शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

पारलौकिक अनुभव

पारलौकिक अनुभव


लोक-परलोक का विचार मात्र ही, मुझको बहुत रोमांचित कर जाता है। घर में सब बताते थे कि बचपन में भी, जब बच्चे गुड्डे गुड़िया खेलते हैं, तब भी मैं कभी पापा मम्मी के, तो कभी घर में सहायक काका को अपने सवालों से परेशान करती थी कि भगवान कहाँ हैं, दिखते क्यों नहीं, पड़ोसी के शरीर के शान्त होने पर के सवाल ... वगैरह! उस समय काका ने समझाया था कि भोलेनाथ से पूछो,उनके पास प्रत्येक प्रश्न का उत्तर रहता है। बस तभी से भोलेनाथ जपने लगी। मेरे प्रत्येक कठिन समय में भी उन्होंने मेरी उँगली थामे रखी और न जाने कितने अनुभव कराये, कभी शिशु भाव से तो कभी मित्र भाव से ... कभी-कभी तो मातृ भाव भी। मुझे लगता कि मुझको तो देवा प्रत्येक कठिनाई से निकाल लायेंगे और सारी तीक्ष्णता स्वयं पर ले लेंगे, परन्तु मैं पीड़ित होती थी कि यदि मैं इतनी परेशान हो जाती हूँ तो उनको कितना कष्ट पहुँचता होगा। 


बहरहाल भोलेनाथ की स्नेहिल छाया तले जीवन ऐसे ही अनुभवों से बीत रहा है। बहुत सारी घटनाओं में से एक घटना साझा कर रही हूँ।


कुछ वर्षों पूर्व, २६ जनवरी को पापा को दिल का दौरा पड़ा था, उस समय वो दिल्ली में ही रहते थे, मेरे छोटे भाई के साथ। मेरे सारे भाई भी वहीं थे। उस दिन ट्रैफिक डायवर्जन इतना ज्यादा रहता कि कहीं भी पहुँचना बहुत मुश्किल होता था। दूसरे भाई, जो डॉक्टर हैं, ने बहुत प्रयास किया कनॉट प्लेस रेलवे हॉस्पिटल, जहाँ के वो इंचार्ज थे, ले जाने का परन्तु एम्बुलेंस को भी बार-बार रोक दिया जा रहा था। बहरहाल पास के नर्सिंग होम में पापा को एडमिट किया गया। अमित जी बाहर पोस्टेड थे और मैं बच्चों के साथ लखनऊ में, इसलिये मुझको बहुत बाद में बताया। दो फरवरी की सुबह अमित जी अपने सहायक के साथ आये तो पहली बार बच्चों को घर पर अकेले छोड़ पापा से मिलने भागी थी। दो दिन पहले पापा घर आ गए थे। जब पापा को देखा तो लगा अब देखभाल से ठीक हो जाएंगे और भाभियों के साथ उनकी डाइट चार्ट बनाया। 


दो फरवरी की रात को वापसी थी हमारी ... पापा को प्रणाम करने के बाद मम्मी की तस्वीर को भी प्रणाम किया और पापा से कहा,"अगली बार मम्मी की यह तस्वीर बदल देंगे,इसमें वो बहुत उदास और रुआँसी सी लगती हैं।" यह कहती हुई तसवीर की तरफ पलटी तो मैं एकदम चौंक गयी उस पल मम्मी की वही तसवीर बहुत खुश, खूब खिलखिलाती हुई लग रही थी। भाइयों से ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा कि उनको ऐसा नहीं लगा। 


हम स्टेशन चले गये और जैसे ही ट्रेन ने अपनी गति तीव्र करते हुए स्टेशन छोड़ा ही था कि भाई का फ़ोन आ गया कि पापा नहीं रहे ... तीव्र गति से दौड़ती ट्रेन में, हम हतप्रभ से बैठे रह गए। सहयात्रियों ने सलाह दी और हम गाजियाबाद उतर कर टैक्सी से वापस भाई के घर पहुँचे तब घर में एक अलग सी खुशबू भरी थी और मम्मी की तस्वीर चमक रही थी। अब मुझे उनकी उस उदास सी तस्वीर पर छाई खुशी का रहस्य समझ आ रहा था🙏

निवेदिता श्रीवास्तव निवी

लखनऊ

सोमवार, 21 नवंबर 2022

पिंजरा


पिंजरा ... सोचिए तो कितना बहुआयामी शब्द अथवा वस्तु है। दुनियावी दृष्टि से देखें तो सबसे पहले पक्षियों का पिंजरा ही याद आता है, उसमें भी मिट्ठू (तोते) का, जो बहुत ही शीघ्रता से अपनी टाँय-टाँय छोड़ कर जिस परिवेश में रहता है, उसी में ढ़ल कर वहीं की भाषा बोलने लगता है। 

दूसरा पिंजरा याद आता है सबसे बलशाली पशु शेर का। जरा सोच कर देखिये कि जंगल का राजा शेर, जो तामसी और आक्रामक प्रवृत्ति का होता है पिंजरे में बन्द होते ही, अपनी सहज स्वाभाविक गर्जना भूल कर रिंगमास्टर के चाबुक के इशारों पर नतशीश हो दहाड़ने की इच्छा को उबासी में बदल देता है।

बहुत छोटे एवं निरीह तोते से ले कर सर्वाधिक शक्तिशाली शेर, पिंजरे में अर्थात बंधन में पड़ते ही अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति भूल जाते हैं। एक निश्चित परिधि में ही वो घूमते हैं, निश्चित आहार लेते हैं और सबसे बड़ी बात कि पिंजरे के मालिक के प्रति समर्पित हो जाते हैं। यही समर्पण भाव उनको सुनिश्चित जीवनचर्या दिलाते हुए भी स्वाभाविकता से बहुत दूर ले जाता है। परन्तु जिस भी पल उनको अपनी वास्तविक स्थिति का आभास होता है, उसी पल से वो मुक्त होने का प्रयास करने लगते हैं।

पशु पक्षियों से इतर, हम सभी मनुष्य विभिन्न स्तर एवं प्रकार के विवेक से सम्पन्न हैं। दूसरों के जीवन, उनकी जीवन शैली, गुण-दुर्गुण सभी की विवेचना, या कह लूँ आलोचना करते हैं परन्तु अपने तन एवं मन के पिंजरे के विषय मे सोचने के बारे में भी, नही सोचते हैं।

ईश्वर हमारे तन के पिंजरे में एकदम मासूम फ़ाख्ता सा निष्कलुष मन दे कर भेजता है। अन्य पशु-पक्षियों की भाँति ही जिस परिवेश में तन रहता है, मन भी उसी के अनुसार ढ़लता जाता है। वातावरण को आत्मसात करने की इस पूरी प्रक्रिया में अपनी शुभ्रता को मलिन करता हुआ,प्रतीक्षा करता है कि कोई अन्य आ कर पिंजरे की तीली तोड़ कर, उसको स्वतंत्र कर देगा ... परन्तु व्यवहारिकता के धरातल पर यदि देखा जाए तो पहला प्रयास तो हमको स्वयं ही करना होगा। माया-मोह की दलदल में फँसे होने और छूटने के लिए स्वयं को आत्मशक्ति में स्थिर करना ही पड़ेगा,अन्यथा प्रत्येक आने-जाने वाले की तरफ हाथ फेंकते-फेंकते उसी दलदल की असीम गहराइयों में समा कर दम तोड़ देंगे।

उत्तरदायित्वों से भागना नहीं है और न ही उनमें सदैव लिप्त रहना है, अपितु निस्पृह भाव से उनको पूरा करना है। साथ ही साथ आत्मचेतना को जागृत करने के लिए अतमन्थन करना होगा। तभी तन के पिंजरे के जीर्ण होने पर, मन का पक्षी शुभ्रता के साथ परम सत्ता के अपने स्वाभाविक परिवेश में मन मस्त मगन सा जाएगा।

निवेदिता श्रीवास्तव निवी

#लखनऊ

बुधवार, 16 नवंबर 2022

वृंदावन बनता मन !


मन बहुत अशांत सा, न जाने कितनी चाहतों से छलकता  और भटकता, प्रत्येक प्राप्य-अप्राप्य की तरफ़ लपकता ही जा रहा है। कभी अतल गहराइयाँ दिखती हैं तो कभी सन्नाटा भरता दम तोड़ता सुकून। एक अलग ही गुंजल में, भँवर में डूबता जा रहा था कि विह्वल से मन में वंशी की धुन तैर गयी ...

अहा कान्हा! तुम आये हो हाथ थामने !
अब जब तुमने सहारा दिया ही है तो ऐसे ही थामे रखना, कहीं ऐसा न हो कि हवा चलने पर मोर पंख सी उड़ जाऊँ या सूख जाने पर चढ़े हुए पुष्पों सी हटा दी जाऊँ। बस अब तो अपनी मुरली जैसे स्नेह से ही सदा साथ रखना, कभी आशीष देती उँगलियों की थपकन में तो कभी कटि में सज्ज कर आसरा देते स्पर्श में। किसी मायाजाल में उलझ, भटक कर कहीं चले जाने पर वापस लाने के लिए भी उतने ही विकल हो स्वयं में समाहित कर लेना।
जानती हूँ कान्हा बहुत मुश्किल होता है बांसुरी बनना क्योंकि बांसुरी बनने के पहले वो महज एक बांस का टुकडा ही रहती है। उसमें बहुत से विकार रहते हैं। जब उस टुकडे को साफ़ कर अदंर से सब कलुषता हटा कर संतुलित स्थान पर छिद्र करते हैं, जिससे अंदर कहीं भी कलुष न रह जाये, तब उसको बांसुरी का सुरीला रूप मिलता है। तब भी उसमें से मधुर स्वर तभी निकलते हैं , जब कोई योग्य व्यक्ति उसको  स्पर्श करता है। अगर अयोग्य के हाथ पड़ी तो तीखे स्वर ही निकलेगें।

ऎसे ही मन से आत्मा से समस्त कलुष-विकार हटा दें, तब वह निर्मल भाव बांस का एक पोला टुकडा  बनता है । इस टुकडे में मन की, कर्म की, नीयत की सरलता , सहजता एवं सद्प्रवॄत्तियों को आत्मस्थ करने पर मन रूपी बांस के टुकडे पर संतुलित द्वार बनते हैं। इन्ही द्वारों से आने वाले सद्विचार एवं सत्कर्म हमें परमेश्वर रूप निपुण वंशीवादक से मिलाते हैं , जो हमारी मन वीणा को झंकॄत कर मीठी स्वरलहरी से भावाभिभूत करते हैं और मन बांसुरी सा वॄंदावन बन जाता है। मन को बांसुरी बनाने पर ही वॄंदावन दिखता है ।
चल रे मनवा वृंदावन बन जा ❤️

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

शनिवार, 12 नवंबर 2022

धर्म निरपेक्षता


धर्म हमारे जीवन में इस हद तक रच बस गया है कि उसके विषय में कुछ भी सोचे या विवेचना किये बिना ही अंधानुकरण करते रह जाते हैं और एक दिन उसके चक्रव्यूह में उलझे चल देते हैं इस दुनिया से। कभी सोच के देखा ही नहीं कि धर्म है क्या तो धर्म निरपेक्षता का दावा कैसे कर सकते हैं, यद्यपि खोखला वादा और दावा दोनों ही कर के हम आत्मिक शान्ति अनुभव करते हैं। 

धर्म की प्रचलित मान्यता के अनुसार हम इसको विभिन्न अनुष्ठानों में बाँध कर मन्दिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारा तक सीमित कर देते हैं, जबकि धर्म तो अंतरात्मा से जुड़ा हुआ होना चाहिए। जब हम इस अवस्था में पहुँच जाते हैं तब सबको स्वयं सा मान कर सबके लिए भी संवेदनशील हो जाते हैं, न कि सिर्फ़ अपनी विचारधारा को वरीयता देकर अन्य की उपेक्षा करेंगे। 

धर्म निरपेक्षता का गूढ़ अर्थ यह कभी नहीं है कि हम अपनी प्रचलित धार्मिक परम्पराओं / मान्यताओं का पालन करने के साथ ही दूसरों को उनकी धार्मिक परम्पराओं / मान्यताओं का पालन करने की स्वतंत्रता देते हैं। सच पूछिये तो दूसरों को यह स्वतंत्रता देने के हम अधिकारी न तो हैं और न ही कभी हो सकते हैं। 

मेरे विचारानुसार धर्म निरपेक्षता का सीधा और स्पष्ट मर्म यही है कि दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप किये बिना ही, प्रत्येक व्यक्ति (एक ही परिवार के भी स्त्री-पुरूष दोनों ही) अपने विवेक के अनुसार और सुविधा के अनुसार आत्मिक शान्ति अनुभूत करे।

धर्म निरपेक्ष होने के लिए धर्म की आत्मा को समझना आवश्यक है क्योंकि धर्म का मर्म ही संवेदनशीलता है।

निवेदिता श्रीवास्तव निवी 

लखनऊ

सोमवार, 7 नवंबर 2022

लघुकथा : विवश प्रकृति

तन के साथ ही मानो साँसें भी थक चलीं थीं।डूबती सी निगाहों ने ईश्वर को आवाज़ दी,"तेरे इस जहाँ की रवायतों से मन भर कर, ऊब चुका है। अपना वो जहाँ दिखा दे अब तो।"

सन्नाटे को बेधती सी दूसरी आवाज़ कंपकपा उठी,"ऐसा क्यों कह रहे हो ... अभी तो बहुत कुछ है करने को, बहुत से लम्हे आनेवाले हैं जीने को ... "

लड़खड़ाती सी आवाज़ लरज़ गई,"मैं तो अपने लिए कह रहा हूँ। "

"पूरी ईमानदारी से अपने मन से पूछो कि तुम्हारे बाद ये लम्हे क्या सच में मुझको देख पाएंगे",निगाहें निगाहों का रास्ता रोकने को चंचल हो उठी थीं,"नयनों की ज्योति ही उनको बहुत कुछ दिखाती है वरना तो काला चश्मा ही रह जाता है।"

वेदना की भी मानो रूह बिलख पड़ी,"पर जब यही आँखें नहीं होती हैं तो ये काला चश्मा निरर्थक सा उधर लुढ़कता रहता है। आवश्यक तो दोनों का साथ रहना ही है परन्तु प्रकृति की अनिवार्यता के सामने आने पर दूसरे को भी परम गति जल्दी मिल जानी चाहिए!"

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'