शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

लघुकथा :उलझे तार

लघुकथा :उलझे तार

मैसेज की आवाज़ पर फोन उठा लिया उसने । देखा तो खुद को तारणहार बतानेवाली का मैसेज चमक रहा था ,"देखिये ये चित्र खास आप के लिये है ,अभी बनवाया है आपको ही दर्शाता हुआ ।"

वो इस तरह के मिथ्यारोपण से त्रस्त हो गयी थी ,तब भी हँस पड़ी ,"आपने बनवाया ... यह तो कई दिनों से बहुत सारे ग्रुप्स में घूम रहा है । कोई न शायद आप पहले दिखाना भूल गयी होंगी । "

"जानती हैं सबके दिल - दिमाग में आपको तथाकथित रूप से जाले लगे ही दिखते हैं परन्तु आप उस को साफ कर कैसे पायेंगी । अपने जिस दिमाग को आप वैक्यूम क्लीनर समझ रही हैं ,उसके तारों को अहंकार ने उलझा रखा है । अहंकार के उलझे तारों को सुलझाने के लिये इसका रुख आपको खुद अपनी तरफ भी मोड़ना होगा न । विचित्र लग रहा है समस्या और समाधान दोनों को इस तरह उलझा लिया है कि अब ऊपरवाला ही कुछ करे तो करे ... ॐ शांति शांति ...  "मैसेज भेज कर उसने फोन स्विच - ऑफ कर दिया ।

उलझे तारों को सुलझाना कह लो या दिल - दिमाग के तथाकथित जालों की सफाई ऊपरवाले से बड़ा कलाकार कोई नहीं है ।
           ..... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

गुले गुलशन सजाती हूँ ....



तमन्नाओं के गुंचे से गुले गुलशन सजाती हूँ
समझ सको समझ लेना ,प्रियतम प्यार करती हूँ

पाँव जो थक कहीं जाये ,मंज़िल छोड़ न देना
तुम मुड़ के देखना ,पलकन राह निरखती हूँ

बोली जो लगे रूखी ,मन मद्धम नहीं करना
पीछे मुड़ के देखना ,सदा देकर तुमको बुलाती हूँ

काँटे जो कहीं रोके डगर ,चोटिल नहीं होना
पीछे मुड़ के देखना , राह में पुष्प सजाती हूँ

कोई जो बात चुभती हो , भरे न ख़ार से आंगन
पीछे मुड़ के देखना , धड़कन सी धड़कती हूँ

अमावस से हों भरी राहे ,सजल ये मेरे नयन
पीछे मुड़ के देखना ,जुगनू बन के चलती हूँ

छलकती जा रही हो ,गगरी भरी जीवन की
पीछे मुड़ के देखना , "निवी" तुमको सुनती हूँ

            .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

नाम राम है .....

मुझे रहा नहीं प्रिय कभी नाम जो ये राम हैं
जानकी को हर कदम छला वो यही राम हैं

तब भी सोचता ये मन हो कर मगन
जन्म से मरण तक साथ में राम हैं

जब निगाह मिल गयी हाथ यूँ जुड़ गये
लब हिले तो नाम खिला वो यही राम हैं

काम जो बिगड़ गया मन उलझ भी गया
मन को ये कह दिया हारे के राम हैं

वन की वीथियाँ थीं दुष्कर रीतियाँ थीं
चल पड़ी सिया बेझिझक कि साथ में राम हैं

भरत भी टूट गये राजसी ठाठ छूट गये
ज्येष्ठ की पादुका लिये हृदय में नाम राम हैं

लखन सदा साथ थे भृकुटी में रोष भी भरे
दुर्वासा के सम्मुख नत नयन किये खड़े यही राम हैं

पिता थे महारथी वचन के थे धनी
प्राण छूटते समय लिया नाम वो यही राम हैं

अहल्या शापित हुई समाज से प्रताड़ित हुई
वर्जनायें तोड़ कर समाज मे लाने वाले यही राम हैं

यमुना एक नदी है बहती रही कई सदी है
सबको तारने वाले जले इसमें यही राम हैं

भाव से भरी थी जूठे बेर लिये खड़ी थी
खट्टे पलों में रस भरे भाव वो यही राम हैं

तारा को तार / मान दिया मन्दोदरी का सम्मान किया
जानकी की अग्नि परीक्षा ली वो यही राम हैं

दानव कुछ कर न सके अग्नि भी छू न सकी
कण कण गले जल में समाधि ली वो यही राम हैं

चली कांधों पर "निवी" लम्हों का साथ छूट गया
तन भी मिट्टी हुआ साथ नाम सत्य के राम हैं

.... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

लघुकथा : अभिमान

लघुकथा : अभिमान

अनघा पार्क में पेड़ों के झुरमुट में शिथिल सी बैठी थी । बहुत से बच्चे खेल में मग्न उसके आसपास से पंछियों सा कलरव करते एक झूले से दूसरे झूले पर , तो कभी स्लाइड से सी सॉ पर फुदक रहे थे । कभीकभार कुछ युवा भी दौड़ती सी गति से जॉगिंग करते दिख जाते थे ।पर वो दुनिया से वीतरागी सी पतझर जैसी ,अपने ही स्थान पर शिथिल बैठी थी ।
अन्विता बहुत देर से उनको निहार रही थी ,परन्तु उसको अनघा के इस रूप का कारण समझ ही नहीं आया । अंततः वो उठ कर अनघा के पास ही जा बैठी ,"आप शायद मुझे नहीं जानती होंगी और मैं भी आपको आपके नाम से नहीं जानती हूँ ,परन्तु आपको पहचानती जरूर हूँ । मैं इस पार्क में अक्सर टहलने आती हूँ और जब नहीं आ पाती हूँ , तब भी अपने घर की बालकनी से आपको यूँ ही गुमसुम बैठी देखती रहती हूँ । आपको कोई समस्या हो तो मुझे बताइये ,शायद मैं कुछ सहायता कर सकूँ ।"
अनघा थोड़ी देर उसको निहारती रही ,फिर वो बोल पड़ीं ,"दरअसल मैं अनिर्णय में थी कि एक अपरिचित से समस्या बताना चाहिए भी कि नहीं । फिर लगा मेरी वीरानी मेरी गलती का परिणाम है । खुद गलती कर के सीखने में गलती को सुधारने का समय बीत जाता है । इसलिए दूसरों के अनुभव से भी सीखना चाहिए ।"
"विवाह के कुछ वर्षों बाद जब बच्चे नहीं हुए और सबकी तीखी बातों का निशाना मुझे बनाया जाने लगा , तब हमने डॉक्टर को दिखाया । विभिन्न टेस्ट करवाने के बाद पता चला कि मेरे पति में कुछ दिक्कत थी ,जबकि मैं सन्तानोत्पत्ति में सक्षम थी । डॉक्टर ने टेस्ट ट्यूब बेबी की सलाह दी परन्तु उसके लिये परिवार के लोग विरुद्ध हो गये कि पता नहीं किस का अंश उनके रजवाड़ों के खानदान में आ जायेगा । उनके परिवार का अभिमान खण्डित हो जाता । हम भी चुप रह गये । अब जीवन के इस सांध्यकाल में ,पति की मृत्यु के बाद मैं एकदम अकेली हूँ । "
"सच कहूँ तो उनके परिवार का अभिमान तो बच गया पर मैं टूट गयी । "
                                .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

दस पर विजय का पर्व : विजयदशमी



प्राचीन काल से ही हमारी भारतीय संस्कृति स्त्रियों को प्राथमिकता देने की रही है । मेरी इस पंक्ति का विरोध मत सोचने लगिये । मैं भी मानती हूँ कि आज के परिवेश में स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं । तब भी एक पल का धैर्य धारण कीजिये ।
पहले नौ दिनों तक देवी माँ के विभिन्न रूपों की आराधना की हमने । नवमी के दिन हवन और कन्या - पूजन के पश्चात हम , तुरन्त ही आ गये पर्व "दशहरा" ,को उत्सवित करने की तैयारियों में व्यस्त होने लगते हैं । स्त्री रूप देवी की आराधना करने के बाद ,एक और स्त्री "सीता"  को समाज मे गरिमा देने का पर्व है दशहरा । दशहरा पर राम के द्वारा रावण के वध का विभिन्न स्थानों की रामलीला में मंचन किया जाता है । सीता के हरण के बाद रावण से उनको मुक्त कर के समाज में स्त्री की गरिमा को बनाये रखने और अन्य राज्यों में रघुवंश के सामर्थ्य को स्थापित करने के लिये ही राम ने रावण का वध किया था ।
 दशहरा मनाने के पीछे की मूल धारणा ,एक तरह से बुराई पर अच्छाई की विजय को प्रस्थापित करना ही है । परन्तु क्या हर वर्ष रामलीला के मंचन में मात्र रावण ,मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले जला देने से ही बुराई पर अच्छाई की जीत हो जाएगी ,वो भी अनन्त काल के लिये ? सोच कर खुश होने में कोई नुकसान तो नहीं है ,परन्तु सत्य का सामना तो करना ही पड़ेगा । जिन बुराइयों अथवा कुरीतियों को हम समाप्त समझने लगते हैं ,वो ही अपना रुप बदल कर एक नये कलेवर में आ कर फिर हमारी साँसों में चुभने लगती है ।
दशहरा पर्व को "विजयदशमी"  भी कहते हैं । कभी सोच कर देखिये ये नाम क्यों दिया गया अथवा राम ने दशमी के दिन ही रावण का वध क्यों किया ? राम तो ईश्वर के अवतार थे । वो तो किसी भी पल ,यहाँ तक कि सीता - हरण के समय ही , रावण का वध कर सकते थे । बल्कि ये भी कह सकते हैं कि सीता - हरण की परिस्थिति आने ही नहीं देते ।
धार्मिक सोच से अलग हो कर सिर्फ एक नेतृ अथवा समाज - सुधारक की दृष्टि से इस पूरे प्रकरण में राम की विचारधारा को देखिये ,तब उनके एक नये ही रूप का पता चलता है ।
तत्कालीन परिस्थितियाँ शक्तिशाली के निरंतर शक्तिशाली होने और दमित - शोषित वर्ग के और भी शोषित होने के ही अवसर दिखा रही थीं । शक्ति सत्तासम्पन्न राज्य अपनी श्री वृद्धि के लिये अन्य राज्यों पर आक्रमण करते रहते थे और परास्त होने वाले राज्य को आर्थिक ,सामाजिक ,मानसिक हर प्रकार से प्रताणित करते रहते थे । राम ने वनवास काल में इस शोषित वर्ग में एक आत्म चेतना जगाने का काम किया ।
सोई हुई आत्मा को मर्मान्तक नींद से जगाने के लिये भी राम को इतना समय नहीं लगना था । परन्तु इस राममयी सोच का वंदन करने को दिल चाहता है । उन्होंने सिर्फ आँखे ही नहीं खोली अपितु पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेंद्रियों को जाग्रत करने का काम किया । कर्मेन्द्रियों के कार्य को समझ सकने के लिये ही ज्ञानेंद्रियों की आवश्यकता होती है । जिन पाँच तत्वों से शरीर बनता है वो हैं पृथ्वी ,जल ,अग्नि ,वायु एवं गगन । इन पाँचों तत्वों का अनुभव करने के लिये ही कर्मेन्द्रियों की रचना हुई ।पृथ्वी तत्व का विषय है गन्ध ,उसका अनुभव करने के लिये नाक की व्युत्पत्ति हुई । जल तत्व के विषय रस का अनुभव जिव्हा से करते हैं । अग्नि तत्व के रूप को देखने के लिये आँख की व्युत्पत्ति हुई । वायु का तत्व स्पर्श है और उस स्पर्श का अनुभव बिना त्वचा के हो ही नहीं सकता है । आकाश का तत्व शब्द है ,जिसको सुन पाने के लिये कान की व्युत्पत्ति हुई । जब पाँचों कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ जागृत हो जायेंगी ,तब जीव का मूलाधार आत्मा स्वतः ही जागृत हो जायेगी ।
विजयादशमी का अर्थ ही है कि दसों इंद्रियों पर विजय पाई जाये । इनके जागृत होने का अर्थ ही है कि व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति ,अपने प्रति सचेत है । सचेत व्यक्ति गलत - सही में अंतर को भी समझने लगता है । ये समझ ,ये चेतना ही न्याय - अन्याय में अंतर कर के स्वयं को न्याय का पक्षधर बना देती है । इस प्रकार न्याय के पक्ष में बढ़ता मनोबल ,क्रमिक रूप से अन्याय का नाश कर देता है ।
एक वायदा अपनेआप से अवश्य करना चाहिए कि विजयादशमी / दशहरा पर्व मनाने के लिये सिर्फ रावण ,मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले ही न जलायें ,अपितु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का आपसी तालमेल सटीक रूप में साधें जिससे चेतना सदैव जागृत रहे । जीवन और समाज मे व्याप्त बुराई को जला कर नहीं ,अपितु अकेला कर के समूल रूप से नष्ट करें ।
इस प्रकार की बुराई की पराजय का पर्व सबको शुभ हो !!!
                                                                     .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

कन्या पूजन


कन्या पूजन

हम सब ही उत्सवधर्मी मानसिकता के हैं । कभी परम्पराओं के नाम पर तो कभी सामाजिकता के नाम पर कोई न कोई बहाना निकाल ही लेते हैं ,नन्हे से नन्हे लम्हे को भी उत्सवित करने के लिये । ये लम्हे विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक करने का भी काम कर जाते हैं ,तो  कभी - कभी खटास मिला कर क्षीर को भी नष्ट कर जाते हैं । खटास की बात फिर कभी ,आज तो सिर्फ उत्सवित होते उत्सव की बात करती हूँ ।
आजकल नवरात्रि पर्व में माँ के विभिन्न रूपों की पूजा - अर्चना की जा रही है । अब तो पण्डाल में भी विविधरूपा माँ  विराजमान हो गयीं हैं । घरों में भी कलश - स्थापना और दुर्गा - सप्तशती के पाठ की धूम है ,तो मंदिरों में भी ढोलक - मंजीरे की जुगलबंदी में माँ की भेटें गायी जा रही हैं । कपूर ,अगरु ,धूप ,दीप से उठती धूम्र - रेखा अलग सा ही सात्विक वातावरण बना देती हैं ।
कल भी ऐसे ही एक कीर्तन में गयी थी । जाते समय तो मन बहुत उत्साहित था ,परन्तु वापसी में मन उससे कहीं अधिक खिन्न हो गया । माँ की आरती के पहले प्रांगण में कन्या - पूजन की धूम शुरू हो गयी । छोटी - छोटी सजी हुई कन्याएं बहुत प्यारी लग रही थीं । उनकी अठखेलियाँ देख लग रहा था कि मासूम सी गौरैया का झुण्ड कलरव करता सर्वत्र फुदक रहा हो ।
उन बच्चियों को जब कन्या - पूजन के लिये ले जाया जा रहा था ,तभी सहायिका का काम करनेवालियों की भी कुछ बच्चियाँ प्रसाद लेने आ गयीं । अचानक से ही इतनी तीखी झिड़कियाँ उन बच्चियों पर पड़ने लगे गयी जैसे उन्होंने कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो । हम लोगों के  आपत्ति करने पर संयोजिका बोलीं कि जिनको आमंत्रित किया गया है ,उन्ही बच्चियों को पूजन और प्रसाद मिलेगा । जब देखा कि वो समझने को तैयार ही नहीं है ,तब हमने अपने पास से अलग से उन बच्चियों को कुछ राशि दी और समझाया कि वो अपनी पसंद से जो भी चाहें खरीद लें । मैं भी वहाँ और न रुक पायी और उद्विग्न मन से वापस आ गयी ।
घर आ कर यही सोचती रही कि ऐसा अनुचित व्यवहार कर के कैसे मान लें कि हमारे पूजन से ईश्वर प्रसन्न होंगे । ईश्वर तो सिर्फ उस भावना को देखते हैं जो हमारे अन्तःस्थल में बसी रहती है ।
कन्या पूजन के लिये बुलाये जाने वाले बच्चों को देखती हूँ तब बड़ा अजीब लगता है । घर से भी बच्चों को कुछ न कुछ खिला कर ही भेजते हैं । फिर जिन घरों में उनका निमंत्रण रहता है ,वहाँ बच्चे सिर्फ चख ही पाते हैं । बल्कि जिन घरों में वो बाद में पहुँचते हैं ,वहाँ तो वो खाने की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते हैं । बस फिर क्या है ... सब जगह से प्रसाद के नाम पर लगाई गई थाली पैक कर के बच्चों के घर पहुँचा दी जाती है । घरों से वो पूरा का पूरा भोजन दूसरी पैकिंग में सहायिकाओं को दे दिया जाता है और उस भोजन को खाते वही बच्चे हैं ,जिनको पूजन के नाम से दुत्कार दिया जाता है ।
आज के समय मे बहुत सी परम्पराओं ने नया कलेवर अपना लिया है । अब कन्या - पूजन की इस परम्परा को भी थोड़ा सा लचीला करना चाहिए । मैं कन्या - पूजन  को नहीं मना कर रही हूँ ,सिर्फ उसके प्रचलित रूप के परिष्कार की बात कर रही हूँ ।
कन्या - पूजन के लिये सामान्य जरूरतमंद घरों से बच्चों को बुलाना चाहिए । उनको सम्मान और स्नेह सहित भोजन कराने के साथ उनकी जरूरत का कोई सामान उपहार में देना चाहिए । अधिकतर लोग माँ की छोटी - छोटी सी पतलीवाली चुन्नी देते हैं । उनके घर से निकलते ही ,वो चुन्नी कहाँ चली गयी किसी को ध्यान ही नहीं रहता । चुन्नी देने के पीछे सिर ढँक कर सम्मान देने की भावना रहती है ,परन्तु यही काम रुमाल या छोटी / बड़ी तौलिया से भी हो जायेगा । सबसे बड़ी बात कि बच्चे उसको सम्हाल कर घर भी ले जायेंगे ।
प्रसाद भी नाना प्रकार के बनाये जाते हैं ,जिनको बच्चे पूरा खा भी नहीं पाते और खिलानेवाले उनके पीछे पड़े रहते हैं कि खत्म करो । इससे अच्छा होगा यदि हम कोई भी एक या दो स्वादिष्ट वस्तु बना कर खिलाएं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अनाज उनको घर ले जाने के लिये दें । ऐसा करने से अधिक नहीं ,तब भी एक दिन और वह परिवार ताजा खाना बना कर खा भी सकेगा ।
उपहार में भी जो सामान दें उसकी उपयोगिता अवश्य देखे । प्रयास कीजिये कि ऐसा समान बिल्कुल न दें जो दिखने में बड़ा लग रहा हो परन्तु उनके लिये बेकार हो । कुछ ऐसे फल भी दे सकतें हैं ,जो जल्दी खराब नहीं होते हों ।
कन्या - पूजन का सबसे सार्थक स्वरूप वही होगा जब उनका जीवन सँवर सके । निम्न आयवर्ग के बच्चों के स्कूल की फीस बहुत कम होती है ,तब भी उनकी प्राथमिकतायें फीस भरने से रोक देती हैं । ऐसे एक भी बच्चे की फीस का दायित्व ,यदि हम उठा लें तब उस बच्चे के साथ ही उनके परिवार का भविष्य भी सँवर जायेगा ।इस कार्य के लिये आपको कहीं जाना भी नहीं पड़ेगा ,आपके या आपके घर के आसपास काम करनेवाले सहायकों के बच्चों की पढ़ाई का दायित्व ले सकते हैं ।
यदि हम इन सब में से कोई भी काम नहीं कर सकते तब भी सिर्फ एक काम जरूर करना चाहिए । जब भी किसी भी उम्र अथवा परिवेश के बच्चे को किसी भी गलत परिस्थितियों में पाएं ,तब उसकी ढाल बन जाना चाहिए । जब बच्चों के साथ कुछ गलत होने की संभावना बचेगी ही नहीं ,तभी स्वस्थ और संतुलित परिवेश में बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा और एक अच्छे समाज का निर्माण स्वतः ही होने लगेगा ।
अन्त में मैं सिर्फ यही कहूँगी कि परम्पराओं का पालन अवश्य करें ,बस उस मे तात्कालिक परिवेश की प्राथमिकताओं का समावेश अवश्य कर लें ।
                                 .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

मुक्ति .....


हरि हमेशा खुला ईश का द्वार है
मुक्ति के बिन सकल विश्व निस्सार है

चाहती हूँ मिले मेंहदी की महक
हर कदम पर बिछा तप्त अंगार है

वासना से भरी है मचलती लालसा
मुश्किलों से मिला अब यहाँ प्यार है

जाल में फँसा तड़पाता ये मानव 
चाँदनी को निगलता निशा का प्यार है

बिन जपे विष्णु को चैन मिलना नहीं
मुक्ति की कल्पना भी निराधार है 
     ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

लघुकथा : छुट्टीवाली चाय

लघुकथा : छुट्टीवाली चाय
( कुछ खनकती ,कुछ ठनकती सी )😅😅

एक अलसायी सी छुट्टी वाली सुबह ...

"सुनो ,चाय पियोगी ... मैं बनाऊँ आज holiday special ... 😊"

"अरे वाह ! ...  😀"

"कौन सी बनाऊँ .... 🤔
ग्रीन टी ,लेमन टी ,ब्लैक टी ,जिंजर टी ,मिंट टी ,इलायची वाली या फिर वही नॉर्मल वाली .. "

 "क्या कहा ,white tea .... ठीक ठीक ... अरे हाँ ! दूध कौन सा पावडर वाला या पैकेट वाला या फिर टेट्रा पैक ले आऊँ ... अरे बताओ न तुम्हारी पसन्द की बनाऊंगा तुम भी क्या याद रखोगी ... 😊"

थकी सी आवाज में जवाब : "कोई सी भी , यार मैं तो इतना सोचती ही नहीं ।"

वापस पलटते हुए .... "अरे मैं तो पूछना ही भूल गया था ... चलो अबसे बता दो न .... कि चाय कप मे पियोगी या मग में , कप स्टील वाला या चीनी मिट्टी का,कप के नीचे प्लेट चाहिये या नही .... "

"साथ में बिस्किट कौन सा मीठा या नमकीन ,या फिर फिफ्टी - फिफ्टी ... या फिर छोड़ो रस्क ही ले आता हूँ ... "

"और हाँ चाय मे चीनी एक चम्मच या दो चम्मच ... सुनो सुनो चीनी पहाड़ बनाये हुए चम्मच से तो नहीं चाहिये .....देखो पहले ही पूछ लेना चाहिये नहीं तो तुम्हारे टेस्ट की कैसे बना पाऊंगा ....  :-)"

पकी सी आवाज में जवाब : "सुनो न मैंने चाय पीना छोड़ दिया है । आप आज भी आफिस चले ही जाओ 😈😈😈😴😴😴 "
                  ..... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"