट भी बना लो ,मजा आ जायेगा ...

ठीक ...

और सुनो टोस्ट करारे सेंकना ...

ठीक ...

ये क्या हर बार एक शब्द 'ठीक' बोल रही हो । मैं बात कर के बात खत्म करने की कोशिश कर रहा हूँ और तुम वहीं अटकी हुई हो ...

मूक नजरें और भी चुप ...

अरे यार होता है न कभी - कभी ... हम एक दूसरे के पन्चिंग बैग ही तो हैं । टेंशन उतारो फिर साथ - साथ ...

शायद तुम भूल गए हो कि पन्चिंग बैग की सहनशक्ति समाप्त होने पर अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति बदल कर  बड़ी मजबूत दीवाल बन जाता है ... एक चुप पर अप्रभावित दीवाल ...
          ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 23 जून 2020

मैंने जीना सीख लिया है ...

मैंने जीना सीख लिया है ...

तुम हँसते रहे मेरे दाँत बड़े बोल कर
मैं बस एक कदम घूम गयी
तुम्हारे छोटे दाँत मुझे भी दिख गए
रुमाल हटा ठहाके लगाना मैंने सीख लिया है
मैंने जीना सीख लिया है !

आँखों का चश्मा दिखाने उठी तुम्हारी उंगलियाँ
मैंने बस नजरें उठायी
तुम्हारी आँखों में छुपी वहशत मुझे दिख गयी
बस ठहरी आँखों से देखना मैंने सीख लिया है
मैंने जीना सीख लिया है !

मेरे लिखे को बेकार बताती तुम्हारी झुंझल
मैंने बस तुम्हारा पासवर्ड देख लिया
तुम्हारी खोली हुई सभी साइट मैंने देख लिया है
मैंने खुद से खुद को ही पढ़ना सीख लिया है
मैंने जीना सीख लिया है !

हँसी उड़ाती छंदमुक्त छंदबद्ध की बातें
मैंने तुम्हारे मन के झरोखे देखे
तुम्हारे मन में छुपे अहंकार को मैंने देख लिया है
जिंदगी को आँखों में आँखे डालना सीख लिया है
मैंने जीना सीख लिया है !
                     ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 21 जून 2020

पापा ....

संस्मरण

यादों में तैर रही है एक बच्ची जो सबकी बहुत लाड़ली ,दुलारी है कई भाइयों ( तब कजन्स नहीं होते थे न ,सिर्फ भाई - बहन ही होते थे 💖 ) की छोटी सी चंचल बहन । बहन ऐसी कि हर समय उसके बोल चहचहाते रहते और क़दम थिरकते ही रहते थे ,चाहे वो सीढ़ियों पर चढ़ रही हो या उतर रही हो ... जानती थी न कि उसको संभालने वाले हाथ गिरने नहीं देंगे ।

एक दिन अपने पापा के साथ स्टेशनरी की दुकान पर किताबें देखती हुई वह अनायास ही बोल पड़ी थी ,"पापा ! यह किताब तो किसी को मिली ही नहीं थी ,अब सिर्फ मेरे पास ही होगी । कितना मजा आयेगा ।"

पापा ने उसको दुलराते हुए कहा था ,"तुम्हारे पास कुछ होना बहुत अच्छी बात है वह भी तब ,जब वह ज्ञान और अच्छा व्यवहार हो ,सामान नहीं । अगर तुम और बच्चों को भी यह किताब दोगी तब सब मिलकर पढ़ेंगे । कितना मजा आएगा !"

"पर पापा ! मुझे क्यों मजा आयेगा ", वह फिर ठुनक पड़ी ।

"सबसे पहली बात तो यही कि अगर किताब मिलेगी ही नहीं ,तब हो सकता है टीचर दीदी उस किताब को कोर्स से ही हटा दें ... ",पापा ने समझाया ।

पापा को लगा कि वह उसकी बात समझ रही है ,तब  उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई ," अपने पास की चीजों और ज्ञान को बाँटना बहुत जरूरी है । अगर अपने आसपास के लोगों को भी प्यार करती हुई सिखाती चलोगी ,तब तुम्हारे साथ के सभी लोग उस ज्ञान को समझने लगेंगे और तुमको कभी भी अकेलापन नहीं लगेगा । "

"हाँ पापा ! आप कह तो सही रहे हैं । पर ऐसा करने से मैं हमेशा फर्स्ट भी तो नहीं आ पाऊँगी ,"फिर एक सवाल पूछ बैठी थी वह ।

पापा हँस पड़े थे ,"ऐसा करने से तुम यहाँ ही नहीं कहीं भी प्रतियोगिता से घबराओगी नहीं । और सब को सिखाते हुए तुम्हारा रिविज़न भी तो साथ - साथ ही होता रहेगा । "

उस बच्ची ने इस बात को अपने अंतर्मन में बसा लिया था ।

जानते हैं वह बच्ची और कोई नहीं मैं ही थी 😊 अपने पापा की इसी सीख की वजह से आज भी जो भी और जितना भी आता है सब के साथ बाँटती और सबका स्नेह बटोरती रहती है ।

कभी कहा नहीं था ,पर आज कह ही देती हूँ ... पापा आप का होना एक विशाल दरख़्त का साया रहा है हमेशा  । उस ऊपरवाले का बहुत - बहुत शुक्रिया कि उसने मुझे आपकी बेटी बना कर भेजा 🙏
                              ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 16 जून 2020

थी ...

थी ...

सच कब से इधर से उधर भटकती वो सबके मुँह से बस यही सुन रह थी ... पहले के कुछ शब्द अलग - अलग से  होते ,परन्तु अंत मे यही 'थी'  ही आ कर वाक्य को पूर्ण कर रहा था ।

कहीं सच मे कुछ नम तो कुछ बहती हुई पलकें थीं ,तो कहीं मन की उदासी आँखों को खुश्क ही छोड़ गई थी । मन को चुभती हुई सी कुछ अपनी तो कुछ बेगानी सी वो शक्लें भी थीं ,जो अपने मैचिंग दामन से जबरन ही आँखों को पोछ कर  लाल कर रही थीं । सच ये लाली चुभ रही थी । फिर एक 'थी'  मेरी ही बात में आ गया ...

मुझे कोई पहले ही नहीं महसूस कर पाता था तो अब क्या करता ... मैं निर्विघ्न हो उन्मुक्त भाव से विचरण करती अंदर अपने कमरे में भी पहुँच गयी कि चलो एक झलक इसकी  भी ले लूँ ... वो क्या कहते हैं न कि मोह जल्दी जाता नहीं ,मन को लटकाए भी रखता है और भटकाये भी !

सारा सामान ही एक तरह से अलमारियों से बाहर पलट दिया गया था और निशानी बता - बता कर सब अपनी पसन्द की चीजें खुद पर लगा - लगा कर देखते और जँचने की कम्फर्मेशन आते ही समेटने की जुगाड़ में लगे थे ।

तभी उस तरफ आती बेटी की आवाज़ कानो में अमृत घोल गयी ,सोचा चलो एक बार और लाडो को देख लूँ । कमरे में घुसते ही वहाँ का दृश्य देखते ही उसकी दृढ़ता फफक पड़ी ,"हमने आप सब से कितनी बार हाथ जोड़ कर मना किया था कि माँ के सामान को कोई नहीं छुएगा परन्तु आप लोग मान ही नहीं रहे हैं और फिर से उनके सामान को हड़पने आ गये । शायद आप को समझ नहीं आ रहा है कि आप के लिये ये सारा सामान सिर्फ साड़ी ,ड्रेसेज और गहने हैं ,पर हम सब के लिये इसमें हमारी माँ की खुशबू बसी है ,उनके होने का एहसास है । आप सब बाहर निकलिए यहाँ से ,क्योंकि भाभी नहीं बल्कि मैं इस कमरे में ताला लगा कर चाभी उनको दूँगी । कहीं भाभी ने ये कर दिया तो आप सब तो उस बिचारी के प्राण तो बोल - बोल कर ही ले लोगे ।"

सच मेरी बिट्टो जरा भी न बदली थी ,सबको खरी - खरी सुनाने और अपनी भाभी के सम्मान की परवाह खुद से भी ज्यादा करती रही है ।

उस को दुलराने के लिये अपने फैले हुए हाथों को तुरंत ही समेट लिया था ... अब मैं स्पर्श से परे जो हो गयी हूँ !

भीगी पलकों में मन की नमी भरे बाहर आ गयी । दोनों बेटे हतप्रभ से एक दूसरे को देखते असमंजस में भटक रहे थे । सच यही काम मैं नहीं कर पाई ,उनको दुनियादारी नहीं सिखा पायी । शर्मिंदा हूँ बच्चों ! पर अब समय ही तुम लोगों को ये सिखायेगा ।

बच्चों से नजरें चुराती बाहर आई तो देखा अच्छी खासी भीड़ इकट्ठा थी ,उसमें वो सब भी शामिल थे जिनको मुझे जीवित देखने की छुट्टी नहीं मिल पाई थी । आज सब एक - दूसरे से कहते खड़े थे ,"सुख में न पहुँचो कोई बात नहीं ,पर दुख में तो जरूर जाना चाहिए । आखिर परिवार होता किसलिये है !"

सब मेरी सभी चाहतों को भूल ही गये थे ,तभी तो देह - दान की मेरी चाहत को अनदेखा कर धार्मिक कर्मकांड करने में लगे हुए हैं ।

सच कहूँ तो मैं जीना चाहती थी ... मरने के बाद भी ,दूसरों के शरीर मे जीवित रहते अपने अंगों के द्वारा ... जो दुनिया मैं नहीं देख पाई थी, वो देखना चाहती थी उन नई आँखों में समा कर !

निराश सी वापसी की यात्रा के लिये तैयार होती ,बच्चों की छवि बसा कर निकलने को ही थी कि आवाज़ सुनाई पड़ी ,"सुनो ! सिंवई जरूर बनवाना ,उसको बहुत पसंद थी ।"

मैंने पलट के चेहरा देखने की कोशिश नहीं की क्योंकि उस व्यस्त आवाज़ को पहचान गयी थी ,जो आज भी बहुत व्यस्त ही है ।

                    .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शुक्रवार, 12 जून 2020

शिव - स्तुति

शिव - स्तुति

हृदय पधारो हे त्रिपुरारी
टेर लगा मैं तो हूँ हारी
कंठ उतारा शिव का प्याला
मन मेरा बन गया शिवाला

अंतर्मन छवि सिंधु निहारी
मैं - मेरा सब तुझ पर वारी
गौरा सह तुम आओ भोले
वाणी बस बम बम बम बोले

पुष्प हार मैं ले कर आऊँ
श्रद्धा के मैं दीप जलाऊँ
आंगन अपनी छाया कर दो
वर से मेरी झोली भर दो
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 4 जून 2020

क्यों सोचें ....

कितना सफर है बाकी
कहाँ तक चलना होगा
कहाँ ठिठकनी है साँस
बांया ठिठका रह जायेगा
या दाहिना चलता जायेगा !

फिर सोचती हूँ
क्यों उलझ के रह जाऊँ
गिनूँ क्यों साँस कितनी आ रही
आनेवाली साँस को नहीं बना सकती
गुनहगार जानेवाली साँस का
ऐ ठिठकते कदम ! गिनती भूल चला चल
पहुँचने के पहले क्यों सोचूँ
अभी बाकी कितनी है मंज़िल !

जब तक चल सकें चलते रहें
सुर - ताल का अफसोस क्यों करें
थामे हाथों में हाथ रुकना क्या
तुम रुको तो मैं चलूँगी
मैं रुकूँ तो तुम चलना
सफ़र तो सफ़र ही है
सफ़र मंज़िल की नहीं सोचता
सफ़र तो बस देखता है राही
चलो हमराही बन चलते जायें
मंज़िल जब आनी है
आ ही जायेगी
क्षितिज पहला कदम किसका क्यों सोचें !
                     .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 1 जून 2020

लघुकथा : अवसर


लघुकथा : अवसर

खिड़की से झाँकती थकी सी आँखें कितनी विवशता से भरी ,दिल की नमी से पलकों को सींच रहीं थीं । सब तरफ से बन्द उम्मीदों के दरवाज़े ,और मासूम निगाहों की झलकती भूख ... वह समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे इन की क्षुधा शांत करे ।

नन्हे परिंदों को देखते - देखते ही ,खिड़की की दरारों से झाँकती नन्ही कोंपल पर उसकी निगाहें अटकी रह गईं । जैसे एक नई ऊर्जा मिल गयी हो ।

हाँ ! वह किसी के सम्मुख हथेली तो नहीं पसार सकती पर उनकी मुट्ठी जरूर बाँध लेगी । वह घर मे रखे कपड़ों को धोने लगी मास्क बनाने के लिये ।

सच आपदा अवसर है अपनी सामर्थ्य को जानने का ,न कि विवश हो कर बिसूरते रहने का ।
          .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 24 मई 2020

मन कहता है ...



मन कहता है तू मुझको लिख 
सब खुद ही बन जायेगा !   

बिखर गया घर था वो प्यारा
पवन उड़ाती सब आये !
चाक चले जब गीली मिट्टी 
लेती ज्यूँ आकार प्रिये !     
मन का आवाँ तपता जाये 
हर अक्षर गहन गायेगा !       
मन कहता है तू मुझको लिख 
सब खुद ही बन जायेगा !   

बिछड़ गए थे जो शब्द कहीं
रच रहे नवल गान प्रिये !     
उर की बाती अभी जलेगी   
जीवन का आधार लिये !       
उमड़ - घुमड़ कर जब घन बरसा   
नदिया छलका आयेगा ! 
मन कहता है तू मुझको लिख 
सब खुद ही बन जायेगा !

भोर भयी जब ऊषा जागी   
किरणों  की मनुहार लिये !   
साँझ ढ़ले सब छुप जायेगा   
चाँद हुआ साकार प्रिये !     
कुछ मुझ में तू भी रह जाये   
कुछ तुझ सा बन गायेगा ! 
मन कहता है तू मुझको लिख 
सब खुद ही बन जायेगा !   

    .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 23 मई 2020

भीगा सा नाता



आँसू और पलकों का
ये कैसा भीगा सा नाता है
एक बिखरने को बेताब
तो दूजा समेटने को बेसब्र

ये बेताबी और ये बेसब्री
ये बिखराव और ये सिमटन
दिल की आती जाती साँसों सी
धड़कन को भी सहला जाती

आँसुओं का दिल लरजता
उनकी अजस्र धारा बुझा न दे
पलकों के चमकते दिए
पलकें थमकती है कहीं
राह थम न जाए और
सूख न जाए नयन सरिता

आँसुओं का आना जाना
बयान करते दिलों का अफसाना
मन कभी सूफी बन उठाता इकतारा
कभी जल कर बन जाता परवाना
         .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 21 मई 2020

लघुकथा : झरती रेत

लघुकथा : झरती रेत

माँ के कमरे से परेशानहाल निकले भाई गगन को अकेले बैठे देखकर ,भाभी क्षितिजा को चाय लेकर आने के लिए कहती हुई वसुधा उसके पास आ गयी  ,"भाई कल तो मैं वापस चली ही जाऊँगी ,आओ आज हमलोग साथ में चाय पीते हैं । आज इतने परेशान क्यों हो ? माँ ठीक हैं ,थोड़ी कमजोरी है उनको ।"

वसुधा का हाथ थामते हुए गगन छोटे बच्चे सा अधीर हो उठा ,"वसु ! मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि करूँ तो क्या करूँ ... दिन - ब - दिन माँ और कमजोर ही होती जा रही हैं । "

"भाई ! कितनी भी कोशिश कर लो कुछ दिक्कतें तो रूप बदल - बदल कर ढ़लती उम्र की साथी बन ही जाती हैं । तुम तो पूरा ध्यान रख ही रहे हो और भाभी भी तो माँ को पलकों पर रखती हैं " ,वसुधा समझते हुए जैसे छोटी से बड़ी बहन बन गयी ।

गगन खुद को रोकते - रोकते भी फफक पड़ा ,"जीवन का सत्य जानता भी हूँ और मानता भी हूँ ,परन्तु क्या करूँ मैं ... जानती है वक़्त की मुट्ठी से झरती रेत को अपने ही घर मे झरते हुए नहीं देख पा रहा हूँ ।"
                               ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

गुरुवार, 14 मई 2020

पतझर ....

पतझर भी प्यारा है
इसने पत्तों को बुहारा है

पत्ते जो न तिनके बनते
घोंसले कैसे बनते होते

रूखेपन की ये भाषा है
अपनों को थामे रखा है

रूखे जो ये तिनके हैं
सब सिमटे सिमटे हैं

तिनके जुल्म सह जाते हैं
टीस दिलों में रख जाते हैं
           .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 13 मई 2020

निरख रहे धरती अरु अम्बर ....

निरख रहे धरती अरु अम्बर
सदा सुखी हों सजनी साजन

सूर्य किरण की डोली आये
नर्तन करती चपला सारी 
चटक धूप पायल बन गाये 
खनकी जायें बारी बारी         
पंछी करते मंगल गायन       
निरख रहे ...

ढ़लता सूरज लाली लाये   
चलो विदा की बेला आयी   
हिना लिये पवन चली आये   
कलियाँ आशिष वर्षा लायीं   
सदा रहे जीवन अति पावन
निरख रहे ...

रजनी स्वागत थाल सजाये   
तारों भरी चुनर ले आये       
आ जा अवनी तुझे बुलाये   
बीता जीवन भी भुलवाये   
गाये मन तेरा मधु सावन     
निरख रहे ....
 ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 12 मई 2020

लघुकथा : केंचुल


लघुकथा : केंचुल


  • कार्यक्रम की सफलता को उत्सवित करते बातों में व्यस्त सब का ध्यान अचानक से ही अन्विता की तरफ गया । वरिष्ठ अधिकारी के साथ आरामदेह सोफे पर बैठी ऑफ़िस मिनिट्स के बारे में बात करते - करते ,अचानक ही वहाँ से उठ कर कोने के स्टूल पर बैठने में  लड़खड़ा गयी थी ।

"क्या हुआ ... क्या हुआ ..." ,बोलते सब उसकी तरफ लपके ।

अन्विता धीरे से उठती हुई बोली ,"कुछ खास नहीं बस इंसान में बसे साँप की केंचुल उतरने का अनुभव कर लिया ।"
           .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 11 मई 2020

अम्बर बरसा आज नयन से .....


अम्बर बरसा आज नयन से
चिहुँक दामिनी इतराई !

मन बहका फूली अमराई
नयन बने हिय का दर्पण ।
ललित कलित बदली जब छाई
अयन क्या करूँ मैं अर्पण ।
घुमा केश की गुंथित वेणी
लहर पावनी मुस्काई ।
अम्बर बरसा आज नयन से
चिहुँक दामिनी इतराई !

गहन जलद छा गये चँहुओर
बिखर गयी हो जैसे अलकें ।
पात लजीले यूँ लहराये
बहक गयीं जैसे पलकें ।
सरिता सागर तट जा पहुँची
लहरें उमग जा समाई ।
अम्बर बरसा आज नयन से
चिहुँक दामिनी इतराई !
   ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 10 मई 2020

पैरोडी : कोई होता जिसको अपना ...



कोई होता जिसको अपना ,हम अपना कह लेते यारों
पास नहीं तो दूर ही होता ,लेकिन कोई सहायक होता ।

चाय बना कर जब मैं आती ,बर्तन चाय के वो धो जाता
बिखरी हुई हल्दी के दाग ,काश कोई आ कर के छुड़ाता
साफ - सफ़ाई कर के जाता ,महरी सम प्रिय मेरा होता
कोई होता ...

पौधों में पानी वो देता ,पौधे सूख नहीं फिर जाते
फूलों की खुशबू बस जाती ,डलिया ऐसे सजाता
खाद - दवा दे उनमें दे जाता ,कोई माली बन जाता
कोई होता ...

कपड़े भिगो जब मैं आती ,मुगड़ी चला वो धो जाता
धुले हुए कपड़े फैलाने ,बाल्टी लेकर छत पर जाता
धुले हुए कपड़े प्रेस कर जाता ,धोबी सम प्रिय मेरा होता
कोई होता ...
               ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 9 मई 2020

आपाधापी के दौर में ...

आज की इस आपाधापी के दौर में
कुछ यूँ रस्मे उल्फत चलो निभाते हैं

कुछ मैं करती हूँ कुछ तुम समेट लो
चलो कुछ यूँ अपने काम बाँट लेते हैं

नानाविध भोजन हम पका लाते हैं
बर्तनों की निगहबानी तुम कर लो

झाड़ू डस्टिंग तो हम कर ही आएंगे
पोछे की बाल्टी जानम तुम ले आओ

कहो तो सौंफ इलायची हम चख लेंगे
तुम तो बस वो सौंफ़दानी उठा लाओ

किधर चल दिये अब ऑफिस को तुम
जरा रुको लैपटॉप मैं ले कर आती हूँ

वक्त का पहिया चल पड़ा उल्टी चाल
दो से चार हुए अब चार से फिर दो हुए

ई सी जी के रिपोर्ट सी  देखती चेहरा
कभी कुछ शब्द भी तुम  लुटा जाओ

बीतती जा रही अनमोल ये ज़िंदगी
बाद में तुम भी याद कर पछताओगे

कितने लम्हों को थामे ये 'निवी' खड़ी
दो चार लम्हे तुम भी कभी खोज लाओ
       .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

रविवार, 3 मई 2020

कहानी : अनकहा दर्द

अनकहा दर्द

अन्विता जब भी अनिकेत को देखती ,बस देखती ही रह जाती । जैसे एक देवदूत हो ...एकदम मासूम । सुबह की पहली सूर्य-किरण की मीठी गर्माहट भरे ख्याल सा । जैसे तारों भरी रात के ढ़लते हुए पलों में किसी नन्ही सी कोमल कोंपल पर अपने ही विचारों के उद्रेक में थिरकती ओस की बूँद हो वह। खूबसूरती का कोई ऐसा अलग सा प्रतिमान नहीं था ,परन्तु उसका होना ही उस पल की सबसे खूबसूरत बात होती थी । उसकी गहरी नीली आँखें जैसे समंदर की गहराई संजोये हो .... ख़ामोशी में भी बोलती । जिस पर नजर पड़ जाये उसके दिलो दिमाग पर कब्जा कर लेती थीं ।

किसी से भी कुछ खास बात नहीं करता । जैसे बोलना टालता रहता हो । सबसे अलग ,अपने में ही गुमसुम सा रहता है । इतनी खामोशी, या कह लूँ कि शून्य में अपने आप को समाहित करके भी अपनी नामालूम सी उपस्थिति अनुभव करवा ही देता था । पढ़ाई हो या खेल ,संगीत हो या साहित्य हर क्षेत्र में अव्वल रहता है। वाद - विवाद प्रतियोगिता हो अथवा जैम जैसा खेल ,वह इतनी सहजता से हर तरह के विषय पर यूँ धाराप्रवाह बोलता ,वह भी भाषा और उच्चारण की शुद्धता के साथ कि सब मन्त्रमुग्ध से उसको ही सुनते रह जाते । उसकी खामोशी कभी भी घमण्ड का अनुभव नहीं होने देती थी । इसका कारण भी तो था ... किसी की भी जरूरत के समय वो सबके लिये उपलब्ध रहता था ।

अनजाने में ही उसकी सराहना करते - करते अन्विता ने उसको अपने दिल की धड़कन बना लिया । ये बावरा मन न जाने कितने सतरंगी सपने सजाने लगा है । कभी अग्नि के इर्दगिर्द फेरे लेने की कल्पना करता है ,तो कभी उसकी ही बाँहों में अंतिम साँस लेने की । परन्तु अनिकेत को जैसे अन्विता की भावनाओं की परवाह ही नहीं थी । अक्सर देखती कि जब बाकी के सब साथी ,अन्विता के साथ कि कामना में जैसे गणेश - परिक्रमा करते लालायित रहते कि उसकी कुछ सहायता कर के निगाहों में विशिष्ट स्थान पा लें ,अनिकेत एकदम खामोशी से विपरीत दिशा में चला जाता ।

आज जैसे ही अन्विता कक्षा से बाहर आई अनिकेत दिख गया । अपने में ही खोया हुआ सा ,इतना मासूम ... इतना पावन ... जैसे कोई नन्हा सा बादल राह भटक कर आ गया हो । अन्विता ने सोचा कि उससे बात करके इस तरह अनदेखा किये जाने का कारण पता कर ही ले और अनायास ही उसकी तरफ बढ़ चली ।

अनिकेत ने जैसे भाँप लिया हो कि अन्विता के उसकी तरफ बढ़ते हुए कदम कुछ अलग ही दृढ़ता लिये हुए हैं । वह एक झटके से लाइब्रेरी में जाकर बैठ गया । उसने अपने को जैसे एक सुरक्षित दायरे में कैद कर लिया । अब लाइब्रेरी में तो जो भी आएगा, वो बातें तो नहीं ही कर पायेगा । एक किताब खोल कर उसने खुद को उसमें डुबा दिया ।

कुछ ही पल बीते होंगे कि उस को लगा जैसे कोई उसके ठीक सामने ही बैठ गया हो । निगाहें उठा कर देखा तो सामने अन्विता मुस्कुराती बैठी थी । अनिकेत ने झटके से किताब बन्द की और लाइब्रेरी से बाहर निकल गया ,जैसे उसको कुछ जरूरी काम याद आ गया हो ।

अन्विता एक पल को तो हतप्रभ रह गयी । उसने खुद को सम्हाला और दृढनिश्चय के साथ उसके पीछे चल पड़ी । अनिकेत अब परेशान होने लगा कि आज अन्विता उसका इस तरह पीछा क्यों कर रही !

थोड़ी देर तो अटकता - ठिठकता सा चलता रहा, पर जब उसने देखा कि अन्विता भी पीछे - पीछे चली आ रही है । अपेक्षाकृत थोड़ी कम भीड़ वाली जगह पर उसके रुकते ही ,अन्विता एकदम से सामने आ गयी और सिसक सी पड़ी ,"अनिकेत मुझे मेरा कुसूर जानना है कि मैंने ऐसी कौन सी गलती कर दी है कि तुम मुझसे सामान्य सी बात भी नहीं करते हो ! बाकी सब के साथ तो तुम्हारा ऐसा व्यवहार नहीं रहता ... सबकी सहायता भी भरपूर करते हो ...जबकि मेरे साथ से ही जैसे बचते रहते हो ... अब मैं थक गई हूँ तुम्हारा पीछा करते - करते ,आज मुझे कारण जानना है । तुम यहाँ मेरे साथ बैठो और बातें करो मुझसे क्योंकि बिना तुम्हारा उत्तर सुने न तो मैं जाऊँगी और न ही तुमको जाने दूंगी ।"

अनिकेत का चेहरा पीड़ा से भर उठा और टालता सा बोला ,"नहीं ऐसी कोई बात नहीं है । तुमको गलतफहमी हुई होगी ।"

परन्तु आज जैसे अन्विता कुछ और सुनने को तैयार ही नहीं थी । उसने अनिकेत का हाथ पकड़ कर वहीं बेंच पर बैठा लिया और चुपचाप उसको देखती रही ।

कुछ पलों की चुप्पी के बाद जैसे अनिकेत ने कुछ निश्चय किया और अन्विता की तरफ देखता हुआ बोला ,"मैं अपनी जिंदगी के कड़वे सच के साथ ही अपनी अंतिम साँस तक चुप रहना चाहता था । किसी से भी अपना दर्द नहीं बाँटना चाहता । जानती हो क्यों ... क्योंकि मेरी पीड़ा .. मेरी विवशता को कोई नहीं समझेगा । हाँ सबकी निगाहों में उपहास का पात्र जरूर बन जाऊँगा । "

"तुम कहना क्या चाहते हो अनिकेत ",अन्विता उलझन में थी ।

"मेरे बारे में तुम क्या जानती हो ... सिर्फ इतना ही न कि मैं पढ़ने में अच्छा हूँ ... सबके साथ व्यवहार अच्छा करता हूँ ... जितना सम्भव हो सबकी सहायता करना चाहता हूँ ... हाँ ये भी सच है मेरे बारे में ... पर जानती हो सिर्फ यही नहीं है मेरा सच ... जिस पल तुम मेरा पूरा सच जान जाओगी ,जीवन में फिर कभी मुझको देखना भी नहीं चाहोगी ... मुझसे तुम इस तरह बचोगी जैसे मैं कोई छूत की बीमारी हूँ ... !"

लगातार इतना बोलने के बाद जैसे उसकी आवाज में थकान और बेबसी भर गई ,"तुमको क्या लगता है कि मैं तुम्हारी भावनाओं को नहीं समझता ... सब समझता हूँ ... पर कुछ कर नहीं सकता मैंने इतना लाचार खुद को कभी नहीं पाया ... खुद पर गुस्सा भी बहुत आता है मेरी परिस्थितियाँ ऐसी क्यों हैं ... रोज खुद से लड़ता हूँ और बहुत कोशिश करता हूँ तुमको अनदेखा करने का ... पर जानती हो ये करने में मैं खुद कितना टूटता जा रहा हूँ ... इस बिखराव का कारण जानना चाहोगी ... जिस पल मुझे तुम्हारी पहली झलक मिली थी, उसी पल से मैं तुमको बहुत पसन्द करने लगा हूँ ... देखो कितना डरता हूँ मैं अपनी परिस्थितियों से कि अभी भी नहीं कह पा रहा हूँ कि मैं तुमको प्यार करता हूँ ... इसका कारण सिर्फ यही है कि कोई भी मुझे अपनी नजरों से कितना भी गिरा ले ,पर मैं तुम्हारी नजरों में गिरना नहीं चाहता ... "

अन्विता की उलझन बढ़ती ही जा रही थी ," अनिकेत जब तुम मुझको इतना चाहते हो और तुमको तुम्हारे प्रति मेरी भी चाहत पता है ,फिर समस्या क्या है ?"

अनिकेत को जैसे किसी ने तप्त अंगारों पर डाल दिया हो ,वह छटपटा उठा ,"जानना चाहती हो क्यों ... क्योंकि मैं रेप - चाइल्ड हूँ ! "

वह बोलते हुए जैसे किसी अंधकूप में चला गया ," एक दिन कॉलेज से लौटते हुए मेरी माँ का कुछ लोगों ने अपहरण कर लिया था और जब उसको होश आया ,तब उसके सामने उसका ही साथी छात्र खड़ा था उसकी अस्मत को तार - तार करते हुए । इसका भी कारण जानना चाहोगी ... मेरी माँ ने उस सहपाठी के प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा दिया था , क्योंकि वो खूब पढ़ - लिख कर जिंदगी में कोई उच्च स्थान पाना चाहती थी ... ऐसा स्थान और सामर्थ्य जिससे वो सबका सहारा बन सके .... उस दिन उस नीच ने माँ को विवश कर अपनी मनमानी कर ली और अट्टहास करने लगा था कि अब तो माँ विवशता में उसकी बात मान कर विवाह कर लेगी ... और जानती हो माँ ने तब भी उसका तिरस्कार किया और अपने दिल में अपना गम छुपा अपनी शिक्षा पूरी करने में लग गयी । "

"कुछ दिनों में जब मेरे अस्तित्व में आने का आभास हुआ ,तब भी सब ने माँ को समझाया कि उसी से शादी कर लें क्योंकि वो नीच बार - बार अपने साथ माँ के विवाह का प्रस्ताव भेजता रहता था ... पर तब भी माँ ने सबकी सलाह को ठुकरा दिया और अपने घर से दूर जाकर अपनी शिक्षा पूरी की और मुझे जन्म भी दिया ... जब साथ के लोग मुझको रेप - चाइल्ड कहते और मैं रोता ,तब माँ ने मुझको हॉस्टल में रखा जहाँ से मैंने पढ़ाई की । अब माँ की तबियत खराब रहने लगी है ,इसीलिये मैं जबर्दस्ती माँ के पास ही रह कर यहाँ पढ़ाई कर रहा हूँ ... "

"अब मैं नहीं चाहता कि मेरी माँ पर कोई भी लांछन लगाए ,इसीलिये मैंने अपनेआप को तुमसे दूर रखने की कोशिश की ... मैं भी जानता हूँ कि कोई भी मुझसे कितना भी प्यार करे या मैं अपने जीवन में कितना भी सामर्थ्यवान हो जाऊँ मेरे जन्म का सच कभी नहीं बदलेगा । "

अन्विता स्तब्ध सी उसको देखती चुप बैठी रह गयी । अनिकेत पीड़ा में भी हँस पड़ा ,"देखा सच जानने के बाद तुम्हारा मेरे प्रति नजरिया बदल गया न ... अब तुम जल्दी से जल्दी यहाँ से भाग जाना चाहती हो न ... जाओ ,तुम भी चली जाओ ... परन्तु मेरे रेप - चाइल्ड होने से भी बड़ा सच ये है कि मैं अपनी माँ की तरफ उठती कोई उंगली सहन नहीं कर सकता ,इसीलिये मैं अकेला ही रहूँगा ।"

अन्विता ने अनिकेत का हाथ मजबूती से पकड़ लिया ,"इतना दर्द .. इतनी कड़वाहट अपने अंदर तुम छुपाये बैठे हो ... वो भी उस बात के लिये जिसमें तुम्हारी कोई गलती ही नहीं है ... जिसने हर तरह का विरोध और कष्ट सहा पर अपने निश्चय पर अडिग रहीं और तुमको भी इतने अच्छे संस्कार दिए .. सच ऐसी माँ की तो पूजा करनी ही चाहिए ... मुझे अपनी पसंद पर गर्व है जिसने इतने दृढमना व्यक्ति को चुना ... ।"

अनिकेत को उलझन में पड़ता देख अन्विता उसमें आत्मबल भरती सी बोल पड़ी ,"तुम्हारा रेप - चाइल्ड होना तुम्हारी गलती नहीं है । पर हाँ तुम्हारा इतना अच्छा होना जरूर माँ के दिये संस्कार हैं ... एक बात बताओगे ... क्या ये माँ मुझको मिल सकती है ... तुम्हारी जीवनसंगिनी बनना चाहती हूँ ,क्या मुझको तुम अपनाओगे ... मेरे परिवार में भी किसी को आपत्ति नहीं होगी इसका विश्वास मैं दिलाती हूँ !"

अनिकेत स्वप्नलिखित सा कहीं दूर क्षितिज में आकाश और धरा को एक दूसरे में समाहित होते देख रहा था ..... 
                                                                                                                ..... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'


गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

शीर्षक : मंज़िल मिल जाएगी


शीर्षक : मंज़िल मिल जाएगी

***
कैसे कह दूँ कि मैं परेशान नहीं हूँ ,
बिखरी सी राहों में पशेमान नहीं हूँ ।

उखड़ी सी साँसों से साँस भरती हैं ,
हाथों को नज़रों से थाम कहती हैं ।

जानेजां कर तू परस्तिश हौसलों की ,
इन्हीं राहों में हम फिर मिल चलेंगे ।

ज़िंदगी जिंदादिल वापस मुस्करायेगी ,
अपने होने का यूँ एहसास कराएगी ।

लरज़ते कदमों से ही तू चल तो सही ,
कह रही 'निवी' मंज़िल मिल जाएगी ।।
      .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

ख़्वाहिश और ख़्वाब

ख़्वाहिश और ख़्वाब

ये "ख्वाहिश" रही कि वो "ख़्वाब" ही न रह जाते
हर्फ़ दर हर्फ़ हक़ीकत बन यादे सहरा में बस जाते

मेरे ख़्वाब कभी यूँ  ख़्वाहिश तुम्हारी बन जाते
तुम ख़्वाहिश बन ख़्वाब में मेरे बसेरा बन जाते

ये खलल ये ख़लिश, यही तो इक याद है मेरी
परेशां न  होते तुम तो ये ख्वाब  कहाँ उमगते
                     .... निवेदिताश्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

लघुकथा : सैनिटाइज़

लघुकथा : सैनिटाइज़

वसुधा बहुत बेचैन थी । उसके शरीर पर जगह - जगह छाले उभर गये थे ,जिनसे उठने वाली टीस ,वसुधा के हलक से कराह बन कर सिसक उठती थी । जब वह अपने केशों को देखती ,तब वह बिलख उठती थी । उसके घने केशों को कैसे काट दिया गया था और सजावटी ब्रोच लगा दिए गए थे ,पर वो ब्रोच उसको चोट पहुँचाते खरोंच से भर देते थे । निर्मल नयन भी अपनी निर्मलता खो कर धूमिल हो चले थे ।

जब उससे पीड़ा नहीं सही गयी ,तब वो बिलख कर कातर स्वर में गगन को पुकार उठी ,"ओ मित्र ! मेरी इस पीड़ा को शमित करो न ।"

गगन व्यथित मन से बोल उठा ,"वसुधा ! तुम्हारी सहायता करने कोई और नहीं आएगा । तुम स्वावलम्बी बन अपना उपचार स्वयं करो । कभी करवट ले कर तो कभी गर्मी बढाकर सेंक लें कर । कभी छालों को ठण्डा करने के लिये शीतलहर भी बहाना होगा । देखना सब बेचैन हो कर तुमको कोसेंगे भी ,परन्तु तुम बिलकुल भी विचलित मत होना । "

वसुधा भी विचारमग्न हो कह पड़ी ,"हाँ ! मुझे प्रकृति को भी तो खुद को सैनिटाइज करना चाहिए  ... फिर कुछ तो  बैक्टीरिया छटपटाहट में मेरी भी पीड़ा समझ कर सम्हल जाएंगे ।"
                                            ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

लघुकथा : उम्र

लघुकथा : उम्र

कब से बैठी शून्य में ही टकटकी लगाए बैठी थीं वो । हर पल खिलती खिलखिलाती बातों  की फुहार सी हर कहीं  बरसने वाली बदली धुंध बनती जा रही हो जैसे ।

नन्हा गोलू गेंद खोजता हुआ उधर आ गया और उनको देख बोल पड़ा ,"दादी चलो न रेस लगाते हैं ,वैसे भी मेरी गेंद मिल ही नहीं रही ।"

"नहीं बेटा ,अब मैं रेस नहीं लगा पाऊँगी । दर्द बहुत हो रहा है ।"

"कहाँ दर्द है दादी ? चलो डॉक्टर के पास चलते हैं ।"

"नहीं गोलू ,अब मैं ठीक नहीं हो पाऊँगी । मेरे डॉक्टर को भगवान ने अपने पास बुला लिया है न । अब मैं बूढ़ी हो गयी हूँ ",कहती हुई वह एक हाथ घुटनों पर और दूसरा पीठ पर रख कर उठने का प्रयास करने लगीं ।

"दादी अभी जब हम घर से आये तब तक आप मुझसे रेस लगाती आयी हैं ,अचानक क्या हो गया ?  अरे हाँ आप फ़ोन पर किससे बात कर रही थीं ।"

"बेटा वो मेरे छोटे भाई का फ़ोन था ,वो मेरी माँ ....   " छलक आयी पलकों की नमी को सुखाती बोल पड़ी ,"बेटा  अब तो मैं बड़ी हो गयी हूँ ।"
                               ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

लघुकथा : प्यार

लघुकथा : प्यार

सहमी सी अनुभा घर में घुसते ही विदिशा से लिपट गई ,"माँ ! प्यार करना कोई बुरी बात होती है क्या ? नेहा को उसके घरवालों ने बाहर निकलने से मना कर दिया है कि वो किसी से प्यार करती है ।"

विदिशा ने उसको अपने पास बैठा लिया ,"बेटे ! सबसे पहली बात तो तुम ये समझ लो कि कोई भी बात या मनोभाव गलत नहीं होता ,गलत होती है उसके पीछे की नीयत ।"

"माँ ! मैं समझी नहीं ... "

"देखो हम इंसानों की क्या बात ,जिनको हम पूजते हैं ,वो देव भी प्रेम करते हैं । प्रेम की पराकाष्ठा है सीता का राम से प्रेम जिन्होंने कितने कष्ट सहे पर राम का साथ सदैव दिया ,विशेषकर विपरीत परिस्थितियों में । सहभागिता और साख्यभाव वाला प्रेम राधा कृष्ण का है । अपमान न सहन कर पाने पर जब सती  हवन कुंड में जल गयीं तब भोलेनाथ उनके अपमान पर क्रोधित होकर ताण्डव कर सम्पूर्ण सृष्टि का ही विनाश करने लगे थे ।"

"पर माँ !इसमें तो कुछ गलत है ही नहीं ... फिर नेहा को ..."

"सही कह रही हो बिट्टू ... ये प्रेम का विशुद्ध रूप है । कहीं कोई दुराव छुपाव नहीं है ,यदि है तो सिर्फ एक दूसरे के प्रति सम्मान । नेहा या किसी का भी प्रेम करना गलत नहीं है ,गलत सिर्फ यही है कि उसने छुपाने की कोशिश की । "

"माँ ! इसमें बताने जैसा क्या है ... "

"तुमलोगों ने अभी सिर्फ परिवार का निस्वार्थ प्रेम ही देखा है । दुनिया में धोखेबाजों की भी कमी नहीं ,जिनको तुम लोग सम्भवतः समझ नहीं पाओगे । यदि बड़ों को बता दोगे तो वो तुमको गलत व्यक्ति के झूठे प्रेम से बचा लेंगे ।"

"मैं समझी नहीं माँ ... "

"प्रेम का मूल तत्व समर्पण ,साख्य और सुरक्षा देती भावना है ,जब ये समझ जाओगी तब इससे खूबसूरत कुछ है ही नहीं ... ये समझते ही किसी बन्धन की कभी जरूरत ही नहीं रह जायेगी ।"
                  .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'