गुरुवार, 30 मार्च 2023

लघुकथा : छलनी

 


छलनी

अधर अपनी बहकती साँसों को सम्हालता मुस्कुरा पड़ा,"अरे मित्र तुम तो अपने सही स्थान पर ही हो और मैं इतनी बातें सुन-सुन कर कब से परेशान हो रहा हूँ कि तुम्हारे साथ क्या अजूबा हो गया!"

कर्ण भी स्मित बिखेर उठा,"ऐसा भी क्या सुन लिया मित्र ... अच्छा ... अच्छा पहले स्वयं को स्थिर कर लो, तब इत्मीनान से बताना।"

अधर थिरक उठे,"मित्र ! मेरी निद्रा लोगों की फुसफुसाहट से टूटी कि दीवालों के कान होते हैं और मैं डर गया कि यदि यह सच हुआ तो तुमको कितनी परेशानी का सामना करना पड़ेगा ... अभी तो कभी केशों के पीछे जा कर, तो कभी हथेलियों की नन्ही सी गुफ़ा में छुप कर तुम अनजानी ठोकरों और तीखी आवाज़ों से बच जाते हो जबकि दीवाल पर तो कोई सुरक्षित ओट भी नहीं मिलेगी।"

कर्ण ठहाके लगाने लगा,"मेरे लिए परेशान मत होना मित्र ... वो सब उस प्रजाति के कर्ण की बातें कर रहे थे जो अपने साथ छलनी लिये रहते हैं और उनका ध्यान दूसरों की त्रुटियों एवं दूषण पर ही अधिक रहता है।"
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

गुरुवार, 16 मार्च 2023

चाहत एक पल की ...

 जब लक्ष्मण बेहोश थे और सूर्योदय के पहले संजीवनी चाहिए थी, उस पल की एक चाहत ...


हे सूर्य देव! हम तुम्हारे वंशज
आस लिए मन मे विश्वास लिए
तुमसे न उगने की आस करें

चमक तुम्हारी खनक तुम्हारी
मन को आज बड़ा डराएगी
कालिमा रात्रि की लुभायेगी
एक दिन तुम देर से आओ
निशा को कुछ पल और दो

तुम जो आ जाओगे गगन पर
सूर्य डूब जाएगा अयोध्या के
अनुपम सूर्यवंशी के वंश का

आ जाने दो पवनपुत्र को
बूटी संजीवनी की आस लिये
राह तके हम विश्वास लिए

अरिदल के मर्दन के लिए
सतयुग के स्थापन के लिए
जनकसुता को सम्मान दिलाने
सौमित्र को नवजीवन दो

उर्मिला की आस न रूठे
राम की प्रतिज्ञा न टूटे
तटबंध विश्वास का बचाओ

अहा वो दिखे हनुमत प्यारे
तर्जनी संजीवनी साध उठाये
अब चमको तुम पूर्ण तेज से

पिनाक की टंकार सुनाओ
सूर्यध्वज जग में लहराओ
आओ रवि दिग्दिगंत चमकाओ!

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

रविवार, 12 मार्च 2023

होली गीत ... भांग लयी थी घोंट

होली गीत

भांग लयी थी घोंट, सखियों होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!

मेवा मिठाई थाल सजाए
पान औ मिश्री रच रच बनाये
भोले को चढ़ाई भांग अब की होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!
भांग लयी ....

गुलाल अबीर में इत्र मिलाया
सांवरिया से दिल है लगाया
रंग भर लीनी पिचकारी अब की होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!
भांग लयी ....

रेशमी लहंगा मन न भाया
सतरंगी चूनर परे सरकाया
मृगछाल बनाई पोशाक अब की होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!
भांग लयी ....

भांग लयी थी घोंट, सखियों होली में
होली में हाँ सखियों टोली में!

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ


सोमवार, 6 मार्च 2023

पिया आए ... (होली लोकगीत)


वन वन खोजूँ, मैं रसिया बाग रे

पिया आए तो गाऊँ मैं फाग रे 

पिया आए तो गाऊँ मैं फाग रे!


अलबेली लगती तेरी नगरिया 

करमन की तो उलझी डगरिया

आशा की थामे इक गठरी 

भटक रही है एक गुजरिया

रच रच गाये मन के राग रे!

आये पिया ...


बरसे बदरिया जिया डर जाये

पवन झकोरा अँचरा उड़ाये

रात अँधेरी राह है धुँधली

सखी दियना जगाया बड़े अनुराग रे

मेरी किस्मत में लग न जाये दाग रे!

पिया आए ...


महावर की जो बेल बनाई

हाथन में मेहंदी है रचाई

सिमटी सकुचि जाए नथनिया

ईंगुर से भर लिया माँग रे

जागा जागा रे हमरा सुहाग रे!

पिया आए ...

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

हाइकु

मीठी है छूरी

कहते मठाधीश

बनते ईश।


विश्वास पाश

छलिया है प्रकृति

करती नाश।


सदा हँसता

कसौटी पे कसता

दम घुटता।


सुरसा आस

हो रहा सर्वनाश

अबूझ प्यास।


प्रश्नों के घेरे

लगाते हैं पहरे

टूटती आस।


स्वार्थी का स्वांग

दावानल की आग

छाता विराग।


#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी

#लखनऊ

सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

माला में मणियाँ



सामान्यतः किसी भी जाप को करने के लिये माला की आवश्यकता होती है। यह माला रुद्राक्ष की हो सकती है, तुलसी अथवा स्फ़टिक की भी। परन्तु रुद्राक्ष की माला अन्य मालाओं की अपेक्षा श्रेष्ठ होती है, क्योंकि इसमें कीटाणुनाशक शक्ति भी होती है। जप के लिये माला में मणियों की संख्या भी निर्धारित होती है। बिना मणियों की पूरी संख्या के जप नहीं किया जाता है। इसके लिये माला में मणियों की संख्या १०८ निर्धारित की गयी है, परन्तु यह जिज्ञासा भी होती है कि  मणियाँ १०८ ही क्यों ? कम या अधिक क्यों नहीं? इस विषय में धार्मिक ग्रन्थों में अनेक मत हैं।


योग चूडामडी में साँसों के आधार पर १०८ मणियों की संख्या निर्धारित की गयी है। हम २४ घंटों में २१,६०० बार साँस लेते हैं। १२ घंटे का समय अपनी दिनचर्या हेतु निर्धारित है और बाकी के १२ घंटे का समय देव आराधना हेतु। अर्थात १०,८०० साँसों में ईष्टदेव का स्मरण करना चाहिये, किन्तु  इतना समय दे पाना मुश्किल है। अत: अन्त के दो शून्य हटा कर शेष १०८ साँसों में प्रभु स्मरण का विधान बनाया गया है। इसी प्रकार मणियों की संख्या १०८ निर्धारित की गयी है। जप विधान में धीरे-धीरे जप करने का फ़ल सौ गुणा बताया गया  है। १०८ को सौ से गुणा करने से १०,८०० साँसों की निर्धारित संख्या पूरी हो जाती है। अत: माला के १०८ मणियों की संख्या निराधार नहीं है।

   एक अन्य मत के अनुसार हिन्दू धर्म को मानने वाले सूर्य उपासना करते हैं और अर्ध्य देते हैं। सूर्य के १२ भेद होते हैं, उन में बारहवाँ भेद है विष्णु। वह सूर्य ब्रह्म रूप होता है। ब्रह्म का अंक ९ है। इस प्रकार १२ अंक वाले सूर्य का ९ अंक वाले ब्रह्म के साथ गुणा करने पर १०८ संख्या होती है। सूर्यात्मक विष्णु का जप करने का विधान १०८ बार है। इसलिये माला में १०८ मणियों का निर्धारण उचित प्रतीत होता है ।


दूसरी विचारधारा के अनुसार माला में मणियों की संख्या का निर्धारण नक्षत्रों के आधार पर है। नक्षत्र २७ होते हैं और हर नक्षत्र के चार चरण होते हैं। इस प्रकार २७×४=१०८होता है। नक्षत्रों की माला जहाँ दोनो ओर से मिलती है वहाँ सुमेरु पर्वत है और जप माला में भी सुमेरु होता है। इस तरह माला में मणियों की संख्या १०८ सिद्ध होती है।


एक अन्य विचारधारा के अनुसार ... सॄष्टि  के रचयिता ब्रह्म हैं । यह एक शाश्वत सत्य है। उससे उत्पन्न अहंकार के दो गुण होते हैं, बुद्धि  के तीन, मन के चार, आकाश के पांच,  वायु के छ, अग्नि के सात, जल के आठ और पॄथ्वी के नौ गुण मनुस्मॄति में बताये गये हैं। प्रकृति से ही समस्त ब्रह्मांड और शरीर की सॄष्टि होती है। ब्रह्म की संख्या एक है जो माला मे सुमेरु की है। शेष प्रकॄति  के  २+३+४+५+६+७+८+९=४४ गुण हुये। जीव ब्रह्म की परा प्रकॄति  कही गयी है, इसके १० गुण हैं। इस प्रकार यह संख्या ५४ हो गयी , जो माला के मणियों की आधी संख्या है ,जो केवल उत्पत्ति की है। उत्पत्ति के विपरीत प्रलय / विनाश भी होता है, उसकी भी संख्या ५४ होती है। इस माला के मणियों की संख्या १०८ होती है । माला में सुमेरु ब्रह्म जीव की एकता दर्शाता है । ब्रह्म और जीव मे अंतर यही है कि ब्रह्म की संख्या एक है और जीव की दस ,इसमें शून्य माया का प्रतीक है, जब तक वह जीव के साथ है तब तक जीव बंधन में है। शून्य का लोप हो जाने से जीव ब्रह्ममय हो जाता है।


माला का यही उद्देश्य है कि जीव जब तक १०८ मणियों का विचार नहीं करता और कारण स्वरूप सुमेरु  तक नहीं पहुंचता तब तक वह इस १०८ में ही घूमता रहता है। जब सुमेरु रूप अपने वास्तविक स्वरूप की  पहचान प्राप्त कर लेता है तब वह १०८ से निवॄत्त हो जाता है अर्थात माला समाप्त हो जाती है। फ़िर सुमेरु को लांघा नहीं जाता बल्कि  उसे उलट कर फ़िर शुरु से १०८ का चक्र प्रारंभ किया जाता है।

#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी'

#लखनऊ

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

लघुकथा : ध्वज

 लघुकथा : ध्वज 

अन्विता ," माँ हम सैनिकों के ऊपर हम अपने राष्ट्रीय ध्वज को क्यों ओढ़ाते हैं । ऐसे तो ध्वज सबका हाथ लग कर गन्दा हो जाएगा । और आप तो कहती हैं कि ध्वज को हमेशा ऊँचा रखना चाहिये ,ऐसे तो वो नीचा हो गया न।"


 माँ ,"नहीं बेटा सैनिकों को ओढ़ाने से ध्वज गन्दा नहीं होता ,बल्कि उसकी चमक और सैनिकों की शान दोनों ही बढ़ जाती है । हमारा ध्वज सैनिकों का मनोबल ,उनके जीवन का उद्देश्य होता है । जब तक वो जीवित रहते हैं ऊँचाई पर लहराते ध्वज को और भी समुन्नत ऊँचाई पर ले जाने को प्रयासरत रहते हैं । परंतु जब उनका शरीर शांत होता है तब यही ध्वज माँ के आंचल सा उनको अपने में समेट कर दुलराता है।"  

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

शिवोहम शिवोहम ...

 लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन 

कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!

 

सुमिरूँ तुझको ओ अविनासी

दरस को तेरे अँखियाँ पियासी

पिनाकपाणी जपूँ मैं स्त्रोतम

आओ उमापति मिटाओ उदासी

झुकाए मस्तक करूँ मैं अर्चन!

लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन 

कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!


कामनाओं के बादल घनेरे

मुझको माया हर पल घेरे

वासना के जाल हटाओ

याचना करूँ लगा के फ़ेरे

लगाई आस बनूँ मैं कुन्दन!

लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन 

कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!


नन्दि सवारी सर्प हैं गहने

तेरी महिमा के क्या कहने

छवि अलौकिक नेह बरसे

त्रुटि बिसारो जो हुई अनजाने

कृपा करो हे सिंधुनन्दन!

लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन 

कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!

निवेदिता श्रीवास्तव निवी 

लखनऊ

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

लघुकथा : दूसरा दीया

लघुकथा : दूसरा दीया


दिवी दीप प्रज्ज्वलित करती हुई 'ॐ नमः शिवाय' गुनगुनाती जा रही थी। पास से गुजरते हुए अंकित ने हँसते हुए टोका,"क्या यार कभी तो भोलेनाथ को भी आराम करने दिया करो, जब देखो तब उनको पुकारती रहती हो ... चाय छानते हुए भी ॐ नमः शिवाय और छलक गयी बूँद को साफ़ करते हुए भी ॐ नमः शिवाय ... घर का ताला बन्द करना हो या खोलना ... यहाँ तक कि गेट की घण्टी बजने पर भी, आनेवाले का नाम पूछने या अपने पहुँचने के लिए "आ रही हूँ"  बोलने की जगह भी ॐ नमः शिवाय ही बोलती हो। तुम उनको पुकारोगी नहीं तो क्या वो तुमको देखेंगे नहीं या ध्यान नहीं रखेंगे!"


दिवी की उपस्थिति में जैसे एक दिव्यता खिल गयी,"तुम सब सुन सको सिर्फ़ उतना ही नहीं, मेरी तो साँसों में भी भोलेनाथ की ही अरदास चलती है ... मेरी जाती हुई साँस भी आनेवाली साँस को ॐ नमः शिवाय ही बोल कर स्थान देती है। ऐसा नहीं है कि मेरी पुकार पर ही वो आएंगे, वो तो सदैव हम सभी के साथ हैं, बस हमारे नाम जाप करने से मन भी सात्विक रहता है जैसे एक दिये के नीचे का अंधेरा मिटाना हो तो उसके पास दूसरा दिया रख दो, दोनों के नीचे से कालिमा भाग जाती है ... बस ॐ नमः शिवाय यही दूसरा दिया हैं!" 

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

गुरुवार, 26 जनवरी 2023

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

 


सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत, जिला मेदिनीपुर में पंडित रामसहाय तिवारी जी के घर २१ फ़रवरी, सन् १८९९ में बसन्त पंचमी तिथि पर हुआ था। १९३० से इसी तिथि पर आपका जन्मदिन मनाया जाने लगा।

निराला जी की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरू हुई थी। कालान्तर में वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेज़ी और संस्कृत भाषा में निपुण हो गए थे। आप की रुचि घूमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लड़ने इत्यादि में भी थी। संगीत में आप की विशेष रुचि थी।

अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग आपने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। निराला जी हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। कविता के अतिरिक्त कथासाहित्य तथा गद्य की अन्य विधाओं में भी निराला जी ने प्रचुर मात्रा में लिखा है ।अनामिका, गीत कुंज, सांध्य काकली, अपरा इत्यादि आपकी मुख्य प्रकाशित #काव्य_कृतियाँ हैं। अप्सरा, अलका, प्रभावती, निरुपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा इत्यादि आपकी मुख्य प्रकाशित #उपन्यास हैं। लिली, सखी, सुकुल की बीवी इत्यादि आपकी मुख्य प्रकाशित #कहानी_संग्रह हैं। इसके अतिरिक्त निराला जी ने निबन्ध आलोचना, पुराण कथा, बालोपयोगी साहित्य भी लिखे हैं।

'निराला रचनावली' नाम से ८ खण्डों में आपकी पूर्व प्रकाशित एवं अप्रकाशित सम्पूर्ण रचनाओं का सुनियोजित प्रकाशन भी हुआ है।

ऐसी विशिष्ट लेखनी के धनी, यशस्वी रचनाकार एवं हिन्दी कविता के छायावादी युग के प्रमुख स्तंभ आ. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी शत-शत नमन 🙏

सोमवार, 23 जनवरी 2023

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

प्रत्येक भारतवासी की रगों में बहते लहू को जोश से भरने वाले बहुश्रुत नारे 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगी'  के जनक, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म, २३ जनवरी १८९७ में ओडिशा के कटक में, श्री जानकीनाथ बोस और श्रीमती प्रभावती देवी के परिवार में हुआ था। आप बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे और कालान्तर में इंग्लैंड की क्रैंब्रिज यूनिवर्सिटी से सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास की। १९२१ में अंग्रेजों द्वारा भारत में किए जाने वाले शोषण के बारे में ज्ञात होने पर, भारत को आजाद कराने का प्रण ले कर, इंग्लैंड में प्रशासनिक सेवा की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ अपने देश वापस आ कर आजादी की मुहिम में प्राणपण से जुट गए।

वर्ष १९४३ में बर्लिन में सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिंद रेडियो और फ्री इंडिया सेंट्रल की स्थापना की। भारत की आज़ादी के लिए प्रयास करने के लिए भगतसिंह के उत्कट जोश और गांधी जी के अहिंसाके सिद्धांत का सन्तुलन साधते हुए, मध्यम मार्ग को अपनाया था। आपने'आज़ाद हिंद फ़ौज' की स्थापना की और उसमें स्त्रियों को भी सम्मानित सहभागिता देते हुए 'झाँसी की रानी' रेजिमेंट भी बनाई।

सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु आज तक रहस्य बनी हुई है। आज तक उनकी मृत्यु से पर्दा नहीं उठ सका, बस कई चर्चाएँ उठती और मिटती रहीं। १९४५ में जापान जाते समय सुभाष चंद्र बोस का विमान ताईवान में क्रेश हो गया था, परन्तु उनका शव नहीं मिला था। बहुत समय तक एक चर्चा यह भी हुई कि नेता जी ने अपने जीवन का अन्तिम समय गुमनामी बाबा के रूप में गुमनाम जीवन जीया।

सुभाष चन्द्र बोस जी की जयन्ती को 'पराक्रम दिवस' के रूप में मनाया जाता है। आज नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती के अवसर पर आपकी कही हुई और जोश जगाती, हम सभी की प्रिय उक्तियों को याद कर के हम अपने श्रध्दा सुमन अर्पित करते हैं ...

१ : "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।"

२ : "यह हमारा कर्तव्य है, कि हम अपनी आजादी की कीमत अपने खून से चुकाएं।"

३ : "एक व्यक्ति एक विचार के लिए मर सकता है, लेकिन वह विचार, उसकी मृत्यु के बाद, एक हजार जन्मों में फिर से जन्म लेगा।"

४ : "आज़ादी दी नहीं जाती, छीनी जाती है।"

५ : "अगर कभी झुकने की नौबत आ जाए, तब भी वीरों की तरह झुकना।"

६: "अगर जीवन में संघर्ष न रहे, किसी भी भय का सामना न करना पड़े, तो जीवन का आधा स्वाद ही समाप्त हो जाता है।"

७ : “सफलता दूर हो सकती है, लेकिन वह मिलती जरूर है।”

८ : “सफलता हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी होती है, इसलिए किसी को भी असफलता से घबराना नहीं चाहिए।"

९ : "सबसे बड़ा अपराध, अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है।"

ऐसे जोशीले जज़्बात रखने और जगाने वाले वीर सेनानी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिवस पर शत-शत नमन 🙏💐💐
निवेदिता श्रीवास्तव निवी
लखनऊ

शनिवार, 14 जनवरी 2023

कैफ़ी आज़मी

 कैफ़ी आज़मी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले में १९ जनवरी, १९१९ को हुआ था। कैफ़ी आज़मी के परिवार में उनकी पत्नी शौकत आज़मी, इनकी दो संतान शबाना आज़मी और बाबा आज़मी हैं।


कैफ़ी आज़मी ने लखनऊ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई और उर्दू, अरबी और फ़ारसी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया।

कैफ़ी आज़मी में नैसर्गिक काव्य प्रतिभा थी। छोटी उम्र में ही वे शायरी करने लगे थे। यद्यपि उनकी आरंभिक रचनाओं में प्रेम-भावना प्रधान होती थी, किंतु शीघ्र ही उसमें प्रगतिशील विचारों का प्राधान्य हो गया। राजनीतिक दृष्टि से वे कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे और उन के पेपर 'कौमी जंग' में लिखते थे ।
कालांतर में फिल्मों में भी गीत लिखने लगे थे। फिल्मों में कैफ़ी आज़मी ने पहला गीत लिखा था 'रोते-रोते बदल गई रात'।
‘गरम हवा’ फ़िल्म की कहानी, पटकथा, संवाद कैफ़ी आजमी ने लिखे। इस फ़िल्म के लिए कैफ़ी आजमी को पटकथा, संवाद और बेस्ट फ़िल्म के तीन फ़िल्मफेयर अवार्ड के साथ ही राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। इसके अतिरिक्त भी कई अच्छी फिल्में आयीं थीं।

कैफ़ी आज़मी ने आधुनिक उर्दू शायरी में अपना एक ख़ास स्थान बनाया। कैफ़ी आज़मी की नज़्मों और ग़ज़लों के चार संग्रह प्रकाशित हुए हैं ... झंकार, आखिरे-शब,आवारा सिजदे, इब्लीस की मजिलसे शूरा।

कैफ़ी आज़मी बहुआयामी प्रतिभा से संपन्न थे। शायर, गद्यकार , नाटककार, फ़िल्मकार के साथ ही साथ कैफ़ी मज़दूर सभा, ट्रेड यूनियन में काम करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी के एक कुशल संगठनकर्ता थे। 

कैफ़ी आज़मी को अपनी विभिन्न प्रकार की रचनाओं के लिये कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं ...  साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ वार्ता फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार।

फ़िल्मजगत के मशहूर उर्दू के शायर कैफ़ी आज़मी का निधन १० मई, २००२ को दिल का दौरा पड़ने के कारण मुम्बई में हुआ।
ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सहकर कलमकार को शत-शत नमन 🙏
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

लेखन का आधार : भाव अथवा विधा



हाथों में लेखनी थामते और सीधी-टेढ़ी लकीरें खींचते हुए अनजाने में ही कभी पशु-पक्षी बन जाता है तो कभी कोई अक्षर ... उसके बाद इन अक्षरों को जोड़-जोड़ कर लिखने का क्रम शुरू हो जाता है। विचारों में परिपक्वता आते-आते विभिन्न विषयों पर लिखते-लिखते लेखनी सहज गति पा लेती है, तब दूसरों के लिखे हुए को पढ़ कर और सृजन के लालित्य से प्रभावित हो कर ही हम विविध विधाओं की तरफ़ आकर्षित हो कर सीखना शुरू करते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में विधा साधने के प्रयास में भाव कहीं दूसरी तरफ़ जाने लगते हैं और विधा का भाव से संतुलन साधना सुमेरु पर्वत लगता है, परन्तु अभ्यास करते रहने से यह संतुलन सध जाता है।

जहाँ तक लेखन का मूल तत्व विधा है अथवा भाव की बात है तो मेरे विचार से भाव को पकड़ कर ही विधा को साधना चाहिए। यदि भाव नहीं होगा तो सिर्फ़ विधा आधारित लेखन नीरस हो जायेगा।

यह सत्य स्वीकार करते हुए भी एक इससे भी बड़े सत्य को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हम जो कुछ भी लिखते हैं, जाने-अनजाने में किसी न किसी विधा के निकट ही होता है, आंशिक परिवर्तन के साथ ही वह उस विधा के ढाँचे में पूरी तरह समा जाता है। इसको मैंने स्वयं अनुभव किया है ... एक गीत लिखा था जिसपर मेरी मित्र की निगाह पड़ी और उन्होंने तुरन्त फ़ोन किया कि वह तो सरसी छन्द के बहुत निकट है। फिर हमने एकाध शब्दों के स्थान में आंशिक परिवर्तन किया और मेरे पास एक छन्द तैयार हो गया ... बाद में मैंने फिर आंशिक परिवर्तन किया और उसको दोहा गीतिका में परिवर्तित किया।

मैं अभी भी अपनी लेखनी को, छन्दों में बहुत कच्ची मानती हूँ, इसलिए लिखने का एक अलग तरीका अपना रखा है। कोई भाव उमगने पर, मैं उसको उमड़ती नदिया सी, मनचाही दिशा में बहने देते हुए, लिख लेती हूँ, फिर सोचती हूँ कि लिखा क्या है और किस विधा / छन्द के निकट पहुँच गयी हूँ। जैसा समझ आता है, उसके अनुसार पुनः उस सृजन को तराशती हूँ।

अन्त में यही कहना चाहूँगी कि भाव का ध्यान रखते हुए विधा को भी अवश्य साधना चाहिए ... बहुत नहीं तो किसी एक विधा को तो उर में बैठा ही लेना चाहिए।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

गुरुवार, 12 जनवरी 2023

स्वामी विवेकानंद जी

 स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म १२ जनवरी को कोलकाता में हुआ था। उनका पूरा नरेन्द्र नाथ विश्वनाथ दत्त था । उनके पिता का नाम श्री विश्वनाथ दत्त एवं माता का नाम श्रीमती भुवनेश्वरी देवी था। ये 9 भाई बहन थे। स्वामी विवेकानन्द जी को घर में सभी नरेंद्र पुकारते थे।अपने माता पिता की अच्छी परवरिश और संस्कारों के फलस्वरूप ही अपने जीवन में उच्च कोटी की सोच मिली।


१८८४ में उन्होंने कला विषय से ग्रेजुएशन की डिग्री ली और फिर उन्होंने वकालत की पढ़ाई की।स्वामी विवेकानंद जी की दर्शन, धर्म, इतिहास और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों में काफी रुचि थी इसी कारण वे इन विषयो को बहुत उत्साह के साथ पढ़ते थे यही वजह थी कि वे ग्रंथ और शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता भी थे।

स्वामी विवेकानंद जी ने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया था और उन्हीं के बताए मार्ग पर चलते थे। राम कृष्ण परमहंस जी की मृत्यु के बाद विवेकानन्द जी ने वरहानगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की, बाद में जिसको 'राम कृष्ण मठ' का नाम दिया गया।

२५ साल की उम्र में ही उन्होंने सन्यासी धर्म स्वीकार कर के गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया था और भारत की पैदल यात्रा पर निकल पड़े थे, जिसमें आगरा,अयोध्या, वाराणसी, वृंदावन, अलवर समेत कई जगहों पर गए। यात्रा के दौरान उन्हें जातिगत भेदभाव जैसी कुरीतियों का पता चला उन्होंने उन्हे मिटाने की कोशिश भी की।

४ जुलाई, १९०२ को ३९ वर्ष की उम्र में ही स्वामी विवेकानंद जी ने महा-समाधि ली थी।
ऐसी महान विभूति को श्रध्दा सुमन अर्पित करती हूँ 🙏
निवेदिता श्रीवास्तव निवी
लखनऊ

शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

यात्रा ...

 जीवन, मानव का हो अथवा प्रकृति का या फिर वनस्पति का, एक अनन्त यात्रा ही होती है। एक बिन्दु से प्रारम्भ हो कर मिट्टी में अथवा जल में समाहित हो कर बारम्बार प्रस्फुटित होता ही रहता है जीवन। पंचतत्वों से बना यह शरीर अपने एक जीवन की पूर्णता के बाद पुनः उन्हीं पंचतत्वों को उनका अंश दे देता है और फिर उन्हीं से वापस ले कर, अपना दूसरा, तीसरा जीवन चक्र पूरा करता है। यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह यात्रा स्थूल शरीर की अनवरत चलने वाली यात्रा है।


जन्म एवं पुनर्जन्म की यात्रा को भी कुछ लोग नहीं मानते हैं, तो कुछ मुक्ति अथवा मोक्ष की बात करते हैं। यहाँ एक बिन्दु विचारणीय है कि यदि जन्म एवं पुनर्जन्म को नहीं मानें, तब जन्म अथवा जीवन की अवधारणा कैसे होगी ... किसी एकदम ही अनजान को देख कर मन अनायास ही उसके प्रति नेह से भर बंध जाता है तो किसी को देख कर वितृष्णा जग जाती है। इस व्यवहार का कारण मुझको तो उससे पूर्वजन्म के अनुभव / सम्बंध ही लगते हैं। तथाकथित मोक्ष भी उस व्यक्ति को बन्धनमुक्त नहीं कर सकता क्योंकि वो बहुत से लोगों की अच्छी और बुरी दोनों ही आदतों के रूप में यादों में जीवित रह कर यात्रा करता ही रहता है।

व्यक्ति की एक यात्रा आध्यात्मिक भी होती है। पूर्वजन्मों के संचित कर्म के अनुसार ही, जन्म के समय परिवेश मिलता है। वर्तमान जीवन के परिवेश एवं पूर्वजन्मों के संस्कार ही हमारे कर्मों को संचियमान कर्मो में परिवर्तित करते हुए, प्रारब्ध निश्चित करते हैं। इस यात्रा में भटकाव भी बहुत है, उलझाते हुए प्रश्न भी हैं, परन्तु परमसत्ता के प्रति समर्पण ही गंतव्य तक पहुँचा देता है। सम्भवतः मेरी भी आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ हो गयी है ... भोलेनाथ के प्रति समर्पण भाव मुझको प्रत्येक व्यक्ति एवं परिस्थिति में शिव का ही आभास देता है।

एक और भी यात्रा है जिसके ज़िक्र के बिना इस विषय पर बात पूर्ण नहीं हो पायेगी। यह यात्रा ऐसी यात्रा है जिसमें कोई भी न तो अपनी तैयारी कर पाता है और न ही देख पाता है ... यह यात्रा है अन्तिम यात्रा ! साँसों के ताने बाने की माला के टूटते ही पंचतत्वों की गुनिया बिखर जाती है, परन्तु उसको उन मूल तत्वों तक वापस पहुँचाने के लिए यह यात्रा अनिवार्य हो जाती है। जाने वाला व्यक्ति किस विचारधारा का था यह सोचे बिना अपनी सुविधानुसार विविध कर्मकाण्डों का पालन करते हुए उसकी इस अन्तिम यात्रा को भी सम्पन्न करवाते हैं।

अन्त में यही कहना चाहूँगी कि यात्रा कोई सी भी हो, कैसी भी हो सदैव समभाव रखना और रहना चाहिए ... सबसे आवश्यक बात यह है कि यात्रा के लिए अपने कर्मों की गठरी का आकलन करते हुए, उसको संतुलन की धूप और हवा दिखाते रहना चाहिए। मोक्ष मिले अथवा न मिले पर किसी की यादों के गलियारे में कसैलेपन के आभास रूप बसेरा नहीं करना चाहिए ... इसके लिए आवश्यक है कि अंतरमन की यात्रा करते रहना चाहिए।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

गुरुवार, 5 जनवरी 2023

बाल गीत : साल नया नया है आया



साल नया नया है आया

खुशियाँ भी अनगिन लाया।


चुन्नू मुन्नू ने खोली बाँहे

सज्ज हुई सबकी राहें।


नई रागिनी नया तूर्य

कोहरे से झाँके है सूर्य।


तीन सौ पैंसठ साल के दिन

सज्ज आशाएँ अनगिन।


असफलता कभी जो आयें

सद्प्रयास से उन्हें भगायें।


कोहरे के जब छाये बादल

ठण्ड से सब हुए हैं पागल।


चुन्नू मुन्नू जी ने छोड़ा बिस्तर

दादू ठण्ड पर चलाओ नश्तर।

#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी 

#लखनऊ

बुधवार, 4 जनवरी 2023

आदरणीय गोपालदास नीरज जी जन्मदिन मुबारक !!!

 हिंदी साहित्य के जाने माने कवि गोपाल दास नीरज जी का जन्म ४ जनवरी १९२५ को हुआ था।

आपने हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया और मेरठ कॉलेज, मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया। कुछ समय पश्चात नीरज जी ने उस स्थान को छोड़ दिया और अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक बन गये।

कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता मिलने के बाद फिल्म जगत में गीत लिखने का निमन्त्रण मिला और पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे 'कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे' और 'देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा' बेहद लोकप्रिय हुए और वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला कई वर्षों तक जारी रहा।

आपकी लेखन शैली भी अद्भुत थी । कहीं एकदम सीधे-सादे ढंग से अपनी बात कह दी परन्तु माधुर्य भाव कभी कम नहीं लगा, तो कहीं शब्दों द्वारा चित्र ही उकेर दिया।
आप के सृजन में जीवन के निटकतम प्रतीक बहुत ही सहजता से मुखर हो उठे।

नीरज जी की कई कृतियाँ प्रकाशित कृतियाँ हुई हैं।संघर्ष आपकी पहली प्रकाशित कृति है। कारवाँ गुजर गया , फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिये, नीरज की गीतिकाएँ मेरी पसन्दीदा कृतियाँ हैं।

नीरज जी को पद्म श्री सम्मान, यश भारती, पद्म भूषण इत्यादि कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए हैं। फ़िल्म जगत में भी सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया।

ऐसी सशक्त एवं कोमलमना लेखनी से समृद्ध, आदरणीय गोपालदास नीरज जी को, उनके जन्मदिवस पर बहुत आदर से नमन करती हूँ 🙏
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

सोमवार, 2 जनवरी 2023

लघुकथा : बंजर

 लघुकथा : बंजर

लहराती इठलाती हुई सरिता अपने उद्गम से मदमाती गति में प्रवहमान स्मित बरसाती चली जा रही थी। अब उसको अपना प्रवाह मंद से, मंथर गति में परिवर्तित होता लगने लगा था। बीच-बीच में वह कनखियों से भाँपने का भी प्रयास करती थी कि किसी को उसके उद्गम स्रोत का पता तो नहीं चल गया है!

अपने प्रबल आवेग में बहती हुई, किनारे बसे तटों को देखती और उनकी हरीतिमा को अपनी ही उपलब्धि मान उच्च स्वर में अट्टहास करती। वह मार्ग के अवरोधों को युक्तियों से हटाती हुई, अपने ही एक किनारे को व्यर्थ मानती हुई, दूसरे किनारे की तरफ़ बढ़ती गयी। वो नादान भूले बैठी थी कि निःसन्देह किनारा बदल दिया हो उसने, परन्तु रूप बदल कर दूसरा किनारा, उसकी सीमा दिखाता सा साथ ही चल रहा था।

बदलती परिस्थितियों के फलस्वरूप वह किनारा, जिसको श्रेष्ठ मान वह मुड़ती जा रही थी, भी उसकी शोर मचाती लहरों में दम घुटता सा अनुभव करता, ऊब कर उसकी तरफ़ बाँध बनाने लगा था। बाँध की मजबूती और ऊँचाई का अनुमान नहीं लगा पाने के फलस्वरूप कुछ समय तो वह अकारण ही उस पर अपनी लहरों  से दस्तक देती रही। अनसुना रह जाने पर उसने छूटे हुए किनारे को वापस पकड़ना चाहा, परन्तु अब उस किनारे और सरिता की लहरों के बीच रुक्ष पड़े वीरान तट की दूरी आ गयी थी ... वह तट अपने दामन में पनप आये दलदल पर अपना अस्तित्व बनाने के लिए प्रयासरत था और सरिता कुछ अपने में ही सिमटती हुई नये किनारे की तलाश में आगे बहने का प्रयास कर रही थी।
सच! ये अवहेलना की बढ़ती दूरियाँ भी उर्वरा को बंजर कर देती हैं और उफ़नती लहरों को शुष्क!
#निवेदिता_श्रीवास्तव_निवी
#लखनऊ