सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

कहानी : मन्ज़िल


मन्ज़िल


विभा जैसे ज़िंदगी की जद्दोजहद से उबर कर शांत हो चुकी थी । वैभव की तरफ देखते हुए उसने पूछा ,"ले आये न ... कोई दिक्कत तो नहीं हुई न ... कोई उल्टे सीधे प्रश्न तो नहीं किये गए तुमसे ? " 


वैभव ने इंकार में सिर हिलाया । दोनों शांत बैठे ,बालकनी से झूमते पेड़ - पौधों को देखते रहे । सभी चीजें यथावत थीं । पंछियों का कलरव गुंजित हो रहा था ,दोस्तों संग बच्चे भी खेल रहे थे । वो वहाँ हैं या नहीं, इस पर किसी का जैसे ध्यान ही नहीं जा रहा था ।


"विभा ! हम सही कर रहे हैं न ... तुम चाहो तो एक बार और सोच लो ,कहीं ऐसा न हो कि मेरा साथ देने के चक्कर में तुम हड़बड़ी कर रही हो ",वैभव ने विभा का हाथ थामते हुए कहा ।


विभा की आँखों में शून्य फैलता गया ," नहीं वैभव यह निर्णय हमारा है, हममें से किसी एक का नहीं । जीवन के प्रत्येक उतार चढ़ाव में हम साथ रहे हैं ,फिर अब यह संशय क्यों कर रहे हो ? जानते हो अब से पहले मेरे मन में हर पल एक उलझन ,एक डर भरी उत्तेजना रहती थी ,परन्तु अब इस पल में सब कुछ इतना शांत और स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि किसी भी तरह के पुनर्विचार के लिए स्थान बचा ही नहीं । सच पूछो तो अभी बस एक विचार गूँज रहा है कि ऐसी शान्ति पहले क्यों नहीं थी ! पर छोड़ो ,अब सब ठीक है । "


थोड़ी देर तक सिर्फ सन्नाटा ही अपने पर फड़फड़ाता रहा । अचानक ही वैभव घुम कर पूछ बैठा ,"सब के पैसे तो दे दिए हैं कि नहीं ... कुछ बचा क्या ?"। विभा के अधरों पर हल्की सी स्मित लहरा गयी ,"ज़िन्दगी के इतने सारे उधार चढ़ गए हैं कि बस किसी प्रकार सबका हिसाब कर दिया । अभी भी थोड़े ... बहुत थोड़े पैसे बचे रह गए हैं । बताओ मैं किसी का हिसाब भूल रही हूँ क्या ? "


उसने सारी दुनिया का प्यार भरी आँखों से विभा को देखा ,"ज़िन्दगी से तो पहले भी बहुत कुछ नहीं चाहा था और अब भी एक बहुत छोटी सी चाहत जग गयी है । आज आखिरी बार तुम्हारे साथ तुम्हारी पसन्दीदा दुकान पर तुमको गोलगप्पे खिलाना चाहता हूँ । "


एक निश्चय भरे विश्वास से विभा ने वैभव का हाथ पकड़ा और वो दोनों घर से निकल गए । आज सड़क पर कुछ ज्यादा ही भीड़ थी ,आज प्रतिमा विसर्जन का दिन जो था । सभी तरफ़ अबीर और गुलाल के बादल उड़ रहे थे । कहीं - कहीं तो सिंदूर खेला जा रहा था । आसपास के पण्डालों के सामने गाड़ियाँ खड़ी थीं प्रतिमाओं को लेकर जाने के लिए । सच ईश्वर भी जब स्थूल रुप से इस पृथ्वी पर आते हैं तब उनको जाना ही पड़ता है ,फिर इन्सानों की क्या बात करें ,यही सोचते दोनों चौराहे से मुड़ने को हुए ही थे कि सामने से आती ट्राइसिकल से टकरा गए । उन्होंने उठते हुए देखा कि उस ट्राइसिकल पर बैठा व्यक्ति स्वयं को सम्हालने के स्थान पर उनको सम्हालने के लिए हाथ बढ़ा रहा था । झुंझलाहट से भरे वैभव ने उस पर अपनी भड़ास निकालनी चाही कि पहले वह खुद को सम्हाले तब उनकी सहायता करे । वह व्यक्ति हँस पड़ा ,"अरे भाई ! यदि किसी की सहायता करने से पहले स्वयं के उठने की राह देखूँगा तब तो मैं किसी की भी सहायता कर ही नहीं पाऊँगा । मैं तो दिव्यांग हूँ और कभी भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता । " 


उसको देख कर वैभव और विभा विस्मय से भर उठे ,"इतने विवश हो कर भी तुम हमको उठाने का साहस कैसे कर ले रहे हो !" 


वह हँस पड़ा ,"एक समय था जब नौकरी छूटने और सब कुछ गवां कर ,परेशान हो कर स्वयं को समाप्त करने निकल पड़ा था और यही सोच रहा था कि मैं तो एक बहुत मामूली सा आम आदमी हूँ जिसके रहने अथवा न रहने से किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और कोई कभी याद भी नहीं करेगा ... पर जानते हो मैं मर नहीं पाया । स्वयं को समाप्त करने के प्रयास में हुई दुर्घटना में मेरे पैर बेकार हो गए । मैं और भी लाचार हो गया परन्तु तभी कुछ ऐसे अपने ,जिनके बारे में मैं सोचना भी भूल गया था , उन की आँखों में छलकती हुई नमी ने मेरे राह को नमी की दृढ़ता दी । मुझे समझ आया कि जानेवाला तो एक पल में ही चला जाता है परन्तु बहुत से लोगों की यादों में ज़िन्दगी भर की नमी दे जाता है । बस उसी पल मैंने शून्य से प्रारम्भ किया ... और देखो आज बिना किसी संकोच के चौराहे पर अगरबत्ती बेच रहा हूँ । हँस भी रहा हूँ और गिरने के बाद स्वयं से पहले दूसरों को उठाने का प्रयास करता हूँ । मेरी छोड़ो तुम लोग बताओ कहाँ जाना है ? मैं तुम लोगों को वहाँ तक ले चलता हूँ ।"


विभा और वैभव ने एक दूसरे को देखा और बोल पड़े ,"दोस्त ! अब हमको ज़िन्दगी की तरफ़ जाना है ।" #निवी

सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

संस्मरण : पहली यात्रा

जब भी यात्रा की बात होती है ,तब सबसे पहली याद जिस स्थान की यात्रा की आती है ,सम्भवतः उस स्थान का नाम भी बहुत कम लोगों को ही पता होगा । यह भी बहुत बड़ा सच है कि उस यात्रा के बाद अनगिनत स्थानों पर गई हूँ पर उतना आनन्द और रोमांच किसी बार भी नहीं मिला । आज यात्रा की बात ने फिर से यादों के गलियारे उन्ही लम्हों की धूल बुहार दी ।


जमींदारी समाप्त होने के दौर में पुरखों की जमींदारी का विशाल साम्राज्य सिमटते हए ,बाबा के समय तक एक गाँव मलौली ,जो कि गोरखपुर के पास ही था ,तक पहुँच गया था । वहाँ की हमारी पुरखों की डेहरी से मम्मी को बहुत लगाव था । जीर्णोद्धार कहना या सोचना भी उनको असम्भव कल्पना लगती थी ,तो उनके मन में उस को सँवारने की प्रबल इच्छा जगी और उसको पूरा भी किया ।


देहरी पूजने जाने का कार्यक्रम भी वृहत स्तर पर बना । सभी रिश्तेदारों को बलिया ,उस समय पापा वहाँ पोस्टेड थे बुलाया गया और सबके साथ यात्रा हुई । मैं बहुत ही छोटी थी और सिर्फ़ इतना ही समझ आया कि बाबा ,जो कि तब तक गोलोकवासी हो चुके थे ,के पैर छूने जाना है ।


आज से दशकों पहले की बात है कई कार की व्यवस्था हुई और उससे हम सब बलिया से गोरखपुर की कौड़ीराम तहसील पहुँचे । उसके बाद मलौली तक का रास्ता हमको बैलगाड़ी ,पालकी और रथ पर करना था । सभी स्त्रियाँ पालकी में , बाकी के सब रथ पर और सामान बैलगाड़ी पर और इस पूरे काफ़िले को अपने सुरक्षा घेरे में ले कर ,बड़ी - बड़ी लाठियाँ लिए हुए लठैत चल रहे थे । पहले तो मुझे भी पालकी में ही बैठाया गया था परन्तु मेरे बालमन को रथ का लालच जगा और भाइयों के साथ मैं भी वहीं पहुँच गयी । सारे रास्ते आनेवाले पेड़ - पौधों के बारे में पूछ - पूछ कर अपने जंगली कक्का का दिमाग उलझाये रखा मैंने और वो भी मजे लेते मेरी जिज्ञासा शांत करते रहे । 


पुरखों की डेहरी पहुँचने पर वहाँ उमड़े लोगों का प्यार और सम्मान का भाव मुझ नासमझ को भी अभिभूत कर गया । जब तक हम वहाँ रहे उनलोगों ने हमें अपनी पलकों पर रखा । पापा मम्मी ने भी उनकी बहुत सारी समस्याओं को सुलझाया । 


वापसी की यात्रा भी इतनी ही रोमांचक थी परन्तु कहीं न कहीं विछोह का भाव हमारे दिलों से उमड़ कर पलकों के रास्ते बह चला था । 


सम्भवतः मैं अपनी अन्तिम साँस तक इस यात्रा के अनुभव और वहाँ मिले दुलार को कभी भूल नहीं पाऊँगी । #निवी

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

कितना सफर है बाकी ...

 कितना सफर है बाकी 

कहाँ तक चलना होगा

कहाँ ठिठकनी है साँस

बांया ठिठका रह जायेगा 

या दाहिना चलता जायेगा !


फिर सोचती हूँ

क्यों उलझ के रह जाऊँ

गिनूँ क्यों साँस कितनी आ रही

आनेवाली साँस को नहीं बना सकती

गुनहगार जानेवाली साँस का !


ऐ ठिठकते कदम ! 

गिनती भूल चला चल

पहुँचने के पहले क्यों सोचूँ

अभी बाकी कितनी है मंज़िल !


जब तक चल सकें चलते रहें

सुर - ताल का अफसोस क्यों करें 

थामे हाथों में हाथ रुकना क्या 

तुम रुको तो मैं चलूँगी

मैं रुकूँ तो तुम चलना 

सफ़र तो सफ़र ही है !


सफ़र मंज़िल की नहीं सोचता 

सफ़र तो बस देखता है राही 

चलो हमराही बन चलते जायें

मंज़िल जब आनी है 

आ ही जायेगी

क्षितिज पहला कदम किसका क्यों सोचें ! #निवी

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

संस्मरण : गलियाँ बचपन की


 आज सुबह सुबह बचपन की गलियाँ मन से चलती हुई आँखों पर पसर गयीं हैं, जैसे रातभर का सफर करती आयीं हों ... 


याद आ रही है नानी माँ की बनाई गुड़िया जिसको सहेजे पूरे घर में फुदकती रहती थी ... भाई को पढ़ाने आनेवाले चाचा ( तब घर आनेवाला कोई भी व्यक्ति चाचा / मामा / भइया / दीदी / चाची / बुआ ही होते थे सर या मैम नहीं ) जो भाई को पढ़ाते पढ़ाते आवाज देते " क से ... " और मैं जहाँ भी होती चिल्लाती "कबुत्तर ,उड़ के गया उत्तर " ... थोड़ी ही पल बीतते फिर से उनकी आवाज आती "ख से ...."  और मैं फिर दुगने जोश से "खड़ाऊँ ,पहन जाऊँ खाऊँ .... "  और इस तरह पूरी वर्णमाला बिना स्लेट चॉक को हाथ लगाये रट गयी थी ।


याद आ रही हैं कक्को बर्तन माँजते माँजते उठ कर मम्मी के पास जाती ,"दुलहिन तनी ऊन दिहल जाए ... " फिर झाड़ू की दो मजबूत दिखती सींक निकाल मुझे थमा स्वेटर बुनना सिखातीं और मैं छोटी छोटी उंगलियों से बुनने की कोशिश करती उनकी पीठ से सटी हुई । सींक टूटते ही फिर से नई सिंक मिलती ... 


अरे हाँ .... गामा काका को कहाँ भूल सकती हूँ ... हमारे गाँव के थे घर में सहायक ,दरवाजे पर कौन आया देखने वाले । जब भी वो भर परात ,जी हाँ थाली में नहीं परात में ही ,खाना खाने बैठते तब मैं भी मम्मी से जिद करती मेरा खाना भी वैसे ही भर परात परोसा जाए । मम्मी बहला कर ले जाती ,पर मेरी जिद .... और एक दिन काका ने कहा ,"चाची बहिनी के छोड़ देईं " और अपना खाना उन्होंने मेरी तरफ सरका दिया ,"पहले बहिनी खा लें तब खा लेब ..." मम्मी ने टोका कि खाना जूठा हो जाएगा ... काका का जवाब आज भी याद है ,"नाहीं चाची बहिनी क खाइल त परसाद होइ ... "


जंगली बब्बा ,हमारे यहाँ खेत में काम करते थे ,को भी मम्मी गाँव से लायीं थीं कि इतने बुजुर्ग हैं ,इनको भी आराम करना चाहिये और ये गाँव मे तो बैठेंगे नहीं पर यहाँ हम बच्चों में व्यस्त रहेंगे । कभी वो अमरूद के बीज निकाल कर छोटे छोटे टुकड़े कर खिलाते तो कभी गन्ना छील कर उसको चूसना सिखाते ,जब हम उसको तोड़ न पाते तो उसके भी छोटे टुकड़े कर देते थे । मम्मी के धमकाने की परवाह किये बिना ,उनकी पीठ पर लदी उनसे गाना सुनती थी । सीता जी का विदाई गीत अक्सर गाते और भीगी पलकों से मुझे निहारते कहते ,"बबुनी रउवां जब ससुरे जाइब त हम कइसे रहब .. "


सच बचपन की याद में मम्मी ,पापा ,भाइयों के साथ इन रिश्तों का भी बसेरा है ,जो आज भी बहुत याद आता है .... #निवी

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2021

गिर के फिर मैं उठ गई !

 सब पूछते रहते

सुनो न !
तुम क्या करती हो ?
अनसुना करने की
एक नामालूम सी कोशिश
और जवाब में
सिर मेरा झुक जाता
नहीं ... कुछ नहीं करती !

एक दिन लड़खड़ा गया पाँव
दिन में दिखते चाँद तारे
बिस्तर में पड़ा शरीर
साथ ही चन्द जुमले
सुनो ! मत उठना तुम
वैसे भी क्या करना ही होगा
स्विगी करती कुछ आवाज़ें
घर मे नित बढ़ती संख्या सहायकों की !

लोग आने लगे कई
पर सुनो न घर ,अब घर सा नहीं लगता
सुनो ! अब उठ जाओ
बेशक कुछ मत करना
पर अब उस कुछ न करने के लिए
बस तुम उठ ही जाओ
गूँज रहे थे बस यही चन्द शब्द
और बस फिर कुछ नहीं हुआ
सच ... खास कुछ नहीं हुआ
सिर्फ़ और सिर्फ
गिर के फिर मैं उठ गई ! #निवी