गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

हां आज ही कर दूंगी ..........


ओ मेरे ?
व्यथित मन !
अब बस ,
आज ......
हाँ ! आज ही 
कर दूंगी 
तेरी विदाई ..........
यादों से भी ,
वादों से भी ...
अश्रुओं की 
वेणी बनाऊं ,
वेदना का 
पलना............
श्वांसों का 
चंवर डोलाऊं,
भीगे मन की 
अमृत-वर्षा !
देखा !
कर ली 
मैंने भी 
सारी तैयारी ....
तुझ से !
विलग ........
हो जाने की ..
बढ़े क़दमों को 
मंजिल मिले ,
या 
वृहत शून्य .............
                   -निवेदिता 


मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

बन गयी मैं कॄष्णमयी ..........


आज सोचा .......
अब तो जाऊँ 
अपने कान्हा के द्वारे 
वो भूला ही बैठा 
ना ना रूठा नहीं .... 
तेरे द्वारे आऊँ तो 
कान्हा क्या लाऊँ ?
मैं सुदामा नहीं 
कैसे तंदुल से 
काम चलाऊँ ......
लाऊँ भी तो 
उस सा भाव कहाँ पाऊँ !
कान्हा !
और किसी को 
कुछ न कहना 
ये तो राज़ है 
बस तेरा-मेरा 
जाती हूँ मधुबन को 
कुछ मोरपंख चुन लाती हूँ 
ला कर तेरे केश सवारूँ .....

ना कान्हा ऐसा क्या स्वार्थ 
पंख को मोर से अलग करूँ
तेरे लिए !
जो सबको मिलाता....
तेरे लिए वैजयन्ती बन जाती हूँ 
प्यार की महावर रचाती हूँ 
तेरी बंसी में सुर भरती हूँ
अरे ! ये क्या कान्हा 
तू तो बिलकुल न बदला 
मैं सपने चुनती रही 
निर्मोही ! तू राधा संग 
झूले की पेंग बढ़ाता रहा 

जा मै न लाऊँ कुछ तेरे लिए  
अब खोज ज़रा मुझको 
मैं तो झूला बन तेरे संग 
लहराती -बलखाती हूँ 
बन गयी न तेरे जैसी  कृष्णमयी  .......
                                -निवेदिता 

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

ढाई अक्षरों की सौगात ............


'शब्द'...........है क्या .........
मात्र ढ़ाई अक्षरों की मिल्कियत
पर संभावनाएं छुपाये खुद में अपार !
कोइ भी रिश्ते हों ,
कोइ भी जज्बात ,
माँगते बस कुछ..........
बोलतें अक्षरों की सौगात ..........
शब्दों का गूंगा होना
त्रासदी है मन की !!!
शब्दों को तो बस 
होना चाहिए अस्तित्ववान 
जिनसे चोट लगेगी ,
मलहम भी वही बनेंगे ......
जो होंगे ही नहीं बोल ,
मरुथल ही मरुथल पनपेंगे......
त्रासद होगा यूं ही .....
बंजर शब्दों के काँटों से छिलना ......
पर पेड़ ही न रहा .......तब ....
कांटे क्या फूल को भी तरसेंगे !!! 
अक्षर सिमटे तो ............
धरती बन विस्तृत हो जायें
अक्षर  बिखरें तो  ...........
फ़ैल जायें बन नील गगन .......
सिमट कर बिखरें या बिखर कर सिमटें ...
प्रिय की नियति सा ........
वालपेपर बन सज जायें .......
सब शब्दों में छुप जाए..........
शब्द तो तब भी याद आ-आ 
मन भर जायें जब .....
निष्प्राण हो तन-बदन .............
                        -निवेदिता
  


रविवार, 24 अप्रैल 2011

अच्छा लगता है ........

अच्छा लगता है ....
जब जाते-जाते रुक जाते हो 
देखते हो गेट बंद कर 
मेरा अन्दर जाना .......
मेरे कहीं जाने पर
ओझल हो जाने तक 
मुझको देखते रह जाना  .......
मेरी खामोशी पर 
तलाशना औ बुला लाना 
मेरी आवाज़ की खनक .......
मेरे चेहरे की शिकन 
मिटाने अपने वजूद के 
एहसासों की तपिश देना .......
उलझनों में घिर जाने पे 
फैला देना नयी उम्मीदों का 
नव सृजन का आसमान ........
तुमसे ही तो पल्लवित 
और प्रमुदित रहता 
मेरे मन का शिशु-भाव..... 
शायद नहीं निस्संदेह 
तुम ही तो हो मेरी  
हर राह की मंजिल........
                  -निवेदिता 
  





शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

प्यार या आकर्षण........

                                                                                                                                                                                  
अक्सर सोचती हूँ ........
ये प्यार है या आकर्षण ......
सुनो तो कुछ तुम भी तो बोलो ...
चलो मैं ही बतलाती हूँ .....
आकर्षित तो बहुत कुछ करता 
कभी आचरण ,कभी विचार
कभी उश्रॄंखलता,कभी दुलार 
लरजते अनेक विचार ...........
कुछ ही पलों में कपूर से उड़ जाते 
पर ये तो थी नयनों की भाषा ......
आँख में पड़ी रेत सा चुभ जाती !
मुंदी आँखों में लहरा जाते साया बन
धरा पे छाया हो ज्यों नील गगन ......
आकर्षण तो है नयनों की ,लबों की भाषा 
प्यार तो है प्यारा एहसास 
खुद बेजुबान पर दिल की ज़ुबान.......
क्षितिज सा जोड़े रहता धरा को गगन से 
सच कहूं ....पहली सांस है आकर्षण ...
पर अंतिम सांस है परम पावन प्यार ........
                                                 -निवेदिता 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

मन वीणा के तार .....

मैं हूँ क्या ?
एक नाम ,
बिन पहचान 
एक रिश्ता ,
जाना पहचाना ...
या फिर 
कई नाते ,
शायद मनभाते ....
कभी रीते ,
कभी मीठे
कभी सुलझे, 
कभी उलझे 
कभी एकरूप ,
कभी एकतार 
कभी अपरूप ,
विच्छिन्न विचार
पर सदा हैं ....
अभिन्न मन तार ..
कहीं तो छू लेती हूँ 
मन वीणा के तार 
ले लेते पूर्ण आकार .... 
                -निवेदिता



बुधवार, 20 अप्रैल 2011

द्रौपदी का आकलन......

समय के विभिन्न चरणों ने मुझे कितने विकृत नाम दिए ! मुझे कलियुग के प्रारम्भ का कारण भी बताया |किसी ने इसका कारण खोजने का कष्ट कभी नहीं उठाया ,कि ऐसी घटनाएँ घटी क्यों ? इनका मूल कारण था  क्या? क्या मैं ही ज़िम्मेदार थी इन सभी पातकों की ?
जिसने जो भी समझा हो आज इतने समय से सबके आक्षेप सहते-सहते ,अब मुझे भी लगता है कि मैं भी अपना पक्ष सबके बीच ले ही आऊँ .........
मुझे सबसे अधिक जो आक्षेप पीड़ा देता है वो है पांच पतियों की पत्नी कहलाया जाना !ये मेरा चुनाव तो था
नहीं और न ही मेरे परिवार का |ये तो एक माँ का षडयंत्र था अपने बेटों को बांधें रखने का और बलिवेदी पर 
चढ़ाया गया मुझे !  कभी-कभी लगता है कि कहीं ये माता कुंती की चाल तो नहीं थी खुद को निष्पाप बनाए
रखने की !
पांच पतियों की पत्नी बन कर मुझे ऐसा क्या सौभाग्यशाली जीवन मिला ,जो मैं ऐसी कामना करती | अगर
उन पाँचों का आकलन करूँ तो उन की वास्तविक स्वरूप सामने आ जाएगा |  सबसे पहले युधिष्ठिर की बात 
करूँ .....उन से बड़ा कापुरुष तो "न भूतो न भविष्यति " ही है |किसी भी बहस का निर्धारण अपने पक्ष में करने 
के लिए  अपने बड़े होने का ही इस्तेमाल किया है ,तर्कों को तो एकदम हटा ही देते थे |कोई मुश्किल आ पड़ने 
पर धर्म-अधर्म का मायाजाल बिछा लेते और उस के बीच छिप जाते | ऐसी परिस्थिति में अर्जुन , भीम आदि 
समाधान खोज निकालते तब वो अग्रजासन पर आ विराजते |  कहलाये जाते हैं धर्मराज , परन्तु अधर्म  की 
पहचान  उनसे बढ़ कर दूसरा कोई नहीं है |अनुज-वधु ,जो पुत्री जैसी होती है ,से विवाह की सहमति दे दी और 
विवाह कर भी लिया |  मेरे जीवन का सबसे दग्ध क्षण -मेरा वस्त्र-हरण -के मूल में भी यही धर्मराज ही हैं जो 
जुआ खेल भाइयों के साथ मुझे भी हार गया !तब अगर मेरे सखा कृष्ण  ना आ जाते तो क्या होता -ये मैं सोच  भी न पाती हूँ ..................... 

अब अर्जुन के बारे में भी मेरा आक्रोश कम नहीं है |स्वयंवर में मुझे विजित करने का अर्थ ये तो नहीं है कि मैं 
एक जड़ पदार्थ बन गयी ! मेरी हिस्सा-बाँट करते समय मुझे संवेदनाहीन समझ लिया | अगर मेरी अस्मिता 
की रक्षा नहीं कर सकते थे तो उनको स्वयंवर में हिस्सा ले कर मेरा जीवन उपहासास्पद नहीं बनाना था |
नकुल-सहदेव तो बड़े भाइयों की छाया में अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व बना ही न सके ,तो मेरे सहायक कैसे बनते |वो तो अबोध शिशुओं सा मुझमें सख्य-भाव ही तलाशते  रहे |
हाँ !जब भीमसेन  के बारे में सोचती हूँ ,तब मन थोड़ा आश्वस्त होता है |जब भी कोई विपत्ति पडी भीम ने सदैव मेरा पक्ष ले सब का सामना किया है ,यहाँ तक कि युधिष्ठिर का भी !चीर-हरण के समय भी सिर्फ भीम ने ही मुझे 
दांव पर लगाए जाने के औचित्त्य को नकार दिया था |अज्ञातवास में कीचक से मेरी रक्षा भी भीम ने ही की थी |
युधिष्ठिर तो तब भी सदुपदेश ही दे कर रह गए |
अब ऐसी परिस्थितियों में मुझे महाभारत के युद्ध का कारण बताना और निराधार दोषारोपण करने का क्या औचित्त्य है |क्या उस समय के सतयुग से आज के कलियुग तक कोई भी मेरी इस व्यथा का समाधान कर पायेगा ?अगर ऐसा न कर पाए तो मुझे कलंकित कहने का अधिकारी कोई नहीं है |
आज मैं ये भी नहीं कहूंगी कि जो स्वयं निष्पाप हो वही मुझे दण्डित करे |अगर मैंने ऐसा कह भी दिया तो खुद
को उजला साबित करने को कई हाथ दण्डित करने को उठ आयेंगे ,बेशक मन में वो भी सच को महसूस करेंगे |
इन सब से तो अच्छा है मैं खुद से ही सारे उत्तर तलाशूँ और जब तक न मिले मैं अपने अंधेरों में ही रहूँ ........
                                                                       
  
                                                                                     
       

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

बदलती रेखायें .....

          कभी-कभी ये सोचती हूँ कि ईश्वर ने जब हमें एक सहज-सरल मुखाकृति दी है ,तब हम उसको अपने विचारों की तरह विकृत बनाने की गलती कैसे कर जाते हैं ! जगत के सृष्टा -उस सबसे बड़े इंजीनियर ने कुछ अनुपात में ही हमारी सरंचना की होगी ! 
          अब ज़रा सोच कर देखिये कि ईश्वर ने हमारे चेहरे पर जो एक ध्वनि-विस्तारक यंत्र (होंठ) लगा रखा है ,उस का आकार-प्रकार भी अपनी मन:स्थिति के अनुसार हम बदल देते हैं |
देखा आपने जब हम दुखी होते हैं ,तब लगता है अधर-रेखा गिरती-गिरती किसी प्रकार कन्धों के सहारे अटक जाती है |दूसरी मन:स्थिति में अर्थात नो कमेन्ट की स्थिति में जब दुनियादारी और सामाजिकता निभाने की अकल काम करती रहती है तो स्मित कानों तक पहुंचा देते हैं |जब अपने मन का हो जाता है तब तो ये रेखा कानों तक ही पहुँच कर मानती है | जब हम उलझन में होते हैं कि हमारी प्रतिक्रया क्या होनी चाहिए तब ये रेखा सड़क पर की रम्बल स्ट्रिप जैसी हो जाती है |
             शायद अब आप भी सहमत हो गए हों ! चलिए कोशिश करते हैं जगत-निर्माता को सहयोग करने की और चेहरे को सहज रखने की .....

रविवार, 17 अप्रैल 2011

PAIN-CENTER


दर्द ....उफ़ .......
ये कैसा एहसास 
दर्द ही दर्द को 
करता परिभाषित 
पीड़ा खुद ही पीड़ित !
दर्द का हद से गुजर जाना 
गर है दवा दर्द की ......
है अब  चाहत जा देखूं ,
कैसी है इंतिहा -ए-दर्द 
अब शायद मुक्ति पा जाऊं 
या मुक्त राह मिल जाए ..... 
                        -निवेदिता 

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

अनपेक्षित उपेक्षा या उपेक्षित अपेक्षा .......








अनपेक्षित उपेक्षा या उपेक्षित अपेक्षा
देखा तो अक्षरों ने थी 
थोड़ी जगह बदली
करते गए अर्थ का 
यूं ही अनर्थ ............
बदलना ही था जरूरी (तो)
शब्दों ने बदलना था स्थान
ऐसे अर्श को फर्श औ 
फर्श को अर्श में न बदलना पड़ता
अपेक्षाओं को झेलनी पडी उपेक्षा 
उपेक्षा भी बन गयी अनपेक्षित ...
शायद ऐसे ही समझा हो उपेक्षा ने 
कैसा लगता है यूं उपेक्षित होना !
शायद जरूरी था आइना दिखाना .......
                                  -निवेदिता 

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

हमारे घर की छत पर ..........

हमारे घर की छत पर 
पंछी के जोड़े ने बसाया 
एक प्यारा सा घोंसला !
जिस दिन चिड़ी-चिड़े को
मिला अण्डों रूपी वरदान ,
चिड़े को जाना पडा छोड़ 
घोंसले की सुखद छाँव !
चिड़ी सजगता से सन्नद्ध 
आ पहुँची सहेजने उन
प्राणों से प्यारे अण्डों को  !
इक दिन सुनी आवाज़ 
खुशी से चहचहाने की .......
चिड़ी ने सुनी आहट ,
उन अण्डों में जीवन 
ऊर्जा आ जाने की !
कैसे ठुमकता -मचलता सा
समय आगे बढ़ता चला 
कब किसी को आभास मिला !
चिड़ी की चोंच से 
दाना चुगते-चुगते ,
उन नन्हे पंखों में भी 
इक आस जगी 
दुनिया देख आने की .....
चिड़ी ने भी माँ का था 
फ़र्ज़ निभाया ,उड़ना सिखलाया,
सीखते-सीखते अचानक 
नन्हें दूर गगन में उड़ चले ,
खोजने नित-नयी पहचान !
कभी कहीं दिख जाए कोई ....
चुनौती देती आकाश-गंगा !
चिड़ी मन ही मन मुदित होती 
सोच न पायी अपना आने वाला 
नित बढ़ता जाता रीतापन !
शायद यही है जीवन-चक्र ,
चिड़ी ने अपनी माँ को छोड़ 
खोजी इक नयी पहचान ,
समा गयी अपने आसमान में !
रीतापन कहते किसको ...........
अब  जान गयी-पहचान गयी  
उन नन्हे पंखों की परवाज़ ,
जीवन का दर्शन समझा गयी .........
                   -निवेदिता  


रविवार, 10 अप्रैल 2011

जगदम्बा के भक्तों से एक सवाल .......

     आज नवरात्रि के पावन पर्व पर जगत माता जगदम्बा के सामने कुछ जिज्ञासु होने का कुछ  पूछने की इच्छा हो रही है !यूं तो पूरे नवरात्र भर ,परन्तु कल अष्टमी और परसों नवमी इन दोनों तिथियों पर माता के दरबार में अपनी मन्नत पूरी होने पर और माँगने की इच्छा ले कर ,उनके भक्त बलि देते हैं |पहले तो नर-बलि भी होती थी ,परन्तु अब पशुओं की बलि दी जाती है |मेरी जिज्ञासा कह लें अथवा एक छोटा  सा प्रश्न ,सिर्फ इतना सा है की दुनिया में ऐसी कौन सी माँ है जो किसी के प्राण लेना चाहेगी और वो भी तब जब उसको धन्यवादस्वरूप ऐसा कृत्य किया जाए ?एक साधारण मानवी माँ तो मैं भी हूँ |मैं अगर बच्चों से धन्यवादस्वरूप कुछ भी लेना नहीं चाहूंगी |यदि तब भी अगर बाल-हठ मानना ही पड़े ,तो मैं उनके द्वारा किसी का अहित न हो यही चाहूंगी | ये भी कामना करूंगी की वो सबको खुशियाँ देने वाले बने ,प्राण लेने वाले नहीं ! जब मेरे जैसी एक साधारण माँ किसी का अहित नहीं चाहती ,तब जगदम्बा के नाम पर ये हत्याकाण्ड क्यों ?आखिर उन पशुओं को भी तो ईश्वर ने ही बनाया है |उन से उनका जीवन और जीने का अधिकार छीनने वाले हम हैं कौन ?
         मेरा इरादा किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पँहुचाने का नहीं है |सिर्फ एक बार ये सोच कर तो देखिये की कोई इस दुष्कृत्य के लिए हमको हमारे माता-पिता से छीन ले जाए तब उनको कैसा लगेगा ?जिन पशुओं की बलि दी जाती है वो भी तो किसी के बच्चे ही हैं !इससे तो बेहतर होगा अगर जगदम्बा के धन्यवादस्वरूप हम किसी असहाय की सहायता करें |हमारा किसी निर्बल का बल बनाना माँ को ज्यादा पसंद आयेगा !जगदम्बा की आवाज़ को अगर हम सुन पायें तो वो भी मेरे इस मत से सहमत होंगी !!!

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

रंग यूं तो बहुत भरे ...........

रंग यूँ तो बहुत भरे जीवन में 
कुछ हलके कुछ चमकीले 
यूँ ही रंग-रंगीले औ सजीले
कभी नमी पा बिखर जाते 
कभी मन , कभी नयनों से 
आ-आ कर  छलक जाते 
मीठी यादें बन लबों पर 
मंद-मंद स्मित लहरा जाते 
सलोनी यादें ,वो नन्हे कदम 
खुली पलकों सपन दिखा जाते 
वो ठुमकते पांवों में आती दृढ़ता 
वो चमकते नयनों में झांकता 
इन्द्रधनुषी गगन हो कर मगन 
सुनहले-सजीले रंगों का मंद-मधुर 
जीवन-तार सजा जाते ...........
इन्द्रधनुष को और अधिक 
इन्द्रधनुषी बना जाते ..........
रंगों को और अधिक रंगीन बना जाते .......
                                            -निवेदिता 

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

ये इकलौता शून्य .........


 ये शून्य .............
जब भी दिख जाता है 
प्रश्नों के घेरे में बाँध 
दिल-दिमाग रीता 
सूना कर जाता है 
सोचती रह जाती 
ये शंकराचार्य  का है 
या फिर यूँ ही है .....
किसी का रिपोर्ट कार्ड !
मन होता शांत-स्वस्थ 
कितने सारे अंक है दिखते
शून्य न जाने किन गलियों 
अंधियारों की भूलभुलैय्या में 
गुम अदृश्य हो जाता .....
ढूढें से भी ना मिलता 
पर मची हो उथल-पुथल 
ये इकलौता शून्य इतना बड़ा हो 
सबको निगल जाता ......
कहीं कुछ भी नहीं दिखाई देता 
खुद में ,दूसरों में कमियाँ ही दिखती 
ये इकलौता शून्य ..................
खुद में कुछ भी नहीं ,
पर साथ जिसके लग जाता 
कीमत उसकी घटा या बढ़ा जाता 
ये शून्य .....इकलौता शून्य ...........

                  -निवेदिता 
.


मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

नदिया के दोनों किनारे ...........


नदिया के दोनों किनारे ,
साथ चलते-चलते भी ,
अलग-थलग ही रहते ,
दोनों के बीच सोच जैसी, 
जलधार उमड़ती आती ,
जब-जब धारा सकुचाती, 
किनारे उमगते-किलकते ,
सोचते पास आने को ,
पर ये क्या धारा में तभी ,
आ जाती बाढ़ सी ,
फिर ..................
पास आने की आस रखते , 
दोनों किनारे फिर छिटक जाते, 
दूरी अनवरत चलती जाती, 
विलगाव जब ज्यादा पीड़ा देने लगा ,
किनारों ने फैलायीं बाँहे,
मन के ,सोच के मिलाप सा ,
मिली बाँहों ने स्नेह का पुल बनाया, 
पुल ने न सिर्फ उन्हें ,
कई बिछड़ों को भी मिलाया ..................
                              -निवेदिता 



सोमवार, 4 अप्रैल 2011

नदिया की धारा से पूछा.......

मदिर मधुर सुरभित इठलाती 
लहराती जाती हवा ने साथ 
बहती अविरल निश्छल 
नदिया की धारा से पूछा 
कैसे कंटक आने पर भी 
राह यूँ ही बदल-बदल 
छलकती जाती है 
न तो गति बदलती 
न ही प्रवाह बदलता 
सखी कुछ मुझे भी 
थोड़ा तो सिखलाओ 
मैं तो राह सा हो लेती 
नाले से गुजरूँ तो बदबू
उपवन से जाऊं तो महकूँ 
तुम पर कैसे न कोई
अन्तर कभी आ पाए ! 
धारा मुस्काई लहराई
गुनगुनाती सी बतलाती गयी 
मैंने न देखा राह में है क्या 
मैंने न सोचा चाह में है क्या 
अपनी धुन में नए तट बनाती 
नयी राह अपनाती बहती जाती 
जब भी मुश्किलों को भार माना 
मानव से हुए प्रदूषण याद किया 
विनाश ही विनाश किया 
बहुतों को बेघर-बार किया 
वो न समझे मुझे मैंने तो उसे
सिर्फ औ सिर्फ आबाद किया 
जब भी दूसरे  की प्रकृति देखेंगे 
प्रकृति अपनी ही प्रदूषित करेंगे ...
                                -निवेदिता .



रविवार, 3 अप्रैल 2011

इन्सानों की मंडी......

आज मैंने देखी  इंसानों की मंडी,
नर-नारी सजे बिकाऊ जिन्स सरीखे ,
और खरीदार घेरे थे  हम सरीखे,
जांचते हुए किसमें कितना है दम ,
नकारते उनकी मजबूरियों को ,
न ! ये तो बिलकुल बेकार है ,
ये तो खुद ही नहीं चल पा रहा ,
क्या एक और को ले चलूँ 
इसको चलाने को ........
महँगा है ये सौदा मै नहीं करता,
ज़रा कोई उनसे पूछे,जो उनमें
सामर्थ्य होती तो वो वहां क्यों होते ?
तब तक पीछे से एक सहमी सी 
कंपकंपाती आवाज़ कुछ यूं आयी-
"ऐ साहिब हमका लै चलो ,हे मलिकार ..."
उसका वाक्य पूरा भी होने न पाया 
खरीदार ने उसे ये कह कर भगा दिया-
"ये तो और भी बेकार है दखते नहीं 
साथ में इसके बाल-गोपाल हैं 
हर थोड़ी देर में वो रोयेंगे और
ये उन्हें चुप कराने भागेगी ...........
कितनी मजदूरी बेकार जायेगी .........."
अफ़सोस हुआ मानवतारहित मनुष्य देखके
जब अपने बचपन में खुद रोते थे -
क्या माँ ने उन्हें दुलराया न था ?
अपने बच्चे की पुकार पर न बढ़ी उनकी बाँहे?
सच है मुझे न थी दुनियादारी की पहचान

कीमत से तौलते दूसरे की बेबसी ..........
खरीदार बनते ही बदल जाती भावना 

भूल जाते मनुष्य और मानवता का ज्ञान !!!
                                            -निवेदिता 

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

क्यों आते हो .......

आंसुओं से कहा 
क्यों आते हो ....
आँखें भी थक चुकी हैं ;
तुम्हे स्थान देते-देते ,
सब तस्वीरें धुंधला गयी 
यादों की टीस सहते-सहते ,
ये शिकवे सुन-सुन 
आंसुओं ने भी थक कर ,
नया घर खोज लिया है  ,
आँखों में तो रेत सी 
खुश्की आ गयी है ,
दिल मगर इतना क्यों 
नम औ भारी सा हो गया .......
                  -निवेदिता