बुधवार, 16 नवंबर 2022

वृंदावन बनता मन !


मन बहुत अशांत सा, न जाने कितनी चाहतों से छलकता  और भटकता, प्रत्येक प्राप्य-अप्राप्य की तरफ़ लपकता ही जा रहा है। कभी अतल गहराइयाँ दिखती हैं तो कभी सन्नाटा भरता दम तोड़ता सुकून। एक अलग ही गुंजल में, भँवर में डूबता जा रहा था कि विह्वल से मन में वंशी की धुन तैर गयी ...

अहा कान्हा! तुम आये हो हाथ थामने !
अब जब तुमने सहारा दिया ही है तो ऐसे ही थामे रखना, कहीं ऐसा न हो कि हवा चलने पर मोर पंख सी उड़ जाऊँ या सूख जाने पर चढ़े हुए पुष्पों सी हटा दी जाऊँ। बस अब तो अपनी मुरली जैसे स्नेह से ही सदा साथ रखना, कभी आशीष देती उँगलियों की थपकन में तो कभी कटि में सज्ज कर आसरा देते स्पर्श में। किसी मायाजाल में उलझ, भटक कर कहीं चले जाने पर वापस लाने के लिए भी उतने ही विकल हो स्वयं में समाहित कर लेना।
जानती हूँ कान्हा बहुत मुश्किल होता है बांसुरी बनना क्योंकि बांसुरी बनने के पहले वो महज एक बांस का टुकडा ही रहती है। उसमें बहुत से विकार रहते हैं। जब उस टुकडे को साफ़ कर अदंर से सब कलुषता हटा कर संतुलित स्थान पर छिद्र करते हैं, जिससे अंदर कहीं भी कलुष न रह जाये, तब उसको बांसुरी का सुरीला रूप मिलता है। तब भी उसमें से मधुर स्वर तभी निकलते हैं , जब कोई योग्य व्यक्ति उसको  स्पर्श करता है। अगर अयोग्य के हाथ पड़ी तो तीखे स्वर ही निकलेगें।

ऎसे ही मन से आत्मा से समस्त कलुष-विकार हटा दें, तब वह निर्मल भाव बांस का एक पोला टुकडा  बनता है । इस टुकडे में मन की, कर्म की, नीयत की सरलता , सहजता एवं सद्प्रवॄत्तियों को आत्मस्थ करने पर मन रूपी बांस के टुकडे पर संतुलित द्वार बनते हैं। इन्ही द्वारों से आने वाले सद्विचार एवं सत्कर्म हमें परमेश्वर रूप निपुण वंशीवादक से मिलाते हैं , जो हमारी मन वीणा को झंकॄत कर मीठी स्वरलहरी से भावाभिभूत करते हैं और मन बांसुरी सा वॄंदावन बन जाता है। मन को बांसुरी बनाने पर ही वॄंदावन दिखता है ।
चल रे मनवा वृंदावन बन जा ❤️

निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

लखनऊ

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