शनिवार, 14 जनवरी 2023

लेखन का आधार : भाव अथवा विधा



हाथों में लेखनी थामते और सीधी-टेढ़ी लकीरें खींचते हुए अनजाने में ही कभी पशु-पक्षी बन जाता है तो कभी कोई अक्षर ... उसके बाद इन अक्षरों को जोड़-जोड़ कर लिखने का क्रम शुरू हो जाता है। विचारों में परिपक्वता आते-आते विभिन्न विषयों पर लिखते-लिखते लेखनी सहज गति पा लेती है, तब दूसरों के लिखे हुए को पढ़ कर और सृजन के लालित्य से प्रभावित हो कर ही हम विविध विधाओं की तरफ़ आकर्षित हो कर सीखना शुरू करते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में विधा साधने के प्रयास में भाव कहीं दूसरी तरफ़ जाने लगते हैं और विधा का भाव से संतुलन साधना सुमेरु पर्वत लगता है, परन्तु अभ्यास करते रहने से यह संतुलन सध जाता है।

जहाँ तक लेखन का मूल तत्व विधा है अथवा भाव की बात है तो मेरे विचार से भाव को पकड़ कर ही विधा को साधना चाहिए। यदि भाव नहीं होगा तो सिर्फ़ विधा आधारित लेखन नीरस हो जायेगा।

यह सत्य स्वीकार करते हुए भी एक इससे भी बड़े सत्य को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि हम जो कुछ भी लिखते हैं, जाने-अनजाने में किसी न किसी विधा के निकट ही होता है, आंशिक परिवर्तन के साथ ही वह उस विधा के ढाँचे में पूरी तरह समा जाता है। इसको मैंने स्वयं अनुभव किया है ... एक गीत लिखा था जिसपर मेरी मित्र की निगाह पड़ी और उन्होंने तुरन्त फ़ोन किया कि वह तो सरसी छन्द के बहुत निकट है। फिर हमने एकाध शब्दों के स्थान में आंशिक परिवर्तन किया और मेरे पास एक छन्द तैयार हो गया ... बाद में मैंने फिर आंशिक परिवर्तन किया और उसको दोहा गीतिका में परिवर्तित किया।

मैं अभी भी अपनी लेखनी को, छन्दों में बहुत कच्ची मानती हूँ, इसलिए लिखने का एक अलग तरीका अपना रखा है। कोई भाव उमगने पर, मैं उसको उमड़ती नदिया सी, मनचाही दिशा में बहने देते हुए, लिख लेती हूँ, फिर सोचती हूँ कि लिखा क्या है और किस विधा / छन्द के निकट पहुँच गयी हूँ। जैसा समझ आता है, उसके अनुसार पुनः उस सृजन को तराशती हूँ।

अन्त में यही कहना चाहूँगी कि भाव का ध्यान रखते हुए विधा को भी अवश्य साधना चाहिए ... बहुत नहीं तो किसी एक विधा को तो उर में बैठा ही लेना चाहिए।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

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