शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

अब चलूँ ....



अब चलूँ ......

थाम लिया था तुझे जब वक्त ने कहा अब चलूँ
छूटती उंगलियों की जुम्बिश से कहा अब चलूँ

बेरुखी दिख ही गयी उन अपनी सी आँखों मे
छलकती आँखों ने बिना बोले कहा अब चलूँ

महफ़िल सजी थी तेरे दर पर चन्द अपनों की
खामोश निगाहों ने भी बरबस कहा अब चलूँ

कहने को दुनियावी सरंजाम सजाए बहुत थे
दिलों के रीते पड़े से पैमाने ने कहा अब चलूँ

सुना था तेरे दिल के सागर में नमी बहुत है
सहरा से आ गयी दूरी ने भी कहा अब चलूँ

यादों की कश्ती तो बड़ी हंगामाखेज बही
जज़्बातों के सुराखों ने भी कहा अब चलूँ

सफ़र तेरे साथ का अभी बहुत रह गया बाकी
बातों में तेरी आ गई ख़लिश ने कहा अब चलूँ

तुमने जतलाया नहीं पर छुपाया भी तो नहीं
खुली पलक सब देख 'निवी' ने कहा अब चलूँ
                      .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

लघुकथा : बुके

लघुकथा : बुके

सखियों की मण्डली खिलखिलाती बातें करती लॉन में जमी थी । बातों का दौर न जाने कहाँ - कहाँ की सैर करता घर की तरफ मुड़ गया और अनायास ही एक - दूसरे की प्रशंसा और टिप्स लेने - देने का दौर चल निकला ।

शान्त सी बैठी निकिता की तरफ सब एकदम से ही घूम पड़ीं ,"सच घर रखने के तौर - तरीके तो तुमसे सीखने चाहिए । हर सामान अपने स्थान पर इतने व्यवस्थित रूप में रहता है कि आँखें बंद कर के और कदमों को गिन कर उठा लो । सच बता न इतनी अच्छी तरह से कैसे मैनेज कर लेती हो ।"

निकिता चुप चुप सी मन्द मुस्कान बिखेरती रही । सबके बार - बार पूछने पर बोल पड़ी ,"बिखेरनेवाले जो साथ नहीं हैं .... कोई बात नहीं अब जब मैं बस बाग नहीं सजा पाती हूँ तो ऐसे ही छोटे - छोटे लम्हों वाली पार्टी के बुके बना लेती हूँ ।"
      .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

उधार बाकी है ...

उधार बाकी है ...

ज़िन्दगी थोड़ी मोहलत मुझे दे दे
इस ज़िन्दगी का कुछ उधार बाकी है

नयन नम हो गए ,स्वप्न भी झर गये
नयनों में सपनों का उधार बाकी है

साँसें भी थक चली ,पग भी थम गये
मंजिल का उधार अभी बाकी है

*तन* तो मिट्टी हुआ भस्म यूँ बन गया
एक पेड़ का उधार अभी बाकी है
 ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

लघुकथा : रेत के कण

लघुकथा : रेत के कण

रेत के कण बार - बार उड़ कर आँखों मे पड़ रहे थे और उनसे बहती हुई अश्रुधार एक बहलावा सा दे रही थी कि अकेली बैठी अनघा आँसू नहीं बहा रही है बल्कि वो कण आँखों से पानी निकालने पर विवश कर रहे हैं ।

उधर से गुजरती बच्ची ने अनघा को रुमाल देते हुए कहा ,"आंटी आप आँख पोछ लो । ये रेत समुद्र के पानी से रोज ही भीगती है तब भी पता नहीं क्यों इतनी रूखी होती है कि आँखों में पड़ कर परेशान करती है । आप ऐसा करो न उस तरफ पीठ कर के बैठ जाओ । फिर आपकी आँखों मे रेत भी नहीं पड़ेगी और जिन लहरों में साहस होगा ऊँचा उठने का वो ही आप तक पहुँच पायेंगी  । "

अनघा उसको देखती रह गई । इतनी छोटी सी बच्ची उस की समस्या का समाधान कर गयी । भरे - पूरे परिवार को वो अपने स्नेह जल से सिंचित ही करती रही परन्तु उसके हिस्से में सबकी चुभती हुई ,रूखी बातों की चुभन ही आयी । शायद निरन्तर सबका ध्यान रखते - रखते अपना ध्यान रखवाना वो भूल ही गयी थी । अब जरूरत उधर से चेहरा फेरने की ही थी । जिसको उसकी जरूरत होगी वो उसके पास आयेगा ही ।

तभी फोन पर ट्रैवल एजेंट का नम्बर चमकने लगा । उसने फोन रिसीव किया ,"क्या निश्चय किया आपने ... महिलाओं वाले ट्रिप में अब सिर्फ एक ही सीट बची है । बाद में कुछ नहीं कर पाऊँगा ।"

अनघा एक सुकून की साँस लेती बोल पड़ी ," हाँ ! मैं चल रही हूँ । "
       ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

रविवार, 16 फ़रवरी 2020

लघुकथा : शिरोरेखा


लघुकथा : शिरोरेखा

माँ शिरोरेखा अपने अक्षर बच्चों को निहारती प्रमुदित हो रही थी ,अनायास ही उसका ध्यान गया कि कुछ बच्चे खुशी से थिरक रहे हैं ,वहीं उनके जुड़वाँ मन म्लान किये सिमटे हैं ।

"क्या हुआ बच्चों तुम इतने उदास क्यों हो रहे हो ... अपने बाकी के भाई बहनों के साथ खेलो न ... "

किसी भी उदास अक्षर से कोई भी प्रतिक्रिया न पाकर ,उसने फिर से उन अक्षरों को अपने आँचल में समेटना चाहा ,तब एक अक्षर सिसक पड़ा ...

"माँ ! हमारे बाकी के साथियों को उनकी गरिमा को समझने और प्यार करने वाली  वाणी का साथ मिला है इसलिये वो कभी भी अपशब्दों की कटुता को नहीं अनुभव कर पाते हैं और मासूम हैं ।"

तभी 'म' अक्षर बोल पड़ा ," देखों न माँ ! मुझसे ही तो कई शब्द बनते हैं ,अब जैसे आप को ही पुकारते हैं ,परन्तु हम जहाँ हैं वो इसके आगे शब्दों विकृत कर माँ के प्रति गाली बोलते हैं । हमारा मन चीत्कार कर उठता है ,परन्तु कर कुछ नहीं पाते ।"

'भ' भी बोल पड़ा ,"हाँ माँ ! देखो न मुझसे भगवान ,भगवती ,भार्या ,भगिनी जैसे विश्वास बाँधते शब्द बनते हैं ,पर जहाँ मैं हुँ उसने मुझे सिर्फ गाली बना रखा है ।"

शिरोरेखा सिसक पड़ी ,"हाँ ! बच्चों भाषा का अनुशासन सब भूल चले हैं ।"

एक पल बाद ही सारे शब्द और शिरोरेखा आत्मविश्वास से भर उठे ,"जो हमारी गरिमा का प्यार से निर्वहन नहीं करेगा ,उसके विचार कभी भी कालजयी नहीं होंगे और समय की लहरों में खो जाएंगे ।"
           .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

लघुकथा : मोच

लघुकथा :  मोच

विदिशा पार्क में बैठी विशाखा को खामोशी से बच्चों को खेलते देख रही थी । कितने दिनों के अथक प्रयास के बाद वह उसको घर की लक्ष्मणरेखा से निकाल कर यहाँ ला पाने में सफल हो पाई थी ।

"चल एक चक्कर लगाते हैं पार्क का ",विशाखा ने हाथ बढ़ाया ।

"नहीं चल पाऊँगी ... देख न कल पैर मुड़ गया था ,मोच आ गई है ।"

विदिशा ने टोटलती नजरों से विशाखा को देखते हुए उसकी दोनों बाँहें पकड़ झकझोर दिया ,"जानती है मोच तेरे पाँव में नहीं बल्कि तेरी सोच में आई है । कब तक इस तरह की बातों के पीछे छुपकर खुद को मरती रहेगी ! "

"काश मेरी विवशता तू समझ पाती ",विशाखा की पलकें भीग गयी ।

उम्मीदों के अनगिनत जुगनुओं की चमक से भर विदिशा ने विशाखा के झुकते चेहरे को उठाया ,"तू कोई विवश नहीं है ,बस सच को स्वीकार ही नहीं कर रही है । कितना भी चाह ले ,परन्तु अपनी आयु पूरी किये बिना तू मर भी नहीं सकती । एक बात और भी याद रख ... अगर इस मनःस्थिति में तू कोई कायराना कदम उठाती है तो यह अन्याय होगा तेरे नन्हे मासूम बच्चों पर । हमसफ़र के साथ के मुस्कराते लम्हों की यादों और इन नन्हे फरिश्तों की खिलखिलाती उम्मीदों से अपनी सोच पर बस गयी मोच को दूर कर ।"
              ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी'